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My Editorials - Dr Sharad Singh

Sunday, May 22, 2022

सतत संघर्ष की अनुपम गाथा है : शिखंडी स्त्री देह से परे - समीक्षक डॉ देवेंद्र सोनी


भोपाल से प्रकाशित "दैनिक चित्रकूट ज्योति" के रविवारीय परिशिष्ट में आज मेरे उपन्यास 'शिखण्डी' की समीक्षा समीक्षक देवेंद्र सोनी जी द्वारा की गई  है।



मूल टेक्स्ट साभार देवेंद्र सोनी जी की फेसबुक वॉल से.....

राजधानी भोपाल से प्रकाशित दैनिक चित्रकूट ज्योति के रविवारीय परिशिष्ट में पढ़िए -

डॉ.सुश्री शरद सिंह के उपन्यास 'शिखण्डी:स्त्री देह से परे' पर मेरी यह समीक्षा .

इस समीक्षा को आप हिन्दी प्रतिलिपि एप पर भी पढ़ सकते हैं।


https://hindi.pratilipi.com/story/o2isg9xjbtkd?utm_source=android&utm_campaign=content_share

मूल लेखन भी प्रस्तुत है - 

स्त्री-अस्तित्व,स्वाभिमान और गरिमा के सतत संघर्ष की अनुपम गाथा है उपन्यास - 'शिखण्डी : स्त्री देह से परे'


उपन्यास - शिखण्डी : स्त्री देह से परे

लेखिका - शरद सिंह

प्रकाशक - सामयिक प्रकाशन,नई दिल्ली

मूल्य - 300₹

समीक्षक - देवेन्द्र सोनी ,इटारसी


    अपने उपन्यासों के लिए चर्चित देश की ख्यातिप्राप्त साहित्यकार डॉ सुश्री शरद सिंह का उपन्यास "शिखण्डी - स्त्री देह से परे" पढ़ने का अवसर मिला। अब तक पचास से अधिक प्रकाशित पुस्तकों का लेखन करने वालीं लब्ध प्रतिष्ठित साहित्यकार डॉ शरद सिंह का यह उपन्यास जनमानस में रचे - बसे महाकाव्य 'महाभारत' के एक शक्तिपुंज पात्र 'शिखंडी' पर आधारित है जिसमें लेखिका ने अपनी गहन विचार शक्ति से प्राण फूंक कर पाठकों के मन मस्तिष्क में हमेशा के लिए जीवंत कर दिया है।

       पौराणिक कथानक पर लिखा गया यह उपन्यास स्त्री-अस्तित्व,स्वाभिमान और गरिमा को संरक्षित करने के लिए सतत संघर्ष की अनुपम गाथा है जिसे लेखिका ने अपने संवाद कौशल से साहित्य की चिरकालिक स्मरणीय कृति बना दिया है। 

   यह उपन्यास ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर लिखे जाने के बाबजूद भी युगों - युगों तक अन्याय के विरुद्ध नारी - प्रतिशोध का वह जीवंत दस्तावेज है जो वर्तमान और भविष्य में  स्त्री-विमर्श को नए आयाम देगा तथा उत्पीड़न/शोषण का प्रतिकार कर प्रतिशोध की प्रबलता को प्रवाहित करेगा।

        स्त्री विमर्श की विख्यात लेखिका शरद सिंह के इस उपन्यास-' शिखण्डी : स्त्री देह से परे ' में हमारी इसी ललक की पिपासा को संतुष्टि और समाधान मिलता है । यहां पाठकों को 'महाभारत' के बारे में सारगर्भित जानकारी तो मिलती ही है, साथ ही आदिकाल से चले आ रहे स्त्री - उत्पीड़न और उसके प्रतिकार स्वरूप सशक्त प्रतिशोध की संकल्पित ज्वाला भी धधकती हुई दिखाई देती है जो जन्म-जन्मान्तरों की कठिन तपस्या और शिवजी के वरदान से फलीभूत होती है।

