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My Editorials - Dr Sharad Singh

Wednesday, June 7, 2023

चर्चा प्लस | महिला पहलवानों के बहाने ज्वलंत स्त्री-प्रश्न | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस  
महिला पहलवानों के बहाने ज्वलंत स्त्री-प्रश्न
- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह  
         एक पुरुष की अस्मत क्या है? उसका स्वाभिमान। वहीं एक स्त्री की अस्मत क्या है? उसकी देह की शुचिता। यह मानक हमारे समाज ने ही बनाए हैं। पुरुषवादी समाज का स्त्री के प्रति संकुचित दृष्टिकोण का इससे बढ़कर उदाहरण और कोई हो ही नहीं सकता है। इसीलिए तो स्त्री की शक्ति को तोड़ने का सबसे आसान तरीका बन गया उसका दैहिक शोषण। फिर दैहिक शोषण पर कोई शोर न हो इसलिए उससे जोड़ दिया गया सामाजिक लांछन, और फिर भी हम उंगली उठाते हैं कि फलां स्त्री ने अपने दैहिक शोषण के विरुद्ध तत्काल शोर क्यों नहीं मचाया? हमारी महिला पहलवानों द्वारा उठाई गई आवाज़ एक बार फिर आग्रह कर रही है कि इस ज्वलंत प्रश्न पर गंभीरता से विचार किया जाए।
हमारी सामाजिक सोच इतनी राजनीतिक हो चली है कि किसी भी मुद्दे पर हमारा समाज चट् से दो फड़ में बंट जाता है। अभी हाल ही में ओलम्पिक पदक विजेता सहित कई महिला पहलवानों ने अपने कोच पर यौनशोषण का आरोप लगाया और उसे दण्डित किए जाने की मांग करते हुए दिल्ली के जंतर-मंतर पर धरना दिया। स्त्रियों के प्रति असंतुलित रवैया अपनाने के लिए हमेशा विवाद के घेरे में रहने वाली खाप-पंचायतों ने भी महिला पहलवानों का समर्थन किया। आशा जागी कि सकारात्मक परिणाम जल्दी सामने आएंगे। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। वहीं, आज के समाज का मानसिक आईना बन चुका सोशल मीडिया इस मुद्दे पर वाद-विवाद के ऊलजलूल विचारों से भरने लगा। कुछ पक्ष में, तो कुछ विपक्ष में। स्त्री की अस्मत के प्रश्न के विपक्ष में कोई कैसे हो सकता है? लेकिन यही हो रहा है क्योंकि कुछ ऐसे लोगों ने अपनी आंखों पर उस राजनीति का चश्मा पहन लिया है जिससे उनका दूर-दूर तक कोई लेना-देना नहीं है। वे अपराध को भी राजनीतिक चश्मे से देखने लगे हैं।

कुछ टिप्पणियों को पढ़ कर तो स्तब्ध हो जाने वाली स्थिति रही। सोशल मीडिया पर ही एक टिप्पणी पढ़ी थी-‘‘वे अपने मेडल तो गंगा में बहा रही हैं, तो फिर उन्हें उस खेल से मिले लाभ और नौकरी भी उन्हें लौटा देनी चाहिए।’’ यह कैसी सोच? क्या खेल से मिले लाभों को लौटाने के बाद कोई उन्हें वह स्थिति लौटा सकेगा जो शोषण के पहले थी? उन्मुक्त, चंचल, मानसिक दबाव के बिना ऊंचे आकाश उड़ने के स्वप्न- क्या यह सब कोई उन्हें लौटा सकेगा? ऐसी टिप्पणी करने वाले क्या उन महिला पहलवानों की जगह अपनी बहन-बेटियों या पत्नी को रख कर देख पाते हैं? नहीं! यदि वे ऐसा कर पाते तो शायद उन खिलाड़ियों की पीड़ा को समझ पाते जो खेल या किसी भी क्षेत्र में आगे बढ़ने की शर्त पर यौन शोषण का शिकार बनाई जा रही हैं।

कुछ वर्ष पहले ‘‘हैशटैग मी टू’’ कैम्पेन उन महिलाओं के द्वारा चलाया गया था जो कभी न कभी अपने घर अथवा कार्यक्षेत्र में यौन शोषण का शिकार हुई थीं। उस समय कई मामले दस-बारह वर्ष या उससे भी अधिक पुराने समय के भी सामने आए। उस समय भी कुछ स्वर इस प्रकार के उठे थे कि ‘‘उन औरतों ने उसी समय आवाज क्यों नहीं उठाई, जब उनका यौन शोषण किया गया था?’’

