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My Editorials - Dr Sharad Singh

Tuesday, May 24, 2022

पुस्तक समीक्षा | समाज के दोहरे चरित्र को आईना दिखाती कहानियां | समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह

प्रस्तुत है आज 24.05.2022 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई कवि, कथाकार "महेश कटारे सुगम"  के कहानी संग्रह "फसल" की समीक्षा... आभार दैनिक "आचरण" 🙏

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पुस्तक समीक्षा
समाज के दोहरे चरित्र को आईना दिखाती कहानियां
समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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कहानी संग्रह - फसल
लेखक      - महेश कटारे ‘सुगम’
प्रकाशक    - लोकोदय प्रकाशन, प्रालि., 65/44 शंकरपुरी, छितवापुर रोड, लखनऊ (उप्र)
मूल्य       - 150 /-
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  आज जिस कहानी संग्रह की समीक्षा मैं कर रही हूं वह बुंदेलखंड के कहानीकार महेश कटारे सुगम का कहानी संग्रह ‘‘फसल’’ है। इस संग्रह में मौजूद कहानियों में ग्रामीण परिवेश की समसामयिक समस्याओं, जिन पर शहरी समस्याओं की छाप है, को स्पष्ट महसूस किया जा सकता है। इन कहानियों में आंचलिकता का पुट रचा बसा है। संग्रह की पहली कहानी का नाम है - ‘‘फसल’’। यह कहानी बुंदेलखंड में व्याप्त दस्यु समस्या पर आधारित है। इसका कथानक उस समय का है जब बुंदेलखंड में डाकुओं का आतंक व्याप्त था और सरकार हर संभव प्रयास कर रही थी कि इस समस्या पर लगाम लगाई जा सके।
70-80 के दशक में मध्य प्रदेश के भिंड जिले की चंबल घाटी में डाकू मलखान सिंह एक दुर्दांत नाम था। उन दिनों मलखान सिंह के सिर पर 70 हजार रुपये ( आज के हिसाब से लगभग 6 लाख रुपये) का इनाम रखा गया था। दस्यु उन्मूलन के प्रयास करने पर मलखान सिंह, पूजा बाबा जैसे अनेक कुख्यात डाकुओं ने आत्मसमर्पण कर दिया था। आत्मसमर्पण की योजना बनाना सरकार के लिए इसलिए भी जरूरी हो गया था क्योंकि इन दस्युओं की ग्रामीण जनता में बहुत प्रतिष्ठा थी। वे गरीबों की आर्थिक मदद करते थे तथा कभी किसी परिवार की बहू-बेटी से अभद्रता नहीं करते थे। इसका सकारात्मक असर जनता के दिलों-दिमाग पर था। इसीलिए ग्रामीण जनता उन्हें पुलिस से बचने में मदद किया करती थी। अतः यह जरूरी हो गया था कि उन्हें सम्मानजनक तरीके से आत्मसमर्पण के लिए राजी कर लिया जाए। मलखान सिंह का आत्मसमर्पण सशत्र्त था। उसने सरकार से यह मांग रखी थी कि उसके किसी भी साथी को मृत्युदंड की सजा न दी जाए जिसे सरकार ने मान लिया था। मलखान सिंह ने तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह की उपस्थिति में महात्मा गांधी की तस्वीर के सामने अपने हथियार रख कर आत्मसमर्पण की घोषणा की थी।  इस आत्मसमर्पण में पुलिस अधीक्षक और उनकी पत्नी की अहम भूमिका चर्चित रही थी जिसमें कहा जाता था कि भिंड के पुलिस अधीक्षक की पत्नी ने डाकू मलखान सिंह को राखी बांधकर आत्मसमर्पण के लिए राजी किर था। आत्मसमर्पण के बाद डाकुओं को खुली जेल में रखा गया था। जहां रहते हुए वे अपनी सजा भी काट रहे थे किंतु आम जनजीवन से भी जुड़े हुए थे।

