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My Editorials - Dr Sharad Singh

Tuesday, December 20, 2022

पुस्तक समीक्षा | कितना सन्नाटा है | समीक्षक डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

प्रस्तुत है आज 20.12.2022 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई कवि श्री महेंद्र सिंह के ग़ज़ल संग्रह "कितना सन्नाटा है" की समीक्षा...

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पुस्तक समीक्षा
सन्नाटे को ललकारतीं जनवादी स्वर की ग़ज़लें 
समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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ग़ज़ल संग्रह - कितना सन्नाटा है
कवि       - महेंद्र सिंह
प्रकाशक   - शिवना प्रकाशन, पीसी लैब, सम्राट कॉम्प्लेक्स बेसमेंट, बसस्टैंड, सिहोर, म.प्र. - 466001
मूल्य      - 200/-
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हिन्दी साहित्य जगत में महेंद्र सिंह की पहचान प्रतिरोध के कवि के रूप में है। सन् 2000 में उनका एक कविता संग्रह आया था जिसका नाम था ‘‘उनकी आवाज़’’। इसमें एक दलित समर्थक कविता थी जिसको लेकर भारी विवाद हुआ और महेंद्र सिंह पर आपराधिक प्रकरण दर्ज करि दिया गया। उन दिनों वे सागर में कार्यरत थे। कतिपय लोग उन्हें झुकाना चाहते थे और वे झुकने को तैयार नहीं थे। अंततः साहित्यिक संगठनों के प्रभावी हस्तक्षेप से प्रकरण पर विराम लगा। मध्यप्रदेश शासन के प्रशासनिक तबके में नायब तहसीलदार से यात्रा आरम्भ कर के डिप्टी कलेक्टर के पद से सेवानिवृत्त होने वाले महेंद्र सिंह ने भ्रमणशील लोहगढ़ियों को स्थायित्व एवं वोटर आईडी दिलाने की दिशा में भी महत्वपूर्ण कार्य किया। लिहाजा जिस साहित्यकार का जनसरोकार से गहरा रिश्ता होगा, उसकी लेखनी की आंच भी गहरी होगी।


‘‘कितना सन्नाटा है’’ महेंद्र सिंह का ताजा ग़ज़ल संग्रह है। पुस्तक की भूमिका प्रख्यात आलोचक डॉ. विजय बहादुर सिंह तथा सुप्रसिद्ध ग़ज़लकार हरेराम समीप ने लिखी है। डॉ. विजय बहादुर सिंह ने लिखा है कि ‘‘उनके ग़ज़लों की बुनियादी भाषा आम बोलचाल वाली हिंदी है। अपनी उस मुहावरेदानी के साथ जिससे कहन में असरदारी आती है। महेंद्र सिंह ने अपनी ग़ज़लें इसी में कहीं भी हैं। बेशक़ इसी के चलते उनकी शायरी में जिंदादिली और खूबसूरती स्वतः चलकर आई है। फिर भी असल बात तो वह ‘बात’ है, जिसके लिए कोई भी शायर या कवि इस विधा के पास आता है। और महेंद्र सिंह इसी अर्थ में ‘बात’ के शायर हैं जो उनकी प्रत्येक ग़ज़ल के प्रत्येक शेर में साफ-साफ मौजूद है।’’

वहीं, हरेराम समीप ने रेखांकित किया है कि ‘‘महेंद्र सिंह की ग़ज़लों में समकाल निरंतर ध्वनित होता रहता है और भरे-पूरे समाज की उपस्थिति इन ग़ज़लों को जीवंत बनाए रखती है। अधिकांश ग़ज़लें समय से साक्षात्कार करती हैं। कवि की प्रतिबद्धता समाज में हाशिए पर जी रहे संघर्षरत वर्ग के प्रति स्पष्ट दिखाई देती है।’’

निःसंदेह महेंद्र सिंह की ग़ज़लों में जनवादी स्वर की हुंकार स्पष्ट सुनी जा सकती है। जनवादी ग़ज़लों की चर्चा आते ही बल्ली सिंह चीमा, अदम गोंडवी और दुष्यंत कुमार के नाम स्मृति में कौंध जाते हैं। इसके बाद जनवादी ग़ज़लों का जो स्वरूप सामने आता है वह सियासी नहीं (भले ही उसे सियासी रंग दे दिया जाता है) विशुद्ध जनपक्ष में खड़ा दिखाई देता है। जनवादी ग़ज़लकारों की भांति महेन्द्र सिंह को भी अव्यवस्था के प्रति सहनशील रवैया और प्रतिरोध की कमी निरन्तर चुभती है। इस चुभन की पीड़ा उनकी ग़ज़लों के रास्ते मुखर हुई है। संग्रह की पहली ही ग़ज़ल देखिए-
न जाने क्या थी लाचारी, किसी ने कुछ नहीं बोला।
सभी  ने  चुप्पियां  धारी, किसी ने कुछ नहीं बोला।
न सुबहों के, न उजले दिन के अब बाकी बचे मानी
मुसलसल रात है तारी,  किसी ने कुछ नहीं बोला।
हमारे  तौर  जीने के,  कोई  तय  और  करता है
ये जाने कब से है जारी, किसी ने कुछ नहीं बोला।

