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My Editorials - Dr Sharad Singh

Wednesday, November 16, 2022

चर्चा प्लस | राष्ट्रीय प्रेस दिवस : हम पत्रकारिता के किस जनरेशन में हैं? | डॉ. (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस      

राष्ट्रीय प्रेस दिवस : हम पत्रकारिता के किस जनरेशन में हैं?
- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह 
                                            राष्ट्रीय प्रेस दिवस पर हमें इस पर विचार करना चाहिए कि हम पत्रकारिता के किस जनरेशन में चल रहे हैं? क्योंकि आज पत्रकारिता का स्वरूप वह नहीं है जो देश की स्वंतत्रता के पूर्व या देश की स्वतंत्रता के कुछ दशक बाद तक रहा। डिज़िटल क्रांति ने सबकुछ उलट-पलट दिया है। आज का पत्रकार नोटबुक और कलम ले कर नहीं घूमता है, उसके हाथ में एंड्रायड फोन और आईपैड होता है। यदि आज के पत्रकार के साथ प्रेस फोटोग्राफर न हो तो भी वह अपने मोबाईल से इवेंट या मूवमेंट को कैप्चर कर सकता है। यहां तक कि लाईव स्ट्रीमिंग भी कर सकता है।

अकबर इलाहाबादी ने यह शेर कहा था-

न खींचो कमान,  न तलवार निकालो,
जब तोप हो मुकाबिल, तब अखबार निकालो।

और जब अख़बार मुक़ाबिल हो तो? स्पष्ट है कि सेंसरशिप जैसे हथियार निकाल लिए जाते हैं। खैर, बात यहां सेंसरशिप की नहीं बल्कि राष्ट्रीय प्रेस दिवस की है। जी हां, हमारे देश में 16 नवंबर को राष्ट्रीय प्रेस दिवस मनाया जाता है। यह दिवस देश में एक स्वतंत्र और तथ्य की समर्थक प्रेस की उपस्थिति के उत्सव के रूप में मनाया जाता है। इसीलिए इस दिन पत्रकारों का सम्मान भी किया जाता है। यह परंपरा सन् 1966 के बाद आरम्भ हुई। दरअसल, 1956 में प्रथम प्रेस आयोग ने पत्रकारिता की नैतिकता और प्रेस की स्वतंत्रता की रक्षा के लिए एक समिति गठित करने का विचार किया। इस विचार को क्रियान्वित होने में लगभग 10 वर्ष लग गए और 10 वर्ष बाद सन् 1966 में एक प्रेस परिषद का गठन किया गया। भारतीय प्रेस परिषद अथवा प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया देश में जहां पत्रकारिता के दायित्वों पर नज़र रखती है, वहीं पत्रकारिता जगत के अधिकारों की रक्षा के प्रति भी सचेत रहती है। भारतीय प्रेस परिषद यह भी सुनिश्चित करता है कि भारत में प्रेस किसी दबाव में काम करने को विवश न किया जाए। यूं तो 4 जुलाई 1966 को भारतीय प्रेस परिषद की स्थापना हुई थी लेकिन 16 नवंबर 1966 को इसने विधिवत काम करना शुरू किया था। इसीलिए प्रति वर्ष 16 नवंबर को राष्ट्रीय प्रेस दिवस के रूप में मनाया जाता है।

राष्ट्रीय प्रेस दिवस पर हमें इस पर विचार करना चाहिए कि हम पत्रकारिता के किस जनरेशन में चल रहे हैं? क्योंकि आज पत्रकारिता का स्वरूप वह नहीं है जो देश की स्वंतत्रता के पूर्व या देश की स्वतंत्रता के कुछ दशक बाद तक रहा। डिज़िटल क्रांति ने सबकुछ उलट-पलट दिया है। आज का पत्रकार नोटबुक और कलम ले कर नहीं घूमता है, उसके हाथ में एंड्रायड फोन और आईपैड होता है। यदि आज के पत्रकार के साथ प्रेस फोटोग्राफर न भी हो तो भी वह अपने मोबाईल से इवेंट या मूवमेंट को कैप्चर कर सकता है। यहां तक कि लाईव स्ट्रीमिंग भी कर सकता है। आज बाईनरी दुनिया के सहारे सक्रिय पत्रकारिता का आकलन भी जनरेशन के रूप में ही किया जाना चाहिए। जैसे कम्प्यूटर टेक्नाॅलाॅजी के विकास की प्रक्रिया को दर्शाने के लिए जनरेशन शब्द का प्रयोग किया जाता है। जनरेशन यानी पीढ़ी। मनुष्य की पीढ़ी और कम्प्यूटर की पीढ़ी में बहुत अंतर है। हमने अपनी एक ही पीढ़ी में कम्प्यूटर की अनेक पीढ़ियां देख ली हैं। दिलचस्प बात यह है कि हम इसी दौरान पत्रकारिता की भी कुछ पीढ़ियों से गुज़र चुके हैं।

