दैनिक नयादौर में मेरा कॉलम
"शून्यकाल"
वृक्षों को कटने से बचाने वाला एक था ‘चिपको आंदोलन’
- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह
हर साल तपन बढ़ती जा रही है। गरमी का मौसम आते ही अहसास होता है कि हमने उन पेड़ों को कट जाने दिया जो हमें ठंडक दे सकते थे और जो वातावरण के तापमान को बढ़ने से रोक सकते थे। हमारी आंखों के सामने दशकों पुराने पेड़ काटे जा रहे हैं और हम विकास का अंधाराग गाते हुए पर्यावरर्णीय अंधकार की ओर बढ़ते जा रहे हैं। पेड़ों के कटने से होने वाले नुकसान को भांप कर ही एक आंदोलन चलाया गया था, जिसका नाम था- चिपको आंदोलन। इस आंदोलन में अनेक महिलाओं ने सैकड़ों पेड़ों को कटने से बचाने का महत्वपूर्ण कार्य किया था और इस आंदोलन के नेतृत्वकर्ता थे सुंदरलाल बहुगुणा। आज फिर ऐसे किसी आंदोलन की जरूरत महसूस होने लगी है।
आज जब आसमान से आग बरसती हुई प्रतीत होती है और घरों में दुबके हुए लोग भी परस्पर यही चर्चा करते मिलते हैं कि एसी और कूलर भी काम नहीं दे रहे हैं। सोचने की बात है कि यह स्थिति क्यों बनती जा रही है? आखिर हमारे दादा-परदादा के जमाने में एसी या कूलर नहीं थे, तो वे कैसे सामना करते थे प्रचंड गरमी का? दरअसल, उस समय प्रचंड गरमी का अर्थ 48 या 50 डिग्री तापमान नहीं था जो आज होने लगा है। हमारे पूर्वजों में अधिकांश उतने सुशिक्षित भी नहीं थे जितने की आज हम विविध प्रकार के ज्ञानों से परिपूर्ण हैं। हम माइनरी से बाइनरी तक सब कुछ जानने, समझने लगे हैं। लेकिन पता नहीं क्यों उस संकट को नहीं समझ पा रहे हैं जो हमारे देश भर पर नहीं बल्कि पूरी पृथ्वी पर मंडरा रहा है, जो हमारी आने वाली पीढ़ियों के लिए जीवन के संकट पैदा कर रहा है। जी हां, ग्लोबल वार्मिंग। यही तो है जिसका प्रभाव मौसमों में अनियमितता और बढ़ती हुई गरमी के रूप में हमारे सामने खुल कर आने लगा है। हमारी आंखों के सामने दशकों पुराने पेड़ काटे जा रहे हैं और हम विकास का अंधाराग गाते हुए पर्यावरर्णीय अंधकार की ओर बढ़ते जा रहे हैं। संकट की जोरदार दस्तक के बावजूद भी हम जाग नहीं रहे हैं, जबकि इस संकट को बहुत पहले सुंदरलाल बहुगुणा और चंडी प्रसाद भट्ट ने समझ लिया था।
यह मेरा सौभाग्य है कि मुझे अपने काॅलेज के जीवनकाल में सुंदरलाल बहुगुणा जी से पत्राचार करने का अवसर मिला। उस समय पोस्टकार्ड का जमाना था। मैंने उनके आंदोलन के बारे में पढ़ा था। उनके प्रयासों से प्रभावित हो कर मैंने उन्हें एक पोस्टकार्ड लिखा। पता नहीं मालूम था। बस, ‘‘सुंदरलाल बहुगुणा, चिपको आंदोलन, टिहरी, गढ़वाल’’ - लिख कर पोस्ट कर दिया था। लगभग अठारह-बीस दिन बाद अप्रत्याशित रूप से एक पोस्टकार्ड के जरिए मुझे उनका उत्तर मिला। उन्होंने स्वयं अपने हाथों से लिखा था। मेरे लिए यह बहुत बड़े आश्चर्य और प्रसन्न्ता का विषय था। इसके बाद