लोग यह क्यों नहीं समझना चाहते हैं कि जो सामाजिक सोच बना दी गई है उसके कारण अपने साथ हुए यौनअपराध को स्वीकार करना एक स्त्री के लिए सबसे बड़ा साहसिक और दुष्कर कार्य है। बदनामी! हां, बदनामी के डर की जंजीरों से ऐसी स्त्रियों को बांध कर रखा जाता है। तो भला वे कैसे साहसी बनें? वे चुपचाप सहती रहती हैं लेकिन अपनी आवाज़ बुलंद नहीं कर पाती हैं, प्रतिरोध नहीं कर पाती हैं। जब थक जाती हैं तो आत्महत्या कर लेती हैं। फिर भी जब कभी उनके जैसी चार अन्य पीड़ित महिलाएं साहस का परिचय देती हैं और अपने साथ किए गए अपराध का खुलासा करती हैं, तब बदनामी के चाबुक से डरा कर रखी गईं कुछ औरतों का भी साहस जागता है और वे भी बोल उठती हैं कि उनका भी शोषण किया गया था। इस तरह के साहस को जुटने में कई बार वर्षों लग जाते हैं और कई बार सच कभी सामने नहीं आ पाता है और शोषक प्रतिष्ठित नागरिक बना, सिर उठाए इसी समाज में सरेआम शान से घूमता रहता है।

धर्म ओर अधर्म की व्याख्या बहुत स्पष्ट है, यदि हम उसे समझने का प्रयास करें। जो सही है वह धर्म है और जो गलत है वह अधर्म है। यहां धर्म कर्म पर आधारित है न कि उन नामों पर जो हमने बनाए हैं-हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, जैन, बौद्ध, पारसी, यहूदी या कोई और। ये नाम प्रतीक हैं उस कर्म के जो सद्मार्ग पर चलने को कहता है। जो सत्य का पक्ष लेने को कहता है। जो पीड़ित को राहत देने को कहता है। लेकिन हमने धर्म को पहले भौतिक आकार से बांधा और फिर उस आकार को आधार बना कर अपनी भावनाओं को संकुचित कर लिया। जबकि धर्म का मूल संकुचित नहीं विस्तृत है। धर्म में प्रत्येक प्राणी समान रूप से जीवन जीने का अधिकारी है। धर्म यह कभी नहीं कहता है कि किसी निरपराध को बंदी बनाओ या किसी भी प्रकार के अनुचित बंधनों में बांधो। इस संबंध में यदि कृष्ण जन्म की कथा पर ध्यान दें तो बहुत सुंदर उदाहरण हमें मिलेगा। कंस ने कृष्ण को बंधनकारी स्थितियों में जन्म लेने को विवश किया। फिर शिशु कृष्ण को मारने के मंसूबे बनाए। तब प्रकृति ने साथ दिया और बाढ़ आई यमुना नदी ने उस पिता वासुदेव को रास्ता दिया जो एक टोकरी में अपने शिशु पुत्र कृष्ण को रख कर, सिर पर ढो कर यमुना पार कर रहा था ताकि वह धर्म और अन्याय की तलवार से अपने निर्दोष शिशु को बचा सके। तब प्रकृति भी सत्य और सत्कर्म के साथ थी, उसने वासुदेव की मदद की और कृष्ण की जीवनरक्षा की। द्वापरयुग में ही यदि हम कौरवों की राजसभा तक जाएं तो वहां जिस घड़ी दुश्शासन द्रौपदी का चीरहरण करता है, उस घड़ी का स्मरण मात्र हमें विचलित कर देता है। हमारा मन गुस्से से भर उठता है। फिर जब कृष्ण द्रौपदी के वस्त्र को अनंत बना देते हैं तो हमारा मन करतल ध्वनि कर उठता है। इन कथाओं से गुज़रने के बाद भी हम सत्य और वास्तविक धर्म का पक्ष क्यों नहीं ले पाते हैं? स्वयं को धार्मिक मानने वाले कुछ लोगों की भीरुता इतनी बढ़ जाती है कि वे सत्य का पक्ष लेना तो दूर असत्य और अपराधी के पाले में जा खड़े होते हैं और फिर भी सोचते हैं कि हमारा स्त्रीपक्ष सुरक्षित रहेगा। कमाल है!

