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My Editorials - Dr Sharad Singh

Wednesday, May 3, 2023

चर्चा प्लस | 3 मई, विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस | ये कहां आ गए हम, यूं ही साथ चलते- चलते | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस  
(3 मई, विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस विशेष)
ये कहां आ गए हम, यूं ही साथ चलते- चलते....
- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह  
       पत्रकारिता हमेशा से एक ग्लैमरस जाॅब रहा है। इसमें जासूसी, रोमांच, चुनौतियां आदि सब कुछ समाहित है। दिलचस्प बात है कि पत्रकारिता का एक बड़ा हिस्सा हमेशा पूंजीपतियों के हाथों में रहा फिर भी एक संतुलन का आवरण था जो इलेक्ट्राॅनिक मीडिया के बूम के बाद कहीं सरक गया। आज स्वयं पत्रकारिता जगत को अपना चौथा स्तम्भ डगमगाता दिखाई देता है। पत्रकारिता की स्वतंत्रता हर देश और हर दशक में चर्चा का अहम मुद्दा बनी रही है। इसी को ध्यान में रख कर 3 मई को प्रति वर्ष विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस भी मनाया जाता है। मगर स्वतंत्रता के मायने क्या अब बदल गए हैं? क्या आज प्रेस स्वतंत्र है या स्वतंत्रता का मुखौटा पहना हुआ है? समय के साथ परिवर्तन अवश्यम्भावी है लेकिन कितने प्रतिशत?     
सन् 1974 में एक हिन्दी फिल्म आई थी ‘‘आरोप’’। इस फिल्म को मैंने 1984-85 में कभी देखा था। यानी फिल्म के रिलीज़ होने के लगभग 10-11 साल बाद। उस समय भी मुझे पत्रकारिता की कोई समझ नहीं थी। मध्यप्रदेश के बहुत छोटे से जिला मुख्यालय में पत्रकारिता का अर्थ वे चंद अखबार थे जिनमें से कुछ वहीं से प्रकाशित होते थे और कुछ बाहर से आते थे। बाहर से आने वाले अखबार विशेष रूप से जबलपुर, रीवा और सतना से प्रकाशित होने वाले अखबारों के क्षेत्रीय संस्करण थे। मुझे व्यक्तिगत रूप से एक और अखबार बचपन से पढ़ने को मिलता रहा, वह था वाराणसी से प्रकाशित होने वाला ‘‘आज’’ दैनिक समाचारपत्र। वह अपने आप में एक फुल पैकेज़ था। महिलाओं, बच्चों, बड़ों सभी के लिए अच्छी-खासी पठनीय सामग्री। मां को वह अख़बार बहुत पसंद था इसलिए उन्होंने उसका डाक संस्करण सब्सक्राईब कर रखा था। यदि मैं यह कहूं कि जब मैंने आंखें खोलीं या पढ़ना सीखा तो ‘‘आज’’ अखबार ही मेरे सामने था। अख़बार पढ़ने का अभ्यास मुझे इसलिए भी रहा कि मेरे नाना जी को मोतियाबिंद था जिससे वे बड़ी-बड़ी हैडिंग्स के बाद छोटे अक्षर नहीं पढ़ पाते थे। इसलिए उन्हें जो समाचार अच्छा लगता या जिसके बारे में वे विस्तार से जानना चाहते, उसे मुझे या मेरी वर्षा दीदी को पढ़ कर सुनाने को कहते। इस तरह मुझे अखबार पढ़ने की आदत पड़ गई और धीरे-धीरे जब समझ के दरवाज़े खुले तो मैंने उसमें गंभीर विषयों के लेख पढ़ने और समझने शुरू कर दिए। आज मुझे आश्चर्य होता है कि उस समय भी गाज़ापट्टी की समस्या पर लेख हुआ करते थे। यह समस्या आज भी वैसी ही बनी हुई है। जबकि पत्रकारिता जगत एक लम्बी दूरी की यात्रा तय कर चुका है। उस समय अखबार का डाक संस्करण दो या तीन दिन बाद हाथों में आता था लेकिन आज सुबह जागते ही डिजिटल एडीशन हमारी आंखों के सामने होता है। लेकिन अगर मैं अपने अतीत के आधार पर आकलन करती हूं तो कहीं कोई गहरा अंतर महसूस होता है। उस समय के उस डाक संस्करण ने समाचारपत्रों के संस्कार से मुझे जोड़ा लेकिन आज डिजिटल एडीशन की त्वरित उपलब्धता के बाद भी वह ‘‘संस्कार’’ दिखाई नहीं देता है। आज समाचारों में सेंसेशन और रोमांच की मात्रा अधिक रहती है। दुनिया भर के किसी भी कोने से ढूंढ कर कट-पेस्ट की गई ख़बरों को फिलर्स के रूप में प्रयोग किया जाता है, जिनकी सत्यता पर भी संदेह रहता है और जो बिलकुल महत्वहीन होती हैं।