    इस कथात्मक महाकाव्य 'महाभारत' के बारे में लेखिका 'अपनी बात' में लिखती हैं - "महाभारत' में इतिहास एवं युद्ध कथाएं तो हैं ही इसके अतिरिक्त मनोविज्ञान एवं विज्ञान का चमत्कृत कर देने वाला ज्ञान मौजूद है। प्रक्षेपास्त्र,परखनली शिशु तथा शल्य चिकित्सा द्वारा लिंग परिवर्तन का विवरण भी मिलता है। इस वैज्ञानिक ज्ञान ने 'महाभारत' की महत्ता को विश्वव्यापी बना दिया है।' महाभारत' के जितने भी प्राचीनतम लेखबद्ध - स्वरूप उपलब्ध हैं, उनका अध्ययन अमेरिका की अंतरिक्ष अनुसंधान एजेंसी 'नासा' द्वारा भी किया गया है तथा निरंतर किया जा रहा है। यहां तक कि दुनियाभर के एनशिएंट एलियन रिसर्चर भी 'महाभारत' काल में एलियंस की उपस्थिति की संभावना को जानने के लिए 'महाभारत' ग्रंथ का अध्ययन कर रहे हैं । यह माना जाता है कि 'महाभारत' के श्लोकों में अभी भी बहुत कुछ 'कोडीफाई' है और इसे 'डिकोड' करके प्राचीन काल के सुविकसित ज्ञान को प्राप्त किया जा सकता है। ज्ञान के संदर्भ में 'महाभारत' में लौकिक, अलौकिक एवं पारलौकिक ज्ञान का प्रचुर भंडार है। 'श्रीमद्भागवतगीता' जैसा अमूल्य रत्न भी इसी महासागर की देन है। इस आदि ग्रंथ के अभिन्न अंग 'श्रीमद्भागवतगीता' में जीवन मूल्यों को समझने के लिए अकाट्य सूत्र मौजूद हैं ।आधुनिक बाजार वादी युग के मैनेजमेंट गुरु भी अपने मैनेजमेंट की सफलता के लिए 'श्रीमद्भागवतगीता' के श्लोकों का सहारा लेते हैं।"

     उपन्यास  'शिखण्डी : स्त्री देह से परे' के सारांश पर आएं तो हस्तिनापुर राज्य के महाबली भीष्म द्वारा अपने राजा विचित्रवीर्य के परिणय हेतु काशी नरेश की राजकुमारी अम्बा और उसकी दो बहन अम्बिका तथा अम्बालिका को बल पूर्वक स्वयंवर स्थल से अपह्रत कर हस्तिनापुर ले जाया जाता है । यहां राजदरबार में महाराज शाल्वराज की प्रेयसी 'अम्बा'  राजा विचित्रवीर्य की रानी बनने से साफ इंकार कर देती है जबकि उसकी दोनों बहनें अम्बिका और अम्बालिका इस हेतु अपनी सहमति दे देती हैं। 

      राजकुमारी 'अम्बा' के प्रतिकार का कारण जानकर जब 'भीष्म' उसे शाल्वराज के पास वापस भेज देते हैं तो 'कापुरुष शाल्वराज' राजकुमारी 'अम्बा' को किसी और की 'जूठन' कह अस्वीकार कर देता है। अपने इस  अपमान से आहत राजकुमारी 'अम्बा'  बिफरकर पुनः हस्तिनापुर के दरबार में लौटती हैं और भीष्म को अपनी जिंदगी बर्बाद करने का दोषी करार देते हुए कहती है - ' धिक्कार है कुरुवंशियों पर! तुम सभी स्त्री को वस्तु समझते हो। धिक्कार है, तुम्हारी ऐसी सोच पर! ऐ भीष्म, तुमने मेरा जीवन नष्ट किया! तुमने मेरे सपनों को निर्ममता पूर्वक पददलित किया, तुमने मुझे सकल विश्व के समक्ष कलंकिनी घोषित करा दिया! ऐ भीष्म!  तुमने मात्र मेरा नहीं अपितु समस्त स्त्रीजाति का अनादर किया है।' अम्बा बोले जा रही थी और उसके स्वर की भीषणता से वहां उपस्थित सभी के हृदय किसी अनिष्ट की आशंका से कम्पित हो उठे।

