Pages

My Editorials - Dr Sharad Singh

Sunday, August 21, 2022

संस्मरण | मैचमेकिंग का असफल प्रयास | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नवभारत

संस्मरण 
मैचमेकिंग का असफल प्रयास
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

    जब मैं पन्ना में स्कूल में पढ़ती थी तब मेरी सहपाठियों में सभी उत्तर भारतीय छात्र-छात्राएं थीं। फिर जब मैं अपने मामा जी के पास बिजुरी पढ़ने के लिए गई तो वहां पहली बार मुझे एक ऐसी सहेली मिली जो दक्षिण भारतीय थी। वह आयु में मेरे बराबर थी लेकिन उसकी शिक्षा में बीच में व्यवधान आ जाने के कारण मुझसे छोटी कक्षा में थी। यानी मैं 11वीं कक्षा में थी तो वह नवी कक्षा में पढ़ रही थी। लेकिन हम दोनों के बीच बहुत जल्दी घनिष्ट मित्रता हो गई। उसका नाम था सरोजिनी। उसका वास्तविक नाम लेने में मुझे कोई संकोच नहीं है क्योंकि मैं जानती हूं कि यदि उसे यह पता चले कि मैंने कहीं उसका उल्लेख किया है तो उसे कभी बुरा नहीं मानेगी। सरोजिनी के मामा जी पहले आर्मी में थे शार्ट सर्विस कमीशन में थे । फिर वहां से सेवानिवृत्त होकर रेलवे में काम करने लगे। किंतु किसी कारण से उन्हें रेलवे की नौकरी छोड़नी पड़ी और वह बिजुरी में आकर बस गए उनके साथ उनकी पत्नी और  दो बेटियां तथा एक बेटा था। सरोजिनी की मां का उसके पिता से  अलगाव हो चुका था। तभी से सरोजनी की मां अपने भाई के साथ रह रही थीं। इस तरह सरोजिनी भी अपने मामा जी के साथ रहती थी और मैं भी अपने मामा जी के पास रहती थी। बस अंतर यही था कि उसकी मां उसके साथ थीं, जबकि मेरी मां और मेरी दीदी मुझसे दूर थीं।
       यूं तो सरोजिनी सांवले रंगत की थी लेकिन उस के नाकनक्श गजब के सुंदर थे। वह देखने में किसी दक्षिण भारतीय सिने अभिनेत्री से कम दिखाई नहीं देती थी। जब वह अपने दक्षिण भारतीय शैली में लहंगा, ब्लाउज़, दुपट्टा पहनती और उस पर अपने घने लंबे काले बालों में सफेद मोंगरे  की वेणी लगाती, तो ऐसा लगता जैसे रेखा या वैजयंती माला साक्षात सामने आ गई हो। बेहद हंसमुख थी वह। किसी भी समस्या को बहुत गंभीरता से नहीं लेती थी। जबकि उसका जीवन आसान नहीं था। मैं जब भी मां और दीदी की याद में उदास होने लगती तो वह जबरदस्ती पकड़कर मुझे अपने घर ले जाती और अपनी मां के सामने खड़ा करके कहती, "लो, ये हैं मां। अब इनकी गोद में सिर रखकर रो लो, जितना रोना है।" उसकी बात सुनकर, मुझे झेंप भी लगती और हंसी भी आ जाती। 
       मैं शुरू में उसे मद्रासी मानती थी। क्योंकि उन दिनों दक्षिण भारतीय लोगों के लिए या तो "साउथ इंडियन" या फिर "मद्रासी" शब्द का प्रयोग किया जाता था। चाहे वह तमिलनाडु का हो, केरल का हो या कर्नाटक का, इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता था। उत्तर भारतीयों की दृष्टि में सब के सब मद्रासी थे। यह धारणा क्यों चली यह तो मुझे नहीं मालूम लेकिन मैं भी शुरू में सरोजिनी को मद्रासी ही समझती थी। 
