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My Editorials - Dr Sharad Singh

Wednesday, December 21, 2022

चर्चा प्लस | ट्रेंड : फिल्म, धमाल और बवाल का | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस  
ट्रेंड : फिल्म, धमाल और बवाल का
        - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                                      
       एक हीरो की पिछली कई फिल्में फ्लाॅप हो रही हों, फिल्म इंडस्ट्री को कोरोनाकाल में तगड़ा घाटा लग चुका हो तो कुछ ऐसे हथकंडे अपनाने ही पड़ते हैं जिससे फिल्म रिलीज़ होने के पहले ही चर्चा में आ जाए। यह बात आसानी से समझ में आने वाली है। लेकिन जो बात समझना कठिन है, वह है एक प्रतिभावान, सफल अभिनेत्री का ऐसे हथकंडे के लिए राज़ी होना। क्या अभिनेत्री को पता नहीं था कि उसके कपड़ों का रंग और पोज़ बवाल मचा सकते हैं। हो सकता है कि न हो उसे पता। क्या निर्देशक, ड्रेस डिजायनर यानी पूरी टीम ही इससे बेख़बर थी क्या? या फिर एक भड़काउ ट्रेंड को अमल में लाया गया।
शाहरुख खान और दीपिका पादुकोण की फिल्म रिलीज़ के पहले की चर्चा में आ गई थी क्योंकि उसके जो टीज़र जारी किए गए उसमें अभिनेत्री को अभिनेता के साथ एक विशेष रंग के कपड़े में उत्तेजक नृत्य करते दिखाया गया। जैसा की होना था, हुआ भी। अभिनेत्री के उत्तेजक पोज़ से कहीं अधिक हंगामा हुआ उसके कपड़ों के रंग पर। यह पहली फिल्म नहीं है जिसमें दीपिका के नृत्य को ले कर हंगामा हुआ हो। इससे पहले फिल्म ‘‘पद्मावत’’ के घूमर नृत्य पर देशव्यापी बवाल मचा था। यदि वह बवाल नहीं होता तो शायद जनता अब तक उस नृत्य को भुला चुकी होती। वह फिल्म भी पुरानी पड़ चुकी फिल्मों के बस्ते में बंाध कर कहीं ठिकाने लग चुकी होती। लेकिन वह फिल्म और वह नृत्य आज भी हमारे मानस पर अपनी जगह बनाए हुए है, इसलिए नहीं कि वे दोनों बहुत स्पेशल थे, बल्कि इसलिए कि उस फिल्म और उस नृत्य ने राजपूताना समुदाय के मन को ठेस पहुंचाई थी। इस बार समुदाय का दायरा बढ़ गया है। इस बार किसी एक समुदाय नहीं बल्कि एक धर्म विशेष को टाॅरगेट बनाया गया है। बेशक़ यह कहना गलत है कि फिल्मी दुनिया में भगवां रंग के कपड़े पहने नहीं जा सकते हैं। भगवा रंग तो होता ही सुंदर है और जब कोई भगवा रंग के कपड़े पहनता है तो उसकी सुंदरता भी बढ़ जाती है। शाहरुख की ही एक फिल्म थी जिसमें काजोल के साथ एक गाना फिल्माया गया था-‘‘रंग दे मुझे तू गेरुआ..’’। सब जानते हैं कि गाने में गेरुआ का आशय भगवां से ही था। लेकिन उस गाने पर कोई बवाल नहीं हुआ। कारण कि वह गाना सिनेमेटोग्राफिक सुंदरता और शालीनता से फिल्माया गया था।

रंग कभी दोषी या निर्दोष नहीं होते हैं। रंग मात्र रंग होते हैं जो मन को प्रफुल्लित करते हैं। किसी एक रंग पर किसी एक व्यक्ति या समुदाय का काॅपीराईट नहीं हो सकता है। प्रकृति ने रंगों की विविधता और उन्हें देखने की आंखों को क्षमता इसी लिए दी है ताकि हम प्रकृति को उसके पूरे सौंदर्य के साथ देख सकें, जान सकें और समझ सकें। यह त्रासदी ही है कि हमने रंगों को ज़मीन की तरह बांटने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। यह भी एक प्रकार का रंग भेद है कि जब हम सोचते हैं हरा रंग फलां का है और भगवा रंग फलां का है। खैर, रंगभेद के इस संस्करण का उतना महत्व नहीं है जो चमड़ी के रंग के बजाए कपड़ों के रंग पर आधारित है। यहां महत्व है उस ट्रेंड को समझने का जो मासूमियत का मुखौटा ओढ़ कर दो समुदायों के बीच ज़हर फैलाने का काम करने लगा है। फिल्म की तस्वीरें और गाने जारी हुए तो लोग गुस्से से भर उठे। बात यह भी कह दी गई कि दीपिका को भगवां के बदले हरा रंग क्यों नहीं पहनाया गया? लेकिन सोचने की बात है कि क्या हरा रंग पहना देने से वो गाना या वे दृश्य स्वीकार्य हो जाते? क्या तब उनके पोज़ आपत्तिजनक नहीं रह जाते? फिर क्या अभिनेत्री और फिल्म की पूरी टीम भी शाहरुख के समुदाय की है? यही है वह बिन्दु जिसे समझने की और धैर्य से समझने की ज़रूरत है। शायद इसीलिए सेंसरबोर्ड का अस्तित्व आकार में आया होगा। जो अब लुप्तप्राय है।