    यद्यपि जैसी की आशा थी इस आत्मसमर्पण से समस्या पूरी तरह समाप्त नहीं हुई अपितु कुछ अपराधी मनोवृति के ग्रामीणों को रास्ता मिल गया लूटपाट करने का और अपने प्रतिशोध लेने का वे लोगों को लूटते डकैती डालते हत्याएं करते और बीहड़ में कूद जाते। उनको अपने आप को ‘डाकू सरदार’ या ‘दस्यु सुंदरी’ कहलाने में गर्व महसूस होता। यह समस्या आगे भी कई दशकों तक चलती रही। अजयगढ़, बांदा क्षेत्र के कुख्यात डाकू चार्ली राजा के आत्मसमर्पण के अवसर पर पत्रकार के रूप में मैं भी उस घटना के साक्षी रही हूं। चार्ली राजा को देख कर ही यह अंदाजा लगता था कि यह मलखान सिंह की परंपरा दस्यु नहीं है। चार्ली शब्द का अर्थ ही उद्दंड या चलता -पुर्जा होता है। कई डाकू सामान्य जिंदगी में लौट कर भी असामान्य बने रहे। ऐसा ही एक पात्र महेश कटारे ने अपनी कहानी ‘‘फसल’’ में रखा है। किंतु कहानी में एक नया मोड़ तब आता है जब उस दुर्दांत डाकू की घर वापसी के बाद उसकी दुर्दांता बनी रहती है और उसे समूल नष्ट करने के लिए उस से पीड़ित परिवार का युवक अपने हाथों में बंदूक उठा लेता है लेकिन वह तय करता है कि उस डाकू को मारने के बाद वह बीहड़ की ओर नहीं कानून की ओर जाएगा। बुंदेलखंड की दस्यु समस्या से परिचित कराती यह एक अच्छी कहानी है।
‘‘साठ मिनट का सफर’’ जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है एक यात्रा वृतांत है। इसमें 60 मिनट की रेल यात्रा का रोचक विवरण है। एक कंपार्टमेंट में अनाधिकृत रूप से छात्राओं का प्रवेश करना और अपनी चुलबुली हरकतों से कंपार्टमेंट को गुंजायमान किए रखना इस कहानी की रोचकता का सबसे बड़ा पक्ष है।
‘‘रोज़-रोज़’’ कहानी का शीर्षक पढ़कर सहसा अज्ञेय की कहानी ‘‘रोज़’’ याद आ गई। यूं तो अज्ञेय की ‘‘रोज’’ पहले ‘‘गैंग्रीन’’ नाम से छपी थी लेकिन बाद में इसका शीर्षक बदलकर अज्ञेय ने ‘‘रोज’’ कर दिया था। यद्यपि अज्ञेय की ‘‘रोज’’ और महेश कटारे कि ‘‘रोज’’ में कोई साम्य नहीं है। दोनों विपरीत ध्रुवीय कहानी हैं। अज्ञेय की ‘‘रोज’’ जहां एक ऐसी स्त्री की कथा है जो अपने पारिवारिक जीवन में एक घर में कैदी सा जीवन बिता रही है, जिसकी रोज ही एक सी दिनचर्या है। वही महेश कटारे की ‘‘रोज़-रोज़’’ उन स्त्रियों की संघर्ष गाथा है जो अपने परिवार का पेट पालने के लिए पैसेंजर ट्रेन पर सवार होकर, एक स्टेशन से दूसरे स्टेशन तक की यात्रा करती हैं। वहां से उतरकर वे जंगल जाती हैं। वहां से लकड़ियां बटोरती हैं और फिर उन लकड़ियों के गठ्ठों को अपने सिर पर ढोकर स्टेशन तक लाती हैं और फिर वही यात्रा ट्रेन की अपने घर वापसी तक। इन लकड़ियों को बेचकर ही परिवार का जीवन यापन होता है। किंतु इस प्रतिदिन की यात्रा में अनेक संकट हैं- ट्रेन की भीड़ का संकट, टिकट कलेक्टर का संकट, जंगल में पहुंचकर वनरक्षक का संकट, अर्थात अनेक स्तरों पर इन स्त्रियों को रोज-रोज जूझना पड़ता है। यह स्त्री विमर्श की एक सशक्त कहानी मानी जा सकती है।

