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My Editorials - Dr Sharad Singh

Sunday, August 7, 2022

संस्मरण | भय की पहली लहर | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नवभारत

आज नवभारत मेंं 07.08. 2022 को प्रकाशित ....
संस्मरण 
भय की पहली लहर
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
        उन दिनों तत्कालीन जिला शहडोल के बिजुरी ग्राम में अपने मामा कमल सिंह चौहान जी के साथ रह कर ग्यारहवीं कक्षा की पढाई कर रही थी। वह काॅलरी एरिया था। बिजुरी ग्राम से कहीं अधिक बड़ी, सुव्यवस्थित काॅलोनी थी काॅलरी की। कोयला खदान में विभिन्न पदों पर काम करने वाले कर्मचारी मामाजी के मित्र थे। बिजुरी गांव और बिजुरी काॅलरी के बीच छोटे-छोटे कुछ खेत थे और खेतों के बीच एक लगभग चैकोर तालाब था। उस तालाब और खेत के बीच मेंड़नुमा पतला रास्ता था। उस रास्ते से हो कर ही मैं और मामाजी काॅलरी काॅलोनी जाया करते थे। शाम को तालाब में मेंढकों के टर्राने की आवाज़ें सुनाई देती थीं। पन्ना में तो ऐसे कच्चे तालाब थे नहीं। वहां तो बेहतरीन घाटों वाले तालाब थे। इसलिए वहां इस तरह मेंढकों की आवाज़ें कभी नहीं सुनी थीं। यह मेरे लिए नया अनुभव था। यद्यपि अभी कई नए अनुभव भविष्य की ओट में छिप कर मेरी प्रतीक्षा कर रहे थे। कुछ अच्छे, कुछ बुरे। 
एक नया अनुभव यह भी था कि गांव के अधिकांश घरों की तरह मामाजी के घर में भी बिजली का कनेक्शन नहीं था। जीवन में पहली बार पूरे साल भर मैंने लालटेन में पढ़ाई की। किराए का घर था वह। एक बखरी जैसी जगह में। बखरी यानी जिसके चारों ओर घर बने हुए थे और बीच में बागीचा, कुंआ और बड़ा-सा आंगन था। बखरी के किसी भी घर में स्नानघर नहीं था यद्यपि देसी टाॅयलेट था। सुबह भोजन बनाने से पहले महिलाएं कुए पर जा कर नहा लेतीं और उनके बाद पुरुषवर्ग कुए पर जा कर नहाता। मगर मैंने अपने जीवन में कभी खुले में नहीं नहाया था। मामाजी जानते थे कि मैं कुए पर नहीं नहाऊंगी, इसलिए उन्होंने मेरे वहां पहुंचने से पहले ही पीछे के आंगन में बांस की टटियो और चादर से ढंका हुआ एक कच्चा बाथरूम बनवा दिया था। यद्यपि उस पर छत नहीं थी लेकिन वहां पास में कोई दुमंज़िला मकान भी नहीं था। कच्चे बाथरूम में नहाने का भी मेरा पहला अनुभव था। 
मेरे घर से सटा हुआ जो घर था उसमें एक सिंधी परिवार रहता था। काॅलरी क्षेत्र में उनका छोटा-सा जरनल स्टोर था। शायद पंजवानी सरनेम था। मामाजी ने बताया था कि उन पंजवानी अंकल का मन काम में नहीं लगता था, उन्हें जुआ खेलने की लत लग गई थी। लेकिन उनकी पत्नी जिन्हें मैं आंटी कह कर पुकारती थी। खाना पकाने में निपुण थीं। सिंधी स्टाईल की कमल-ककड़ी की सब्ज़ी उन्हीं के यहां पहली बार मैंने खाई थी और मैं उनकी बनाई उस सब्ज़ी की दीवानी हो गई थी। वे जब भी कमल-ककड़ी की सब्ज़ी बनती, मुझे जरूर खिलातीं। उन्हें मुझसे बहुत स्नेह था। जल्दी ही उन्हें दूकान बेच कर बिजुरी से जाना पड़ा। उनका जाना मुझे बहुत अखरा था। लेकिन उनके बाद जो किराएदार आए उनसे मेरी बहुत जल्दी पटरी बैठ गई। 
नए किराएदार मामाजी के परिचित थे। काॅलरी में रहते थे। उनकी पत्नी का मन काॅलोनी में नहीं लगा। इसलिए उन्हें जैसे ही मामाजी से हमारे पड़ोस वाले घर का पता चला। उन्होंने उसे किराए पर ले लिया। उनकी आयु अधिक नहीं थी। फिर भी विवाह हुए चार-पांच साल हो गए थे और उनके कोई बच्चे नहीं थे। मैं उन्हें भी अंकल-आंटी कहती थी। वे लोग रीवा के पास के किसी गांव के रहने वाले थे। परिहार सरनेम था उनका। आंटी से मेरी बहुत जल्दी दोस्ती हो गई। वे भी मुझे बहुत चाहती थीं। जब-तब दुनियादारी भी समझाती रहती थीं। जिनमें वे बातें भी होती थीं जिनकी मां ने मुझसे कभी चर्चा नहीं की थी। शायद मेरे थोड़ी और बड़ी होने पर चर्चा करतीं, लेकिन आंटी के ग्रामीण नज़रिए से तो मैं बड़ी हो चुकी थी और मुझे चैकन्ना रहना सीख लेना चाहिए था। यद्यपि उनकी इस तरह की बातें मेरे सिर के ऊपर से गुज़र जातीं। सिर्फ़ तीन साल छोड़ कर मैं बचपन से कोएजुकेशन में पढ़ी थी। बिजुरी में भी को-एजुकेशन था। इसलिए लड़कों को ले कर मेरे मन में एक मित्रवत खिलंदड़ापन ही रहा और कभी कोई ऊटपटांग भावना नहीं जगी। 
