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My Editorials - Dr Sharad Singh

Wednesday, July 20, 2022

चर्चा प्लस | यूं तो इस दिन चांद पर क़दम रखा था हमने | डॉ. (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस  
यूं तो इस दिन चांद पर क़दम रखा था हमने
 - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह                                                                                        
           कवियों और शायरों का पंसदीदा शब्द है ‘चांद’। कोई अपनी महबूबा को चांद-सा कहता है तो कोई चांद को रोटी-सा देखता है। किसी को चांद खुश दिखता है तो किसी को तन्हा। यानी चाहे अहसास कोमल हों या खुरदरे, चांद के बिना काम नहीं चलता है। चांद के प्रति यह मोह आज भी टूटा नहीं है जबकि अब हम चांद की सच्चाई जान चुके हैं, वह भी वर्षों पहले, आज ही के दिन 20 जुलाई को जब मनुष्य ने चांद पर अपना पहला क़दम रखा था। तो स्थानीय चुनावों के गंभीर माहौल के बाद चांद की कुछ चर्चा हो जाएं।  
इतिहास के पन्नों में 20 जुलाई एक ऐतिहासिक घटना है, जिसने चांद को कवियों की कल्पनाओं और रूमानियत से छीनने का प्रयास किया और चांद यानी चंद्रमा की सच्चाई दुनिया के सामने खोल कर रख दी। दरअसल, 20 जुलाई वह दिन था जब अंतरिक्ष नाविक नील आर्मस्ट्रान्ग ने दुनिया का पहला इंसान होने का गौरव पाते हुए चंद्रमा की सतह पर अपना पहला कदम रखा था। वह 20 जुलाई का ही दिन था कोई इंसान पहली बार चांद पर पहुंचा था। यह सदियों पुरानी इच्छाओं और वर्षोंं की मेहनत का परिणाम था। सन् 1969 की 16 जुलाई को अमेरिका के फ्लोरिडा प्रांत में स्थित जॉन एफ कैनेडी अंतरिक्ष केन्द्र से नासा का अंतरिक्ष यान अपोलो-11 चांद की ओर सफ़र पर निकला था। अपना चार दिन का सफर पूरा करके अपोलो-11 ने 20 जुलाई 1969 को इंसान को धरती से चांद पर पहुंचा दिया था। यह यान 21 घंटे 31 मिनट तक चंद्रमा की सतह पर रहा।

चांद हमेशा कौतूहल का विषय रहा है। शुक्ल पक्ष में चांद के छोटा, बड़ा होने और कृष्ण पक्ष में गायब हो जाने ने अनेक कहानियों और कविताओं को जन्म दिया है। चंद्रमा के जन्म की विभिन्न कहानियां पुराणों में हैं। ज्योतिष और वेदों में चन्द्र को मन का कारक कहा गया है। वैदिक साहित्य में सोम (चांद) का स्थान भी प्रमुख देवताओं में मिलता है। अग्नि ,इंद्र ,सूर्य आदि देवों के समान ही सोम की स्तुति के मन्त्रों की भी रचना ऋषियों द्वारा की गई है। पद्म पुराण के अनुसार ब्रह्मा ने अपने मानस पुत्र अत्रि को सृष्टि का विस्तार करने की आज्ञा दी। महर्षि अत्रि ने अनुत्तर नाम का तप आरम्भ किया। तपकाल में एक दिन महर्षि के नेत्रों से जल की कुछ बूंदें टपक पड़ी जो बहुत प्रकाशमय थीं। दिशाओं ने स्त्री रूप में आ कर पुत्र प्राप्ति की कामना से उन बूंदों को ग्रहण कर लिया जो उनके उदर में गर्भ रूप में स्थित हो गया। परन्तु उस प्रकाशमान गर्भ को दिशाएं धारण न रख सकीं और त्याग दिया। उस त्यागे हुए गर्भ को ब्रह्मा ने पुरुष रूप दिया जो चंद्रमा के नाम से प्रख्यात हुआ। स्कन्द पुराण के अनुसार जब देवों तथा दैत्यों ने क्षीर सागर का मंथन किया था तो उस में से चौदह रत्न निकले थे। चंद्रमा उन्हीं चौदह रत्नों में से एक है जिसे लोक कल्याण हेतु, उसी मंथन से प्राप्त कालकूट विष को पी जाने वाले भगवान शंकर ने अपने मस्तक पर धारण कर लिया।