पुरुष प्रधान समाज ने स्त्री की देह को एक टैबू बना रखा है। पुरुषों ने अपने धैर्य और संयम के कच्चेपन को दृढ़ता में बदलने के बजाए उसे स्त्रियों पर थोप दिया। क्षमा कीजिएगा कि यह बात कहने, सुनने और पढ़ने में कुछ अभद्र लग सकती है किन्तु इसके मर्म को समझने का प्रयास कीजिए कि एक पुरुष खुले तालाब, कुए या किसी भी सार्वजनिक स्थान पर कच्छा पहन कर नहा सकता है, अपनी देह का प्रदर्शन कर सकता है और स्त्रियों से यह आशा की जाती है कि वे ऐसे दृश्य को देख कर अपने मन में विकार न लाएं तथा अपना संयम बनाए रखें। स्त्रियां सदियों से संयम बनाए हुए हैं। लेकिन यदि किसी स्त्री ने दो इंच छोटे कपड़े पहन लिए तो उसके प्रति होने वाला हर अपराध उस दो इंच पकड़े की कमी पर ही जा कर ठहर जाता है। यही कहा जाता है कि ‘‘उसने ऐसे कपड़े पहने थे इसलिए मनचलों ने उसे छेड़ा।’’ अब ऐसी वैचारिकता को किस श्रेणी में रखा जाए जबकि ये मनचले भी एक स्त्री की कोख से ही जन्म लेते हैं।
आज लड़कियां रानी पद्मिनी की तरह जौहर नहीं करना चाहती हैं अपितु वे रानी लक्ष्मीबाई या रानी चेनम्मा की भांति अनुचित का प्रतिरोध करना चाहती हैं। वे कल्पना चावला बनना चाहती हैं, वे बछेन्द्रीपाल बनना चाहती हैं। लेकिन यदि उन्हें उनके सपने चूर-चूर कर देने का डर दिखा कर दैहिक शोषण का शिकार बनाया जाए तो क्या कोई बछेन्द्रीपाल बन सकेगी? क्या कोई कल्पना चावला बन सकेगी? जितनी दैहिक उन्मुक्तता गलत है, उतना ही गलत है दैहिक शोषण। समाज के प्रत्येक परिवार को अब बेटियों की नहीं, वरन बेटों की माॅनीटरिंग करने की ज़रूरत है। इस पर ध्यान देने की ज़रूरत है कि उनका बेटा जो  पुरुष समाज का प्रतिनिधित्व करता है, उसमें स्त्री को बराबर मानने और उसकी इज्जत करने की मानसिकता विकसित हुई है कि नहीं? यह बात इसलिए अर्थ रखती है कि जब हमारी महिला पहलवान यौनशोषण के विरुद्ध जंतर-मंतर पर आवाज़ उठा रही थीं, ठीक उसी दौर में, उसी राजधानी की एक सड़क पर खुलेआम एक लड़की को एक लड़के ने नृशंसतापूर्वक मार दिया। वहां से गुज़रने वाले लोग उस लड़की को मारी जाती हुई देखते रहे लेकिन रोकने का साहस कोई नहीं जुटा पाया। अब सभी को यह बात समझनी होगी कि अपराध के बाद मृतका की याद में मोमबत्ती जलाने से कुछ नहीं होगा, बल्कि अपराध को उसी समय सामूहिक रूप से रोकने से अपराध रुकेंगे और तभी स्त्री समुदाय सुरक्षित रह सकेगा। ‘‘मारी जाने वाली या बलत्कृत होनी वाली हमारी बेटी या हमारी बहन तो नहीं थी’’- इस प्रकार की सोच से बाहर निकलने का समय आ गया है।

