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My Editorials - Dr Sharad Singh

Tuesday, May 17, 2022

पुस्तक समीक्षा | ख़ैरियत है हुज़ूर : एक अछूते विषय पर एक अनूठा उपन्यास’’ | समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह

प्रस्तुत है आज 17.05.2022 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई देश की प्रतिष्ठित कथाकार उर्मिला शिरीष  के उपन्यास "ख़ैरियत है हुज़ूर" की समीक्षा... आभार दैनिक "आचरण" 🙏
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पुस्तक समीक्षा
ख़ैरियत है हुज़ूर : एक अछूते विषय पर एक अनूठा उपन्यास
समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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उपन्यास  - ख़ैरियत है हुज़ूर
लेखिका  - उर्मिला शिरीष
प्रकाशक  - शिवना प्रकाशन, पी.सी. लैब, सम्राट काॅम्प्लेक्स बेसमेंट, बस स्टेंड, सिहोर (मप्र)-466001
मूल्य     - 150 /- 
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उर्मिला शिरीष हिंदी साहित्य जगत की जानी-मानी वरिष्ठ लेखिका हैं। उनका कथा कौशल हिंदी पाठक समुदाय को हमेशा आकर्षित करता है। उनके अनेक कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। अभी सन 2022 में उनका उपन्यास ‘‘खैरियत है हुजूर’’ प्रकाशित हुआ है। यह उपन्यास जगत में उनकी ज़ोरदार दस्तक है। शिवना प्रकाशन से प्रकाशित यह उपन्यास कथातत्वों के एक अलग ही धरातल पर पाठकों को ले जाने में सक्षम है। वस्तुतः विमर्श के अनेक स्वरूप और अनेक आयाम इस समय हिंदी साहित्य जगत में उपस्थित हैं। फिर भी जब कोई लेखिका उपन्यास लिखती है तो उस में स्त्री विमर्श की अपेक्षा की जाती है। इसे पूर्वाग्रह करें या समसामयिक आग्रह किंतु यह भी सच है कि जब एक लेखिका पात्रों को रचती है तो स्त्री पात्र बहुत बारीकी से उसमें मुखर होते हैं। ‘‘खैरियत है हुजूर’’ भी अपवाद नहीं है किंतु यह उपन्यास मात्र स्त्री विमर्श नहीं रचता है अपितु एक गहन समाज विमर्श भी रचता है। यह उपन्यास समूची व्यवस्था को खंगालता है और अपनी अंतरात्मा में झांकने को विवश करता है। यह कठिन समय का दौर है जब इलेक्ट्राॅनिेक मीडिया की चकाचैंध है, बाज़ारवाद से जन्मी अनेक लिप्साएं हैं, धन कमाने की अंधी दौड़ा है। ऐसा बहुत कुछ है आज के समय में जिनके बीच हम जी रहे हैं और उन्हें समझते हुए भी पूरी तरह से नहीं समझ पा रहे हैं। एक प्रकार का डिलेमा यानी भ्रम जो हमसे हमारी सच परखने की क्षमता धीरे-धीरे छीनता जा रहा है और इन सबसे भी ऊपर न्यायव्यवस्था की दीर्घकालीन प्रक्रिया।

उपन्यास की नायिका शुचिता प्रत्यक्षतः एक कामकाजी महिला है किन्तु भीतर से एक आम भारतीय गृहणी। वह अपने पति और बच्चों के साथ एक आम-सा जीवन जी रही है जो रोजमर्रा की आपाधापी में बंधा हुआ है। उसकी अपने पति की भांति ढेर सारी आकांक्षाएं नहीं हैं। उसे तो खीझ आती है अपने पति संजीव की धन कमाने की ललक देख कर। उसे इस बात से भी चिढ़ है कि उसका पति डाॅक्टरी की पढ़ाई पढ़ कर भी ऐसे लोगों की संगत में क्यों है जो मदिरापान के आदी हैं। धीरे-घीरे यह विषय पति-पत्नी के बीच झड़प का मुद्दा बनता जाता है। फिर भी यह कोई ऐसी परिस्थितियां नहीं कही जा सकती हैं जो हर आठवें-दसवें भारतीय परिवार में न उत्पन्न होती हों। परंतु अचानक कुछ ऐसा घटित होता है जो शुचिता और संजीव के लगभग सामान्य जीवन की शांति को भंग कर देता है। उनकी दिनचर्या को छिन्न-भिन्न कर देता है और शुचिता के विश्वास की चूलों को हिला कर रख देता है। एक लंपट डॉक्टर के द्वारा उपन्यास की नायिका का रास्ता रोकने से शुरू हुआ कथानक तेजी से करवटें लेता हुआ इस तरह आगे बढ़ता है कि उपन्यास को पढ़ने वाला पाठक हर मोड़ पर चैंकता है। ठिठक कर विचार करता है। सोचता है कि अब आगे क्या होगा? इस उपन्यास की आधार घटना की वास्तविकता के बारे में लेखिका ने स्पष्ट नहीं किया है किंतु प्रत्येक चरण में व्यापम घोटाला जैसे घोटाले याद आने लगते हैं जिनमें नौकरी दिलाने के नाम पर छल-कपट होता है, यौन शोषण किया जाता है। मामला खुलने पर कई बार बड़ी मछलियां कानून के जाल से साफ़ बची रह जाती हैं, छोटी मछलियां फंस जाती हैं और कई बार ऐसा भी होता है कि कुछ निर्दोष उसकी चपेट में आ जाते हैं। घोटालों जैसे विषय पर इस तरह का यह पहला सशक्त उपन्यास कहा जा सकता है।