सन् 1988 तक मध्यप्रदेश के सागर जैसे मंझोले शहरों से निकलने वाले दैनिक समाचारपत्र कम्पोजिटर्स द्वारा एक-एक अक्षर सेट कर के छपाई के लिए तैयार किए जाते थे। लेकिन आज इसी शहर में राष्ट्रीय समाचारपत्रों के संस्करण अत्याधुनिक मशीनों से छापे जा रहे हैं। वैसे, भारतीय पत्रकारिता का इतिहास अंग्रेजों के जमाने से ही शुरू होता है। पहला भारतीय अंग्रेजी समाचार पत्र 1816 ई. में कलकत्ता में गंगाधर भट्टाचार्य द्वारा ‘‘बंगाल गजट’’ नाम से निकाला गया। यह साप्ताहिक समाचार पत्र था। 1818 ई. में मार्शमैन के नेतृत्व में बंगाली भाषा में ‘‘दिग्दर्शन’’ मासिक पत्र प्रकाशित हुआ, लेकिन यह पत्र जल्दी ही बंद हो गया। इसी समय मार्शमैन के संपादन में एक और साप्ताहिक समाचार पत्र ‘‘समाचार दर्पण’’ प्रकाशित किया गया। 1821 ई. में बंगाली भाषा में साप्ताहिक समाचार पत्र ‘‘संवाद कौमुदी’’ का प्रकाशन हुआ। इस समाचार पत्र का प्रबन्ध राजा राममोहन राय के हाथों में था। राजा राममोहन राय ने सामाजिक तथा धार्मिक कुरीतियों के विरोधस्वरूप ‘‘समाचार चंद्रिका’’ का मार्च, 1822 ई. में प्रकाशन किया। इसके अतिरिक्त उन्होंने अप्रैल, 1822 में फारसी भाषा में ‘‘मिरातुल’’ अखबार एवं अंग्रेजी भाषा में ‘‘ब्राह्मनिकल मैगजीन’’ का प्रकाशन किया। 1790 के बाद भारत में अंग्रेजी भाषा की और कुछ अखबार स्थापित हुए जो अधिकतर शासन के पक्षधर थे। सन् 1819 में भारतीय भाषा में पहला समाचार-पत्र प्रकाशित हुआ था। वह बंगाली भाषा का पत्र ‘संवाद कौमुदी’ था। उसके प्रकाशक थे राजा राममोहन राय। 1822 में गुजराती भाषा का साप्ताहिक ‘मुंबईना समाचार’ प्रकाशित होने लगा, जो दस वर्ष बाद दैनिक हो गया और गुजराती के प्रमुख दैनिक के रूप में आज तक विद्यमान है। भारतीय भाषा का यह सब से पुराना समाचार-पत्र है। 1826 में ‘उदंत मार्तंड’ नाम से हिंदी के प्रथम समाचार-पत्र का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। यह साप्ताहिक पत्र 1827 तक चला और पैसे की कमी के कारण बंद हो गया। सन् 1830 में राममोहन राय ने बड़ा हिंदी साप्ताहिक ‘बंगदूत’ का प्रकाशन शुरू किया। यह बहुभाषीय पत्र था, जो अंग्रेजी, बंगला, हिंदी और फारसी में निकलता था।
1857 ई. में हुए विद्रोह के परिणामस्वरूप सरकार ने 1857 ई. का ‘‘लाईसेंसिग एक्ट’’ लागू कर दिया। अनुज्ञप्ति अधिनियम 1857 और समाचार-पत्र पंजीकरण अधिनियम 1867 ने हर मुद्रित पुस्तक एवं समाचार पत्र के लिए यह आवश्यक कर दिया कि वे उस पर मुद्रक, प्रकाशक एवं मुद्रण स्थान का नाम लिखें। पुस्तक के छपने के बाद एक प्रति निःशुल्क स्थानीय सरकार को देनी होती थी। इसे हम भारतीय पत्रकारिता की पहली जनरेशन का नाम दे सकते हैं।
दूसरी जनरेशन में उन छापेखानों में समाचारपत्र छपते रहे जहां फर्मा में एक-एक अक्षर को सेट कर के अखबार के पन्ने तैयार किए जाते थे। इस मामले में अंग्रेजी के समाचारपत्र की अपेक्षा हिन्दी के अखबारों के लिए यह कहीं अधिक दुरूह काम था क्योंकि कम्पोजीटर्स को अक्षरों के साथ मात्राएं और अनुस्वार की बिन्दी भी सेट करनी पड़ती थी। आंखे गड़ा कर करने वाला काम। इस काम की कठिनाई वे नहीं समझ सकते हैं जिन्होंने सीधे ग्लोबलयुग में पत्रकारिता जगत पांव रखा हैं। भारत में समाचारपत्रों की छपाई और पत्रकारिता के विकास को जानने एवं समझने के लिए एक महत्वपूर्ण स्थान है भोपाल स्थित माधवराव सप्रे स्मृति समाचार पत्र संग्रहालय एवं शोध संस्थान।