खैर, मैं चर्चा कर रही थी उस फिल्म की जिसका नाम था ‘‘आरोप’’। विनोद खन्ना ने उसमें एक जुझारू पत्रकार की प्रभावी भूमिका निभाई थी। मुझे पूरी कहानी तो अब याद नहीं है लेकिन वह दृश्य जरूर याद है जिसमें फिल्म का नायक बड़ी मेहनत से किसी भ्रष्टाचार के खुलासे की रिपोर्ट तैयार करता है और उसे अपने अखबार में छापता है। अक्षर बिठा-बिठा कर छापने वाली मशीन पर। मगर खलनायक मंडली नायक को एक अपराध में न केवल फंसा देती है बल्कि उसके उस दिन के अखबार की प्रतियों को आग की भट्ठी में जला-जला कर खुशियां मनाती है। फिर भी नायक हार नहीं मानता है। ऐसे विषय पर मेरे द्वारा देखी और समझी गई पहली फिल्म थी, इसलिए मस्तिष्क पर छाप छोड़ गई। उस समय मुझे लगता था कि हर पत्रकार उस फिल्म के हीरो की तरह जुझारू होता है। वह तो और समझ बढ़ने पर पता चला कि यह मेरा भ्रम था। पत्रकारिता के क्षेत्र में ‘‘पीत पत्रकारिता’’ जैसी भी कोई चीज़ होती है।

कुछ वर्षों बाद जब मैं स्वयं पत्रकारिता की दुनिया से एक संवाददाता के रूप में जुड़ी तो वह भ्रामक जोश मेरे भीतर हिलोरें लेने लगा, जो ‘‘आरोप’’ फिल्म को देख कर जागा था। लेकिन मैं महज पत्रकार नहीं थी। उस समय मैं उस दौर के रूसी साम्यवाद से प्रभावित थी और मेरे घर के सामने से हो कर गुज़रने वाला आर.एस.एस. का जोशीला जुलूस राष्ट्रभक्ति का एक अलग जुनून जगाता रहता था। वह कंट्रास्ट समय। एक ओर ‘‘सोवियत नारी’’ पत्रिका के मुख पृष्ठ पर हाथ में हंसिया उठाए श्रमिक महिला और दूसरी ओर पथसंचालन के साथ ‘‘अब जाग उठो वीरो, रण भूमि बुलाती है...’’ गीत का स्वर। राजनीति की समझ मुझे नहीं थी लेकिन भावना की समझ जागती जा रही थी। इसलिए जीवन के ये दोनों पहलू मुझे लुभाते थे। लेकिन जल्दी ही जीवन के यर्थाथ से मेरी मुठभेड़ों का सिलसिला शुरू हो गया और मैंने जाना कि भारतीय पत्रकारिता में कितनी पर्तें हैं। ग्रामीण पत्रकारिता अलग है, कस्बाई पत्रकारिता अलग है, मंझोले शहरों की पत्रकारिता अलग और महानगरों की पत्रकारिता बिलकुल अलग। परिदृश्य वैसा कभी नहीं रहा जैसा कि महसूस होता था। लेकिन यह जरूर खांटी सच है कि इलेक्ट्राॅनिक मीडिया के बूम के बाद पत्रकारिता जगत में जो सीढ़ियां बनने लगीं वे किसी और नई छत की ओर ले जाती हैं। पुरानी छत जर्जर हो कर लगभग  ढह गई है। जो अपने आरंभिक काल से पत्रकारिता में ही पूरी रूप से संलग्न हैं वे मुझसे अधिक बेहतर ढंग से इन तथ्यों को जानते हैं। क्योंकि मेरा पत्रकार जीवन संक्षिप्त रहा और मैं साहित्य की ओर मुड़ती चली गई। लेकिन मेरे साहित्य में पत्रकारिता की छाप बनी रही। अपना पहला उपन्यास ‘‘पिछले पन्ने की औरतें’’ रिर्पोताजिक शैली में लिखा और दूसरे उपन्यास ‘‘पचकौड़ी’’ में इलेक्ट्राॅनिक मीडिया और राजनीति के पारस्परिक संबंधों का खुलासा किया।
यथार्थ यही है कि हम चाहे जितना भी नकारने का अभिनय करें लेकिन अपने आमजीवन में प्रेस, प्रिंट मीडिया और इलेक्ट्रानिक न्यूज़ मीडिया के बिना रह ही नहीं सकते हैं। ये हमारे जीवन का अभिन्न हिस्सा हैं। चाहे पूरा अखबार विज्ञापनों से भरा हो फिर भी हम उसमें से समाचार ढूंढ-ढूंढ कर पढ़ने के बहाने निकाल ही लेते हैं। चाहे न्यूज़ चैनल्स पर डिबेट का ‘‘कुकुरकटायन’’ हो रहा हो, हम समाचारों की प्रतीक्षा कर ही लेते हैं। वैसे, मैंने बात शुरू की थी एक फिल्म से। तो इसी तारतम्य में मुझे एक और फिल्म याद आ रही है जिसका नाम था ‘‘जाने भी दो यारो’’ (1983)। एक ऐसी धमाकेदार फिल्म जिसने पत्रकारिता जगत का वह दूसरा चेहरा भी सामने रखा जिसमें स्वयं पत्रकार भी शोषण का शिकार होते रहते हैं। एक संवाददाता मेहनत से सनसनीखेज़ तथ्य जुटाता है मगर संपादक और मालिक मिलीभगत कर के उसी से सौदा कर लेते हैं जिसके संबंध में वे तथ्य थे। यानी पत्रकार ठगा जाता है। वहीं वे पत्रकार भी हैं जो न्यूज़ को पहले पाने के लिए खुद ही अपराध का प्रपंच रचते हैं। यह फिल्म यद्यपि सेमी पाॅलिटिकल फिल्म थी। ‘‘हम होंगे कामयाब एक दिन’’ गाने के बोलों को गहरे कटाक्ष के रूप में प्रयोग किया गया था। यह फिल्म भी पत्रकारिता से जुड़ी वह हिन्दी फिल्म है जो मैं कभी भूल नहीं सकती हूं।

