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My Editorials - Dr Sharad Singh

Tuesday, October 8, 2024

पुस्तक समीक्षा | ‘जैनरेशन बाउंडिंग’ को स्थापना देती है पुस्तक -‘‘शक्ति पुंज’’ | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

आज 08.10.2024 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई डॉ. वंदना गुप्ता द्वारा संपादित पुस्तक "शक्ति पुंज" की समीक्षा।
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पुस्तक समीक्षा
‘जैनरेशन बाउंडिंग’ को स्थापना देती है पुस्तक -‘‘शक्ति पुंज’’
समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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पुस्तक  - शक्ति पुंज
संपादक - डाॅ. वंदना गुप्ता 
प्रकाशक - एन.डी. पब्लिकेशन, बादापुर दक्षिण पूर्व, दिल्ली - 110044
मूल्य    - 300/- 
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‘‘न मातुः परदैवतं।’’ - इस पंक्ति का अर्थ है कि मां से बड़ा कोई देवता नहीं हो सकता। इसी बात को एक अन्य श्लोक में कुछ इस प्रकार कहा गया है कि -
नास्ति मातृसमा छाया नास्ति मातृसमा गतिः।
नास्ति मातृसमं त्राणं नास्ति मातृसमा प्रपा।।
अर्थात मां के जैसा न कोई छाया दे सकता है और न ही कोई आश्रय ही दे सकता है और मां के समान न ही कोई हमें सुरक्षा ही दे सकता है। मां इस पूरे ब्रह्मांड में जीवन दायिनी है और उसके जैसा कोई दूसरा नहीं है। निःसंदेह मां जननी होती है और संतान सबसे अधिक मां के निकट स्वयं को पाता है। आज पाश्चात्य रंग में रंग कर बेटी को ‘‘पापा की परी’’ या ‘‘डैडीज़ डाॅल’’ कहा जाने लगा है लेकिन सच यही है कि बेटियां अपने जीवन में प्रथम अध्याय से अंतिम अध्याय तक अपनी मां से ही शिक्षा ग्रहण करती हैं और उन्हीं के पदचिन्हों पर चलने का प्रयास करती हैं। यूं भी हर संतान का यह कर्तव्य होता है कि वह अपनी मां की ममता एवं त्याग के बदले उन्हें मान-सम्मान, प्रतिष्ठा एवं अपनत्व दे। पुस्तक ‘‘शक्ति पुंज’’ एक बेटी का अपनी मां के प्रति स्नेह एवं सम्मान प्रकट करने का अनुपम उदाहरण है। सागर की स्त्रीरोग चिकित्सक एवं योग विशेषज्ञ, गीतकार, साहित्यकार एवं समाजसेवी डाॅ. वंदना गुप्ता जो इन दिनों वैचारिक स्वच्छता अभियान से भी जुड़ी हुई हैं, उन्हीं के संपादन में प्रकाशित हुई है पुस्तक ‘‘शक्ति पुंज’’।

इस पुस्तक में डाॅ. वंदना गुप्ता ने अपनी विदुषी मां विजयलक्ष्मी गुप्ता की काव्य रचनाओं एवं गद्य रचनाओं का संपादन किया है। इस संबंध में उन्होंने ‘‘संपादक की कलम से’’ के अंतर्गत लिखा है कि ‘‘छोटी-छोटी कविताओं से लेकर उनके लिखे उद्बोधन को पढ़ा तो मुझे गर्व के साथ असीम शक्ति का आभास हुआ, क्योंकि मानव जीवन व सामाजिक जीवन से संबंधित शायद ही कोई ऐसा विषय हो जिस पर उनकी लेखनी ने उनका साथ न दिया हो। भारतीय संस्कृति एवं संस्कारों, परोपकार, ऋतु एवं प्रकृति, नारी की सुप्त शक्ति का जागरण उनकी लेखनी के प्रधान विषय हैं जिसे पढ़कर किसी के भी अंदर की सुप्त शक्ति स्वयमेव जागृत हो सकती है। मुझे लगा कि इनका सम्पूर्ण लेखन एक ‘शक्तिपुंज’ के समान है अतः इस पुस्तक का नाम हमने ‘शक्तिपुंज’ रखा। कई स्थानों पर विषय संबंधित वक्तव्य में इन्होंने कई अन्य लोगों की कविताओं को भी उद्धृत किया है। विषय का क्रम न टूटे इस कारण हमने उन्हें उनकी डायरी से यथावत ही इस कृति में प्रस्तुत किया है। विशेष रूप से समाजसेवा के क्षेत्र में कार्य कर रहे लोगों के लिए ‘शक्तिपुंज’ एक ज्योति के समान है जो कदम-कदम पर अपने प्रकाश से उनका मार्गदर्शन कर उनके सेवा पथ को आलोकित करने में पूर्ण सक्षम है।’’ 
निश्चित रूप से यह न केवल श्रमसाध्य कार्य था वरन भावनाओं को आंदोलित करने वाला दायित्व था जिसे स्वयं डाॅ. वंदना गुप्ता ने निर्वाह करने का निर्णय लिया। पुस्तक की संपूर्ण सामग्री दो भागों में विभक्त है। प्रथम भाग में मां विजय लक्ष्मी गुप्ता की काव्य रचनाएं हैं और दूसरे भाग में उनकी गद्य रचनाएं हैं। बीच-बीच में डाॅ. वंदना गुप्ता की रचनाएं भी शामिल हैं। एक प्रकार से भावनाओं की पूरक की भांति। 