उन स्त्रियों के लिए भी सोचने का समय आ गया है जिनके पुरुष परिजन स्त्री के विरुद्ध अपराध करते हैं। हम देख चुके हैं कि जब ‘‘निर्भया’’ के दोषियों को जेल में रखा गया था, तब उन्हें फांसी चढ़ाए जाने तक किस तरह उन नृशंस अपराधियों के परिवार की महिलाओं या पत्नियों ने उनके पक्ष में जनमत जुटाने और केस को प्रभावित करने का प्रयास किया था। निःसंदेह यह कठिन बात है कि अपने किसी परिजन को फांसी की सजा सुनाते देखा जाना। लेकिन उस पल उन स्त्रियों को उस लड़की ‘‘निर्भया’’ की जगह पर स्वयं को रख कर विचार करना चाहिए था जिसने अकल्पनीय प्रताड़ना सही, वह भी मात्र वासनालोलुप इच्छाधारियों के हाथों। ऐसे अपराधी जो एक लड़की के साथ ऐसा जघन्य व्यवहार कर सकते हैं, वे कैसे अपनी पत्नी, मां या बहन को मान दे सकते हैं? ऐसे परिजनों को एक मनोरोगी पुरुष मान कर ही स्त्रियों को विचार करना होगा। अन्यथा, हमारे ही देश में कहीं-कहीं व्यवस्थाएं तो ऐसी भी बना दी गईं कि बलात्कारी के साथ ही बलत्कृत का विवाह करा दिया जाए। जहां समाज एक ओर सम्मान और गर्व से उन ऋ़षिकाओं का स्मरण करता है जिनका उल्लेख ऋग्वेद में किया गया है, वहीं समाज स्त्रियों को अपराधों से बचा नहीं पा रहा है। ऋग्वेद/10/85 के संपूर्ण मंत्रों की ऋषिकाएं ‘‘सूर्या सावित्री’’ है। ऋग्वेद की ऋषिकाओं की सूची ब्रह्म देवता के 24 अध्याय में इस प्रकार है-
घोषा गोधा विश्ववारा अपालोपनिषन्नित् ।
ब्रह्म जाया जहुर्नाम अगस्त्यस्य स्वसादिति।। 84।।
इन्द्राणी चेन्द्र माता चा सरमा रोमशोर्वशी ।
लोपामुद्रा च नद्यश्च यमी नारी च शाश्वती।। 85।।
श्रीलछमीः सार्पराज्ञी वाकश्रद्धा मेधाचदक्षिण ।
रात्रि सूर्या च सावित्री ब्रह्मवादिन्य ईरितः ।। 86।।
अर्थात- घोषा, गोधा, विश्ववारा, अपाला, उपनिषद्, जुहू, आदिति, इन्द्राणी, सरमा, रोमशा, उर्वशी, लोपामुद्रा, यमी, शाश्वती, सूर्या, सावित्री आदि ब्रह्मवादिनी हैं। लेकिन आज ब्रह्मवादिनियों की भांति ज्ञानप्राप्त करती, आगे बढ़ती लड़की, समाज में अपनी पहचान बनाती लड़की सुरक्षित नहीं है। वैदिक ज्ञान रटने नहीं, समझने का तथ्य है। ‘‘जहां नारी है, वहां देवता का वास है’’-यह कह देने मात्र से असुरों से मुक्ति नहीं हो सकती है। असुरों को यानी अपराधियों को बचाने की मानसिकता से ऊपर उठ कर ही यह निश्चिंतता पाई जा सकती है कि जो फलां स्त्री के साथ घटित हो चुका है वह हमारी बेटी या बहन के साथ कभी घटित नहीं होगा।

इससे भी बड़ा और ज्वलंत प्रश्न यह है कि यदि पीड़ित खिलाड़ियों के साहस को समर्थन और न्याय नहीं मिला तो क्या कभी कोई और स्त्री अपने प्रति हुए यौन अपराध के विरुद्ध आवाज़ उठाने का साहस कर सकेगी? इस प्रश्न को अपना उत्तर मिलना जरूरी है क्योंकि इस उत्तर पर ही टिका है स्त्रियों के विरुद्ध होने वाले अपराधों का भावी परिदृश्य।
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1 comment:

  1. पीड़ित खिलाड़ियों को न्याय मिल कर रहेगा, देर हो सकती है पर यहाँ अंधेर नहीं है, एक न एक दिन सच की जीत होगी

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