पत्रकारिता पर आधारित कई फिल्में बाॅलीवुड में बनीं जिनमें एक थी ‘‘न्यू देहली टाइम्स’’ (1986)। फिर 2005 में आई थी मधुर भंडारकर की कोंकणा सेन शर्मा अभिनीत फिल्म फिल्म ‘‘पेज थ्री’’। फिल्म ‘‘मुंबई मेरी जान’’ में टीवी न्यूज चैनल्स की सच्चाई उजागर की गई। आमिर खान के प्रोडक्शन में बनी फिल्म ‘‘पीपली लाइव’’ में टीवी पत्रकारिता का वह चेहरा दिखाया गया था, जहां टीआरपी का खेल के सामने किसी इंसान के जीवन का कोई महत्व नहीं है। यह मीडिया पर तीखा व्यंग्य था। इलेक्ट्रानिक मीडिया एक किसान की आत्महत्या को कवर करने में जुट जाता है। लेकिन जल्दी ही टीआरपी की रेस में किसान के बारे में वे सोचना भूल जाते हैं। किसान को घर छोड़कर जाना पड़ता है। समाज में मीडिया की बहुत अहमियत है। वह समाज का दर्पण है। दर्पण का काम चीजों को वास्तविक दिखाना ही है, न की उसे तोड़-मरोड़ कर। ‘‘पीपली लाइव’’ में वही दिखाने का प्रयास हुआ। इसी पंक्ति में फिल्म ‘‘रण’’ रही। एक न्यूज चैनल मालिक सच्चाई दिखाने की कसम खा कर अपना चैनल चलाता है लेकिन इससे चैनल की टीआरपी गिरने लगती है। वहीं झूठ परोसने वाले चैनल टीआरपी की दौड़ में बहुत आगे निकल जाते हैं। तब चैनल मालिक का बेटा सारे उसूलों को ताक में रख कर टीआरपी की जंग जीतने के लिए मैदान में उतरता है। देखा जाए तो बाॅलीवुड ने पत्रकारिता पर फिल्म बनाते समय अपने बाॅक्स आफिस का भी ध्यान रखा इसलिए बहुत कम फिल्में हैं जिनमें पत्रकारिता का सच बिना ग्लैमर के सामने आया।

बाॅलीवुड की फिल्में हाॅलीवुड की फिल्म्स ‘‘शेटर्ड ग्लास’’,‘‘न्यूज़रूम’’, ‘‘आलमोस्ट फेमस’’, ‘‘दी पोस्ट’’ आदि के सच्चे यथार्थ को तो नहीं छू सकीं लेकिन इन हिन्दी फिल्मों ने भी आमजन को बहुत कुछ दिखाया और सिखाया।

आज भारतीय पत्रकारिता जिस दौर से गुज़र रही है, इसका आकलन तो आने वाला समय ही करेगा। फिर भी इतना तो मानना ही होगा कि हम प्रेस की स्वतंत्रता पर पूंजी को हाॅवी होते आपनी आंखों से देख रहे हैं। कुछ झूठ ढिंढोरा पीट-पीट के सच में बदले जा रहे हैं और कुछ सच झूठ के दरवाज़े पांवपोश के समान पड़े हुए हैं। इस दशा पर एक फिल्मी गाना मुझे याद आ रहा है जो सटीक भी बैठता है-‘‘ये कहां आ गए हम, यूं ही साथ चलते-चलते...’’।
आगे कहां पहुंचेंगे, इसका फिलहाल पता नहीं।
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1 comment:

  1. आरोप फ़िल्म मैंने भी उसी वक़्त देखी थी (दूरदर्शन पर साप्ताहिक रूप से प्रसारित फ़िल्म के रूप में). उसके अंत में परदे पर लिखा हुआ आता है - और मशाल जलती रही (अखबार का नाम मशाल था). आपके द्वारा उल्लिखित अन्य फ़िल्में भी मैंने देखी हैं जिनमें पत्रकारिता के विविध आयाम प्रदर्शित किए गए हैं. मेरी स्मृतियों को ताज़ा करने वाले इस सूचनाप्रद लेख हेतु आपका हार्दिक आभार.

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