  ' ऐ देवव्रत भीष्म! एक भीष्म प्रतिज्ञा करके तुम भीष्म कहलाए, तो सुनो, आज मैं भी एक भीष्म प्रतिज्ञा कर रही हूं कि तुम्हारी मृत्यु का कारण मैं ही बनूंगी ! मैं अम्बा! में भीष्मा ! आज इस कुरु राजसभा में प्रतिज्ञा लेती हुई घोषणा करती हूं कि जब तक मैं तुम्हें दण्डित नहीं कर दूंगी तब तक मेरी आत्मा को मोक्ष नहीं मिलेगा !' यह गर्जना करती हुई अम्बा जो भीष्म प्रतिज्ञा कर 'भीष्मा' बन चुकी थी, राज्यसभा से इस प्रकार चलती हुई चली गई, जैसे कोई सिंहनी हिरणों के झुंड को अपनी गर्जना से प्रकंपित कर प्रस्थानित होती है।

     राज दरबार से निकल कर दृढ़-प्रतिज्ञ अम्बा अपने पिता काशी नरेश के यहां न जाकर वन-प्रांतरों में अनेक मानसिक एवं शारीरिक यातनाओं को सहते हुए कठिन तपस्या करती है तथा अपने तपोबल से भगवान शिव से महाप्रतापी भीष्म की मृत्य का कारण बनने का वरदान प्राप्त करती है किन्तु अम्बा की यह प्रतिज्ञा पुरुष देह में ही पूर्ण हो सकती थी। अतः अम्बा अगले जन्म के लिए नदी में अपनी इहलीला समाप्त कर लेती है। यही नदी बाद में अम्बा नदी के रूप में जानी गई।

        दूसरे जन्म में वह अल्पकाल के लिए शिविका के रूप में जन्म लेती है और अपनी पूर्व जन्म की स्मृति को बरकरार रखते हुए भीष्म से प्रतिशोध की कामना लिए भगवान  शिव के कहने पर अपने शरीर को अग्नि में समर्पित कर देती है। 

...फिर अपने तीसरे जन्म में भी 'अम्बा ' पांचाल नरेश राजा द्रुपद के यहां कन्या रूप में ही जन्म लेती है जिसे राजप्रासाद में बालक के रूप में पाला-पोषा जाता है किन्तु विवाहोपरांत मधुयामिनी की रात्रि को 'शिखण्डी' का भेद खुल जाता है और अचेत अवस्था में उसे शिवजी का वरदान और अपना प्रतिशोध याद आता है। तब वह गुप्त मार्ग द्वारा महल छोड़कर पुनःअपनी प्रतिज्ञा को पूर्ण करने के लिए निकल पड़ती है, मगर यह स्त्री देह में संभव कहाँ था ? 

     शिवजी के वरदान के बावजूद सशंकित मन से वह पुनः कठिन तपस्या करती है और क्षीण अवस्था में यक्ष चिकित्सक द्वारा शल्य क्रिया के माध्यम से पुरुष देह धारण कर वापस अपने राज्य में शिखण्डी के रूप में प्रवेश कर युद्धस्थल के लिए प्रस्थित होता है। 

     अम्बा के शिखण्डी बनने तक की तीन जन्मों की इस प्रतिशोध यात्रा को लेखिका ने अपनी कल्पनाशक्ति से मानो जीवंत कर दिया है । यहां संवाद-कौशल की जितनी तारीफ की जाए कम है। शिखण्डी के रूप में सहज जिज्ञासा को शांत करते हुए डॉ. शरद सिंह  कहती हैं -

"उसका अस्तित्व कैसा था ?

