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My Editorials - Dr Sharad Singh

Thursday, June 1, 2023

बतकाव बिन्ना की | काए भैयाजी, उने पाप परहे के नोईं? | डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम | बुंदेली व्यंग्य | प्रवीण प्रभात

"काए भैयाजी, उने पाप परहे के नोईं?" - मित्रो, ये है मेरा बुंदेली कॉलम "बतकाव बिन्ना की" साप्ताहिक #प्रवीणप्रभात , छतरपुर में।
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बतकाव बिन्ना की  
काए भैया जी, उने पाप परहे के नोईं?              
- डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
     जबईं मैं भैयाजी के इते पौंची तो उते लटकन कक्का सोई बैठे हते। चल रई हती उनकी गप्पें। अब का कओ जाए उनके बारे में, बे जो एक बार बोलबो चालू करत आएं सो बोलतई चले जात आएं। उने कोनऊं चुप नईं करा सकत आए।
‘‘आओ बिन्ना! अच्छी आ गईं।’’ मोय देखत साथ भैयाजी बोल परे। मने, लटकन कक्का कुल्ल देर से उनकी खपड़िया खा रहे हुंइएं।
‘‘राम-राम, कक्का! का बतकाव हो रई आप ओरन की?’’ मैंने लटकन कक्का से पूछी।
‘‘तुम तनक देर से आईं, बिन्ना! इते तो कुल्ल बतकाव हो गई।’’ भैयाजी अपनों मूंड़ पकरत भए बोले।
‘‘ऐसो का? कछु मोए सोई बताई जाए।’’ मैंने भैयाजी की बातई खों पकर के लटकन कक्का से कई।
मनो लटकन कक्का को असली नांव साजो सो आए, पर भओ का रओ के बे जब लोहरे हते सो एक दार कटी पतंग पकरबे के लाने छत की कबेलू (खपरैल) पे चढ़े औ उते से उनको पांव फिसल गओ। अब बे फिसल के गिरन लगे सो उन्ने कबेलू खों टिकाए राखने वाली लकड़ी के लट्ठा वारी मियार पकर लई। बे उतई अधपर में लटक के बाप-मताई के लाने चिचियान लगे। उनकी मताई बाहरे निकरीं सो अपने मोड़ा खों मियरी पे लटको देख के गश खा के उतई आड़ी हो गईं। जबलों मुतके लुगवा-लुगाई उते जुड़ गए रए। बापराम ने देखों सो पैले तो घबराए, मनो फेर मोड़ा को नीचे लाबे के लाने को छिड़ियां ढूंढन लगे। तभई कोनऊं ने कई के बा मोड़ा ज्यादा देर लटको ने रै पाहे, सो ऐसो करो के नैंचे डारो चार ठईंया गद्दा औ ऊपे मोड़ा खों कुदा लेओ। जे तरीका सबई खों जम गओ। देखतई-देखत चार-छै घरे से मोटे-मोटे गद्दा ला के उते डार दए गए। अब मोड़ा खों कओ गओ के बो मियार छोड़ दे और गद्दे पे गिर जाए। मोड़ा की हिम्मत नईं पर रई हती। मनो बिचारो कबलों ऊसईं लटको रैतो। अखीर में ऊकी पकर छूट गई औ बो धम्म से आ गिरो गद्दन पे।
मोड़ा के बापराम ने पैले तो मोड़ा खों अपने करेजे से लगाओ औ फेर एक ठईंया संटी उठा के दई सटासट ऊके पिछवाड़े पे। पतंग के लाने गरियाओ सो अलग। मनो बा मोड़ा सोई कम ने हतो। ऊने देखो के बापराम सो सूंटतई जा रए, सूंटतईं जा रए, सो ऊने तुरतईं धमकी दई के जो अब हमें मारो, सो हम फेर के उतई जा के लटक जेहें। औ फेर तुमाए कहे से गद्दा पे बी ने गिरहें। जो लौं मताई को सोई होस आ गओ हतो, सो ऊने मोड़ा खों सुंटाई से बचा लओ। मनो ऊ दिना से ऊ मोड़ा को असली नांव कऊं हिरा गओ, काए से सबई ऊको ‘लटकन’ कै के पुकारन लगे। लटकन बड़े भए सो लटकन कक्का कहान लगे। सो जे हती लटकन कक्का की स्टोरी।
‘‘काए भैया, उने पाप परहे के नईं? तुमई बताओ!’’ लटकन कक्का भैयाजी से पूछबे टिके हते।
‘‘कोन खों पाप परबे की कै रए, कक्का?’’ मैंने कक्का से पूछी।
‘‘अरे तुमने सोई पढ़ी-सुनी हुइए के उते उज्जैन में महालोक में आंधी में मूर्तियां टूट गईं। हमने कऊं पढ़ी के सात रिशी हरन में से छै रिशियन की मूर्तियां टूट के गिर-गुरा गईं।’’ लटकन कक्का बोले।
‘‘हऔ, मैंने सोई खबर पढ़ी, और पढ़ी भर काए, टीवी में देखी रई। मोए तो जे बात को दुख भओ के मैं अबे लौं उते दरसन के लाने जा बी नईं पाई, औ उते मूर्तियां टूट गईं।’’ मैंने लटकन कक्का से कई।
