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My Editorials - Dr Sharad Singh

Wednesday, April 13, 2022

चर्चा प्लस | 13 अप्रैल : क्या हम भूल सकते हैं यह तारीख़? | डॉ. (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस  
13 अप्रैल : क्या हम भूल सकते हैं यह तारीख़? - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह                                                                                     
       भले ही वह नस्ल से अंग्रेज था किन्तु उसने भारत की पवित्र भूमि में जन्म लिया था, फिर भी वह नहीं हिचका भारतीय महिलाओं, बच्चों, बूढ़ों और जवानों पर नृशंसता से गोलियां चलवाने में। कैसे कोई इतना कृतध्न हो सकता है अपनी जन्मभूमि के प्रति? लेकिन वह ऐसा ही था। सत्ता के मद में चूर, नृशंस और अंग्रेजों के नाम पर कलंक- जनरल डायर। जिसने 13 अप्रैल का भारतीय इतिहास स्याही से नहीं निर्दोषों के रक्त से लिखा। यह तारीख़ कभी भुलाई नहीं जा सकती है। यही वह तारीख़ है जिसने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का रुख बदल दिया।
परिमल- हीन पराग दाग सा बना पड़ा है,
हां ! ये प्यारा बाग खून से सना पड़ा है।
ओ, प्रिय ऋतुराज ! किंतु धीरे से आना।
यह है शोक -स्थान यहां मत शोर मचाना।
तड़प तड़प कर वृद्ध मरे हैं गोली खा कर,
शुष्क पुष्प कुछ वहां गिरा देना तुम जा कर।
यह सब करना, किंतु यहां मत शोर मचाना
यह है शोक-स्थान बहुत धीरे से आना
- यह पंक्तियां हैं सुभद्रा कुमारी चौहान की कविता ‘‘जलियांवाला बाग में बसंत’’ की।

हम इतिहास की पुस्तकों में पढ़ते हैं जलियांवाला बाग हत्याकांड के बारे में। उस घटना की कल्पना करते ही हमारे रोंगटे खड़े हो जाते हैं। क्या अपने अधिकारों को मांगना इतना बड़ा अपराध था कि हजारों निहत्थों पर गोलियां बरसा दी गईं? यह सत्ता शक्ति की घिनौनी घटनाओं में से एक है। वह वर्ष 1919 का 13 अप्रैल का दिन था, जब जलियांवाला बाग में एक शांतिपूर्ण सभा के लिए जमा हुए हजारों भारतीयों पर अंग्रेज अधिकारियों ने अंधाधुंध गोलियां बरसाई। पंजाब राज्य के अमृतसर जिले में ऐतिहासिक स्वर्ण मंदिर के नजदीक जलियांवाला बाग नाम के इस बगीचे में अंग्रेजों की गोलीबारी से घबराई बहुत सी औरतें अपने बच्चों को लेकर जान बचाने के लिए कुएं में कूद गईं। वहां से बाहर निकलने का रास्ता संकरा होने के कारण बहुत से लोग भगदड़ में कुचल गए और हजारों लोग गोलियों की चपेट में आए।
इतिहास की किताबों में लिखी हुई घटनाओं के परे भी इस घटना पर बहुत सारा शोधात्मक सत्य लिखित रूप में हमारे सामने है जो स्वयं को ‘‘न्यायप्रिय’’ कहलवाने वाली अंग्रेज सरकार के अन्याय की अमानवीय चेहरा सामने लाती है। वे सत्यकथाएं जो जलियांवाला बाग के भुक्तभोगियां ने सुनाई और विभिन्न लेखकों एवं इतिहासकारों ने लिपिबद्ध की। ये संस्मरण भी इन्हें पढ़ने-सुनने वालों आत्मा को कंपाने के लिए पर्याप्त हैं। सन् 2018 में लेखिका किश्वर देसाई की एक पुस्तक प्रकाशित हुई ‘‘जलियांवाला बाग 1919 द रियल स्टोरी’’। इस पुस्तक में से कुछ विवरण साभार यहां दे रही हूं जो पीड़ितों के अनुभव के रूप में हैं-
