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My Editorials - Dr Sharad Singh

Wednesday, November 23, 2022

चर्चा प्लस | कोप 27: हो गया यवनिका पतन, अब आगे क्या? | डॉ. (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस  
कोप 27: हो गया यवनिका पतन, अब आगे क्या?
- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                                      
       कुल मिलाकर, कोप 27 का समापन खट्टे-मीठे परिणामों के साथ हुआ। जिसमें भारत की ओर से रखे गए प्रावधानों को एकबार फिर अनदेखा कर दिया गया। जबकि भारत एक ऐसा देश है जो पूरी तरह से तीसरी दुनिया के देशों का प्रतिनिधित्व करता है, इसलिए भारत के प्रस्ताव की अनदेखी इस सम्मेलन के दूरगामी परिणामों पर सवालिया निशान लगाती है। कुछ बड़े और विकसित देश विकासशील देशों के भाग्य का फैसला खुद नहीं कर सकते। इस सम्मेलन ने अपने पीछे कई ऐसे सवाल छोड़े हैं जिनका जवाब तलाशने की जरूरत है। जैसे तीसरी दुनिया की जनता की राय को शामिल किए बिना सही परिणाम कैसे प्राप्त किया जा सकता है? ऐसी योजना बनानी होगी कि इस तरह के प्रयास महज राजनीतिक नाटक न बन जाएं।
      सम्मेलन पर सम्मेलन, सम्मेलन पर सम्मेलन ...बतर्ज़ सनी देयोल का डायलाॅग ‘‘तारीख़ पे तारीख़, तारीख़ पे तारीख़’’। बस, अंतर इतना है कि उस अदालत में सिर्फ़ तारीख़ें आगे खिसक रही थीं पेशियों की और कोई निर्णय नहीं हो रहा था, मगर यहा हर सम्मेलन के बाद कई निर्णय लिए जाते हैं लेकिन अफ़सोस कि वे निर्णय पूरी तरह से अपने परिणामों तक नहीं पहुंच पाते हैं। कहीं रसूख वाले देशों का राजनीतिक दबाव तो कहीं  सीधे पूंजीपतियों का दबाव। विरोधों और आंदोलनों को बदनाम करके दबाया जाना तो हमेशा से एक सस्ती और घटिया चाल रही ही है। यद्यपि आज मीडिया कई दृश्य ऐसे भी दिखा देता है जो प्रकृति संरक्षण के ड्रामें को बेनकाब कर देता है। जैसे वृक्षारोपण के दौरान समारोहपूर्वक वृक्षारोपण किया जाता है। बाद में उन वृक्षों की दशा-दिशा पर कोई अखबार या टीवी चैनल फॅालोअप दिखा देता है तो पता चलता है कि वे सारी पौध पानी के अभाव में सूख कर मर चुकी है। यानी अगली बार वृक्षारोपण के लिए फिर ज़मीन उपलब्ध। बहरहाल, अभी 2022 के नवंबर माह में 6 से 18 नवंबर तक मिश्र (इजिप्ट) के शरम-अल-शेख में सीओपी-27 का सम्मेलन सम्पन्न हुआ। सम्मेलन के समापन के एक दिन पहले 17 नवंबर, 2022 की सुबह एक ‘‘नॉन पेपर’’ जारी किया गया। इसमें विभिन्न देशों से प्राप्त सूचनाओं का संकलन किया गया था, जिससे इस सम्मेलन में उठाए गए सभी मुद्दों पर प्रकाश डाला जा सके और निर्णय लिए जा सके। इस तरह ‘‘नॉन पेपर’’ जारी करना एक परम्परा है।  
इस ‘‘नॉन पेपर’’ ने पूरे सम्मेलन में मुद्दों और आम सहमति को संक्षेप में प्रस्तुत किया। साथ ही कार्यवाही कैसे होनी चाहिए, इसके लिए भी गाइडलाइन रखी गई थी। यह उल्लेखनीय है कि ग्लासगो में केाप-26 के निर्णयों, जिसे ग्लासगो क्लाइमेट पैक्ट (जीसीपी) के रूप में जाना जाता है, ने ‘‘जीवाश्म ईंधन’’ शब्द का उल्लेख करने वाला पहला कोप निर्णय होने का इतिहास बनाया था। जीवाश्म ईंधन का अर्थ है कोयला, तेल, प्राकृतिक गैस आदि। ग्लासगो में जारी जीसीपी आठ पेज लंबा था। वहीं, मिस्र में जारी यह दस्तावेज 20 पेज का था। दस्तावेज ने