कथानक बिल्कुल नया है और उसका ट्रीटमेंट भी। मध्यमवर्गीय कामकाजी परिवार की स्त्री शुचिता (जिसका नाम आरंभ में पता नहीं चलता है) जो इस उपन्यास की नायिका है उस समय हतप्रभ रह जाती है जब उसके घर आर्थिक अन्वेषण ब्यूरो के अधिकारी आते हैं, वह घर की तलाशी लेते हैं और उसके पति को पूछताछ के लिए पकड़ कर अपने साथ ले जाते हैं। वह सपने में भी नहीं सोच सकती थी कि उसके घर पर कभी इस तरह का छापा पड़ सकता है। उसके समक्ष अनेक जटिल प्रश्न  खड़े हो जाते हैं कि अब वह क्या करें? कहां जाए? कैसे अपने पति की मदद करें और उससे पुलिस के चंगुल से कैसे बचाए? इन सारे प्रश्नों का उत्तर उसके पास नहीं है लेकिन उसके पास उसका साहस है। अपने पति पर अविश्वास नहीं करती है किंतु जब वह अपने ससुर के पास सहायता मांगने जाती है तो उसे सबसे पहले अपने ससुर का विश्वास टूटता हुआ दिखाई देता है। उसका ससुर कहता है-‘‘मुझे तो पहले ही लगता था कि इसके लक्षण ठीक नहीं हैं। उसकी गलत लोगों के साथ संगति है। रात के दो-दो, तीन-तीन बजे तक घर से बाहर रहना। मगर हमारी कौन सुनता है! वह सब जो उसके साथ आते थे ..मक्कार और बदमाश लोग फर्जी काम करते थे। पता नहीं कहां-कहां तक उनका रैकेट होगा।’’ 
जब पिता को ही अपने बेटे पर विश्वास न हो तो उससे सहायता की उम्मीद कैसे की जा सकती है? एक बार फिर वही प्रश्न के अब क्या किया जाए? पुलिस लगातार उसके पति को रोके हुए है, पूछताछ करने के लिए। इधर शुचिता अपने बच्चों की देखभाल करते हुए यह जानने को हाथ-पांव मारती रहती है कि उसके पति को कब छोड़ा जाएगा? हर बार निराशा ही उसके हाथ लगती है। वकील, कानूनी दांवपेंच में पैसा पानी की तरह बहाना पड़ता है।

बीच में एक लंबा फ्लैशबैक है जो कथानक की नींव से परिचित कराता है। ऊपर से  देखने में तो यह छात्र जीवन की एक आम भारतीय प्रेम कथा लगती है, जिसका विवाह के रूप में परंपरागत पटाक्षेप हो जाता है। लेकिन उस फ्लैशबैक में देशकाल से परिचित कराती दो घटनाओं की चर्चा है जिनमें से एक है तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की उनके सुरक्षाकर्मियों द्वारा हत्या और दूसरी भोपाल में यूनियन कार्बाइड जो पेस्टिसाइड की अमेरिकन कंपनी थी, में गैस लीक होने के कारण बड़ी संख्या में जनहानि का होना। हर बड़ी घटना के साथ अनेक छोटी-छोटी अंतर्घटनाएं भी जुड़ी होती हैं। कुछ साथ घटित होती है और कुछ आगे चलकर आकार लेती हैं। ऐसे ही एक घटना धीरे-धीरे आकार लेती गई वह थी गैस त्रासदी के मुआवजे के जोड़-तोड़ की घटना। बहुत ही कम शब्दों में और बहुत सटीक विवरण दिया है लेखिका उर्मिला शिरीष ने- ‘‘जो भोपाल में उस रात नहीं भी थे वह भी अब गैस प्रभावित हो गए थे और अचानक ही भोपाल की जनसंख्या चार-पांच लाख से बढ़कर पन्द्रह लाख हो गई थी। आने वाले समय में गैस राहत के नाम पर सैकड़ों धंधे शुरू हो गए और एक अस्पताल भी बन गया अब मजदूर मिलना मुश्किल हो गए थे।’’