‘‘रचनाकार की कलम से’’ के अंतर्गत विजयलक्ष्मी गुप्ता ने इस पुस्तक एवं अपनी पुत्री के संपादकत्व पर चर्चा करते हुए लिखा है कि -‘‘मेरी उपस्थिति में मेरी डायरी व कई अलग-अलग पन्नों में लिखी मेरी पंक्तियों को एक पुस्तक के रूप में देने का संकल्प लेकर इसे पूर्ण किया। उसके इस प्रयास व हठ को मैं नमन करती हूँ जिसने इस कृति ‘शक्तिपुंज’ के माध्यम से मुझे अमरत्व प्रदान किया है। डॉ. वन्दना की विशेषता है कि वह कुछ न कुछ अलग हटकर सृजनात्मक कार्य करती रहती हैं, जिससे समाज को शक्ति मिलती है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण इनका राष्ट्रव्यापी ‘वैचारिक स्वच्छता अभियान’ है। यह अभियान मां-बहन बेटियों के सार्वजनिक अपमान को रोकने की जनजागृति मुहिम है। जिसका लक्ष्य है माँ-बहन बेटी की गालियों से मुक्त समाज का निर्माण हो सके। इसी विषय पर इनकी बनाई लघु फिल्म ‘घुटन समाज की’ प्रत्येक संवेदनशील व्यक्ति को झकझोरने वाली है। मेरे सम्पूर्ण जीवन की इस यात्रा में समाजसेवा के पथ पर हमें साथ लेकर चलने का, हमारी भाषा, अभिव्यक्ति व लेखनी की सक्षमता का समस्त श्रेय हमारे परोपकारी, कर्मठ, साहसी, कुशल वक्ता, चिन्तक व विचारक पति स्व. श्री ओमप्रकाश गुप्ता जी एडव्होकेट को जाता है। जिन्होंने मुझमें प्रेरणा भरकर मेरे अन्दर की प्रतिभाओं को निखारने का जीवनपर्यन्त प्रयास किया व भरपूर सहयोग प्रदान किया।’’
विजयलक्ष्मी गुप्ता के इन विचारों से स्पष्ट पता चलता है कि मां और बेटी के बीच कितनी गहरी वैचारिक संबद्धता है। इसमें कोई संदेह नहीं कि डाॅ. वंदना गुप्ता को लोकसंस्कार एवं जनहित की चिंता का गुण अपनी मां से ही मिला है। 

पुस्तक की सम्मति प्रो. सुरेश आचार्य पूर्व डीन एवं विभागाध्यक्ष हिन्दी विभाग डॉ. हरिसिंह गौर केन्द्रीय वि. वि. सागर ने लिखी है। वे लिखते हैं कि -‘‘उन्होंने विरासत में मिली असली पूंजी को सहेजकर समाज के बीच प्रस्तुत करने का जो पुण्य कार्य किया है, पीढ़ियां उन्हें इस कार्य के लिए याद रखेंगी। साथ ही ऐसे अनेक लोगों के लिए भी वह इस कृति के माध्यम से प्रेरणा स्रोत बनेंगी। जिनके माता-पिता या पूर्वजों ने इस प्रकार की साहित्य सेवा की है परन्तु वह कागजों के पन्नों या डायरी में घर के कोने में कहीं पड़ी रहती है और समाज को उस लेखन की ऊर्जा का लाभ नहीं मिल पाता है। अतः दीमक लगकर रद्दी में फेंके जाने के पूर्व ऐसे संपादन से समाज के लोगों को प्रेरणा मिलेगी। जिससे समाज को शक्ति का प्रकाश पुंज प्राप्त हो सकेगा।’’

बेशक़ यही वर्तमान का कटु सत्य है कि आज संतानें अपने माता-पिता के प्रेम से विरत हो चली हैं। यही कारण है कि वृद्धाश्रम आज फल-फूल रहे हैं। इस दृष्टि से सचमुच यह पुस्तक एक ऐसा आदर्श रचती है जिसे सभी युवाओं को जानना और समझना चाहिए।