वह स्त्री था, पुरुष था अथवा तृतीय लिंगी? एक व्यक्ति से जुड़े अनेक प्रश्न... क्योंकि उसका अस्तित्व सामान्य नहीं था। वह शक्तिपुंज पात्र 'महाभारत' महाकाव्य का सबसे दृढ़ निश्चयी चरित्र है, जो अपने जीवन की प्रत्येक परत के साथ न केवल चौंकाता है वरन अपनी ओर चुम्बकीय ढंग से आकर्षित भी करता है । वह पात्र है शिखण्डी जिसका अस्तित्व भ्रान्तियों के संजाल में उलझा हुआ है। वहीं वह इतना प्रभावशाली पात्र है कि महर्षि वेदव्यास ने 'महाभारत' के सबसे इस्पाती पात्र भीष्म से 'अम्बोपख्यान' कहलाया है ,जो शिखण्डी की ही कथा है, जबकि भीष्म और शिखण्डी के मध्य वैमनस्यता का नाता रहा । इस अत्यंत रोचक पात्र की जीवन गाथा अंतस को झकझोरने में सक्षम है। अतः शिखण्डी के संपूर्ण जीवन को नवीन दृष्टिकोण से जांचने ,परखने और प्रस्तुत करने की आवश्यकता को अनदेखा नहीं किया जा सकता।  जब शिखण्डी के जीवन की परतें खुलती हैं तो हमारे प्राचीन भारत में सुविकसित ज्ञान के उस पक्ष की भी परतें खुलकर सामने आने लगती है जहाँ शल्य चिकित्सा द्वारा लिंग परिवर्तन किए जाने के तथ्य उजागर होते हैं । इन तथ्यों का ही प्रतिफलन है यह उपन्यास-'शिखण्डी : स्त्री देह से परे'।"

   लेखिका ने इस उपन्यास में समाहित अनेक ऐतिहासिक प्रसंगों में कल्पना का रंग भरते हुए उन्हें अपनी विशिष्ट शैली में रोचक बना दिया है । संवाद कौशल ने इन प्रसंगों को यादगार बना दिया है जो पाठकों के मन मस्तिष्क पर गहरी छाप छोड़ते हुए उन्हें प्रभावित करते हैं। 

'महाभारत' के 18 दिन चले युद्ध में शिखण्डी अपनी प्रतिज्ञा पूर्ण करने हेतु भीष्म पितामह की मृत्यु का कारक बनने के लिए अधीर नजर आता है ।

    उसे यह अवसर मिलता है जब - शिखण्डी ने अर्जुन के आगे आकर भीष्म पर बाणों की वर्षा आरंभ कर दी। उसका एक भी बाण भीष्म को आहत नहीं कर पा रहा था क्योंकि शिखण्डी सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर नहीं था। भीष्म को तो किसी सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर के बाण ही चोट पहुंचा सकते थे जबकि शिखण्डी के सामने आते ही भीष्म ने अपना धनुष झुका दिया था। वे अंबा की स्त्री - आत्माधारी स्त्री योनि -जन्मा शिखण्डी पर शर-संधान नहीं करने हेतु विवश थे। कृष्ण ने इस उचित अवसर को पहचाना और अर्जुन को संकेत किया।अर्जुन ने शिखण्डी की ओट से भीष्म पितामह पर बाणों की वर्षा आरंभ कर दी । बाणों का प्रहार इतना तीव्र था कि अर्जुन के बाण भीष्म के कवच को भेदते हुए उसके शरीर को छलनी करने लगे। देखते ही देखते पचासों बाण भीष्म की देह के आर- पार हो गए। दम्भी भीष्म शरशैय्या पर शिथिल पड़ा था,शिखण्डी के ठीक सामने।

      लेखिका ने यहां भीष्म और शिखण्डी की मनो-वार्ता का जो वृहद संवाद लेखन किया है वह अद्भुत है। संक्षिप्त में इसे आप भी देखिये  - "शिखण्डी के नेत्रों में विजय भाव थे तो भीष्म के नेत्रों में पश्चाताप के भाव।

' अब हम दोनों मुक्त हो जाएंगे, इस जन्म- जन्मांतर के बंधन से। मात्र उत्तरायण सूर्य की प्रतीक्षा है ,मुझे भी, तुम्हें भी!' भीष्म ने अति मद्धम स्वर में शिखंडी से कहा, जिसे मात्र शिखण्डी ने ही सुना।

'मरणासन्न को क्षमा नहीं करोगी, अंबा?' 

यह भीष्म का शिखण्डी से मानसिक वार्तालाप था ।

'तुमने भी तो नहीं किया था देवव्रत!' शिखण्डी  ने भी उसी प्रकार मानस तरंगों से प्रत्युत्तर दिया।

' मैं प्रणबद्ध था।'

'मैं प्रणयबद्ध थी।'

'मैं अनभिज्ञ था।'

  ' कोई भी कर्म करने के पूर्व तत्सम्बन्ध में ज्ञान प्राप्त करना भी तो आवश्यक होता है, देवव्रत!' तुम्हें भी हम तीनों बहनों के बारे में ज्ञात करना था। नहीं कर सकते थे तो हम तीनों की इच्छा तो पूछते। क्या तुम्हारी दृष्टि में स्त्री की इच्छा का कोई मोल नहीं था?'