जहां तक भारत में पत्रकारिता के स्वरूप में आए आधुनिक बदलाव की बात की जाए तो 1995 में भारत में इंटरनेट की शुरुआत हुई और उसी समय से भारतीय पत्रकारिता का ग्लोबल स्वरूप विकसित होने लगा। नई मीडिया प्रौद्योगिकियों ने अपने उपभोक्ताओं को ‘कनवर्जेंस’ (सहज उपलब्धता) का उपहार दिया जो मोबाइल फोन के जरिए उन तक पहुंचने लगा। इससे मीडिया का जो विस्तार हुआ कि संचार माध्यम और पत्रकारिता ने एकरूप हो कर ‘मीडियास्फेयर’ जैसी स्थिति बना दी।  मीडियास्फेयर अर्थात मीडिया की सामूहिक पारिस्थितिकी, जिसमें समाचार पत्र, पत्रिकाएं, टेलीविजन, रेडियो, किताबें, उपन्यास, विज्ञापन, प्रेस विज्ञप्ति, प्रचार और ब्लाग जगत यानी सभी मीडिया प्रसारण और प्रकाशित दोनों शामिल हों। लेकिन यहां यह सब बताने का उद्देश्य भारतीय पत्रकारिता का इतिहास बताना नहीं है बल्कि इस बात को देखना है कि हमारा पत्रकारिता जगत कहां से चल कर कहां आ गया है। इसने इंटरनेट के जरिए बड़ी छलांग लगाई है। यह अपडेट और लाईव अपडेट के द्वारा हमें चौंकाता है। मुद्रित सामग्री डिज़िटल मुद्रण के द्वारा ‘‘फील एलाइव’’ कराती है। गोया हम सब कुछ करीब से देख रहे हो। किन्तु इसके साथ ही आज की पत्रकारिता पर जो सबसे बड़ा संकट दिखाई देता है, वह है पूंजीपतियों और राजनीति का दबाव। आज हम बड़े-बड़े मीडिया संस्थान बिकते हुए देखते हैं। प्रखर और मुखर पत्रकारों का मनोबल तोड़ने के लिए उन्हें ‘‘ट्रोल’’ होते हुए देखते हैं।

