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My Editorials - Dr Sharad Singh

Thursday, March 31, 2022

बतकाव बिन्ना की | सल्ल ने होए सो गल्ल काए की? | डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम | सा. प्रवीण प्रभात


प्रिय मित्रो, "बतकाव बिन्ना की" अंतर्गत प्रकाशित मेरा लेख प्रस्तुत है- "सल्ल ने होए सो गल्ल काए की?" साप्ताहिक "प्रवीण प्रभात" (छतरपुर) के मेरे बुंदेली कॉलम में।
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बतकाव बिन्ना की
सल्ल ने होए सो गल्ल काए की?
- डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
                                  
‘‘का सोच रए भैयाजी?’’ भैयाजी सोचत भए दिखाने औ मोए उने पिंची करबे की सूझी, ‘‘आप खों देख के मनो ऐसो लग रओ के आप अभई अभई पचमढ़ी के चिंतन शिविर से चले आ रए हो।’’
‘‘हमें को पूछ रओ उते।’ भैयाजी मों सो बनात भए बोले।
‘‘नई, मैंने तो ऊंसईं पूछ लई, काए से के आज-कल्ल सो हैशटैग में जो कछु ट्रेंड करत आए वोई सबई जांगा चलत आए। मैंने सोची के आप सोई चिंतन शिविर के ट्रेंड पे चल रए हो।’’ मैंने भैया जी से कही।
‘‘जे ट्रेंड-मेंड हमें नईं पोसात। हम तो इत्तई जानत आएं के सल्ल नईं सो गल्ल नईं।’’ भैयाजी बोले।
‘‘ईको का मतलब? मोए कछु समझ में ने आई।’’ मोए वाकई कछु समझ में ने आई के भैयाजी कहो का चात आएं।
‘‘हम जे सोच रए बिन्ना के जिनगी में जो सल्ल ने होए तो जिनगी तो झंड कहानी।’’ भैयाजी जे बोलत भए मोए बो दासर्निक अरस्तू के फादर घांई दिखाने। मोरो सर चकरा गओ। जे भैयाजी खों का हो गओ जो ऐसी बात कै रए।
‘‘आपकी तबीयत तो सही आए भैयाजी? कहूं डाक्दर खों दिखाबे के लाने सो नईं चलने?’’ मैंने पूछीं
‘‘नईं, कहूं नई जाने। मोरी तबीयत को कछु नईं भओ। बाकी जे ई सोच बेर-बेर आ रई के हमाए बुंदेलखंड को सल्ल से कभऊं पीछो नईं छूट सकत आए।’’ भैयाजी बोले।
‘‘कौन सी सल्ल?’’
‘‘एक होए सो कही जाए, इते तो सल्लई सल्ल आएं।’’ भैयाजी बोले।
‘‘एकाध सो बताओ।’’ मैंने सोई जिद पकर लई।
‘‘अब का कहों बिन्ना, इब्राहिम लोदी हतो सो इते लो धड़धड़ात लो चलो आओ हतो। अकबर हतो तो ऊकी नज़र वा ओरछा वारी नचनारी प्रवीन पे ठैर गई रई। वा तो प्रवीन ने हिम्मत करके ऊको बारी, बायस, श्वान सबई कछु कै दओ रओ, सोे अकबर ने वापस आन दओ। ने तो हमाई प्रवीन खों उतई रैने परतो ओ हमाओ ओरछा सूनो हो जातो। फेर वा  जहांगीर रओ। सो ऊके लाने ओरछा वारन खों पथरा को बड़ो सो प्यालों बनवाने परो। फेर जे ससुरे अंग्रेज हते सो उनकी तो ने कहो। बे तो लुगाईयन से उनको राज छीनबे की जुगत करत भए झांसी पे दांत गड़ात फिरे। बरिया बर के अंग्रेजन से पीछो छूटो सो डाकू हरें दोंदरा देन लगे। मनो का जिनगी पाई अपने जे बुंदेलखंड ने। एक से पीछो छूटो नईं के दूसरो मूंड पे ठाड़ो।’’ भैयाजी सांस लेबे के लाने ठैरे।
‘‘ऐसी सल्ल सो सबई खों भोगने परी आए। औ रही डाकुअन की सो सरकार ने उने मना-मुनू के सरेंडर करा दओ रओ। सो पुरानी बातन पे ज्यादा सोच-फिकर ने करो। ठाले-बैठे ब्लडप्रेशर बढ़ जेहे।’’ मैंने भैयाजी खों समझाई।
‘‘सो का? डाकू बढ़ा गए तो मैंगाई आ गई। पैंले बित्ता भर रई, अब बढ़त-बढ़त सोला हाथ की धुतियन से बी आगूं पोंच गई। तुमे पतो बिन्ना के कोनऊ सब्जी बीस रुपया पऊवा से नीचे नईयां।’’ भैयाजी बोले।
‘‘सो मैंगाई सो सबलों के लाने बढ़ी आए, हमाए-तुमाए भर के लाने नईं।’’ मैंने कही।
‘‘हऔ, कोनऊ सल्ल होए अपने बुंदेलखंड में तुरतई आ जात आए, पर परमेसरी कछु साजी बात होए तो ऊको इते आत भए मुतके बरस लग जात आएं।’’ भैयाजी मों लटकात भए बोले।