     ‘‘केट्टी’’ कहानी एक ऐसी युवती की है जो केरल की रहने वाली है। पारिवारिक आर्थिक विपन्नता के कारण वह अपनी बचपन की सहेली के पास ग्वालियर आ जाती है और वही नर्सिंग का कोर्स करके नर्स के रूप में एक गांव में नियुक्ति पा जाती है। यहां से शुरू होती है उसकी विडंबनाओं की कहानी। अस्पताल पहुंचते ही वहां का स्टाफ उसे इस प्रकार देखता है जैसे वह कोई मनोरंजन की वस्तु हो। थक-हार कर वह विवाह का रास्ता अपनाती है। वह एक ऐसे पुरुष से विवाह करती है जो पहले से ही विवाहित है किंतु उसके प्रति आकर्षित है। वह पुरुष अर्थात कंपाउंडर मिश्रा समाज में साख रखता है। अतः उस से विवाह करके केट्टी स्वयं को सुरक्षित महसूस करती है। केट्टी ने एक सुखद सुरक्षित जीवन की कल्पना करते हुए कंपाउंडर मिश्रा से शादी की थी वह कल्पना शीघ्र ही चूर-चूर हो गई। विवाह के बाद कंपाउंडर मिश्रा का वास्तविक रूप उसके सामने आया। वह जितना ऊपर से सज्जन दिखाई देता था, भीतर से उतना ही दुर्जन साबित हुआ। हर रात वैवाहिक-बलात्कार का सामना करती हुई केट्टी इस नतीजे पर पहुंचती है कि कानूनी अधिकार प्राप्त भेड़िए से मुक्त हो जाना ही श्रेयस्कर है। यह कहानी एक साथ गई मुद्दों पर चर्चा करती है जैसे स्त्री का अकेले रहते हुए अपने पैरों पर खड़े होने का संघर्ष, समाज में मौजूद भेड़िएनुमा लोगों की देह लोलुप चेष्टाएं और विवाह के उपरांत शराबी तथा पत्नी को उपभोग की वस्तु समझने वाला पति मिलने से उत्पन्न जीवन संकट। यह कहानी समाज में स्त्री की दशा पर पुनर्विचार करने का तीव्र आग्रह करती है।
‘‘प्यास’’ कहानी उस ग्रामीण परिवेश और समाज की कहानी है जहां मनुष्य की प्यास को भी उनकी जाति से आंका जाता है। कहानी का नायक गणपत नाई बड़ेजू की पोती का टीका चढ़ाने जाता है जहां उससे अपमान का सामना करना पड़ता है। यहां तक कि रास्ते में वह सभी को कुएं से पानी लाकर पिलाता है किंतु जब उसे प्यास लगती है तो उसे डपट दिया जाता है कि इसे बड़ी प्यास लगी हुई है। उतार दो इसे गाड़ी से जब कई किलोमीटर यह पैदल चल कर आएगा, तभी से समझ में आएगा। इस तरह का दोहरे व्यवहार की यह कहानी समाज के चाल, चरित्र और चेहरे को बेनकाब करती है।
‘‘फिर का भऔ’’ कहानी गांव के एक रसूखदार के बिगड़ैल बेटे को एक लड़की द्वारा दंडित किए जाने की रोचक कहानी है। ‘‘इस तरह’’ एक हंसमुख जिंदादिल कंडक्टर की कहानी है जिसकी जाति का पता लगाने के लिए सूत्रधार परेशान रहता है। गोया कंडक्टर की जाति उसके अस्तित्व से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण हो किंतु अंततः सूत्रधार को एहसास होता है कि वह गलत रास्ते पर जा रहा है।
‘‘घर’’ सर्पग्रस्त घर की कहानी है। मकान मालिक सर्पोंें के हाथों बहुत व्यक्तिगत क्षति झेलता है। अंततः उसका धैर्य जवाब दे जाता है। वह सांपों को कुचलने के लिए कटिबद्ध हो उठता है। ‘‘अपना बोझ’’ एक खेतिहर श्रमिक दंपति के संघर्ष की कहानी है। पति तपेदिक से बीमार पड़ जाने पर पत्नी घर का खर्च उठाने के लिए बैलगाड़ी से सामान ढोने का काम करने लगती है। समाज के ठेकेदार उसके इस कार्य पर उंगली उठाते हैं किंतु मदद के लिए कोई नहीं आता है। अनेक हृदय विदारक संकटों से गुजरने के बाद जब लोग मदद के लिए आते हैं तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। कथा की नायिका मदद लेने से इनकार कर देती है। वह कहती है कि जब जीवन भर दूसरों का बोझ उठाया तो आज अपना बोझ खुद उठाने में उससे कोई परेशानी नहीं है।
      ‘‘मुक्ति’’ उच्च शिक्षा प्राप्त कर बेरोजगार घूम रहे युवाओं के टूटते सपनों की कहानी है। कहानी का नायक चाय की दुकान वाले का बेटा है। उसने उच्च शिक्षा प्राप्त की है और वह भी नौकरी पाने के सपने देखता है। परंतु वह ‘‘ओव्हरऐज़’’ हो जाता है लेकिन उसके सपने पूरे नहीं हो पाते हैं। अंततः वह अपनी डिग्रियों को भट्टी के हवाले करके अपने टूटे सपनों से मुक्ति पा जाता है। ‘‘चींटे’’  तथा  ‘‘दृश्य-अदृश्य’’ समाज-विमर्श की कहानियां हैं।
पुस्तक की भूमिका कुंदन सिंह परिहार ने लिखी है। ‘‘कहानी लेखन पर दो टूक’’ - इस शीर्षक से कहानीकार ने आत्मकथन लिखा है। जिसमें उन्होंने अपनी साहित्य की यात्रा के आरंभ होने के कारण बताए हैं। महेश कटारे सुगम की यह विशेषता है कि वे अपने लेखन में साफ़गोई का परिचय देते हैं। बिना किसी लाग लपेट के। वे सीधे मुद्दे की बात पर आते हैं और कथा को विस्तार देते जाते हैं। सरल सहज हिंदी में बुंदेली बोली की छौंक जहां कहानियों की सरसता बढ़ा देती है, वही उन कहानियों का जमीन से जुड़ाव भी स्थापित करती है। ‘‘फसल’’ कहानीकार महेश कटारे सुगम का वह कहानी संग्रह है जो समाज चिंतन का एक मौलिक धरातल प्रस्तुत करता है। निश्चित रूप से यह एक पठनीय कहानी संग्रह है।   
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