फिल्मों को ले कर विवाद तो होते ही रहे हैं। बॉलीवुड फिल्मों को लेकर विवाद होना कोई नई बात नहीं है। कभी ये विवाद फिल्मों के टाइटल से जुड़ा होता तो कभी कंटेंट से। साल 2007 में रिलीज हुई फिल्म ‘‘निशब्द’’ को लेकर खूब हंगामा हुआ था। फिल्म एक लवस्टोरी पर आधारित थी। इसमें एक उम्रदराज शख्स अपनी बेटी की सहेली से प्यार करता है। फिल्म में अमिताभ बच्चन और दिवंगत अभिनेत्री जिया खान लीड रोल में थे। कई जगहों पर इस फिल्म के पोस्टर भी फाड़ दिए गए थे। वैसे यह फिल्म हाॅलीवुड की ‘‘प्वाइजन आईवी’’ पर आधारित थी। दीपा मेहता के निर्देशन में बनी फिल्म ‘‘फायर’’ दो महिलाओं के समलैंगिक रिश्तों पर आधारित थी। यह मध्यवर्गीय परिवार में उन दो महिलाओं की कहानी थी जो रिश्ते में देवरानी और जेठानी होती हैं और एक दूसरे के प्रति आकर्षित हो जाती हैं। कई संगठनों ने इस फिल्म का विरोध किया था। दीपा मेहता की ही एक और फिल्म ‘‘वाटर’’ में विधवा महिलाओं के जीवन से जुड़ी स्याह दुनिया को दिखाया गया है। इसे बनारस में शूटिंग के दौरान ही बहुत विरोध झेलना पड़ा था। अक्षय कुमार और कियारा आडवाणी स्टारर सन् 2020 में आई फिल्म ‘‘लक्ष्मी बाॅम्ब’’ रिलीज से पहले ही विवादों में रही। जब ट्रेलर रिलीज हुआ था देखा गया कि फिल्म में मुस्लिम युवक और हिंदू युवती की लव स्टोरी दिखाई गई थी जिससे इस फिल्म को लव जिहाद से जोड़ा जाने लगा। बाद में फिल्म के नाम पर भी आपत्ति जताई जाने लगी। राजनेताओं और एक्टर मुकेश खन्ना समेत कई लोगों ने बॉम्ब के साथ देवी का नाम लक्ष्मी इस्तेमाल करने पर मेकर्स की कड़ी निंदा की। विवाद बढ़ने के बाद मेकर्स ने फिल्म का नाम लक्ष्मी बॉम्ब से लक्ष्मी कर दिया। वैसे यह फिल्म साउथ की ‘‘कंचना’’ फिल्म की हिंदी रिमेक थी। रीमेक में नाम क्यों बदला गया? यह कापीराईट का मसला था या ट्रेंड का, यह तो पता नहीं।

शाहरुख खान, इरफान पठान और लारा दत्ता स्टारर फिल्म बिल्लू का पहले नाम ‘‘बिल्लू बारबर’’ रखा गया था। फिल्म के टाइटल में नाई शब्द के होने से एक कम्यूनिटी ने इसके खिलाफ खूब आवाज उठाई। जब टाइटल के चलते विवाद बढ़ा तो मेकर्स ने फिल्म से बारबर शब्द हटाकर इसका नाम सिर्फ बिल्लू कर दिया था। दीपिका पादुकोण, रणवीर सिंह और शाहिद कपूर की फिल्म ‘‘पदमावत’’ कई कारणों से विवादों में रही थी। करणी सेना ने पूरे देश में फिल्म रिलीज बैन करने के लिए विरोध प्रदर्शन किया था। लोगों का आरोप है कि फिल्म में कई तथ्यों को गलत तरीके से पेश किया गया है और साथ ही राजपूत समुदाय को गलत दिखाने की कोशिश की गई थी। विवादों में आने के बाद फिल्म के प्रदर्शन पर रोक लगानी पड़ी थी। बाद में कुछ सीन, और टाइटल में बदलाव कर फिल्म को रिलीज किया गया था। रणवीर सिंह और दीपिका पादुकोण की फिल्म का नाम पहले ‘‘रामलीला’’ रखा गया था जिसपर जमकर विवाद हुआ था। विवाद बढ़ने पर इसका नाम ‘‘राम-लीला’’ कर दिया गया था। बाद में रिलीज के कुछ दिन पहले ही फिल्म का नाम गोलियों की ‘‘राम-लीला: गोलियों की रासलीला’’ कर दिया गया। जब यह सभी जानते हैं कि ऐसे संवेदनशील नामों से बचना चाहिए, फिर भी कुछ निर्माता, निर्देशक ऐसे नामों का ही प्रयोग करके विवाद को बनने का अवसर देते हैं। ऐसा क्यों?