विगत कुछ दशक में जनहित को रौंदने वाले बड़े से बड़े घोटाले और अपराध सामने आए किन्तु अपराधियों के विरूद्ध आमजन की ओर से कोई आंदोलन खड़ा नहीं किया गया। गोया आमजन आंदोलन की चेतना को गहरी नींद में सुला चुका है। यह सब महसूस कर ग़ज़लकार महेंद्र सिंह अन्याय को सहते हुए ख़ामोश रहने वालों को धिक्कारते हुए कहते हैं-
थर-थर कांपों, डरो कि डरने के दिन आए हैं।
मर जाओ अधमरो कि मरने के दिन आए हैं।
हे धन पशुओं सिर्फ आपके हित प्रभु जन्में हैं
बाड़ा तोड़ो चरो कि चरने के दिन आए हैं।
जनसेवा के नाम भड़ैती,  ठगी, लूट करके
चलो सकेलो धरो कि धरने के दिन आए हैं।

धर्म, जाति, वर्ग के नाम पर लोगों के बीच परस्पर वैमनस्य फैलाने वालों की पोल खोलते हुए महेंद्र सिंह कहते हैं-
दिल में वो नफरत जगा कर मार देना चाहते हैं।
मौत का दर्शन पढ़ा कर मार देना चाहते हैं।
लूट के कानून पर उंगली उठाई इसलिए बस
वो हमें जालिम बताकर मार देना चाहते हैं।

महेंद्र सिंह का शब्द-संसार विस्तृत है। वे हिंदी और उर्दू शब्दों का मिलाजुला प्रयोग इतनी खूबसूरती से करते हैं कि वह एक चमत्कार-सा करती हुई पढ़ने वाले के अंतस को झकझोर देती है। बानगी देखिए-
आग भीतर तक लगी है सायबां दिखता नहीं।
यह जलन निर्धूम है जिसका धुआं दिखता नहीं।
कुछ नहीं है सिर्फ मृग़ज़ल और रेती के सिवा
सीझती है प्यास पर कोई कुआं दिखता नहीं।
जाति, मजहब की गली में सब भटकते रह गए
मंजिलों की ओर चलता कारवां दिखता नहीं।

कवि के सामाजिक सरोकार स्त्री वर्ग के प्रति भी हैं। उन्हें इस बात से कष्ट है कि स्त्रियों में अभी तक जागरूकता की कमी क्यों है? स्त्रियां अपने अधिकारों को हासिल क्यों नहीं कर पा रही हैं? अबोध, बेसहारा, लाचार, अबला जैसे विशेषणों के साथ वे क्यों घुट रही हैं? जबकि उन्हें अपने अधिकारों के लिए डटकर सामने आना चाहिए।
खरी-खरी कड़वी लगती है लग जाए।
जगता है आमर्ष  अगर  तो जग जाए।
क्यों अबोध है आधी आबादी अब तक
बहला-फुसलाकर जो चाहे ठग जाए।

‘‘कितना सन्नाटा है’’ संग्रह की यह एक ग़ज़ल महेंद्र सिंह की लेखनी के वैचारिक तेवर को पूरी तरह प्रतिबिंबित करने में सक्षम है-
सब देवों के धाम हमारी बस्ती में।
फिर भी है कोहराम हमारी बस्ती में।
कामयाब छल-कपट दबंगी ठकुराई मेहनत है नाकाम हमारी बस्ती में।
लड़की हुई जवान पिता की नींद उड़ी महंगे वर के दाम हमारी बस्ती में।

बाम्हन ठाकुर बनियों के टोले जाहिर
बाकी सब गुमनाम हमारी बस्ती में।
दारू ढलती, इज्जत बिकती रात ढले
आते कुछ हुक्काम हमारी बस्ती में।

संग्रह में छोटी बहर की बड़ी चोट करने वाली ग़ज़लें भी मौजूद हैं। दो उदाहरण देखिए-
वह हमें बहका रहे हैं।
हम बहकते जा रहे हैं।
पेट पर लातें लगाकर
पीठ को सहला रहे हैं।

जाति-पांति का चलन आम है।
देश    रूढ़ियों   का   गुलाम है।
लूट के   घर  भरने   वालों  का
जनसेवा   तकिया - कलाम है।

महेन्द्र सिंह का जन्म और शिक्षा भले ही बघेलखंड में हुई लेकिन बुंदेलखंड में वे लम्बे समय तक रहे और बुंदेली ने उनके मन पर अपनी जगह बना ली। छोटे बहर के क्रम में एक बुंदेली ग़ज़ल भी है जिसके तेवर संग्रह की अन्य ग़ज़लों की भांति तीखे और प्रहारक हैं -
परतौं कितउं परन नईं देनें।
इनखों हमें जियन नईं देनें।
कैसे छुऐ  अकास  चिरैया
पिजरौ बंद, उड़न नईं देनें।

महेंद्र सिंह के सृजन की है खूबी है कि वह अपनी ग़ज़लों के द्वारा सीधे समय से संवाद करते हैं और सोए हुए जनमानस को झकझोरते हैं, धिक्कारते हैं, फटकारते हैं और अव्यवस्था के कैनवास पर जनमत के रंगों से सुव्यवस्था का सुंदर चित्र बना देना चाहते हैं। दरअसल जनवाद विद्रूपताओं को उघाड़ कर सबके सामने रख देने का माद्दा है जिसे राजनीति से परे रख कर देखा जाना चाहिए, तब उसके वास्तविक स्वरूप को समझा जा सकता है। जनवादी स्वर की ग़ज़ल पसंद करने वालों के लिए यह एक महत्वपूर्ण संग्रह है। 
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