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My Editorials - Dr Sharad Singh

Friday, September 29, 2023

शून्यकाल | कुछ पंक्तियां आज सोचने को मजबूर करती हैं | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

शून्यकाल
कुछ पंक्तियां आज सोचने को मजबूर करती हैं
   - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह

  क्या आज किसी स्त्री को ‘बांझ’ कहना न्यायसंगत है? क्या आज किसी स्त्री को ‘ताड़ना’ का अधिकारी मानना उचित है? यदि नहीं! तो ऐसी पंक्तियां संशोधन पटल तक क्यों नहीं पहुंचती हैं? इन शब्दों का प्रयोग क्यों और किन परिस्थितियों में किया गया उसे सभी नहीं समझ सकते हैं। अशिक्षित किन्तु धर्मप्रिय जनता उन पंक्तियों को जिनमें ये शब्द आए हैं, पूरी आस्था से बांचती है, दोहराती है। कतिपय लोग इसी आस्था की आड़ ले कर संतानहीन स्त्री को ‘बांझ’ कह कर तथा स्त्री समुदाय को ताड़ना दिए जाने योग्य मान कर उन्हें घरेलू हिंसा का शिकार बनाते रहते हैं। अतः क्या यह अच्छा नहीं है कि अब इन पंक्तियों में संशोधन कर दिया जाए? यह मेरा एक चिंतन मात्र है, किसी आस्था की अवहेलना या निरादर नहीं है।* 
       भाद्रपद से पूरा एक पखवारा धार्मिक वातावरण में व्यतीत होता है। इस बार भी गणेश चतुर्थी को श्री गणपति की प्रतिमाओं की विभिन्न मंदिरों एवं सार्वजनिक स्थलों में स्थापना हुई। अनन्त चतुदर्शी तक श्री गणेश स्थापना स्थलों में उत्सव का माहौल रहा। विशेष रूप से महिलाओं ने जम कर भजन-कीर्तन किए। सुन्दरकाण्ड का पाठ भी कराया गया। सभी समय निकाल कर इस उत्सव में भाग लेते रहे और परस्पर मिलते-जुलते रहे। यही तो चाहते थे लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक। वह ब्रिटिश शासन का दमनकारी दौर था। जहां कहीं भी चार भारतीय जुड़ते जो अंग्रेज प्रशासन को लगता कि उनके विरुद्ध षडयंत्र किया जा रहा है। यह भी सच है कि क्रांतिकारी निरन्तर सक्रिय थे, और कभी अखबार निकाल रहे थे तो कभी गुप्त बैठकें कर रहे थे, तो कभी गुलामी को उतार फेंकने की योजनाएं बनाते थे। यह स्वाभाविक था। जो दासता में जी रहा हो वह बेड़ियों को तोड़ने का हर संभव प्रयास करेगा ही। राजा राममोहन राय जैसे मनीषी सामाजिक जागरण की अलख जगा रहे थे, वहीं बाल गंगाधर तिलक जैसे क्रांतिकारी जनता से खुल कर कह रहे थे कि ‘‘स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है, और मैं इसे लेकर रहूंगा।’’ उनकी इस घोषणा से जनता में जोश भर रहा था। उस समय तक भारतीय राजनीतिक पटल पर गांधीजी का उद्भव नहीं हुआ था। तिलक अखबार निकाल कर अपने लेखों के द्वारा देशप्रेम की भावना जगा रहे थे। माहौल को गर्म होता देख कर ब्रिटिश सरकार ने जगह-जगह पर 144 धारा और कफ्र्यू लगा दिए। जहां नहीं भी लगाया गया वहां भी सबको संदेह की दृष्टि से देखा जाता। तब तिलक को वह उत्सव याद आया जो महाराज शिवाजी के समय सार्वजनिक रूप से मनाया जाता था। उन्होंने उस गणेश उत्सव को अंग्रेजों के विरुद्ध राष्ट्रीय विचारों से जोड़ कर आरम्भ किया। जनता को धार्मिक अनुष्ठान के बहाने आपस में मिलने और विचार-विनिमय करने का अवसर मिल गया। अंग्रेज भी धार्मिक मामले में हस्तक्षेप करने का जोखिम नहीं लेना चाहते थे। उसी समय से गणेसोत्सव की परंपरा चल पड़ी और धीरे-धीरे पूरे देश में व्याप्त हो गई। आज भी पूरे देश में गणेशोत्सव पूरे धूमधाम से मनाया जाता है। 
जैसा कि मैंने पहले कहा कि उत्सव के दौरान भजन-कीर्तन होते हैं। इनमें सबसे अधिक महिलाओं की सहभागिता होती है। मैं भी इन उत्सवों में शामिल होती हूं। साथी महिलाओं के स्वर में स्वर मिला कर आरती और भजन गाती हूं। सब के साथ मिल कर उत्सव मनाने का अलग ही आनन्द होता है। किन्तु हर बार एक आरती गाते समय एक लाईन पर हमेशा मैं ठिठक जाती हूं। मुझे लगता है कि क्या अब इस लाईन में संशोधन नहीं कर दिया जाना चाहिए? यह बहुत लोकप्रिय आरती है -
