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My Editorials - Dr Sharad Singh
Thursday, August 27, 2020
साहस नहीं ये तो है दुस्साहस | डॉ. (सुश्री) शरद सिंह | दैनिक जागरण में प्रकाशित
Wednesday, August 26, 2020
चर्चा प्लस | अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बनाम ट्रोलिंग ट्रेंड | डॉ शरद सिंह
- डॉ शरद सिंह
अधिवक्ता प्रशांत भूषण के ट्वीट बनाम अदालत की अवमानना केस ने इन दिनों अभिव्यक्ति की आजादी को ले कर एक बहस छेड़ दी है। वहीं इंटरनेट पर ट्रोलिंग एक ऐसा ट्रेंड बन चुका है जिसका शिकार कई सेलिब्रेटी हो चुके है। हमारे लोकतंत्र ने हमें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता दी है जो हमारी सबसे बड़ी शक्ति है। हम अपनी बात रखने के लिए स्वतंत्र है। इंटरनेट और सोशल मीडिया ने वह प्लेटफॉर्म दिया जहां लोग अपने विचार रख सकते हैं लेकिन आजकल लोग इसे हथियार की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं। इसी स्वतंत्रता के नाम पर महिलाओं के बारे में अभद्र टिप्पणी करना, लोगों को गालियां देना, उन पर फिकरे कसना, उन का माखौल उड़ाना, ये सब आम हो गया है।
इन दिनों अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर सबसे ताज़ा चर्चा अधिवक्ता प्रशांत भूषण के ट्वीट बनाम अदालत की अवमानना की है। प्रशांत भूषण के ट्वीट को अदालत की अवमानना मान कर उन्हें क्षमा मांगने को कहा गया। क्षमा नहीं मांगने पर सज़ा दिए जाने की बात से भी आगाह किया गया। वहीं प्रशांत भूषण ने अपनी स्टेटमेंट में माफी मांगने से इनकार कर दिया। प्रशांत भूषण ने कहा कि वह अदालत का बहुत सम्मान करते हैं लेकिन माफी मांगना उनकी अंतरात्मा की अवमानना होगी। 20 अगस्त को हुई सुनवाई के दौरान प्रशांत भूषण ने सुप्रीम कोर्ट में महात्मा गांधी के बयान का हवाला देते हुए कहा कि न मुझे दया चाहिए, न मैं इसकी मांग कर रहा हूं। मैं कोई उदारता भी नहीं चाह रहा हूं, कोर्ट जो भी सजा देगी मैं उसे सहर्ष लेने को तैयार हूं। प्रशांत भूषण के इस प्रकरण के साथ ही अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर बहस छिड़ गई है।
किसी सूचना या विचार को बोलकर, लिखकर या किसी अन्य रूप में बिना किसी रोकटोक के अभिव्यक्त करने की स्वतंत्रता अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कहलाती है। अतः अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की हमेशा कुछ न कुछ सीमा अवश्य होती है। भारत के संविधान के अनुच्छेद 19 (1) के तहत सभी को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता दी गयी है। वहीं, भारतीय संविधान का अनुच्छेद 21 संविधान के मौलिक अधिकार का एक हिस्सा है, जिसमे यह कहा गया है कि भारत में कानून द्वारा स्थापित किसी भी प्रक्रिया के आलावा कोई भी व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति को उसके जीवित रहने के अधिकार और निजी स्वतंत्रता से वंचित नहीं कर सकता है। इसके तहत सीधे सुप्रीम कोर्ट में अपील करने का अधिकार होता है।