कल्पनाओं से परे चांद का सच कुछ और ही है। चंद्रमा लगभग 4.5 करोड़ वर्ष पूर्व धरती और थीया ग्रह (मंगल के आकार का एक ग्रह) के बीच हुई भीषण टक्कर से जो मलबा पैदा हुआ, उसके अवशेषों से बना था। यह मलबा पहले तो धरती की कक्षा में घूमता रहा और फिर धीरे-धीरे एक जगह इकट्टा होकर चांद की शक्ल में बदल गया। अपोलो के अंतरिक्ष यात्रियों द्वारा लाए गए पत्थरों की जांच से पता चला है कि चंद्रमा और धरती की उम्र में कोई फर्क नहीं है। इसकी चट्टानों में टाइटेनियम की मात्रा अत्यधिक पाई गई है। एक अन्य परिकल्पना विखंडन सिद्धांत पर आधारित है, जिसके अनुसार पृथ्वी की सतह के करीब 2900 किलोमीटर नीचे एक नाभिकीय विखंडन के फलस्वरूप पृथ्वी की धूल और पपड़ी अंतरिक्ष में उड़ी और इस मलबे ने इकट्ठा होकर चांद को जन्म दिया। यद्यपि इस सिद्धांत पर सभी वैज्ञानिक एकमत नहीं हैं। फिर भी इस बात पर सभी एकमत हैं कि चंद्रमा का गुरूत्व पृथ्वी के महासागरों पर ज्वार-भाटा का पैदा करता है। वहीं आमौतर पर यह उपग्रह दिशासूचक की तरह भी काम करता है और कई देशों के कैलेंडर भी इसकी गति पर निर्भर हैं। अगर चांद नहीं होता तो धरती पर दिन-रात 24 घंटे के बजाए सिर्फ छह से 12 घंटे का ही होता। एक साल में 365 दिन नहीं बल्कि 1000 से 1400 के आसपास दिन होते।

पुराण चाहे जो भी कथा कहें या वैज्ञानिक चाहे जो भी सच सामने रखें लेकिन शायर मन तो अभी भी चांद को उसी रूमानियत से देखता है जैसे पहले देखता था। शायरों को इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता है कि आज चांद पर प्लाटिंग हो रही है और बस्तियां बसाए जाने की जोर-शोर से तैयारियां चल रही हैं। शायरी में चांद आज भी खूबसूरत चांद है, तन्हा चांद है, रोटी जैसा चांद है, माथे की बिन्दी जैसा चांद है और किसी-किसी के लिए तो पूरी की पूरी महबूबा जैसा चांद है। आनन्द बख़्शी का यह गीत भला कौन भूल सकता है-
चांद सी महबूबा हो मेरी, कब ऐसा मैंने सोचा था
हां, तुम बिलकुल  वैसी हो,  जैसा मैंने सोचा था

या फिर शक़ील बादायुनी के इस गाने को भूला पाना तो नामुमकिन है-
चौदहवीं  का  चांद हो  या   आफ़ताब हो
जो भी हो तुम ख़ुदा की क़सम लाज़वाब हो

    चांद पर भले ही क्रेटर पाए गए हों या अब यह पता लगा लिया गया हो कि वहां भी पृथ्वी जैसे भूकंप आते हैं अथवा आ चुके हैं लेकिन इससे न तो शायरों को कोई अन्तर पड़ता है न शायराओं को। मीना कुमारी ने चांद को तन्हाई का प्रकीत माना और यह शेर कह डाला-
चांद  तन्हा  है   आसमां तन्हा
दिल मिला है कहां-कहां तन्हा

जबकि जावेद अख़्तर चांद को फ़ीका मानते हैं और चांद के साथ वे सूखी टहनी और तन्हा चिड़िया की बात करते हुए कहते हैं कि-
सूखी टहनी, तन्हा  चिड़िया, फीका चांद
आंखों के  सहरा में  एक नमी  का चांद
उस  माथे  को  चूमे  कितने  दिन बीते
जिस माथे की ख़ातिर था इक टीका चांद