‘रतन देवी का घर जलियांवाला बाग के इतने नजदीक था कि उन्होंने अपने शयन कक्ष से गोलियों की आवाज सुनी। वो बदहवासी की हालत में दौड़ती हुई बाग पहुंचीं। उन के सामने लाशों का ढ़ेर लगा हुआ था। वो अपने पति को ढ़ूढ़ने लगीं। लाशों को हटाते-हटाते अचानक उनकी नजर अपने पति के मृत शरीर पर पड़ी। थोड़ी देर बाद उन्हें लाला सुंदर के दो बेटे आते दिखाई दिए। उन्होंने उनसे कहा कि वो किसी तरह एक चारपाई ले आएं, ताकि उनके शरीर को घर ले जाया जा सके। उन्होंने मदद करने का वादा किया लेकिन वो लौट कर नही आए। रतन देवी ने एक सिख व्यक्ति से अनुरोध किया कि वो उनके पति के शरीर को एक सूखी जगह पर ले जाने में उनकी मदद करें, क्योंकि जहां उनका शरीर था, उसके चारों तरफ खून ही खून था। उन्होंने सिर की तरफ से उनके शरीर को पकड़ा और रतन देवी ने पैर की तरफ से और उन्हें उन्होंने एक लकड़ी के सहारे लिटा दिया। रात के दस बजे तक उन्होंने इंतजार किया। लेकिन कोई नहीं आया। उन्होंने अपने मृत पति के सिर को अपनी गोद में लिटा कर वो पूरी रात बिताई। उन्होंने एक हाथ में एक डंडा पकड़ रखा था ताकि खून की बू सूंघ कर वहां पहुंचे कुत्ते उनके ऊपर हमला न कर दें। उन्होंने देखा कि एक 12 साल का लड़का उनके पास पड़ा हुआ है, जो बुरी तरह से घायल था। उन्होंने उससे पूछा क्या वो उसे कोई कपड़ा उढ़ा दें? लड़के ने कहा नहीं, पर मुझे छोड़ कर मत जाओ। उन्होंने कहा मैं अपने पति को छोड़ कर कहां जाउंगी? थोड़ी देर बाद लड़के ने कहा, मुझे पानी चाहिए। लेकिन वहां कहीं एक बूंद भी पानी नहीं था। थोड़ी देर बाद रतन देवी को उसकी कराहें सुनाई देना बंद हो गईं।’’ रतन देवी ने बताया कि ‘‘सुबह तक बाग के ऊपर चीलें उड़ना शुरू हो गई थीं, ताकि वो नीचे पड़ी लाशों या घायल व्यक्तियों पर हमला कर उनका गोश्त खा सकें। गर्मी में लाशें सड़नी शुरू हो गई थीं।’’
जलियांवाला बाग हत्याकांड के लगभग तीन माह बाद जब कांग्रेस का प्रतिनिधिमंडल जलियांवाला बाग जांच के लिए पहुंचा तो वहां के वातावरण में उस समय भी लाशों के सड़ने की दुर्गंध मौजूद थी। कांग्रेस जांच समिति ने अनेक भुक्तभोगियों से उनके पीड़ादायक अनुभव सुनें। ठेकेदार लाला नाथू राम जिसकी आयु उस समय लगभग 35 वर्ष की थी उसने जांच समिति को बताया कि ‘मैं अपने बेटे और भाई को ढ़ूढ़ने निकला था। मुझे अपनी पगड़ी सिर पर रखने में बहुत मशक्कत करनी पड़ रही थी, क्योंकि गोश्त पाने की कोशिश में चीलें अपनी चोंचों से मेरे सिर पर झपट्टा मार रही थीं।‘
जांच समिति को एक दूकानदार लाला हरकिशन सिंह ने बताया कि ‘‘जलियांवाला बाग में नरसंहार करने के बाद डायर ने पूरे शहर की बिजली और पानी कटवा दिए। रात 10 बजे उसने शहर का एक बार फिर दौरा किया, ये देखने के लिए कि लोगों के घर से बाहर न निकलने के उसके आदेश का पालन हो रहा है या नहीं। जलियांवाला बाग में हमारे रिश्तेदार, पड़ोसी, हमारे जानने वाले घायल हो कर तड़प रहे थे, मर रहे रहे थे और हम लोगों को उनकी मदद करने के लिए बाहर आने की भी अनुमति नहीं थी। यदि कोई घर से बाहर निकलता तो उसे देखते ही गोली मार देने का आदेश था।’’ एक अन्य भुक्तभोगी ने कांग्रेस जांच समिति को बताया कि ‘‘उस रात डायर को सड़क पर एक भी व्यक्ति भले ही दिखाई नहीं दिया, लेकिन पूरा शहर जाग रहा था। हम सभी अपने घरों में जाग रहे थे और प्रार्थना कर रहे थे कि जो घायल हैं उनके प्राण बच जाएं। समूचे शहर में एक मनहूस सन्नाटा छाया हुआ था। जैसे मौत के साए ने सबको अपनी गिरफ़्त में ले लिया हो।’’