प्रश्न उठता है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की आज के समय में क्या कोई सीमा सुनिश्चित की जा सकती है जब सोशल मीडिया ने अभिव्यक्ति का एक विस्तृत प्लेटफॉर्म दे रखा है। इस प्लेटफॉर्म के अच्छे और बूरे पहलू दोनों हैं। अच्छा पहलू यह है लिए इसने अनेक बार लोगों का जीवन बचाने और न्याय दिलाने में महती भूमिका निभाई है। किसी बच्चे के गुम हो जाने अथवा किसी गुमें हुए बच्चे के परिवार का पता लगाने में व्हाट्सएप्प जैसे माध्यमों ने सकारात्मक परिणाम दिए हैं। इसी तरह यदि किसी घायल या बीमार को रक्त की ज़रूरत हो तो सोशल मीडिया पर संदेश वायरल होते ही जल्दी से जल्दी रक्त उपलब्ध हुआ है। लेकिन सोशल मीडिया का दूसरा पहलू जो कभी-कभी एक पागलपन में ढलता दिखाई देता है, वह चिंताजनक है। यह पहलू है किसी व्यक्ति या मुद्दे को ट्रोल किए जाने का। जब बात किसी व्यक्ति की हो तो स्थिति मानहानि से भी बदतर होने लगती है। छद्मनामी ट्रोलर बेलगाम तरीके से किसी भी नामी व्यक्ति को ट्रोल करने में इस तरह जुट जाते हैं गोया इसके अलावा उन्हें अपने जीवन में और कोई काम ही न हो। इंटरनेट पर ट्रोलिंग एक ट्रेंड बन चुका है। इसका शिकार कई सेलिब्रेटी हो चुके है। हमारे लोकतंत्र ने हमें एक आज़ादी दी है वो है अभिव्यक्ति की। हम अपनी बात रखने के लिए स्वतंत्र है। इंटरनेट और सोशल मीडिया एक जरिया है जहां लोग अपने विचार रख सकते है, पर आजकल लोग इसे हथियार की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं। इसी स्वतंत्रता के नाम पर महिलाओं के बारे में अभद्र टिप्पणी करना, लोगो को गालियां देना, उन पर फिकरे कसना, उन का मखौल उड़ाना, ये सब आम हो गया है। जबकि अभिव्यक्ति की आज़ादी किसी का अपमान करने की आज़ादी नहीं देती है।
देखा जाए तो सोशल मीडिया उस आम नागरिक के लिए वरदान है जिसे अपनी अभिव्यक्ति को दूसरों तक पहुंचाने के लिए कोई मंच अथवा प्रकाशन नहीं मिल पाता था। इसने अनेक ऐसे अकेले बुजुर्गों के जीवन को समाज (भले ही आभासीय) से जोड़ दिया जो अपने अकेलेपन के कारण अवसादग्रस्त जीवन जीने को विवश रहते थे। लेकिन वहीं दूसरी ओर अनियंत्रित और अमर्यादित अभिव्यक्ति ने सोशल मीडिया को क्षति पहुंचाना शुरू कर दिया है। दूसरे से असहमति होने पर गाली-गलौज करना, धमकियां देना और अश्लील व्यवहार करना आम होता जा रहा है। कहा तो यह भी जाता है कि आजकल राजनीतिक दल वेतन के आधार पर ट्रोलर नौकरी पर रखते हैं जिनका काम दिन-रात ऐसे लोगों के खिलाफ आग उगलना होता है जो विरोधी दल के हों। ट्रोलर्स की भूमिका उस समय घातक हो जाती है जब वे जजमेंट करने पर उतारू हो जाते हैं। कौन दोषी है और कौन नहीं? इसका फैसला वे व्यक्ति कैसे कर सकते हैं जिन्हें न तो कानून का ज्ञान होता है और न मामले की गहराई से जानकारी होती है। ऐसे मामलों में अकसर पक्ष और विपक्ष की संख्या प्रभावी रहती है। जिसका पलड़ा भारी हो, बाकी कमेंट्स भी उसी हैसटैग पर नत्थी होते जाते हैं।
जैसे-जैसे सोशल मीडिया पर ट्रोलिंग का अमार्यादित चलन बढ़ता जा रहा है वैसे-वैसे सरकार ही नहीं बल्कि सोशल मीडिया से जुड़ा हर संवेदनशील नागरिक सोशल मीडिया के नियमन की आवश्यकता को महसूस करने लगा है। सरकारें तो अभिव्यक्ति पर नियंत्रण रखने के अवसर ढूंढती ही रहती हैं लेकिन अब सोशल मीडिया के नियमन की मांगें नागरिक समाज और न्यायपालिका की ओर से भी आने लगी हैं। सोशल मीडिया का जिस व्यापक पैमाने पर सुनियोजित रूप से दुरुपयोग किया जा रहा है और उस पर जिस प्रकार का अमर्यादित एवं उच्छृंखल