     वहां मेरे साथ एक सिंधी लड़की भी पढ़ती थी। बहुत ही अलग थी और मासूम सी। उसका घरेलू नाम मोना था और हम लोग भी उसे मोना के नाम से ही पुकारते थे। उसका बहुत बड़ा परिवार था। जहां तक मुझे याद है, उसके नौ भाई-बहन थे। इसलिए वह परिवार में उतना प्रेम नहीं पा सकी थी जितना प्रेम उसे हम दोनों से मिलता था। वह भी हम लोगों की सहेली बन गई थी। यद्यपि वह इतनी घनिष्ट सहेली नहीं थी जितनी कि मैं और सरोजनी। हम दोनों बहनों की तरह थे। सरोजिनी को मोना के कारण कई बार अपने घर में डांट खानी पड़ती थी। मोना मैं बहुत चंचलता थी। वह सोचती कम थी और करती ज़्यादा थी। इसीलिए सरोजिनी के घर में धूप में रखे गए अचार के मर्तबान को छू देने पर न केवल उसको डांट पड़ती बल्कि सरोजनी को भी डांट खानी पड़ती।  सरोजिनी ने मोना के संदर्भ में ही मुझे बताया था  कि हम लोग तमिल हैं और हमारे यहां खानपान की शुद्धता और पूजा-पाठ का विशेष ध्यान रखा जाता है। हम तीनों सहेलियों में सरोजिनी को उन बातों का ज्ञान अधिक था जो लड़कियों को होना चाहिए। लेकिन मित्रता के बावजूद वह कभी भी किसी विषय पर सीमा का उल्लंघन नहीं करती थी। हंसी-मज़ाक में भी हम लोग शालीनता का पालन करते थे।
     सरोजिनी के परिवार की माली हालत अच्छी नहीं थी। उसके मामा को जितनी पेंशन मिलती थी, उससे उनके परिवार का गुज़ारा नहीं हो पाता था। मामी तनिक तेज स्वभाव की थीं। इसलिए जब-तब सरोजिनी की मां को उलाहना भी देती रहती थीं। यद्यपि कोई बड़ा मनमुटाव उनके बीच नहीं था। सरोजिनी की मां और मामा अतिरिक्त कमाई के लिए कपड़ा सिलने का काम करते थे। तुरपाई करना, बटन टांकना जैसे छोटे-मोटे काम सरोजिनी भी करती थी। उसके इस कामों ने मुझे बहुत प्रभावित किया था और मैंने सिलाई की पैर मशीन चलाना उसी से सीखा था। 
       सरोजिनी के मामा और मेरे मामा जी के बीच मित्रता थी इसीलिए हम लोगों का एक दूसरे के घर आना-जाना होता रहता था। एक दिन सरोजिनी ने बताया कि उस की शादी के लिए उसके मामा लड़का ढूंढ रहे हैं। मुझे यह सुनकर बड़ा अजीब लगा। वह मेरे ही उम्र की थी और शादी की कल्पना तो मेरे मस्तिष्क से भी कोसों दूर थी। मैंने यह बात अपने मामा जी को बताई। तब मेरे मामा जी ने सरोजिनी के मामा को समझाया कि कम से कम 11वीं क्लास तक तो सरोजिनी को पढ़ लेने दो, उसके बाद उसके विवाह के बारे में सोचना। तात्कालिक रूप से सरोजनी के मामा मान गए और मेरे वहां रहते तक फिर कभी सरोजिनी के विवाह की चर्चा नहीं हुई।
      11 वीं बोर्ड परीक्षा देने के बाद मैं वापस मां के पास पन्ना आ गई। वहां मैंने छत्रसाल स्नातकोत्तर महाविद्यालय में आर्ट फैकल्टी में दाखिला लिया। पन्ना आने के बाद मुझे बिजुरी की बहुत याद आती थी। मैंने वहां पढ़ाई के साथ और भी बहुत कुछ सीखा और जाना था। विशेष रुप से मुझे सरोजिनी की याद आती थी। उन दिनों फोन सुविधा इतनी आसान नहीं थी कि मैं सरोजिनी से बात कर पाती। हम लोग एक-दूसरे को अंतर्देशीय पत्र लिखते थे, जिन्हें आने-जाने में ही काफी समय लग जाता था। मैंने मां से कहा कि मैं एक बार बिजुरी घूमने जाना चाहती हूं ताकि सरोजिनी से मिल सकूं। मां ने सहर्ष स्वीकृति दे दी और तय हुआ कि फर्स्ट ईयर की परीक्षा देने के बाद मैं  बिजुरी जाऊंगी। 