इस हत्याकांड का मूल उद्देश्य था देशभक्तों के मनोबल को कुचलना। सन् 1919 के मार्च महीने में ब्रिटिश सरकार ने रौलेट एक्ट पारित कर दिया। पूरे देश में इसके विरुद्ध रोष व्याप्त हो गया। महात्मा गांधी ने 6 अप्रैल को इस एक्ट के विरोध में सत्याग्रह आंदोलन शुरू किया। अमृतसर में इस एक्ट के विरोध में हड़ताल रखी गयी। इसी दिन आंदोलन के नेता डॉक्टर सत्यपाल और सैफुद्दीन किचलू को गिरफ्तार कर लिया गया। इनकी गिरफ्तारी का भी विरोध हुआ। 10 अप्रैल को गिरफ्तारी के विरोध में आंदोलनकारियों ने डिप्टी कमिश्वनर के आफिस के बाहर प्रदर्शन किया तो उन पर गोलियां चला दी गई। बढ़ते तनाव के बावजूद आंदोलन को कुचलने के लिए 12 अप्रैल को आंदोलन के दूसरे कई नेताओं की गिरफ्तारी के आदेश जारी कर दिए गए।
रौलेट एक्ट तथा झूठे मामले बना कर की जा रही गिरफ्तारियों के विरोध में प्रदर्शन के लिए ही 13 अप्रैल को बैसाखी के दिन 20 हजार निहत्थे लोग जलियांवाला बाग में जमा हुए। जिनमें महिलाएं, बच्चे, युवा और बुजुर्ग सभी शामिल थे। दरअसल रौलेट एक्ट इम्पीरियल लैजिस्लेटिव काउंसिल ने दिल्ली में पारित किया था। इस बिल का नाम रौलेट कमीशन के कारण पड़ा। रौलेट कमीशन ने ही इम्पीरियल लेजिस्लेटिव काउंसिल को इस एक्ट की अनुशंसा भेजी थी। रौलेट एक्ट के प्रावधानों के तहत देशद्रोह के अभियुक्त को बिना मुकदमें जेल में डाला जा सकता था इसीलिए इसे ब्लैक बिल नम्बर 1 और ब्लैक एक्ट भी कहा गया। इस एक्ट में वायसराय सरकार को प्रेस पर भी अंकुश लगाने के अधिकार दे दिए गए थे।
बैसाखी के दिन रखी गयी इस सभा में जनरल डायर नाम के अंग्रेज अफसर ने सभा में मौजूद लोगों पर गोलियां चलवा दीं जिसमें लगभग 1000 लोग मारे गए और 2000 के आस-पास लोग घायल हुए। सरकारी आंकड़ों में ही मरने वालों की संख्या 379 और घायलों की संख्या 1200 बतायी गयी थी।  रौलेट एक्ट के विरोध में बुलायी गयी इस सभा में आस-पास के क्षेत्रों से करीब 20 हजार लोग आए थे। सभा में पहुंचे लोगों में ज्यादातर सिख थे। उस दिन का घटनाक्रम कुछ इस प्रकार था- उस दिन जलियांवाला बाग में 15 से 25 हजार लोग जमा थे। अचानक लोगों को ऊपर एक अजीब सी आवाज सुनाई दी। एक हवाई जहाज बाग के ऊपर नीची उड़ान भरते हुए जा रहा था। उसके एक पंख पर एक झंडा टंगा हुआ था। उन लोगों ने इससे पहले कोई हवाई जहाज नहीं देखा था। कुछ लोगों ने उसे देखते ही वहां से हट जाने में ही अपनी खैर समझी। अचानक लोगों को नेपथ्य से भारी बूटों की आवाज सुनाई दी और सेकेंडों में जलियांवाला बाग के संकरीले रास्ते से 50 सैनिक प्रकट हुए और दो-दो का ‘‘फॉर्मेशन’’ बनाते हुए ऊंची जगह पर दोनों तरफ फैलने लगे।
भीड़ का एक हिस्सा चिल्लाया, ‘आ गए, आ गए.‘ वो वहां से बाहर जाने के लिए उठे। तभी एक आवाज आई, ‘बैठ जाओ, बैठ जाओ. गोली नहीं चलेगी।‘
उसी क्षण ब्रिगेडियर जनरल रेजिनॉल्ड डायर चिल्लाया, ‘गोखाज़ राइट, 59 लेफ्ट।‘
25 गोरखा और 25 बलूच सैनिकों में से आधों ने बैठ कर और आधों ने खड़े हो कर ‘‘पोजीशन’’ ले ली। डायर ने बिना एक सेकेंड गंवाए आदेश दिया, ‘‘फायर!’’