मगर चांद को ले कर निदा फ़ाज़ली का नज़रिया कुछ और ही है। वे चांद को मां की ममता और बचपन से जोड़ कर देखते हैं-
नील-गगन में तैर रहा है उजला-उजला पूरा चांद
मां की लोरी-सा,  बच्चे के दूध-कटोरे  जैसा चांद

सच तो ये है कि चांद का महत्व मन की स्थिति के अनुसार समझा जाता-बूझा है। कोई चंदा को ‘‘पल भर को मुंह फेरने’’ के लिए कहता है तो कोई कभी नायिका परदेस में बैठे पिया के पास संदेशा ले जाने को चंदा से कहती है, तो कभी कोई अपने मायके अपने भाई के पास सावन में आने का संदेश ले जाने को कहती है। लेकिन शायरा परवीन शाकिर अपने दुख में डूब कर चांद को देखती हैं तो उन्हें यह दिखाई देता है-
पूरा  दुख  और  आधा चांद
हिज्र की शब और ऐसा चांद
दिन में  वहशत  बहल  गई
रात  हुई और  निकला चांद

साहिर लुधियानवी संज़ीदा शायर थे। वे जो कुछ अपनी शायरी में कहते उसमें भरपूर दृश्यात्मकता भी होती। यदि उनकी कोई शायरी फिल्म में नहीं फिल्माई गई होती तब भी उसे पढ़ते हुए एक दृश्य किसी चलचित्र की भांति आंखों के सामने से गुज़र जाता। एक बानगी देखिए-  
चांद मद्धम है आसमां चुप है
नींद की गोद में  जहां चुप है

गुलजार का मसला अलग ही है वे  चांद  की उपस्थिति को बेअसर मानते हुए कहते हैं कि-
तेरे जाने से तो कुछ बदला नहीं,
रात भी आयी और चांद भी था, मगर नींद नहीं।

लेकिन ग़ज़लकार डाॅ. वर्षा सिंह ने अपनी शायरी में चांद और सपनों के आपसी संबंध को बड़ी खूबसूरती से बयान किया है और चांद को अपने प्रिय की उपस्थिति का आभास माना है-  
तुम रात के सिरहाने इक चांद तो रख जाते
नींदों में   उदासी   के   सपने  तो नहीं आते

चांद की तारीफ़ करती डॉ. वर्षा सिंह यहीं नहीं ठहरती हैं, वे चांद को ज़िन्दगी के विभिन्न पहलुओं से जोड़ती हुई, उसकी विशेषताएं बताती हैं-  
रात के माथे  टीका चांद
खीर सरीखा  मीठा चांद
हंसी चांदनी  धरती पर
आसमान में  चहका चांद
महकी बगिया  यादों की
लगता महका-महका चांद

शायर कुमार विश्वास मानते हैं कि चांद में नूर है लेकिन उतना नहीं जितना प्रियतमा के सौंदर्य में है। इसीलिए वे कहते हैं कि-
रात हुई है चांद  जमीं पर  हौले-हौले उतरा है,
तुम भी आ जाते तो सारा नूर मुकम्मल हो जाता
    
चांद पर शायरों की जो बयानबाज़ी है उनमें से चुनिंदा तो मैंने आपके सामने रख दी। अब मेरे क्या ख़्याल है चांद के बारे में, यदि मैंने अपना कुछ नहीं बताया तो मुझे लगेगा कि मेरी बात पूरी नहीं हुई। अतः मैं यानी ग़ज़लकार डाॅ (सुश्री) शरद सिंह चांद के बारे में क्या कहती है, यह भी देख लीजिए -
आसमान में  तारे तो हैं, चांद नहीं है
मद्धम से उजियारे तो हैं,चांद नहीं है
दूरी का अंधियारापन है बेहद गहरा
हम दोनों  बेचारे तो हैं, चांद नहीं है

यूं तो आज के दिन हमने चांद पर अपना पहला क़दम रखा था लेकिन शायरी ने तो हमेशा ही चांद से रिश्ता जोड़ रखा है। यूं भी स्थानीय चुनावों के भारी-भरकम माहौल के बाद कुछ हल्की-फुल्की, रूमानीयत भरी बातें ज़रूरी थीं। लिहाज़ा चांद-चर्चा भी ज़रूरी थी। है न!
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