जय गणेश जय गणेश,
जय गणेश देवा ।
माता जाकी पार्वती,
पिता महादेवा ।। 
यह पूरी आरती श्रीगणेश की स्तुति के सुंदर शब्दों में गुंथी हुई है तथा इसमें श्रीगणेश की शक्तियों का बखान है। इसी आरती में एक पद है-
अंधन को आंख देत,
कोढ़िन को काया ।
बांझन को पुत्र देत,
निर्धन को माया ।।
इस पद में जो पंक्ति मुझे सोचने को विवश करती है, वह है-‘‘बांझन को पुत्र देत’’। यह पंक्ति जब लिखी गई होगी तब वैज्ञानिक एवं सामाजिक वातावरण उतना विकसित नहीं था जितना कि आज हो चुका है। आज ‘‘बांझ’’ शब्द लगभग बहिष्कृत है। सभी जानते हैं कि एक स्त्री का ‘बांझ’ होना हर बार उसी की शारीरिक कमी नहीं होती है। कई बार यह कमी पुरुषों में होती है किन्तु वे जांच के लिए आगे नहीं आते हैं और पत्नी अपने माथे पर ‘बांझ’ का ठप्पा ले कर घूमने को विवश रहती है। आज विज्ञान ने इतनी तरक्की कर ली है कि कोई भी स्त्री मातृत्व धारण कर सकती है। यदि वह धारण करने में स्वयं सक्षम नहीं है तो सेरोगेसी के द्वारा वह मातृत्व प्राप्त कर सकती है। फिर कोई भी विवाहिता स्त्री स्वयं संतानहीन नहीं रहना चाहती है, यह तो शारीरिक कमी होती है जिसके लिए प्रकृति जिम्मेदार होती है वह स्वयं नहीं। अतः किसी स्त्री को ‘बांझ’ कहना उसके मनुष्य होने का अपमान करने की भांति है। फिर इसी पंक्ति में ‘‘बांझन को पु़त्र देत’’ शब्द हैं, ‘पुत्री’ क्यों नहीं? क्यों कि पुरानी रीति में पुत्र को वंश चलाने वाला, कुल को तारने वाला माना जाता था। किन्तु आज पुत्र और पुत्री में भेद कम होता जा रहा है। सरकार भी ‘बेटी बचाओ’, ‘लाड़ली लक्ष्मी’ जैसी योजनाएं चला कर बेटियों के महत्व को समाज में बढ़ाने का कार्य कर रही है। अतः इस पंक्ति में अब पुत्र के बजाए ‘संतान’ या ‘संतति’ और ‘बांझन’ के स्थान पर दंपति कर दिया जाना चाहिए। श्रीगणपति तो बुद्धि के देवता हैं। वे स्वयं भी यही चाहते होंगे कि अब बुद्धि का विकास हो और ऐसे शब्द विलोपित कर दिए जाएं जो स्त्रीजाति के अस्तित्व को लांछित करते हो अथवा नकारते हों। मात्र पुत्र की कामना ही स्त्री के अस्तित्व को नकारने की भांति है। 
इसी प्रकार गोस्वामी तुलसीदास रचित ‘‘रामचरित मानस’’ के ‘‘सुंदरकाण्ड’’ में एक चौपाई है जिसकी एक पंक्ति पर हमेशा विवाद होता रहा है। वह पंक्ति है-
ढोल, गंवार, शूद्र, पशु, नारी।
सकल ताड़ना के अधिकारी।। 
सुशिक्षित विद्वान इस पंक्ति की व्याख्या करते हुए स्पष्ट करने का प्रयास करते हैं कि तुलसीदास जी इन चारों का अपमान नहीं करना चाहते थे। जैसे, जब एक बार उत्तर प्रदेश और बिहार में इस पंक्ति को ले कर बड़ा राजनीतिक विवाद खड़ा हुआ था तो जगद्गुरु रामभद्राचार्य ने कहा था कि ‘‘रामचरितमानस’’ में थोड़ी सी त्रुटि है। वास्तव में ये लाइन है-
ढोल, गंवार, क्षुब्ध पशु, रारी
‘‘ढोल मतलब जो दूसरों की बात सुनकर उल्टा सीधा बोलने लग जाता है या जो बिना पीटे बजता नहीं है। उसे ढोल कहते हैं। एक ढोल है, जब तक उसे नहीं पीटोगे तो वो बजेगा नहीं, बेकार है। दूसरा शब्द उसमें है गंवार। अनपढ़ व्यक्ति को गंवार कहते हैं। नारी नहीं अपितु ‘रारी’ शब्द है जिसका अर्थ है झगड़ालू व्यक्ति।’’ वस्तुतः ऐसी व्याख्या को शिक्षित वर्ग आत्मसात कर सकता है किन्तु अशिक्षित वर्ग तो उसका शाब्दिक अर्थ ही लेता है। तो क्या अच्छा नहीं होगा कि इस पंक्ति को विलोपित रखा जाए। खैर, यह मेरे अपने विचार हैं, जनमत इस पर अपनी इच्छानुसार राय रख सकता है क्योंकि यह दोनों जनप्रिय साहित्य की पंक्तियां हैं।  
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