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My Editorials - Dr Sharad Singh

Saturday, September 2, 2023

शून्यकाल | परिवार, परिवारवाद और पौराणिक संदर्भ | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर

"दैनिक नयादौर" में मेरा कॉलम ...

शून्यकाल
परिवार, परिवारवाद और पौराणिक संदर्भ    
- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                                 
        माना जाता है कि ईश्वर ने हमें बनाया। वहीं, ईश्वर को हम मनुष्यों ने स्वरूप दिया। हम मनुष्यों ने ही कल्पना की कि जिस तरह हमारा परिवार है ठीक वैसे ही देवताओं के भी परिवार हैं। पति, पत्नी और बच्चों वाला एक सुंदर परिवार। जहां प्रत्येक देवी मां मानवी मां की भांति अपने बच्चों के प्रति चिंतित, सजग एवं ममतामयी होती है। पिता परिवार के लिए सबकुछ करता है। अर्थात् देवताओं के परिजन होते हैं किन्तु क्या वे परिवारदवादी होते हैं? पौराणिक ग्रंथ एवं आख्यान ऐसी अनेक कथाएं कहते हैं जिनमें देवपरिवारों का विस्तृत वर्णन है। यदि परिवार है तो परिवार का पक्ष लिया ही जाएगा, और यदि परिवार का पक्ष लिया जा रहा है तो क्या इसे हम संकीर्ण परिवारवाद कह सकते हैं? और क्या इससे मुक्ति का कोई रास्ता है? चलिए देखें कुछ पौराणिक संदर्भ।
आज के दौर में राजनीति में एक बहुचर्चित शब्द है ‘‘परिवारवाद’’। अनेक बहसों का केन्द्र, आरोप-प्रत्यारोप का आधार एवं राजनीतिक स्वच्छता का सरोकार स्थापित करने वाला शब्द। इस समाज का हर व्यक्ति, चाहे वह राजनीति में दखल रखता हो या न हो किन्तु एक सामाजिक प्राणी अवश्य है। व्यक्तियों के निकट संबंधी समूह से परिवार बनता है और परिवारों से समाज बनता है। सभी जानते हैं कि परिवार के मुखिया का दायित्व होता है अपने परिवार की रक्षा करना, उसे शक्तिशाली और सुयोग्य बनाना तथा अपने परिवार के सुखी भविष्य को सुनिश्चत करना। परिवार के संबंध में संक्षेप में कुछ बिन्दुओं को रेखांकित किया जा सकता है, जैसे - विवाह के कारण परिवार अस्तित्व में आता है। विवाह की संस्था के माध्यम से ही एक पुरुष या महिला को यौन संबंध बनाने की सामाजिक स्वीकृति मिलती है, जिसके परिणामस्वरूप बच्चे पैदा होते हैं। माता-पिता और बच्चों के मिलने से परिवार बनता तथा विस्तार पाता है। परिवार एक सार्वभौमिक संस्था है। आधुनिक हो या प्राचीन, शहरी-ग्रामीण हर समाज, सभी में परिवार का अस्तित्व रहा है। परिवार को समाज के विकास के हर स्तर पर देखा गया है। परिवार के सदस्यों का समर्थन करने के लिए सभी परिवारों के पास किसी न किसी तरह की आर्थिक व्यवस्था होती है। परिवार के सदस्यों के रहने की कोई न कोई व्यवस्था होती है। विवाह के बाद जब पति-पत्नी पति के संबंधियों के साथ रहते हैं तो इसे पैतृक स्थानीय परिवार कहते हैं और जब विवाह के बाद पति-पत्नी पत्नी के संबंधियों के साथ रहते हैं तो इसे मातृ वंशीय परिवार कहते हैं। परिवार के बच्चे उसके नाम से जाने जाते हैं। पितृ वंशीय परिवारों में, यह नामकरण पिता के वंश पर आधारित होता है जबकि मातृ वंशीय परिवार में यह माता के वंश पर