फ़र्ज़ी सर्टीफिकेट्स बनाने का बाज़ार हमेशा गर्म रहता है, चाहे वह झूठे गैसत्रासदी पीड़ित का हो अथवा नौकरी पाने के लिए योग्यता का झूठा सर्टीफिकेट। शुचिता को नहीं पता कि उसका पति सचमुच अपराधी है अथवा नहीं। यह बात और है कि सारी दुनिया यहां तक कि उसके पति के सगे रिश्तेदार भी उसे अपराधी ठहरा रहे थे। शुचिता को उसकी कमियां उसकी बुराइयां भी याद आती है कि वह किस तरह से शराब पीकर आता था, दोनों में किस तरह से झड़प होती थी। फिर भी वह अपने पति को यूं अकेला तो नहीं छोड़ सकती थी। जो कुछ भी संभव हो पा रहा था, वह दौड़-धूप कर रही थी। घर के माहौल और उसकी परिस्थितियों का विवरण देते हुए लेखिका ने लिखा है- ‘‘घर में जैसे मातम पसर गया था। मृत्यु से भी ज्यादा मारक मातम। दोनों बच्चे मां की परेशानी से परेशान थे। दुखी थे। उदास थे। चुप थे। अब वह एकदम अकेली थी। सब गायब थे। राकेश अन्य रिश्तेदार सब का आना-जाना बंद था। कोई अपना नाम खराब नहीं करना चाहता था। हां, जेल में कब कौन मिलने जाएगा, यह तय किया जा रहा था। जेल के नियमानुसार सप्ताह  में एक बार मिल सकते थे।’’

तमाम संघर्ष के दौरान मर्मांतक पीड़ा का वह पल भी आता है जब शुचिता अपने पति की केस फाईल की काॅपी वकील से मांग कर पढ़ती है और उसमें पति पर लगाए गए आर्थिक अपराधों के साथ ही यौन शोषण का आरोप अपनी आंखों से पढ़ती है। यदि कोई पुरुष होता तो अपनी पत्नी की ऐसी यौन-संलिप्ता के बाद उससे किनारा कर लेता किन्तु एक स्त्री, वह भी पत्नी तमाम अविश्वास के बावज़ूद स्थितियों को हर दृष्टि से समझने की कोशिश करती है। वह सत्यता जानने के लिए कथित पीड़िता से मिलना भी मंजूर करती है। जहां उसके आगे कई नए पन्ने खुल कर सामने आते दिखाई देते हैं।
उपन्यास में केन्द्रीय जेल के आंतरिक वातावरण का बखूबी वर्णन है जो चेतावनी देता है कि कोई भी अपराध करने से पहले सोच लें कि जेल की दुनिया कितनी कठोर और संवेदनहीन है। बाजार का प्रभाव वहां भी है। यदि आपकी जेब में पैसा है तो वहां भी आपको सुविधाएं मुहैया हो जाएंगी और नहीं है तो वहां भी आप दलित-शोषित जिंदगी गुजारने पर मजबूर रहेंगे।  यदि जेल की दुनिया में कदम नहीं रखना चाहते हैं तो सावधान रहें, सतर्क रहें। लेकिन कई बार यह चेतावनी भी बेकार साबित होती है जब कोई व्यक्ति अचानक दूसरों की दुर्भावनाओं का शिकार हो जाता है और न चाहते हुए भी उस दुनिया में जा पहुंचता है जो अपराधियों की दुनिया कहलाती है। एक गहन द्वंद्व और अंतद्र्वन्द्व, साथ ही संघर्ष की कड़ी परीक्षाएं। 

सत्ताईस साल, चार माह, अठारह दिन के बाद घटनाक्रम उस निष्कर्ष पर पहुंचता है जहां उसे आरंभ के कुछ सप्ताह में ही पहुंच जाना चाहिए था। न्याय व्यवस्था की दीर्घकालिक प्रक्रिया जहां दोषियों को दंड तक पहुंचाती है वहीं निर्दोषों को भी सज़ा सुनाए जाने से पहले ही लम्बे दंड का भागी बना देती है। यह उपन्यास अनेक ऐसे ज्वलंत प्रश्न अपने पीछे छोड़ जाता है जो मानस को झकझोरने वाले हैं। उपन्यास का विन्यास कसा हुआ है। पात्र हर कदम पर सामने खड़े दिखाई देते हैं। उपन्यास की भाषा इतनी सरल और सहज है कि किसी भी बौद्धिक स्तर के पाठक से संवाद कर सकती है। सबसे महत्वपूर्ण है इसका कथानक जो व्यापम जैसी अनेक घटनाओं के पर्दे के पीछे के परिदृश्य से जोड़ता है, जिस पर सनसनी फैलाने वाला इलेक्ट्राॅनिक मीडिया भी चर्चा नहीं करता है। इसके लिए लेखिका उर्मिला शिरीष बधाई की पात्र हैं। सकल समाज से सरोकारित इस उपन्यास को अवश्य पढ़ा जाना चाहिए।            
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