कुछ और फिल्में भी हैं जो विवाद के कारण अपनी पहचान दर्ज़ करा चुकी हैं। जैसे- आमिर खान की फिल्म ‘‘लालसिंह चड्ढा’’ को आमिर खान के एक पुराने बयान के कारण विवादों में आना पड़ा था। 2015 के साक्षात्कार में दिए गए बयान के कारण इस फिल्म का विरोध किया गया था। फिल्म ‘‘ब्रह्मास्त्र’’ रणबीर कपूर के पुराने के इंटरव्यू के चलते ट्रोल हुई थी। बजरंग दल ने अभिनेता की टिप्पणियों पर नाराजगी जताते हुए हंगामा किया था। इस फिल्म में अभिनेता अपने जूते पहने हुए एक मंदिर की घंटी बजाते हुए दिखाई दे रहे है। विवाद के ट्रेंड ने इन फिल्मों को बवाल के इतिहास में दर्ज़ करा दिया है।

दरअसल, बाॅलीवुड की फिल्म इंडस्ट्री के कुछ ‘‘मास्टर माइंड’’ यह समझ चुके हैं कि विवाद से भी फिल्म को सुर्खियां मिलती हैं। मैंने सोशल मीडिया पर ही एक व्यक्ति की टिप्पणी पढ़ी थी जिसने लिखा था कि -‘‘इस फिल्म पर अब इतना हंगामा हो रहा है मुझे इस फिल्म को देखना ही पड़ेगा कि इसमें आखिर ऐसा क्या है।’’ ऐसे कई लोग होंगे जो विवाद से आकर्षित हो कर फिल्म देखने को उतावले हो उठे होंगे। फिर दीपिका और शाहरुख का उत्तेजक गाना तो है ही फिल्म में। यानी ट्रेंड कामयाब।

दरअसल, इस विवाद ट्रेंड पर लगाम लगाए जाने की जरूरत है, इससे पहले कि यह ट्रेंड कोई नया मोड़ ले ले। फिल्मी दुनिया मनोरंजन की दुनिया है जो हंसाती है, रुलाती है, समझाती है और समाज का रुख बदलने की ताकत रखती है। जिन्होंने जया भादुड़ी की फिल्मों का जमाना देखा है या विद्या सिन्हा की फिल्में देखी हैं, उन्हें याद करना चाहिए कि इन अभिनेत्रियों ने लड़कियों के रहन-सहन का तरीका ही बदल दिया था। उस दौर में लड़कियों को साड़ी पहन कर खुशी मिलती थी। यानी उस दौर में साड़ी ट्रेंड करने लगी थी। फिल्म ‘‘हरे रामा हरे कृष्णा’’ के दौर में बेलबाॅटम और शर्ट ने ट्रेंड किया। अतीत में न जाना हो तो वर्तमान में हम देख सकते हैं कि टेलीविज़न और ओटीटी ने हर घर के रहन-सहन पर अपना गहरा असर डाला हुआ है। यानी फिल्मी दुनिया भी जानती है कि उसकी पकड़ समाज पर कितनी मजबूत है। फिर ऐसा धमाल, बवाल वाला रवैया क्यों? यह ट्रेंड क्यों अपनाया जा रहा है? बाहरी बवाल के बजाए इस बात की तह में पहुंचना अधिक जरूरी है। क्योंकि यह ट्रेंड बड़े शहरों के सिनेमाघरों को ही नहीं बल्कि छोटे शहरों और कस्बों के चौक-चौराहों को भी अपने विरोध की चपेट में ले रहा है। किसी समुदाय, जाति या धर्म की भावनाओं को चोट पहुंचाना एक धर्मनिरपेक्ष देश में कैसे स्वीकार किया जा सकता है? ऐसे ट्रेंड से बचने का एक ही तरीका है कि सेंसरबोर्ड एक बार फिर पुनःशक्तिवान बन जाए और वह भी तमाम राजनीतिक चश्मों को दूर कूड़ेदान में फेंक कर। वह सिर्फ यह ध्यान दे कि किसी भी फिल्म का कोई तत्व किसी भी जाति, धर्म या समुदाय की भावनाओं को आहत तो नहीं कर रहा है? यदि ऐसा कोई दृश्य हो तो उसे पारित न करे। हमारी फिल्मी दुनिया को इस ट्रेंड से बाहर निकला चाहिए कि यदि फिल्म को धमाल कराना है तो उसमें बवाल खड़े करने वाले तड़के डालो। लेकिन अच्छा तो यही है कि मनोरंजन की दुनिया मनोरंजन के लिए ही रहे, रंजोग़म देने के लिए नहीं।
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