आधारित होता है। परिवार के सदस्य भावनात्मक आधार पर परस्पर एक दूसरे से जुड़े होते हैं। परिवार में प्रेम, सहयोग, दया, सहिष्णुता, बलिदान, त्याग आदि की भावनाएं होती हैं जो परिवार के संगठन को सुदृढ़ करती हैं। परिवार में सामाजिक मानदंड बने रहते हैं। ऐसे कई नियम, प्रथाएं और रीति-रिवाज हैं जो परिवार को बनाए रखने और नियंत्रित करने में मदद करते हैं। परिवार के प्रत्येक सदस्य की अपने परिवार के प्रति कुछ न कुछ जिम्मेदारी होती है। सदस्यों के इस उत्तरदायित्व के कारण ही परिवार का संगठन स्थायी रहता है। सामाजिक संरचना में परिवार की केन्द्रीय स्थिति होती है। परिवार के रूप में इकाइयों के मिलने से समाज का निर्माण होता है। इससे स्पष्ट है कि परिवार एक ऐसी संस्था है जो विवाह सम्बन्धों पर आधारित है। परिवार सभी समाजों में मौजूद है। सामाजिक नियंत्रण परिवार के माध्यम से बनाए रखा जाता है।
पुराणों में देवताओं में सबसे बड़ा परिवार भगवान शिव का माना गया है। शिव की पत्नी पार्वती। शिव के प्रमुख 8 पुत्र हैं- गणेश, कार्तिकेय, सुकेश, जलंधर, अयप्पा, भूमा, अंधक, मंगलदेव। कहीं-कहीं तीन पुत्र और तीन पुत्रियों का उल्लेख मिलता है- पुत्र कार्तिकेय, अय्यपा, गणेश तथा पुत्रियां अशोक सुंदरी, ज्योति और मनसा देवी। गणेश का गजानन बनना भी एक दिलचस्प कथा है। पुराणों के अनुसार माता पार्वर्ती स्नान करने जा रही थीं। वे नहीं चाहती थीं कि उनके स्नानकाल में कोई उन्हें विध्न पहुंचाए। वहां और कोई था नहीं जो उनके स्नानकक्ष की पहरेदारी करता। तब माता पार्वती ने अपने शरीर के उबटन से गणेश की रचना की और उसमें प्राण फूंक कर द्वार पर खड़ा कर दिया। निर्देश दिया कि वे किसी को प्रवेश न करने दें। गणेश पहरेदारी कर रहे थे कि तभी भगवान शिव आ पहुंचे। उन्होंने कक्ष में प्रवेश करना चाहा तो गणेश ने उन्हें रोक दिया। इस पर क्रोधित हो कर शिव ने गणेश का सिर काट दिया। शोर सुन कर पार्वती भी तब तक बाहर निकल आईं। उन्होंने गणेश का सिरविहीन शरीर देखा तो दुख और क्रोध से कांप उठीं। उन्होंने शिव को जताया कि आपने अपने ही पुत्र का सिर काट दिया है। पार्वती ने शिव से कहा कि-‘‘गणेश मेरा सृजन था अतः आपका भी पुत्र था, अब आप उसे पुनर्जीवित करिए।’’ तब शिव ने एक बाल हाथी का सिर गणेश के धड़ में लगा कर उसे पुनर्जीवित किया। उसी समय सेे उनका नाम गजानन पड़ गया। इस कथा का स्मरण करने का उद्देश्य मात्र यही है कि परिवार की संरचना देवताओं में भी थी और वे उसे पूरी तरह स्वीकार भी करते थे। विरोध कहीं नहीं था। माता द्वारा सृजित पुत्र का विरोध किसी ने नहीं किया, जानने के बाद शिव ने भी नहीं। किन्तु गणेश के मोह में किसी अन्य देवता के पुत्र को हानि पहुंचाने की कथा भी नहीं मिलती है। 