‘‘हऔ, सो ईमें जी छोटो करबे वारी कोनऊं बात नोंई। दूसरी मूर्तियां उते लग जेहें फेर चली जइयो! अब आंधी को का करो जा सकत आए!’’ भैयाजी बोले।
‘‘हऔ, आंधी को का करो जा सकत आए?’’लटकन कक्का भैयाजी की नकल उतारत भए बोले। फेर कैन लगे के-‘‘जे कओ के महाकाल ने खुदई ऐसी आंधी चलाई के उन बनाबे वारन की पोल-पट्टी खुल जाए। नईं तो तुमई सोचो बिन्ना, के आंधी चली, मूर्तियां गिरीं, मनो कोनऊं देखबे वारन को कछू ने भओ। काए से के महाकाल चात्ते के उनके भक्त सही सलामत रैं, पर बे पापियन की पोल खुल जाए, जोन ने उनके नांव पे इत्तो कच्चो काम करो।’’ लटकन कक्का बोले।
‘‘कै सो सई रए हो आप कक्का! बा काम कच्चो ने रैतो सो ऐसो होतई काए को? इत्ती आंधी-ऊंधी सो चलतई रैत आए। बे उते भोपाल में राजा भोज की मूर्ति सो अच्छे से ठांड़ी आए। काए से के उते अच्छो काम करो गओ। मनो कक्का, जे देखो आप के अपने परधानमंत्री जी लौं कित्ते खुस भए रए महालोक देख के। मने इने पतो रओ के प्रधानमंत्री जी लौं ईमें इंअरेस्ट रखत आएं, फेर बी कर दओ खेल। इने डर नई लगो?’’मैंने लटकन कक्का से पूछी।
‘‘बे भगवान से नईं डरा रए औ तुम इंसान की कै रईं? बड़े वारे पापी ठैरे बे ओरें!’’ कक्का फुंफकारत भए बोले।
‘‘हऔ, तभई तो भगवान को अपनो जोर दिखानो परो।’’ अब के भैयाजी बोल परे।
‘‘हऔ भैया! जेई सो कलजुग आए!’’ कक्का ने कई।
‘‘चलो उते की छोड़ो, इते सागर में का हो रओ, नईं देख रए?’’ मैंने भैयाजी से पूछी।
‘‘का हो रओ?’’ भेयाजी ने पूछी।
‘‘हऔ का हो रओ? कऊं कोऊ नई कथा कराई जाने का?’’ लटकन कक्का पूंछबे में औरई आगूं निकरे।
‘‘हऔ, उते लाखा बंजारा तला पे रामनाम सत्त की कथा हो रई औ प्रसादी बंट रई। आप ओंरे काए पांछूं रै गए? जाओ आप ओंरे सोई प्रसादी ले आओ।’’ मोय कै आओ। काय से के दोई की बातें सुन के मोरो जी तिन्ना गओ।
‘‘सुभ-सुभ बोलो बिन्ना! ऐसो नई कओ जात!’’ भैयाजी अपनी कनपट्टी खांे छुअत भए बोले।
‘‘काए, का हो गओ उते? हमने सुनी के लाखा बंजारा की मूर्ति उते ठांड़ी हो गई आए।’’ कक्का बोले।
‘‘हऔ आपने ठीक सुनी। उते लाखा बंजारा की मूर्ती ठांड़ी कर दई। जोन की आंखन पे अभईं पट्टी बांध दई गई आए। काए से के तला की दुरदसा देखके बा मूर्ति बिना आंधी के आड़ी हो जेहे।’’ रामधई, मोए गुस्सा सो आन लगो।
‘‘अरे नोईं, बा तो ई लाने बांधी गई आए के अभईं ऊको बो का कहाऊत आए के... हौ, अनावरण नईं भओ आए। जोन दिना अनावरण हुइए, ऊ दिनां पट्टी खोल दई जेहे।’’ भैयाजी ने मोय समझाओ।
‘‘हऔ, सो तब लौं हमाए लोहरे भैया मने बेई प्रेस वारे शशांक तिवारी भैया( Shashank Tiwari )  तला की दुर्दसा की फोटू खेंच-खेंच के दूबरे होत रैंहें। इत्तोई नोंई, अपने इते के रजनीश जैन पत्रकार भैया (Rajneesh Jain ), बे इंक मीडिया वारे आशीष द्विवेदी भैया (Ashish Dwivedi ), बे सबई भिन्नात भई पोस्ट डार रए। मनो इते को सुन रओ कोऊ की?’’ मैंने भैयाजी औ लटकन कक्का से कई।
‘‘इते सोई भगवानई को कछू करने परहे।’’ लटकन कक्का सोचत भए बोले।
‘‘सो इते कोन महालोक आए? इते तो.... अब का कओ जाए? हमने कछू ने बोलवाओ, ने तो हमाए मों से कछू अल्ल-गल्ल निकर जेहे।’’ भैयाजी बोले।
 ‘‘हऔ, जो कछू बोलियो सो हमें बताइयो! तुम दोई खों जै रामजी की।’’ कैत भए लटकन कक्का उते से बढ़ लिए।
मैंने सोई भैयाजी से राम-राम करी। मनो निकरत-निकरत जे सोई उनसे पूछ लई के-‘‘काए भैयाजी, चाए उज्जैनी होय, चाए सागर, चाए दमोए होय, चाए छतरपुर औ चाए दिल्ली को जंतर-मंतर होय चाए कोऊं जांगा, जो गलत कर रए उने पाप परहे के नोंईं?’’
‘‘अब हम का बता सकत आएं बिन्ना? जे सो भगवानई जाने!’’ भैयाजी ने टका-सी बात कई।
 मनो बतकाव हती सो बढ़ा गई, हंड़ियां हती सो चढ़ा गई। अब अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लों जुगाली करो जेई की। सो, सबई जनन खों शरद बिन्ना की राम-राम!
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