व्यवहार देखने में आ रहा है, वह किसी को भी चिंतित करने के लिए पर्याप्त है। जहां एक ओर सोशल मीडिया के कारण ऐसे व्यक्ति को भी अपने विचार प्रकट करने का मंच मिल गया है जिसे पहले कोई मंच उपलब्ध नहीं था, वहीं दूसरी ओर वह निर्बाध, अनियंत्रित और अमर्यादित अभिव्यक्ति का मंच बन गया है। दूसरे से असहमति होने पर गाली-गलौज करना, धमकियां देना और अश्लील व्यवहार करना आम होता जा रहा है। महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू आदि के भी फर्जी चित्र सोशल मीडिया पर प्रसारित किए जा चुके हैं जिनमें फोटोशॉप के इस्तेमाल द्वारा परिवर्तन करके उनका चरित्र हनन किया जाता है। व्यक्ति और समुदायविशेष के खिलाफ नफरत फैलाने और दंगों की भूमिका बनाने में भी सोशल मीडिया की सक्रियता देखी गई है। इसलिए अब सुप्रीम कोर्ट ने भी सोशल मीडिया के नियमन के लिए कानून बनाए जाने की जरूरत बताई है और सरकार से इस बारे में कानून बनाने को कहा है।
सन् 2009 में तत्कालीन मनमोहन सिंह सरकार द्वारा बनाए गए सूचना तकनीकी कानून के अनुच्छेद 66ए में पुलिस को कंप्यूटर या किसी भी अन्य प्रकार के साधन द्वारा भेजी गई किसी भी ऐसी चीज के लिये भेजने वाले को गिरफ्तार करने का अधिकार दे दिया गया था जो उसकी निगाह में आपत्तिजनक हो। पुलिस ने इस अनुच्छेद का इस्तेमाल करके अनेक प्रकार के मामलों में गिरफ्तारियां कीं। इसलिए इसे सुप्रीम कोर्ट ने सन् 2015 में असंवैधानिक करार देते हुए रद्द कर दिया। इसके बाद केंद्र सरकार ने इस मामले की तह तक जाने के लिए एक विशेषज्ञ समिति का गठन किया। इस समिति की रिपोर्ट ने भारतीय दंड संहिता, फौजदारी प्रक्रिया संहिता और सूचना तकनीकी कानून में संशोधन करके सख्त सजाओं का प्रावधान किए जाने की सिफारिश की। इनमें एक सिफारिश यह भी है कि किसी भी किस्म की सामग्री द्वारा नफरत फैलाने के अपराध के लिए दो साल की कैद या पांच हजार रुपये जुर्माना या फिर दोनों की सजा निर्धारित की जाए। भय या आशंका फैलाने या हिंसा के लिए उकसाने के लिए भी एक साल की कैद या पांच हजार रुपये या फिर दोनों की सजा की सिफारिश की गई। जांच प्रक्रिया के बारे में भी कई किस्म के संशोधन सुझाए गए।
आज स्थिति यहां तक जा पहुंची है कि फाली नरीमन और हरीश साल्वे जैसे देश के चोटी के विधिवेत्ता भी ट्रोलिंग जजमेंट के कारण सोशल मीडिया को घातक मानने लगे हैं। कहीं ऐसा न हो कि जिस प्रकार व्हाट्सएप्प के मॉबलिंचिंग में दुरुपयोग के कारण मैसेजिंग की सीमा एक साथ पांच मैसेज तक घटा दी गई। कहीं ऐसा न हो कि व्हाट्सएप्प मैसेजिंग की भांति हमें ट्रोलर्स के कारण सोशल मीडिया के कई लाभों से वंचित होना पड़े़ और हम अपनी अभिव्यक्ति की आजादी को अपने ही हाथों कम करवा डालें।
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(दैनिक सागर दिनकर में 26.08.2020 को प्रकाशित)
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Friday, August 21, 2020
मेरे उपन्यास "शिखंडी : स्त्री देह से परे" की समीक्षा "दैनिक हिन्दुस्तान" में - डॉ शरद सिंह
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Thursday, August 20, 2020
चर्चा प्लस | नई शिक्षा नीति में भाषाई प्रावधान का प्रश्नचिन्ह | डॉ शरद सिंह | सागर दिनकर में प्रकाशित
चर्चा प्लस ...
