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My Editorials - Dr Sharad Singh

Sunday, April 17, 2022

कहानी | थोड़ा सा पागलपन | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | दैनिक भास्कर | रसरंग

प्रिय मित्रो, आज दैनिक भास्कर के "रसरंग" 
परिशिष्ट में (यानी सभी संस्करणों में) मेरी कहानी प्रकाशित हुई है- "थोड़ा-सा पागलपन"... 
💁मुझे लगता है कि यह थोड़ा सा पागलपन हम सब में होना चाहिए!.. तो मेरी कहानी पढ़िए और बताइए कि आप इससे सहमत है या नहीं...
🌷मेरी कहानी प्रकाशित करने के लिए हार्दिक धन्यवाद एवं आभार #दैनिकभास्कर  🙏
दैनिक भास्कर के "रसरंग" में प्रकाशित कहानी      
थोड़ा-सा पागलपन
- डॅा. (सुश्री) शरद सिंह
        सब उसे एक ही नाम से पुकारते थे - बूढ़ी माई। बूढ़ी माई की उम्र कितनी थी, यह बताना कठिन है। काले-सफेद खिचड़ी बाल, उसकी उम्र का अनुमान लगाने में बाधा बनते थे।  
बूढी माई सुबह होते ही पता नहीं कहां से हमारी कॅालोनी में आती और रात होते-होते पता नहीं कहां चली जाती। शुरू-शुरू में सबने उसके इस आने-जाने को संदेह की दृष्टि से देखा। कोई कहता कि वह उठाईगीर है। तो कोई कहता कि वह बच्चे उठाने वाले गिरोह से है। मगर इस तरह की अटकलबाजियां धीरे-धीरे समाप्त हो गईं और बूढ़ी माई के प्रति सबके मन में दया उपजने लगी। एक दिन किसी ने बताया कि उसने बूढ़ी माई को रात के समय रेलवे स्टेशन के बाहर गुड़ीमुड़ी हो कर सोते देखा हैं तब से रहा-सहा संदेह भी दूर हो गया।
कॅालोनी की औरतें बूढ़ी माई को बचा हुआ खाना दे दिया करतीं। खाना अच्छा हो या बुरा बूढ़ी माई बड़ी रुचि से खाती। उसे इस तरह खाना खाती देख कर मन भर आता। यही लगता कि अगर बूढ़ी माई का कोई अपना सगा होता तो क्या उसे इस तरह सब के घर के बचे हुए खाने पर निर्भर रहना पड़ता? कभी लगता कि बूढ़ी माई को जरूर उसके घरवालों ने निकाल दिया होगा। छिः! आज के जमाने में रिश्ते-नातों भी स्वार्थी हो चले है।
बूढ़ी माई ने मेरे मन में जाने कब जगह बना ली मुझे पता ही नहीं चला। वह मुझे देखती और उसकी अंाखों में ममता छलकने लगती। जल्दी ही उसने मेरे घर के खुले बरामदे में रात बिताना शुरू कर दिया।
रात भर वह मेरे घर के बरामदे में सोती और सुबह होते ही काॅलोनी परिसर में लगे नीम के पेड़ के नीचे जा बैठती। फिर दिन भर वहीं बैठी रहती। क्या गरमी, क्या जाड़ा, क्या बरसात। वह नीम के पेड़ के नीचे से हिलने का नाम नहीं लेती। वह नीम का पेड़ काफी पुराना था। इस कॅालोनी के बनने के दौरान पता नहीं कैसे वह कटने से बचा रह गया। वरना इस इलाके के सारे पेड़ काट कर कॅालोनी बना दी गई थी। कॅालोनी में रहने वाले किसी को भी इससे कोई अन्तर भी नहीं पड़ता था। फिर गमलों में उगने वाले पौधे या इनडोर प्लांट तो थे ही बागवानी प्रेम के लिए। यह बात अलग है कि वह नीम का पेड़ बूढ़ी माई की भांति सबके जीवन का अनिवार्य अंग बन गया था। कॅालोनी की धर्मप्रिय स्त्रियां नीम को जल चढ़तीं। उसके तने में धागा बंाध कर मन्नतें मंागती। यही नीम का पेड़ बूढ़ी माई की दिन भर की आश्रयस्थली बन गया था।
जब कभी बूढ़ी माई की चर्चा चलती तो लोग यही कहते-‘होगी वहीं, उसी नीम के पेड़ के नीचे।’
जल्दी ही बुढ़ी माई हमारे जीवन का ऐसा हिस्सा बन गई कि हमने उसकी ओर अलग से ध्यान देना ही छोड़ दिया। उसे बचा हुआ खाना देना, पुराने कपड़े देना आदि एक सामान्य-सा व्यवहार बन गया। बूढ़ी माई ने कब मेरे घर के बरामदे छोड़ कर नीम की छांव को पूरी तरह अपना लिया, इस पर मेरा भी ध्यान नहीं गया।