'था न ! महारानी सत्यवती और उनके पिता की इच्छा पर ही तो मैंने भीष्म प्रतिज्ञा ली थी।'

..स्वयं को दोष मुक्त कराने के लिए कुतर्क मत करो ! तुम सुविज्ञ हो और सुविज्ञ थे ! ...उत्तम यही होगा कि तुम अब अपने अंतिम समय में अपने अपराध स्वीकार कर लो! यदि तुम ऐसा करोगे तो सम्भवतः मैं सूर्य के उत्तरायण होने तक तुम्हें क्षमादान दे दूं!' शिखण्डी ने कहा ।

  ' मैं यही करूंगा!' मैं क्षमा मांगूंगा... अपनी स्वयं की आत्मा से भी, मैंने उसका कहना कभी नहीं सुना ...पर अब सुनूंगा... जो भी समय शेष है ,उसमें सुनूंगा!' भीष्म के कथन में पश्चाताप का भाव था।

   इस मानसिक संवाद के मध्य पितामह भीष्म के नेत्रों से अश्रुधाराएं बह निकलीं। इन अश्रुधाराओं को सभी ने देखा, किंतु उस मानसिक संवाद को कोई नहीं सुन सका। परिणामतः सभी को यही प्रतीत हुआ कि पितामह को शारीरिक पीड़ा हो रही है। इन अश्रुओं के मर्म को यदि कोई समझ रहा पा रहा था तो वह था शिखण्डी और कृष्ण ।

  इस तरह अपने तीसरे जन्म में राजकुमारी अम्बा का प्रतिशोध एवं प्रतिज्ञा स्त्री देह से परे शिखण्डी के रूप में पूर्ण होती है। 

   लेखिका कहती हैं - वह अपने पहले जन्म में कन्या के रूप में जन्मीं और स्त्री के रूप में अपने प्रेम सम्बन्धों को जीना चाहती थी मगर ऐसा हो न सका। अपने दूसरे जन्म में वह एक सामान्य कन्या के रूप में जन्मी,किन्तु उसने अद्भुत जीवन जिया। तीसरे जन्म में भी कन्या के रूप में वह जन्मीं और अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए पुरुष बनी। यही पुरुष शिखण्डी था जिसने स्त्री देह से परे रहते हुए अपनी प्रतिज्ञा पूर्ण की।

   जब शिखण्डी का अंत हुआ तो वह अंत नहीं आरम्भ था जो युगों-युगों तक स्त्रियों के अपने स्वाभिमान,अपने अस्तित्व और अपनी गरिमा के संघर्ष के लिए मार्ग प्रशस्त करता रहेगा। इस सत्य का स्वयं समय साक्षी बना कि अम्बा, शिखण्डी के रूप में जनम्बन्धन से मुक्त हुई और रच गई एक स्त्री की देह से परे एक अदभुत देहगाथा। 

      यह उपन्यास भाषाई संहिता और संवाद कौशल के साथ ही शिखण्डी से जुड़े एक नए दृष्टिकोण को सामने रखता है । सदियों से चली आ रही मान्यता की -' शिखण्डी' थर्ड जेंडर था ! इस उपन्यास को पढ़ने के बाद टूटती दिखाई पड़ती है और यह विदित होता है कि शिखण्डी तो कभी थर्ड जेंडर था ही नहीं। वह स्त्री के रूप में जन्मा और शल्य चिकित्सा द्वारा पुरुष के रूप में परिवर्तित होकर उसने अपना प्रतिशोध लिया। इस दृष्टि से यह उपन्यास बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि वह पुरातन ग्रंथों एवं महाकाव्यों के चरित्रों को एक नए दृष्टिकोण से देखने का आह्वान करता है। स्त्री विमर्श का एक नया आयाम रचने के लिए लेखिका को साधुवाद।


  - देवेन्द्र सोनी

सम्पादक 

युवा प्रवर्तक

इटारसी।

मो.9111460478




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