पुस्तक के संबंध में अपने ‘‘उद्गार’’ व्यक्त करते हुए न्यायमूर्ति श्री सूर्यप्रकाश केसरवानी, कलकत्ता हाईकोर्ट, पूर्व वरिष्ठ न्यायाधिपति इलाहाबाद हाईकोर्ट ने लिखा है कि -‘‘शक्तिपुंज के संपादन एवं प्रकाशन पर अपनी छोटी बहन डॉ. वन्दना गुप्ता को हार्दिक शुभकामनाएं एवं कोटिशः धन्यवाद। क्योंकि ‘मां’ की साहित्यिक धरोहर को कृति ‘शक्तिपुंज’ के माध्यम से समाज को लोकार्पित करने का उनका भागीरथी प्रयास स्तुत्य है। ‘शक्तिपुंज’ कृति में अंकित सम्पूर्ण बातें समाज को राह दिखाने वाली तथा प्रत्येक मातृशक्ति की सुप्त शक्ति को जागृत करने वाली है।’’

पुस्तक के कलेवर पर अत्यंत साहित्यिक आमुख लिखा है सागर के वरिष्ठ साहित्यकार एवं समीक्षक टीकाराम त्रिपाठी ने। वे लिखते हैं कि ‘‘शक्तिपुंज में भारतीय समाज में सामाजिक संबंध धर्म, शिक्षा, पर्यावरण, रीति-रिवाज, संस्कृति, सभ्यता, पाश्चात्य अंधानुकरण पर अनेकानेक रचनायें हैं। मेरे मस्तिष्क में कुतूहल होता है कि ‘शक्तिपुंज’ की रचनाओं की शक्ति दो-तीन पुस्तकों के समकक्ष है ही साथ ही ये रचनाएं यदि आधुनिककाल के छठवे सातवें दशक के कवि लेखकों के कालखंड में प्रकाशित हो जाती तो देश-समाज के कल्याण में पुरजोर तरीके से समादृत होतीं। बहरहाल पर्शियन भाषा की उक्ति ‘देर आयद दुरूस्त आयद’ के अनुसार विलंबित ही सही, प्रकाशन तो हो सका है।’’

यदि बात की जाए विजयलक्ष्मी गुप्ता जी की उन काव्य रचनाओं की जो इस पुस्तक में हैं तो उनमें विविधता स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है। कवयित्री की स्त्रीजीवन को लेकर धारणा वैशिष्ट्य युक्त है। ‘‘नारी" शीर्षक कविता में वे लिखती हैं कि -
नारी सशक्तिकरण का अब समय है आया
नारी नारायण की है, विश्व मोहनी माया।
उसके रोम-रोम में, सर्वभूतेषु समाया ।। 
वह है शक्ति शौर्य का, जाज्वल्य पुंज। 
इसी प्रकार ‘‘नारी नहीं बेचारी’’ शीर्षक कविता में वे साफ शब्दों में कहती हैं कि-
बेचारी की संज्ञा देकर किया उसे लाचार।। 
बाह्य जगत से वह रही पूर्ण अनजान। 
नजरबंद थी वह गृह में नहीं रहा दिशा का ज्ञान।। 
नारी सशक्तिकरण के बीजारोपण का अभियान।
जागृति की दिशा में लेकर आया एक नया तूफान।।

कवयित्री प्रकृति के महत्व को निरुपित करती हुई प्रकृति से शिक्षा लेने का आह्वान करती हैं। ‘‘प्रकृति से शिक्षा’’ कविता में वे लिखती हैं कि -
शिक्षा ले लो जग से बहनो, तुम लता प्रसून पवन से। 
जग की तुम सेवा कर लो, अपने तन-मन-धन से।। 
बन्दी बन जायें जग में, बंधे विश्व प्रेम बंधन से।
 देखें सदैव जग को बस, जग (अंर्तमन) के ही लोचन से। 
सद्भाव सुमन के भर दें हर मानव के दिल में।।  

नारी और प्रकृति पर्याय ही तो हैं परस्पर एक दूसरे की और इन दोनों को सुरक्षा की आवश्यकता है। पुस्तक के पद्यखंड में कुल 126 कविताएं हैं। वहीं गद्यखंड में छोटे-बड़े कुल 113 लेख, संदेश, पत्र एवं उद्बोधन सहेजे गए हैं। गद्यखंड भी अपने-आप में महत्वपूर्ण है। इसमें विजयलक्ष्मी गुप्ता के वे विचार हैं जो उनके व्यक्तित्व को भली-भांति व्याख्यायित करते हैं। 

इसमें कोई दो मत नहीं कि ‘‘शक्ति पुंज’’ पुस्तक मां के प्रति एक बेटी के अतुल स्नेह की परिचायक है अतः संवेदनहीन होते इस समय में यह पुस्तक बहुत महत्व रखती है। यह पुस्तक ‘जैनरेशन गैप’ के विचारों को खण्डित करती हुई ‘‘जैनरेशन बाउंडिंग’’ स्थापित करती है। यह पुस्तक बताती है कि यदि माता के प्रति संतान का सच्चा प्रेम हो तो वह अपने जीवन की तमाम व्यस्तताओं के बावज़ूद मां की सेवा कें लिए समय जुटा सकता है। बस, प्रश्न भावना का है और यह पुस्तक भावना के स्तर पर पठनीय एवं अनुकरणीय कही जा सकती है।                                               
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