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My Editorials - Dr Sharad Singh

Wednesday, December 4, 2024

चर्चा प्लस | आधुनिकता की भीड़ में कहीं खो न जाए बुंदेली ‘महाभारत’ | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस
आधुनिकता की भीड़ में कहीं खो न जाए बुंदेली ‘महाभारत’
     - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
      बुन्देली लोक साहित्य गद्य और पद्य दोनों विधाओं में धनी है। बुन्देली में सामान्य जन जीवन से जुड़े संदर्भों के काव्य के साथ ही लोक गाथाएं भी सदियों से कहीं-सुनी जा रही हैं। इनमें भारतीय इतिहास के महाकाव्य कहे जाने वाले रामायण एवं महाभारत काल की कथाओं को भी गाथाओं के रूप में गाया जाता है। बुन्देलखण्ड में जगनिक के बाद विष्णुदास ने लगभग 14 वीं सदी में महाभारत कथा और रामायण कथा लिखी। विष्णंुदास की महाभारत कथा 1435 ई. माना गया है। यह गाथा शैली में दोहा, सोरठा, चौपाई तथा छंदों सं युक्त है। लेकिन खोती जा रही है यह आधुनिकता के धुंधलके में।
 
बुन्देली की प्रसि़द्ध महाभारतकाल संदर्भित लोकगाथाएं हैं- बैरायठा, कृष्ण-सुदामा, द्रौपदी चीरहरण तथा मेघासुर दानव आदि। इनके अतिरिक्त राजा जगदेव की लोकगाथा में भी पाण्डवों की चर्चा का समावेश है। महाभारत कालीन चरित्रों से जुड़ी गाथाओं का इस प्रकार बुन्देलखण्ड में रूचिपूर्वक गाया जाना इस बात का द्योतक है कि बुन्देली जन प्रकृति से जितने वीर होते हें तथा मानवीय संबंधों के आकलन को लेकर उतने ही संवेदनशील होते हैं। उन्हें व्यक्ति के अच्छे अथवा बुरे होने की परख होती है तथा साहसी, वीर, उदार, दानी और सच्चा व्यक्ति अपना आदर्श प्रतीत होता है। इसीलिए जन-जन में गाए जाने वाली बैरायठा लोकगाथा में ‘महाभारत’ महाकाव्य की लगभग सम्पूर्ण कथा को जन-परिवेश में पस्तुत किया गया है। जैसे, धृतराष्ट्र और गांधारी के विवाह के प्रसंग को इन शब्दों में प्रस्तुत किया गया है-
जब आ गई है चिठिया महाराज रे कै, 
जब गंधार में हो रये हैं ब्याव रे कै
जब गांधारी को हुइये नौने ब्याव रे कै, 
जब खबरें तो मिल गईं महराज रे कै   
जब सज गए गंगंव महराज रे कै।