ऊर्जा संकट, जलवायु परिवर्तन पर अंतर सरकारी पैनल (आईपीसीसी) के निष्कर्षों और बहुपक्षीय विकास बैंकों (एमडीबी) की रिपोर्टों पर व्यापक विचार सहेजेे। जैसे कि इसमें यूएनएफसीसीसी के दायरे के भीतर और बाहर कई विषयों को शामिल करने वाले सुझावों की एक लंबी, व्यापक सूची शामिल थी। मसौदे में तेजी से बदलाव के साथ ऊर्जा प्रणालियों को अधिक सुरक्षित, विश्वसनीय और लचीला बनाने की आवश्यकता पर प्रकाश डाला गया। यह ऊर्जा सुरक्षा के बारे में था, जो कि अधिकांश देशों के लिए एक प्रमुख प्राथमिकता भी है। कागज ने अक्षय ऊर्जा की ओर झुकाव और झुकाव के साथ कोयला आधारित ऊर्जा को चरणबद्ध तरीके से समाप्त करने का आह्वान किया। हालांकि, यह जीवाश्म ईंधन सब्सिडी पर अधिक जोरदार तरीके से बात नहीं रखी गई।
उल्लेखनीय है कि ग्लासगो क्लाइमेट पैक्ट (जीसीपी) ने अक्षम जीवाश्म ईंधन सब्सिडी को चरणबद्ध तरीके से समाप्त करने का आह्वान किया था। जबकि कोप 27 में जारी इस मसौदे में ‘‘अक्षम जीवाश्म ईंधन सब्सिडी के चरणबद्ध और युक्तिकरण’’ का आह्वान किया गया। दुर्भाग्य से, मसौदे में सभी जीवाश्म ईंधन को चरणबद्ध तरीके से समाप्त करने के भारत के प्रस्ताव का भी उल्लेख नहीं किया गया। वास्तव में, मसौदे में जीवाश्म ईंधन का एकमात्र संदर्भ जीवाश्म ईंधन सब्सिडी को युक्तिसंगत बनाने के संदर्भ में है। यह एक ऐसा तथ्य है जो इस नॉन पेपर को कमजोर बनाता है। क्योंकि वैज्ञानिकों की राय में, 1.5 डिग्री सेल्सियस के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए जीवाश्म ईंधन को खत्म करना बहुत महत्वपूर्ण है। एचओडी बैठक में, जी-77 और चीन के दलों ने तर्क दिया कि मसौदा जलवायु वार्ता की यात्रा की दिशा को स्पष्ट नहीं करता है। वहीं, बोलीविया ने कहा कि इस मसौदे के जरिए पेरिस समझौते की दोबारा व्याख्या नहीं की जानी चाहिए। उन्होंने आगे कहा कि विकसित देशों के वित्तीय दायित्वों को कम नहीं किया जा सकता है।
कोप 27 के कुछ अच्छे और कुछ कमजोर पक्ष थे। नुकसान और मुआवजे को संबोधित करने के लिए वित्त पोषण या एक नया फंड भारत सहित गरीब और विकासशील देशों की लंबे समय से लंबित मांग रही है-उदाहरण के लिए, बाढ़ से विस्थापित लोगों को स्थानांतरित करने के लिए आवश्यक धन-लेकिन अमीर देशों ने एक दशक से अधिक समय तक कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है। लम्बे समय से इस पर चर्चा करने से परहेज किया जाता रहा है। विशेषज्ञों ने कहा कि यह आश्चर्यजनक है कि अधिकांश विकासशील देशों और अमेरिका और यूरोपीय संघ सहित कुछ विकसित देशों के समर्थन के बावजूद, सभी जीवाश्म ईंधन को चरणबद्ध तरीके से समाप्त करने के आह्वान को मसौदा पाठ में जगह नहीं मिली। कोप 27 के व्यापक निर्णय पर मसौदा पाठ हानि और क्षति को संबोधित करने के लिए वित्त पोषण तंत्र पर एक ‘‘प्लेसहोल्डर’’ डालता है, जिसका अर्थ है कि पार्टियों ने अभी तक इस मामले पर आम सहमति तक नहीं पहुंच पाई है। यह पुष्टि करता है कि वैश्विक तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने के लिए तीव्र और गंभीर उत्सर्जन कटौती की आवश्यकता है। इसमें 2010 के स्तर की तुलना में 2030 तक वैश्विक कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन को 45 प्रतिशत तक कम करना और सदी के मध्य के आसपास शुद्ध शून्य उत्सर्जन तक पहुंचना शामिल है।