सैनिकों ने निशाना लिया और बिना किसी चेतावनी के गोलियां चलानी शुरू कर दीं। चारों तरफ लोग मर कर और घायल हो कर गिरने लगे। घुटने के बल बैठे हुए सैनिक चुन-चुन कर निशाना लगा रहे थे. उनकी कोई गोली बरबाद नहीं जा रही थी। डायर ने हुक्म दिया कि वो अपनी बंदूकें ‘‘रीलोड’’ करें और उस तरफ फायरिंग करें जिधर सबसे ज्यादा भीड़ है। लोग डर कर हर दिशा में भागने लगे, लेकिन उन्हें बाहर जाने का कोई रास्ता नहीं मिला। सारे लोग संकरी गलियों के प्रवेश द्वार पर जमा होकर बाहर निकलने की कोशिश करने लगे। डायर के सैनिकों ने इन्हीं को अपना निशाना बनाया. लाशें गिरने लगीं। कई लोगों ने दीवार चढ़ कर भागने की कोशिश की और सैनिकों की गोलियों का निशाना बने। भीड़ में मौजूद कुछ पूर्व सैनिकों ने चिल्ला कर लोगों से लेट जाने के लिए कहा। लेकिन ऐसा करने वालों को भी पहले से लेट कर पोजीशन लिए गोरखाओं ने नहीं बख््शा गया। डायर ने बाग के सभी निकासी दरवाजों पर अपने सैनिक तैनात करवा दिए थे ताकि लोग बाहर नहीं निकल पाएं। कहा जाता है कि बर्बरता दिखाते हुए डायर ने 10 से 15 मिनट तक लगभग 1600 राउंड गोलियां चलवायी थी। वह तब गोलियां चलवाता रहा जब तक कि गोलियां खत्म नहीं हो गयी।
दुखद है कि गोली चलाने वाले गोरखा और बलूच थे तथा गोली चलाने का आदेश देने वाला जरनल डायर का जन्म भारत में ही रावलपिंडी के मुर्री नामक स्थान में ही हुआ था। उसकी आरंभिक शिक्षा शिमला के बिशप काॅटन स्कूल में हुई थी। उसके पिता शराब बनाने का काम करते थे। डायर को उर्दू और हिंदुस्तानी दोनों ही भाषाएं बहुत अच्छे से आती थीं। यदि उसने इस बात को याद रखा होता कि भारत उसकी मातृभूमि है और अलग नस्ल के होते हुए भी इस नाते भारतीय उसके अपने हैं तो यह यह जघन्य हत्याकांड करने का साहस नहीं होता। यदि उस दिन गोरखा और बलूच सिपाहियों ने यह याद रखा होता कि जिन पर वे गोलियां बरसा रहे हैं, वे उनके अपने हैं तो देश को स्वतंत्रता प्राप्त करने के लिए 1947 तक प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती। भले ही हंटर कमीशन ने डायर को ‘‘क्लीनचिट’’ दे दिया लेकिन इतिहास के पन्नों पर उसका नाम ‘‘द बुचर ऑफ अमृतसर’’ अर्थात् ‘‘अमृतसर का कसाई’’ के रूप में दर्ज़ है। वैसे इस घटना का दूसरा पक्ष यह भी है कि जलियांवाला बाग में मारे गए लोगों का बलिदान व्यर्थ नहीं गया और इसने अंग्रेज सरकार के विरुद्ध आंदोलनों को तेज गति दे दी। जलियांवाला बाग की 13 अप्रैल की तिथि हमारे मानस में एक अमिट तिथि है।
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(13.04.2022)
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