‘‘मानें?’’
‘‘मानें जे के अखियां होंए सो कजरा नईंयां, कजरा हैं सो अंखियां नइयां। तुमई सोचो बिन्ना के हमाए इते खजुराहा में हवाईअड्डो है। है के नईं?’’ भैयाजी ने पूछी।
‘‘हओ है।’’
‘‘अपने बुंदेलखंड में बरक-बरक के रेल लाईन मुतकी जांगा आ गई है। बोलो आ गई के ने आ गई?’’
‘‘हौ आ गई।’’
‘‘जेई तो सल्ल आए के जहां एक ठईयां हवाई अड्डा है उते कोनऊं बड़ों उद्योग नईयां, औ जिते रेल आए उते न बड़ी मंडी आए ने डंडी आए। रई खेती-किसानी, सो हमेसई दो असाढ़ दूबरे रए।’’ भैयाजी बोले।
‘‘बात सो संाची कै रए भैयाजी, मनो खजुराहा में पर्यटन को उद्योग सो कहानो।’’ मैंने भैयाजी खों सुरता कराई।
‘‘हऔ, मनो जे बताओ के उत्ते भर से पूरों बुंदेलखंड को का भलो हो रओ? कछु और उद्योग लगो चाइए के नईं?’’ भैयाजी ने मोसे पूछी। बात में दम हती।
‘‘हऔ भैयाजी, कै तो तुम ठीक रए। मनो हमाए नेता हरें कछु करें सो होय।’’ मैंने कही।
‘‘अब जो हम ने मांगबी, सो बे काए देहें?’’ भैयाजी कुढ़त भए बोले।
‘‘अपन ओरें तो कैत ई रैत आएं।’’ मैंने कही।
‘‘हऔ सो, तुमाए हमाए कहे भर से का होने? कछु जनता हरें सो बोलें। उनखों सो फुरसत नईयां व्हासअप्प खेलत से। सुबै भई से गुड़मार्निंग पैल दई, दुफेर भई सो गुड़नून डार दओ, संझा की बिरियां गुड़ईवनिंग औ रात भई से गुड़नाईट, सारी जिनगी हो गई टाईट। सब रे अंग्रेजी चलात आएं औ कैत फिरत हैं के बुंदेली लाओ चाइए। ठेंगा से आहे बुंदेली। हिन्दी सो टिकुलिया घांई बिंदी बन के रै गई, ऊपे बुंदेली कहां से आई जा रई?’’ भैयाजी बमकत भए बोले।
‘‘भौयाजी, आज आपको मूड सही नई कहानों। इतिहास से बुंदेली लों आ गए। सबई सल्ल की घोंटा लगा के लप्सी बना दई। मोए सो कछु समझ में ने आ रई के आज आप कहो का चा रए हो?’’ मैंने भैयाजी से साफ-साफ पूछी।
‘‘हम जा सोच रए बिन्ना! के हमाई जिनगी में जो जे सबईं सल्ल ने होती तो हम का करते? काए के बारे में सोचते? हमाई जिनगी सो भौतई बोर भई जाती। सल्ल आए सो गल्ल आए। रामधई, हमाए इते के नेता सही मायने के नेता आएं। आगूं बढ़ो नई चात औ पीछूं हटो नईं चात। सबई खों अधर में लटकाए फिरत आएं। उते सागर में देख लेओ, दो साल होने खों आ रए मनो तला खों पतोई नईयां। इत्तो बड़ो नोनो सो तला उल्टो खटोला घांई परो है। कबे ऊकी मिट्टी फिकहे, कबे ऊमें फेर के पानी भरहे, कछु पतो नई पड रओ। रई सड़कन की, सो टाटा ने भांटा बना दओ औ खुदी परी सड़कें भर्त घांई दिखा रईं।’’ भैयाजी बोले।
‘‘मनो काम चल तो रओ। बड़ो काम आए सो टेम तो लगहे।’’ मैंने भैयाजी खों समझाओ चाओ।
‘‘काम चलत को मतलब जे नईं आए के चलत जाए- चलत जाए। ऐसो थोड़ी होत आए। जल्दी-जल्दी करो चाइए। हम होते सो टाटा खों टाटा-बाय-बाय कर देते औ दूसरी कंपनी खों ठेका दे देते।’’
‘‘जै ई लाने तो आप नई हो।’’ मैंने हंस के कही, ‘‘आप सो सल्ल की गल्ल करो औ मोए देओ चलबे की परमीसन।’’
अब लों मोए समझ में आ गई हती के भैयाजी सोच-सोच के अपनो टेम पास कर रए। बाकी उने कछु से ने लेबे की ने देबे की। भैयाजी घांई सबई ओरें सल्ल नई मिटन देन चात आएं नईं तो ठेन-ठेन के गल्ल काए की करहें? मोए सोई बतकाव करनी हती सो कर लई। बाकी सल्ल जाने, गल्ल जाने, ठलुआ हरें की ठल्ल जाने। मोए का करने। बतकाव हती सो बढ़ा गई, हंड़ियां हती सो चढ़ा गई। अब अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लों जुगाली करो जेई की। सो सबई जनन खों शरद बिन्ना की राम-राम!
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(31.03.2022)
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