कोप 27 के अंतिम दिन, मिस्र में समझौते का पहला औपचारिक मसौदा 18 नवंबर 2022 को प्रकाशित हुआ, जिसमें एक बार फिर भारत के सभी जीवाश्म ईंधन को चरणबद्ध तरीके से समाप्त करने और क्षति और मुआवजे के वित्तपोषण पर कोई प्रावधान शामिल नहीं किया गया। जबकि भारत एक ऐसा देश है जो पूरी तरह से तीसरी दुनिया के देशों का प्रतिनिधित्व करता है, इसलिए भारत के प्रस्ताव की अनदेखी इस सम्मेलन के दूरगामी परिणामों पर सवालिया निशान लगाती है। कुछ बड़े और विकसित देश विकासशील देशों के भाग्य का फैसला खुद नहीं कर सकते।
जलवायु परिवर्तन का पूरा परिदृश्य हमारे सामने है जिसे हल्के में नहीं लिया जा सकता। पृथ्वी की सतह का वैश्विक औसत तापमान समग्र ऊर्जा असंतुलन के परिणामों में से केवल एक है। अतिरिक्त ऊर्जा मौसम प्रणालियों को प्रभावित करती है और भारी वर्षा, बाढ़, चक्रवाती तूफान, सूखा, गर्मी की लहरों और जंगल की आग जैसी कई चरम मौसम की घटनाओं की संख्या और तीव्रता को सीधे बढ़ाती है। मौसम की घटनाएं ऊर्जा को स्थानांतरित करती हैं और जलवायु प्रणाली को अंतरिक्ष में ऊर्जा के विकिरण से रोकती हैं। इससे वैश्विक तापमान में भी वृद्धि होती है। इस अध्ययन से यह भी पता चला है कि संतुलन से 93 प्रतिशत अतिरिक्त गर्मी पृथ्वी के महासागरों में जाती है, जिससे समुद्र के जल स्तर का तापमान बढ़ जाता है। यही कारण है कि वर्ष 2021 अब तक के सबसे गर्म महासागरों वाला वर्ष था। पृथ्वी की सतह का वैश्विक औसत तापमान समग्र ऊर्जा असंतुलन के परिणामों में से केवल एक है। अतिरिक्त ऊर्जा मौसम प्रणालियों को प्रभावित करती है और भारी वर्षा, बाढ़, चक्रवाती तूफान, सूखा, गर्मी की लहरों और जंगल की आग जैसी कई चरम मौसम की घटनाओं की संख्या और तीव्रता को सीधे बढ़ाती है।
कोप-27 के समापन के साथ ही जलवायु परिवर्तन के चलते हो रहे नुकसान व क्षति के लिए कोष बनाने सहित लगभग सभी एजेंडों पर सहमति जता दी गई। इसे यूनाइटेड नेशंस फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज (यूएनएफसीसीसी) के पक्षकारों के 27वें सम्मेलन ( कोप-27) की एक बड़ी उपलब्धि माना जा रहा है। कोप 26 की तुलना में कोप 27 ने नवीकरणीय ऊर्जा के संबंध में अधिक कड़ी भाषा का इस्तेमाल किया और ऊर्जा माध्यमों में बदलाव की बात करते हुए न्यायोचित बदलाव के सिद्धांतों को शामिल किया गया। इस योजना ने वैश्विक औसत तापमान में वृद्धि को पूर्व-औद्योगिक स्तर से करीब दो डिग्री सेल्सियस नीचे तक सीमित रखने के पेरिस समझौते के लक्ष्य की पुष्टि की। इसमें कहा गया कि यह ‘जलवायु परिवर्तन के जोखिम और प्रभावों को काफी कम करेगा।’
हानि एवं क्षतिपूर्ति के समाधान के लिए वित्तपोषण या एक नया कोष बनाना भारत सहित गरीब और विकासशील देशों की लंबे समय से लंबित मांग रही है, लेकिन अमीर देशों ने एक दशक से अधिक समय से इस पर चर्चा से परहेज किया है। विकसित देशों, खासकर अमेरिका ने इस डर से इस नए कोष का विरोध किया है कि ऐसा करना जलवायु परिवर्तन के चलते हुए भारी नुकसान के लिए उन्हें कानूनी रूप से जवाबदेह बनाएगा। ‘हानि और क्षति कोष’ का प्रस्ताव जी 77 और चीन (भारत इस समूह का हिस्सा है), अल्प विकसित देशों और छोटे द्वीप राष्ट्रों ने रखा था। अल्प विकसित देशों ने कहा था कि वे नुकसान और क्षति कोष पर समझौते के बिना कोप 27 से नहीं जाएंगे।