ब्रह्मा हिन्दू धर्म में एक प्रमुख देवता हैं। वे हिन्दुओं के तीन प्रमुख देवताओं ‘‘ब्रह्मा, विष्णु, महेश’’ में से एक हैं। ब्रह्मा को सृष्टि (जीवों) का रचयिता कहा जाता है। ब्रह्मा का परिवार शिव की भांति सामान्य परिवार नहीं है। उनके पुत्र हैं किन्तु मानस पुत्र। पुराणों के अनुसार ब्रह्माजी के मानस पुत्र इस प्रकार हैं- मन से मारिचि, नेत्र से अत्रि, मुख से अंगिरस, कान से पुलस्त्य, नाभि से पुलह, हाथ से कृतु, त्वचा से भृगु, प्राण से वशिष्ठ, अंगुषठ से दक्ष, छाया से कंदर्भ, गोद से नारद, इच्छा से सनक, सनन्दन, सनातन, सनतकुमार, शरीर से स्वायंभुव मनु, ध्यान से चित्रगुप्त आदि। पुराणों में ब्रह्मा-पुत्रों को ‘ब्रह्म आत्मा वै जायते पुत्रः’ ही कहा गया है। ब्रह्मा ने सर्वप्रथम जिन चार-सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार पुत्रों का सृजन किया। उनकी सृष्टि रचना के कार्य में कोई रुचि नहीं थी। वे ब्रह्मचर्य रहकर ब्रह्म तत्व को जानने में ही मगन रहते थे। इन वीतराग पुत्रों के इस निरपेक्ष व्यवहार पर ब्रह्मा को क्रोध उत्पन्न हुआ। ब्रह्मा के उस क्रोध से एक प्रचंड ज्योति ने जन्म लिया। उस समय क्रोध से जलते ब्रह्मा के मस्तक से अर्धनारीश्वर रुद्र उत्पन्न हुआ। ब्रह्मा ने उस अर्धनारीश्वर रुद्र को स्त्री और पुरुष दो भागों में विभक्त कर दिया। पुरुष का नाम ‘का’ और स्त्री का नाम ‘या’ रखा। प्रजापत्य कल्प में ब्रह्मा ने रुद्र रूप को ही स्वयंभु मनु और स्त्री रूप में शतरूपा को प्रकट किया।
रोचक बात यह भी है कि हिन्दू धर्म के तीनों प्रमुख देवता परस्पर वैवाहिक संबंधी थे। शिव ने ब्रह्मा के पुत्र दक्ष की कन्या सती से विवाह किया था। विष्णु ने ब्रह्मा के पुत्र भृगु की पुत्र लक्ष्मी से विवाह किया था। विष्णु और लक्ष्मी के अठारह पुत्र थे- 1. देवसखा 2. चिक्लीत 3. आनन्द 4. कर्दम 5. श्रीप्रद 6. जातवेद 7. अनुराग 8. सम्वाद 9. विजय 10. वल्लभ 11. मद 12. हर्ष 13. बल 14. तेज 15. दमक 16. सलिल 17. गुग्गुल तथा 18. कुरूण्टक। 
देवताओं के अपने-अपने परिवार थे किन्तु ये परिवार जनकल्याण के लिए सृजित थे। मानव ने देवताओं के परिवार की कल्पना तो की किन्तु अपने दैवीय परिवार की कल्पना को वे उस तरह दूषित नहीं कर सके जैसे उन्होंने स्वयं के परिवार को संकीर्ण परिवारवाद का जामा पहना कर दूषित कर लिया। त्रेता हो या द्वापर युग परिवारवाद का दोष काले धब्बे के समान दिखाई देता है। त्रेतायुग में कैकयी द्वारा श्रीराम को वनवास दिलवाना और अपने पुत्र को राजसिंहासन दिलाना परिवारवाद की संकीर्ण आकांक्षा थी। द्वापर तो कौरवों और पांडवों के विवाद के रूप में परिवारवादी उदाहरणों से भरा पड़ा है। प्राचीन भारत की राजाशाही इन्हीं का मानवीय संस्करण था। क्या प्रजातंत्र में इस संस्करण को हम छोड़ पाएंगे? इस प्रश्न का उत्तर हमेशा भ्रमित करता है। जो दावा करते हैं कि वे परिवारवाद से दूर हैं, उनके खेमें में भी सैंकड़ों परिवारवादी मौजूद हैं जो हर लोकतांत्रिक चुनाव के समय अपने युवराजों को राजगद्दी के लिए प्रोजेक्ट करते हैं। दैवीय परिवारवाद और मानवीय परिवारवाद के अंतर को जब तक हम भली-भांति नहीं समझेंगे तब तक हम सनातन को समझने की अपनी क्षमता को साबित नहीं कर सकते हैं और न ही राजनीति को दूषित परिवारवाद से मुक्त रख सकते हैं। कटु ही सही किन्तु यही सत्य है।                                           
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