आज की पत्रकारिता का एक और पक्ष है जो आज भी ‘‘पीत पत्रकारिता’’ को चरितार्थ करने में जुटा रहता है और ऐसे तत्वों के हाथ लग चुका है डिजिटल माध्यम का हथियार। निजी एप्प, यूटयूब चैनल, व्हाट्सअप्प आदि के जरिए ऐसे कई समाचार माध्यम काम कर रहे हैं जिनका न तो कोई पंजीयन है और न कोई प्रिंटलाईन। इसके एक स्वरूप का अनुभव मुझे स्वयं भोपाल में हुआ जब मैं कोरोना काल के पूर्व वहां रवीन्द्र भवन में कहानी पाठ के लिए गई थी। कार्यक्रम समाप्त होने पर जैसे ही हम दो-तीन कथाकार भवन से बाहर आए वैसे ही दो युवक माईक और कैमरा लिए मेरे सामने आ खड़े हुए। एक ने कहा कि ‘‘मैम हम आज के इस आयोजन पर आपकी एक बाईट चाहते हैं। क्या आप बताएंगी कि आपको यह आयोजन कैसा लगा?’’ यह देखकर मुझे अच्छा लगा कि साहित्यिक आयोजन के प्रति इलेक्ट्राॅनिेक मीडिया में इतनी गहरी रुझान है। मैंने उस युवक के सभी प्रश्नों के प्रसन्नतापूर्वक उत्तर दिए। उसके साथ वाला युवक वीडियोग्राफी कर रहा था। मेरे बाद वे लोग दूसरे साहित्यकार की ओर मुखातिब हो गए। तभी मेरा ध्यान गया कि उनके माईक पर कोई लोगो नहीं था। सो, मैंने उनसे पूछा कि यह किस चैनल के लिए आप लोगों ने लिया है? तभी एंकर टाईप की एक युवती प्रकट हुई और उसने मुझसे कहा,‘‘मैम आप अपना फोन नंबर दे दीजिए, हम आपको सारी जानकारी व्हाटसअप्प कर देंगे।’’ मैं कुछ कह पाती इससे पहले ही वह बोल उठी,‘‘और हां मैम, आप हमारी कुछ आर्थिक मदद भी कीजिए।’’ मैंने उसे टटोलने के हिसाब से कहा कि ‘‘ठीक है मैं आर्थिक मदद कर दूंगी लेकिन ये तो बताइए कि आपका चैनल कौन-सा है?’’ आर्थिक लाभ की आशा में उसने बता दिया कि उन लोगों का यूट्यूब चैनल है। यह सुनते ही मेरी समझ में सारा माज़रा आ गया। मैंने उसे दो-टूक शब्दों में कह दिया कि मैं कोई सहायता राशि देने वाली नहीं हूं, चाहे तो मेरी बाईट मत दिखाइए। लेकिन इसके साथ ही मुझे लगा कि यह आधुनिक पत्रकारिता को बदनाम करने वाला वह फेज़ है जो अपनी हरकतों से सेंसरशिप के रास्ते खोल देता है और इससे स्वस्थ पत्रकारिता को भी चोट पहुंचती है।
डिजिटल माध्यम के कई ऐसे कथित न्यूज चैनल्स और अखबारों (टोटली पीडीएफ बेस्ड) के कारण आम आदमी के मन में भी यह विचार उठने लगता है कि इन पर कोई लगाम क्यों नहीं लगाता? शायद राॅबर्ट रेडफोर्ड ने इसीलिए कहा था कि -‘‘सूचना के लोकतंत्रीकरण के कारण पत्रकारिता बहुत बदल गई है। कोई भी व्यक्ति इंटरनेट पर कुछ भी डाल सकता है। इसलिए सच का पता लगाना और ज्यादा मुश्किल हो गया है।’’

इलेक्ट्राॅनिक मीडिया सनसनी फैलाने की पत्रकारिता में ढल गया है और प्रिंट मीडिया भी पीछे नहीं है। वह भी अपराध की खबरों को इस प्रकार से छापता है जैसे कभी ‘‘मनोहर कहानियां’’ या ‘‘सत्यकथा’’ जैसी पत्रिकाएं छापा करती थीं। उस समय ये पत्रिकाएं हर घर में नहीं आती थीं, लेकिन आज समाचारपत्र हर घर में आता है और टीवी हर घर में देखी जाती है। ऐसा नहीं है कि स्थिति सिर्फ़ बुरी ही हो। लेकिन चांद पर दिखने वाला एक दाग भी उसकी खूबसूरती को कम कर देता है। अतः यदि तकनीकी पक्ष को छोड़ दिया जाए तो समूचे परिदृश्य को देख कर यह तय करना कठिन हो जाता है कि हम पत्रकारिता के किस जनरेशन में चल रहे हैं? एक ओर दुनिया के बड़े से बड़े आतंकी संगठन पत्रकारों के दुश्मन बने हुए हैं, बड़े-बड़े राजनेता पत्रकारिता को अपने पक्ष में करने के लिए हर तरह के प्रयास में जुटे रहते हैं क्योंकि आज पत्रकारिता का जो स्वरूप है वह सेंसेक्स को उठाने और गिराने की क्षमता रखता है, सत्ता परिवर्तन की ताकत रखता है और आमजन को सच की तस्वीर दिखाने का माद्दा रखता है। इनटेल के अनुसार इस समय कम्प्यूटर युग की 12 वीं जनरेशन चल रही है तो हम यह मान सकते हैं कि अपनी तमाम कमियों और कमजोरियों के बाद भी भारतीय पत्रकारिता की कम से कम सातवीं जनरेशन को चल ही रही है।

तो सातवीं जनरेशन (मेरे अपने आकलन के अनुसार) की इस पत्रकारिता में एक कमी यह है कि इसमें अभी भी लैंगिक अनुपात में भारी अंतर है। फिर भी राष्ट्रीय प्रेस दिवस पर यह आशा की जा सकती है कि आधुनिक पत्रकारिता छद्म या पीत पत्रकारिता के दाग को पोंछ कर, लैंगिक अनुपात सुधारते हुए जल्दी ही छलांग लगा कर कई जनरेशन आगे बढ़ जाएगी। साथ ही यह भी आशा करनी चाहिए कि स्वस्थ पत्रकारिता सभी दबावों से मुक्त रहे। वरना अंत में फिर बकौल अकबर इलाहाबादी -

चश्म-ए-जहां से हालत-ए-असली छुपी नहीं
अख़बार में जो चाहिए वो छाप दीजिए।
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