एक-दो पत्रों का और आदान-प्रदान हुआ। उनके हर पोस्टकार्ड में पेड़ों को कटने से बचाने का आह्वान रहता था। चूंकि उस समय मैं पन्ना में निवासरत थी और वहां उस समय तक जंगलों के कटने का (उस समय की मेरी जानकारी के अनुसार) उतना प्रकोप नहीं था, जितना कि समय के साथ समूचे बुंदेलखंछंड में बढ़ता गया। आज मुझे लगता है कि चिपको आंदोलन जैसे ही किसी आंदोलन की आवश्यकता है जो पेड़ों को कटने से बचा सके। चलिए, याद करते हैं कि क्या था वह आंदोलन।
चिपको आंदोलन एक अहिंसक आंदोलन था। इस आंदोलन की सबसे बड़ी विशेषता थी कि इसमें स्थानीय महिलाओं ने आगे बढ़ कर मोर्चा सम्हाला था। चिपको आंदोलन का अर्थ था कि जब कोई पेड़ों को काटने आए तो पेड़ों से चिपक कर तब तक खड़े रहें, जब तक कि काटने वाला अपनी हार मान कर वापस न लौट जाए। इस आंदोलन की पृष्ठभूमि सन 1964 में बनी। सन 1964 में पर्यावरणविद् और गांधीवादी सामाजिक कार्यकर्ता चंडी प्रसाद भट्ट ने स्थानीय संसाधनों का उपयोग करके ग्रामीण ग्रामीणों के लिए छोटे उद्योगों को बढ़ावा देने के लिए एक सहकारी संगठन, दशोली ग्राम स्वराज्य संघ की स्थापना की। बाद में इसका नाम बदलकर दशोली ग्राम स्वराज्य मंडल कर दिया गया। पहला चिपको आंदोलन अलकनंदा घाटी में मंडल गांव के पास अप्रैल 1973 में हुआ था। चंडी प्रसाद भट्ट जंगल की कटाई रोकने के लिए ग्रामीणों सहित जंगल में जा कर वहां के पेड़ों को अपनी बाहों का घेरा बना कर जगड़ लिया जहां पेड़ काटे जा रहे थे। कई दिना के प्रदर्शन के बाद प्रदेश सरकार ने हस्तक्षेप किया और कटाई को रुकवाया।
तब तक यह स्पष्ट हो गया था कि जंगलों की कटाई के कारण भू-स्खलन और बाढ़ की घटनाएं बढ़ रही थीं। इस बात से चिंतित हो कर पर्यावरणविद् सुंदरलाल बहुगुणा आगे आए उन्होंने चिपको आंदोेेलन का विधिवत उद्घोष किया। उन्होंने स्थानीय लोगों को इस आंदोलन के लिए तैयार किया और उन्हें जंगल कटने से होने वाले नुकसान के बारे में समझाया। बहुत सी महिलाएं इस आंदोलन से जुड़ गईं जिनमें गौरा देवी प्रमुख थीं। 1974 में रेनी गांव के पास 2,000 से अधिक पेड़ों को काटा जाना था। महिलाओं ने वहां पहुंच कर पेड़ों को घेर लिया। वे पेड़ों से चिपक कर खड़ी हो गईं। इस दौरान सुंदरलाल बहुगुणा ने वन नीति के विरोध में 1974 में दो सप्ताह का उपवास किया। अंततः कटाई करने वालों को वापस जाना पड़ा। इस आंदोलन ने एक बार फिर राज्य सरकार का ध्यान अपनी ओर खींचा और एक समिति बना कर क्षेत्र में वाणिज्यिक कटाई पर 10 साल का प्रतिबंध लगा दिया गया। यह आंदोलन की एक बड़ी सफलता थी।