ज़िन्दगी यूं ही चलती रहती अगर उस दिन शोर न मचता। सुबह के यही कोई नौ-साढ़े नौ का समय था। लगभग हर घर में आपाधापी मची हुई थी। दफ़्तर जाने वालों के तैयार होने का समय। स्कूल-बस आने का समय। कामवाली बाई के लेट करने से बेहाल महिलाओं के बड़बड़ाने का समय। लेकिन एक शोर ने सबके कामों पर ब्रेक लगा दिया। ऐसा लगा कि जैसे कोई आत्र्तनाद कर रहा है, चींख रहा है, झगड़ रहा है। मैं हड़बड़ा कर दरवाजे की ओर लपकी। बाहर दरवाजे पर ही इला मिल गई।
‘क्या हुआ इला? ये शोर कैसा?’ मैंने इला से पूछा।
‘सुना है, बूढ़ी माई पागल हो गई है। लोगों को पत्थर मार रही है।’ इला ने बताया।
‘‘कहां है बूढ़ी माई?’’
‘‘वहीं नीम के नीचे।’’
‘चलो, चल कर देखते हैं।’ मैंने इला से कहा।
वहां भीड़ एकत्र थी। नीम के पेड़ के नीचे खड़ी बूढ़ी माई चिल्ला रही थी और बुलडोजर जैसी डिगिंग मशीन पर पत्थर मार रही थी। वहां खड़े लोगों से पूछने पर पता चला कि वह जगह बिक गई है और उसे खरीदने वाला पेड़ हटा कर वहां अपनी दूकान बनवाना चाहता है। इसीलिए वह पेड़ उखाड़ने के लिए मशीन ले कर आया है। हमेशा गुमसुम रहने वाली बूढ़ी माई मशीन देखते ही भड़क गई। मशीन चालक ने जितनी बार नीम के पेड़ की ओर बढ़ने का प्रयास किया उतनी बार बूढ़ी माई ने न केवल उस पर पत्थर बरसाए बल्कि मशीन के इतने करीब आ खड़ी हुई कि मशीन चालक ने घबरा कर मशीन बंद कर दी। उसने मशीन चलाने से साफ़ इनकार कर दिया।
नीम के पेड़ के चारो ओर अच्छी-खासी भीड़ जमा हो गई थी। मगर सबके सब तमाशाबीन थे। वे मानो किसी खेल को टकटकी लगाए देख रहे थे। सभी को यही लग रहा था कि अभी पुलिस आएगी और बूढ़ी माई को पकड़ ले जाएगी। हो सकता है उसे पागलखाने भेज दिया जाए।  
मगर हुआ कुछ ऐसा जो किसी ने सोचा ही नहीं था। बूढ़ी माई के इस हंगामे की ख़बर किसी ने मीडियावालों को दे दी। देखते ही देखते वहां रिपोर्टर्स की भीड़ लग गई। एक रिपोर्टर आंखों देखा हाल सुनाते हुए कैमरे पर कहने लगा,‘‘यहंा इतनी भीड़ के बावजूद कोई भी इंसान नीम के पेड़ को बचाने के लिए आगे नहीं आ रहा है। मगर एक पागल औरत जिसे लोग बूढ़ी माई कहते हैं, पेड़ से लिपटी हुई है अब आप ही बताएं कि पागल कौन है, बूढी माई या यहंा मौजूद भीड़?’’
रिपोर्टर की बात सूनते ही माहौल बदल गया। भीड़ ‘बूढ़ी माई ज़िन्दाबाद’ के नारे लगाने लगी। अब भीड़ आगे बढ़ कर नीम के पेड़ और मशीन के बीच अपनी दीवार की भांति खड़ी हो गई। अंततः जमीन मालिक ने हार मान ली और मामला यूं तय हुआ कि वह अपनी दूकान तो बनवाएगा लेकिन नीम के पेड़ को कटवाए बिना।
धीरे-धीरे भीड़ छंट गई। लोग अपने-अपने घरों को चले गए। मशीन लौट गई। लेकिन बूढ़ी माई उसी तरह पेड़ से लिपट कर खड़ी रही। मैं बूढ़ी माई के निकट पहुंची। उसने आहट पा कर पलट कर मेरी ओर देखा। उसकी अंाखें अभी भी क्रोध से जल रही थीं, लेकिन अपने सामने मुझे पा कर उन अंाखों में शीतलता छा गई। अचानक बूढ़ी माई ने मुझे अपने गले से लगा लिया। शायद वह अपनी खुशी जाहिर करना चाहती थी। मेरी भी आंखों से खुशी के आंसू छलक पड़े। हम दोनों के सिर के ऊपर नीम का पेड़ अपनी नन्हीं हरी प¬ित्तयों को हिला-हिला कर अपनी ठंडक बिखेर रहा था। उस समय बूढ़ी माई क्या सोच रही थी ये तो मुझे पता नहीं लेकिन मैं यही सोच रही थी कि काश ! बूढ़ी माई जैसा थोड़ा-सा पागलपन हर इंसान में होता तो ऐसे न जाने कितने नीम के पेड़ कटने से बच गए होते।  
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