उल्लेखनीय है कि जलवायु परिवर्तन से संबंधित आपदाओं का सामना कर रहे गरीब देश अमीर देशों से जलवायु अनुकूलन के लिए धन देने की मांग कर रहे हैं। गरीब देशों का मानना है कि अमीर देश जो कार्बन उत्सर्जन कर रहे हैं, उसके चलते मौसम संबंधी हालात बदतर हुए हैं, इसलिए उन्हें मुआवजा दिया जाना चाहिए। संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन शिखर सम्मेलन के आधिकारिक ट्विटर हैंडल से ट्वीट किया गया, ‘‘शर्म-अल-शेख में आज कोप 27 में इतिहास रचा गया। पक्षकार उन विकासशील देशों की सहायता के लिए बहुप्रतीक्षित ‘हानि और क्षति’ कोष की स्थापना पर सहमत हुए जिन पर जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभावों का विशेष रूप से असर पड़ा है।’
क्या महज क्षतिपूर्ति जलवायु संकट से हम मनुष्यों को बचा सकती है? जलवायु परिवर्तन इस सदी की प्रमुख समस्या है। यह संकट मानवता के अस्तित्व के लिए चुनौती बनता जा रहा है। इस साल दुनिया के कई देशों को प्रतिकूल मौसमी परिघटनाओं की मार झेलनी पड़ी। पाकिस्तान में बाढ़ से 3.3 करोड़ आबादी प्रभावित हुई। डेढ़ हजार से अधिक लोगों की मौत हो गई। 44 लाख एकड़ भूमि पर लगी फसल चैपट हो गई। यूरोप के कई देशों में गर्मी के पुराने रिकार्ड टूट गए। गर्मी के कारण वहां जंगलों में लगने वाली आग ने जैव विविधता को जो क्षति पहुंचाई, उसकी भरपाई शायद ही हो पाएगी। भारत में भी मानसून की देरी के कारण पहले तो समय पर रोपाई नहीं हो सकी और बाद में इतनी बारिश हुई कि कई हिस्सों में फसलें चैपट हो गईं। भारत में भूकंप की आवृतियां और तीव्रता निरंतर बढ़ रही है, जिसे अनदेखा नहीं किया जा सकता है। मुआवजा देकर पूंजीवादी देश ग़रीब देशों को चुप रहने को मना तो सकते हैं लेकिन उस पृथ्वी की दशा को कैसे सुधारेंगे जिस पर वे स्वयं भी मौजूद हैं? अतः इस बात को ऐतिहासिक जीत (जैसा कि पाकिस्तान की ओर से कहा गया) नहीं माना जा सकता है। ऐतिहासिक जीत तो तब होगी जब विकसित देश अपनी जिम्मेदारियों को स्वीकार कर के जलवायु परिवर्तन रोकने के सच्चे प्रयास करेंगे।आवश्यकता इस बात की है कि जलवायु परिवर्तन के असर को कम करने और नए हालात के हिसाब से ढालने के उपायों पर वृक्षारोपण, जंगलों की सीमा बढ़ाने और काटे गए जंगलों को फिर से लगाने पर प्रत्येक सरकार को ध्यान देना होगा, जिससे कि जंगलों में कार्बन के भंडारण के संरक्षण के साथ-साथ उसे बढ़ाया भी जा सके। आमजन को जागरूक करना होगा जलवायु परिवर्तन के प्रति ताकि वह अपने छोटे-छोटे प्रयासों से स्थिति की भयावहता को कम कर सके।
कुल मिलाकर, कोप 27 का समापन खट्टे-मीठे परिणामों के साथ हुआ। सम्मेलन का यवनिका पतन हो गया। यवनिका पतन अर्थात् नाट्यमंच पर नाटक के समापन पर पर्दे का गिरना। यह सम्मेलन अपने पीछे कई ऐसे सवाल छोड़ गया है जिनका जवाब तलाशना जरूरी है। जैसे तीसरी दुनिया की जनता की राय को शामिल किए बिना सही परिणाम कैसे प्राप्त किया जा सकता है? ऐसी योजना बनानी होगी कि इस तरह के प्रयास महज राजनीतिक नाटक बन कर न रह जाएं। हम एक भयावह जलवायु परिवर्तन परिदृश्य का सामना कर रहे हैं जिसे हल्के में नहीं लिया जा सकता है।    
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