1978 में, टिहरी गढ़वाल जिले के अडवानी जंगल में, चिपको कार्यकर्ता धूम सिंह नेगी ने जंगल की नीलामी के विरोध में उपवास किया, जबकि स्थानीय महिलाओं ने पेड़ों के चारों ओर पवित्र धागे बांधे और भगवदगीता का पाठ किया। अन्य क्षेत्रों में, चीड़ पाइंस (पीनस रॉक्सबर्गी) जिन्हें राल के लिए उपयोग किया गया था, उनके शोषण का विरोध करने के लिए पेड़ों पर पट्टी बांध दी गई। 1978 में भ्यूंडार घाटी के पुलना गांव में, महिलाओं ने लकड़ी काटने वालों के औजार जब्त कर लिए। आंकड़ों के अनुसार सन 1972 और 1979 के बीच, 150 से अधिक गांव चिपको आंदोलन में शामिल थे, जिसके परिणामस्वरूप उत्तराखंड में 12 बड़े विरोध प्रदर्शन और कई छोटे टकराव हुए। आंदोलन को बड़ी सफलता 1980 में मिली, जब बहुगुणा की तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी से अपील के परिणामस्वरूप उत्तराखंड हिमालय में व्यावसायिक कटाई पर 15 साल का प्रतिबंध लगा दिया गया। हिमाचल प्रदेश और पूर्व उत्तरांचल में भी इसी तरह के प्रतिबंध लगाए गए थे। वर्ष 1978 के 25 दिसंबर को मालगाड़ी क्षेत्र में लगभग ढाई हजार पेड़ों की कटाई रोकने के लिए जन आंदोलन शुरू हुआ, जिसमें हजारों महिलाओं ने भाग लिया और पेड़ों को कटने से बचा लिया। इसी जंगल में नौ जनवरी, 1978 को सुंदरलाल बहुगुणा ने 13 दिनों का उपवास रखा। परिणामस्वरूप सरकार ने तीन स्थानों पर वनों की कटाई को तत्काल रोकने का आदेश दिया। वर्ष 1977-78 के दौरान चमोली में एक बार फिर चिपको आंदोलन शुरू हुआ. जहां पुलना की महिलाओं ने भायंदर घाटी में जंगलों को कटने से रोका।
आगे चल कर हिमालय क्षेत्र में पर्यावरण एवं जलवायु के खतरे को देखते हुए आंदोलन ने ‘‘हिमालय बचाओ’’ का स्वरूप ले लिया। 1981 और 1983 के बीच, बहुगुणा ने आंदोलन को प्रमुखता देने के लिए हिमालय में 5,000 किमी (3,100 मील) की यात्रा की। 1980 के दशक के दौरान कई विरोध प्रदर्शन भागीरथी नदी पर बने टिहरी बांध और विभिन्न खनन कार्यों को रोकने के लिए किए गए। आंदोलन के असर से एक चूना पत्थर खदान बंद की गई। इसी तरह, बड़े पैमाने पर पुनर्वनीकरण के प्रयास से क्षेत्र में दस लाख से अधिक पेड़ लगाए गए।
सुंदरलाल बहुगुणा अपने चिपको आन्दोलन के कारण वे विश्वभर में ‘‘वृक्षमित्र’’ के नाम से प्रसिद्ध हो गए। सुंदरलाल बहुगुणा ने इस आंदोलन के लिए नारा दिया था- ‘‘पारिस्थितिकी स्थायी अर्थव्यवस्था’’ है। सन 1981 में बहुगुणा ने उनके विरोध के बावजूद सरकार द्वारा टिहरी बांध परियोजना को रद्द करने से इनकार करने पर उन्होंने पद्मश्री लेने से इनकार कर दिया था। फिर 2009 में उन्हें पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया। 9 जनवरी 1927 को जन्मे सुंदरलाल बहुगुणा जीवनपर्यंत चिपको आंदोलन के उद्देश्यों को ले कर समर्पित रहे। सन 2021 की 21 मई को कोविड से उनका निधन हो गया।
वस्तुतः आज पूरे देश में जिस तेजी से पेड़ काटे जा रहे हैं, उसे देखते हुए एक बार फिर चिपको आंदोलन जैसे किसी वृक्ष बचाओ आंदोलन की आवश्यकता महसूस होने लगी है।
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