लगभग आधा साल गुज़र गया था। बोर्ड की परीक्षाओं का सेंटर बिजुरी के बजाए कोतमा में रहता था। मामाजी सीनियर टीचर थे अतः बोर्ड के काम के लिए प्रिंसिपल उन्हें ही कोतमा और शहडोल भेजा करते थे। उन्हीं दिनों एक नए टीचर मामाजी वाली शिफ्ट में कहीं से ट्रांसफर हो कर आए। उन्होंने गंाव में एक कमरा किराए पर ले लिया था। एक दिन मामाजी ने उन्हें खाने पर घर बुलाया। वे आए हम तीनों ने साथ खाना खाया। वे मुझसे मेरी पढ़ाई के बारे में पूछते रहे। मामाजी से बोले कि ‘‘यदि शरद को जरूरत हो तो मैं फ्री में ट्यूशन पढ़ा दूंगा।’’ मामाजी ने उन्हें बता दिया कि इसे ट्यूशन पढ़ना पसंद ही नहीं है। फिर उन्होंने कहा कि उन्हें रात को खाना खाने के बाद दूध पीने की आदत है और घर में दूध ले कर रखने, गरम करने की सुविधा नहीं है। इस पर मामाजी ने कहा कि ‘‘कोई बात नहीं, दूधवाले से कह देना कि हमारे घर दे जाया करे। दोपहर में शरद आ जाती है। गरम कर के रख दिया करेगी। शाम को मेरे आने के बाद तुम ले जाया करना।’’ वे मान गए।
कुछ दिन बाद मामाजी को स्कूल के किसी काम से शहडोल जाना पड़ा। उन्होंने मुझे समझाया कि जब वे सर आएं तो दरवाजे से ही उन्हें दूध का डिब्बा पकड़ा देना और दरवाज़ा बंद कर के रखना। बस, एक ही दिन की बात थी। परिहार अंकल जरूर बारह घंटे की ड्यूटी पर चले जाया करते थे। वे आठ घंटे की ड्यूटी और चार घंटे ओवरटाईम करते थे। मगर आंटी पूरे समय घर पर रहती थीं। इसलिए मुझे कोई चिंता नहीं थी। जब शाम हुई तो वे सरजी घर आए। मैंने दरवाजा खोला और दूध का डिब्बा लेने अंदर वाले कमरे में आई और जब पलट कर देखा तो वे पहले कमरे में कुर्सी पर आलथी-पालथी मार कर बैठे दिखाई दिए। दो कमरे का छोटा-सा घर था। एक दरवाज़ा बाहर सड़क पर खुलता था जिससे सरजी कमरे में पधार गए थे और दूसरा दरवाज़ा पीछे वाले आंगन की तरफ था जहां परिहार आंटी के घर का भी पिछला दरवाज़ा था। मैंने सरजी को दूध का डिब्बा दिया तो वे अजीब दृष्टि से मुझे देखने लगे। मुझे कुछ समझ में नहीं आया। लेकिन कहते है न, कि लड़कियों और महिलाओं में सिक्स्थ सेंस होती है। मुझे अचानक डर-सा लगने लगा। फिर भी मैंने हिम्मत करके कहा कि ‘‘सर! मामाजी ने कहा है कि दरवाज़ा बंद कर के रहना, तो आप जाइए, मुझे दरवाज़ा बंद करना है।’’
‘‘ठीक है पानी पिला दो।’’ सरजी ने कहा। मेरे मन में अज्ञात भय बढ़ गया। अब मुझे रहा नहीं गया और मैं पानी लाने के बहाने भीतर दूसरे कमरे से होती हुई सीधे परिहार आंटी के पास पहुंची और उन्हें सारा हाल बताया। ‘‘ठीक है, चलो! मैं देखती हूं।’’ उन्होंने कहा और वे मेरे साथ मेरे घर पहुंची और ऊंची आवाज में बोलीं,‘‘बिटिया, चलो अपने सरजी को पानी दे दो। फिर मेरे घर चलो। तुम्हारे अंकल आने वाले हैं। उनकी छुटटी का टाईम हो गया है।’’ आंटी ने चतुराई से काम लिया था क्योंकि अंकल रात दस बजे के पहले आने वाले नहीं थे, पर सरजी यह थोड़े ही पता था। आंटी की बात सुन कर सरजी ने दूध का डिब्बा उठाया और बिना पानी पिए ही वहां से दफ़ा हो गए। 
आज जब मैं ‘‘गुड टच और बेड टच’’ की शिक्षा के बारे में सुनती हूं तो मुझे लगता है कि हर बच्चे में सिक्स्थ सेंस होती है। बस, जरूरत होती है किसी ऐसे बड़े की जिससे समय रहते वह खुल कर बात कर सके और मदद ले सके। मुझे परिहार आंटी के रूप में एक ऐसी ही अघोषित अभिभावक मिल गई थीं जिन्होंने जीवन का पहला पाठ पढ़ने और भय की पहली लहर को समझने में मदद की। मेरे सिक्स्थ सेंस को जाने-अनजाने उन्हीं ने जगाया था जिससे मैं उन सरजी की कुभावना को एक अनजाने भय के रूप में ताड़ गई। वे आंटी अब कहां हैं, मैं नहीं जानती। लेकिन मेरे जीवन और मेरी आत्मरक्षा की दृढ़ता में उनका योगदान मैं कभी भुला नहीं सकती हूं।                
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