       फर्स्ट ईयर में मेरा एक लड़के से परिचय हुआ। वह भी दक्षिण भारतीय था। यद्यपि वह मुझसे सीनियर था। मैं फर्स्ट ईयर में थी, तो वह थर्ड ईयर में था। मैं खिलंदड़ी स्वभाव की थी इसलिए उसकी मंशा भांप नहीं सकी। वह तो मुझे तब आश्चर्य हुआ जब उसने प्रेम-पत्र लिखकर एक किताब में रख कर मुझे पकड़ा दिया। खै़र इसकी चर्चा में बाद में अलग से करूंगी क्योंकि यह भी एक दिलचस्प घटना है। इस घटना से पूर्व मैंने उसे बताया कि मैं बिजुरी जाने वाली हूं। उसके भी कोई रिश्तेदार रेलवे में पोस्टेड थे और चिरमिरी में रहते थे। उसने मुझसे कहा कि मैं बिजुरी में मिलने आऊंगा। मैंने भी सहज भाव से कह दिया कि आ जाना। जब मैं बिजुरी पहुंची तो सरोजनी से मिलने के बाद मेरे दिमाग में यह बात कौंधी कि सरोजिनी और उस लड़के में दोस्ती हो जाए तो कितना अच्छा है। दोनों दक्षिण भारतीय हैं। यदि एक-दूसरे को पसंद कर लेंगे तो बहुत अच्छा रहेगा। यूं भी सरोजनी के मामा जी उसकी शादी के लिए एक बार फिर सक्रिय हो उठे थे। मैंने पहले सरोजिनी को कुछ नहीं बताया, लेकिन जब वह लड़का आया तो मैंने सरोजिनी के हाथों  उसके पास चाय भिजवाई और मैंने सरोजनी से कहा कि तुम दोनों तो दक्षिण भारतीय हो, अपनी भाषा में एक दूसरे से खूब सारी बातें करना, तब तक मैं नाश्ता बनाती हूं। लेकिन 5 मिनट में ही सरोजिनी वापस आ गई और बोली तुम जाकर बातें करो नाश्ता में बना देती हूं। मैंने पूछा क्या हुआ? तुम दोनों अपनी भाषा में बात क्यों नहीं कर रहे हो? तो वह हंसने लगी और बोली कि हम दोनों की भाषा एक नहीं है। मैं तमिल हूं और वह कन्नड़ है। अब यह सोचने की बात थी कि मैं कितनी बड़ी बेवकूफ थी कि फर्स्ट ईयर की परीक्षा दे चुकी थी लेकिन फिर भी मुझे इस बात का अहसास नहीं था कि तमिल और कन्नड़ अलग-अलग होते हैं या दक्षिण भारत में जो भाषाएं बोली जाती हैं वे सभी परस्पर एक-दूसरे से बहुत भिन्न हैं। सरोजिनी इस मामले में बहुत चतुर थी। वह भांप गई कि मैं उस लड़के से क्यों बात करवाना चाह रही थी। उसने मुझसे कहा कि उसके मामा कभी किसी कन्नड़ लड़के से मेरा विवाह करना स्वीकार नहीं करेंगे इसलिए इस बारे में कोई चर्चा मत करना। यानी कुल मिलाकर मैचमेकिंग का मेरा पहला और अंतिम प्रयास ही ध्वस्त हो गया। इसके बाद मैंने तौबा कर ली कि मैं ऐसी बेवकूफ़ी फिर कभी नहीं करूंगी। यद्यपि इससे यह जरूर लाभ हुआ कि मुझे दक्षिण भारत की संस्कृति और भाषा की विविधता के बारे में "प्रैक्टिकल तौर पर" पता चला जिसे बाद में किताबों में पढ़ कर मैंने और गहराई से जाना। तब मुझे यह महसूस हुआ कि हम दक्षिण भारतीयों को सिर्फ "मद्रासी" का संबोधन देकर कितना कम आंकते हैं। दक्षिण भारत में भी सांस्कृतिक विविधता और भाषाई विविधता पाई जाती है जो वहां की सांस्कृतिक समृद्धि की द्योतक है। वस्तुतः इस मैचमेकिंग प्रकरण ने मेरे ज्ञान चक्षु खोल दिए थे।        
            ----------------------
नवभारत | 21.08. 2022 
#संस्मरण #डॉसुश्रीशरदसिंह #हिंदीसाहित्य #लेख #memoir #mymemories #DrMissSharadSingh

No comments:

Post a Comment