इसी गाथा में द्यूतक्रीड़ा तथा चीर-हरण का अत्यंत दृश्यात्मक वर्णन मिलता है-
जब सकुनी ने डारे दाव रे कै,
जब पर गये अठारा दाव रे कै
फिर हारे धरम और राज रे कै
जब बोले जरजोधन महराज रे कै
..........
जब जूटो तो पकरो ओने आज रे कै
जब रानी खों लै गव अपने साथ रे कै
जब आ गई सभा के नोने बीच रे कै
जब सबरो से करी है गुहार रे कै
जब कोऊ खों ने आई लाज रे कै
जब भरी कचेरो महराज रे कै
       इस विवरण में  जिन तथ्यों को विशेष रूप से रेखांकित किया गया है वे ध्यान देने योग्य हैं कि जब व्यक्ति अनुचित कर्म करने लगता है तो ‘धरम’ और ‘राज’ दोनों गंवा बैठता है। इसी प्रकार जब ‘पांच पती’ अर्थात् सगे-संबंधी भी रक्षा नहीं कर पाते हैं उस समय ‘हरि’ अर्थात् ईश्वर सहायता करता है। यह मानव मन की वह अवस्था है जो राजनीतिक अस्थिरता एवं असुरक्षा के दौर में प्रभावी हो उठती है। यही भाव ‘चीरहरण’ लोग गाथा में मिलते हैं।
दुश्शासन द्वारा चीरहरण किए जाने पर द्रौपदी पतियों द्वारा निर्धारित नियति को चुपचाप स्वीकार करने के बदले सहायता के लिए कृष्ण को पुकारती है-
हे श्याम मेरी सुध लइयो, रे प्रभु मोरी लाज बचइयो रे
शकुनी दुर्योधन ने मिल के, कपट के पांसे डारे
जुआ खेल के पति हमारे, राजपाट सब हारे
मोरी बिगड़ी आज बनइयो, रे प्रभु मोरी लाज बचइयो रे
इसी गाथा में द्रौपदी की पुकार सुन कर श्री कृष्ण के आने का वर्णन भी कम महत्वपूर्ण नहीं है क्योंकि इसमें इस बात का ध्यान रखा गया है कि श्री कृष्ण द्रौपदी की लाज बचाने पहुंचे तो किन्तु किस साधन अथवा किस वाहन से? 
बेगी चलो गरुड़ मोरे भाई, कारज बिगड़ो जाई
नौ सौ कोस हस्तिनापुर बसो है, जल्दी देव पहुंचाई, बेगी चलो .....
नौ गज चलत हवा से आगंे, दस गज की ऊंचाई
तीन लोक को भार जो लावे, और चाल प्रभु कहां से आई, बेगी चलो .....
गरुड़ पर सवार हो कर श्री कृष्ण सभा में पहुंचे जहंा द्रौपदी के पांचों पति मूक दर्शक बने बैठे थे -
पांचई पति मौन हो बैठे, अर्जुन भीम सही
हरि से द्रौपति टेर करी
जब नन्दलाल आये सभा में, बढ़ गओ चीर सही
खेंचत चीर दुसासन हारे, चीर पे भीर भरी
बुन्देली लोकगाथाओं में महाभारत के विविध प्रसंगों के साथ ही विविध पात्रों एवं चरित्रों को भी स्थान दिया गया है। ‘कृष्ण सुदामा’ लोकगाथा में कृष्ण और सुदामा की मित्राता का सुन्दर वर्णन है।
दोई पढ़ें इक गुरुकुल में, नन्द नन्दन और सुदामा।
ईंधन की हुई महा तबाही, घर में से मिसरानी आई
जल्दी लकड़ी दो मंगवाई, अधकचरी है दाल
भोजन खों हो गई शामा, नन्द नन्दन और सुदामा।
जब गुरुकुल के लिए ईंधन हेतु लकड़ियां लाने कृष्ण और सुदामा जंगल में गए उसी समय दोनों की मित्राता का अनुकरणीय भविष्य तय हो गया।
चने चबा तेने सब लीने, हमको तनक भी न दीने
पिटबे के लांछन कर लीने
यह सोच किया है कान्हा, नन्द नन्दन और सुदामा।
वर्षों बाद अपनी पत्नी के कहने पर अपने मित्रा से मदद मांगने पहुंचे सकुचाए हुए सुदामा की आवभगत मित्रा कृष्ण ने की। अपने हाथों से सुदामा के चरण धोए तथा सिंहासन बैठने को दिया। मित्रा कृष्ण की सम्पन्नता देखकर सुदामा भेंट में लाए चावल देने का साहस नहीं कर पा रहे थे जिसे कृष्ण ने ताड़ लिया।
कासी दास श्रीकृष्ण कांख से, तुदुल खेंच चबावे
सुदामा जी के तंदुल मोहन खावें
तंदुल खाय मुट्ठी भर कें, मन में बहुत सराहवें
कंचन महल बनाय मित्रा के, संपति अमित भरवें
सुदामा जी के तंदुल मोहन खावें
‘मेघासुर’ लोकगाथा में पांडवों के साहस एवं कौशल का वर्णन मिलता है। मेघासुर संग्राम से पूर्व  देवी भवानी पांडवों को एक मढ़िया बनाने का निर्देश देती हैं-
बोले भुवानी सुनो पांडवा, ले के गजा तुम जाय
गजा लाये जब अर्जुन डगरे, धरनी झोंका खाय
 भरे समुंद समतल करे माया, मढ़ के करे विस्तार
कै गज की माई नींव डराऊं, कै गज के विस्तार
नौ गज की माई नींव डराओ, दस गज के विस्तार
‘राजा जगदेव’ लोकगाथा में भी पाण्डवों का उल्लेख आया है। यह उललेख प्रश्नों के रूप में है। किसने पृथ्वी को रचा? किसने संसार को रचा? किसने पाण्डवों को बनाया? पाण्डवों को किस उद्देश्य से बनाया गया? इन प्रश्नों का उत्तर भी इन्हीं के साथ दिया गया है कि देवी ने पाण्डवों को बनाया। पृथ्वी से अन्याय और अधर्म का विनाश करने के लिए पाण्डवों की रचना की गई।
कौना रची पिरथवी रे दुनियां संसार, कौना रचे पंडवां उनई के दरबार
बिरमा रची पिरथवी रे दुनियां संसार, माई रचें पंडवां रे अपने दरबार
रैबे खों रची पिरथवी रे दुनियां संसार, रन खों रचे पंडवा रे अपने दरबार ।।

लोक गाथाएं लोक परम्पराओं के साथ चलती हैं। इनमें जन की आस्था, विश्वास और धारणाएं निहित होती हैं। लोग गाथाएं जन के चरित्र को समझने में मदद करती हैं। कुल मिला कर ये सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक एवं चारित्रिक परम्पराओं का प्रतिबिम्ब होती हैं।  
भारतीय जनमानस को चरित्रों की विविधता से परिपूर्ण ‘महाभारत’ महाकाव्य ‘रामायण’ के बाद सबसे अधिक प्रभावित करता है। बुन्देली जनमानस इससे अलग नहीं है। अन्याय, दासता के विरुद्ध युद्धघोष करने वाले बुन्देलों के लिए महाभारतकालीन प्रसंगों का विशेष महत्व होना स्वाभाविक है। यदि मुग़लों अथवा अंग्रेजों के विरु़द्ध बुन्देलों के संघर्ष का इतिहास पढ़ा जाए तो यही तथ्य सामने आता है कि बहुसंख्यक शत्रुओं से अल्पसंख्यक बुन्देलों ने सदैव डट कर संघर्ष किया। ठीक उसी तरह जिस प्रकार पाण्डवों ने कौरवों का सामना किया था। अतः इसमें तनिक भी संदेह नहीं है कि ऐसे संघर्षपूर्ण अवसरों पर ये लोग गाथाएं आमजन में साहस का संचार करती रही होंगी। आज भी सुदूर ग्रामीण अंचलों में ये लोक गाथाएं गाई जाती हैं। यद्यपि आधुनिकता के आज के दौर में इन लोक गाथाओं के मूल स्वरूप के लुप्त होने का भय बढ़ चला है।
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