नई शिक्षा नीति में भाषाई प्रावधान का प्रश्नचिन्ह
- डॉ शरद सिंह
नई शिक्षा नीति-2020 को कैबिनेट की मंज़ूरी मिलने के बाद केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री रमेश पोखरियाल निशंक और सूचना प्रसारण मंत्री प्रकाश जावडेकर ने इसे प्रेसवार्ता में जारी किया। इससे पहले 1986 में शिक्षा नीति लागू की गई थी। इस नई शिक्षा नीति में स्कूल शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक कई बड़े बदलाव किए गए हैं। इस नीति की सबसे बड़ी बात है कि नई शिक्षा नीति में पांचवी क्लास तक मातृभाषा, स्थानीय या क्षेत्रीय भाषा में पढ़ाई का माध्यम रखने की बात कही गई है। इसे क्लास आठ या उससे आगे भी बढ़ाया जा सकता है। विदेशी भाषाओं की पढ़ाई सेकेंडरी लेवल से होगी। यद्यपि नई शिक्षा नीति में यह भी कहा गया है कि किसी भी भाषा को थोपा नहीं जाएगा। प्रश्न यह है कि क्या इस नीति के भाषाई प्रावधान में सरकारी स्कूलों के बच्चे उन बच्चों का मुकाबला कर सकेंगे जो प्राईवेट स्कूल में पहली कक्षा से अंग्रेजी भाषा सीखते हैं। देश में अंग्रेजी के प्रभाव के चलते कहीं सरकारी स्कूलों के बच्चे और पिछड़ तो नहीं जाएंगे? इस तरह की कई बातें अभी विचार करने योग्य हैं।
. मुझे याद है भारत भवन में सन् 2004 में हुई एक साहित्यिक संगोष्ठी जिसमें देश-विदेश से हिन्दी के जानकार एकत्र हुए थे। कथासम्राट प्रेमचंद की पोती सारा राय भी उसमें आई थीं। विदेशों में हिन्दी साहित्य विषयक सत्र के बाद जब हम भोजनसत्र में गपशप कर रहे थे तभी किसी बात पर चर्चा चलते-चलते स्कूल शिक्षा पर पहुंची और सारा राय ने हंस कर कहा-‘‘हिन्दी स्कूलों में पढ़े हुए लोग कितनी भी अच्छी अंग्रेजी बोल लें लेकिन पकड़ में आ ही जाते हैं।’’ मैंने चकित हो कर पूछा-कैसे?’’ तो उन्होंने कहा-‘‘शायद आपने ध्यान नहीं दिया होगा कि अभी पिछले सत्र में जो सज्जन भाषण दे रहे थे वे बिना वज़ह अंग्रेजी झाड़ रहे थे। लेकिन जैसे ही उन्होंने ‘‘पोर्टुगल’’ को ‘‘पुर्तगाल’’ कहा, मैं ताड़ गई कि ये हिन्दी मीडियम के अंग्रेजी नवाब हैं।’’ उनका तंज इस बात पर था कि वे सज्जन हिन्दी के आयोजन में बेवज़ह अंग्रेजी झाड़ रहे थे। उस समय तो यह बात हंसी-हंसी में आई-गई हो गई लेकिन सारा राय की यह टिप्पणी फांस बन कर मेरे दिल-दिमाग़ में चुभी रही। यह बात किसी एक सज्जन की नहीं थी, बल्कि उन तमाम लोगों की थी जो हिन्दी माध्यम स्कूलों में पढ़ते हैं और स्वश्रम से अंग्रेजी में पारंगत होने का प्रयास करते हैं। अब तो अंग्रेजी सिखाने वाले कोचिंग सेंटर भी खुल गए है। यद्यपि कोरोनाकाल ने उन पर भी तालाबंदी करा दी। बहरहाल, ऑनलाईन अंग्रेजी शिक्षा की साईट्स हैं लेकिन वे इतनी सक्षम नहीं हैं कि अंग्रेजी न जानने वाले अथवा कम जानने वाले को अंग्रेजी की पर्याप्त शिक्षा दे सकें। ऐसे में नई शिक्षा नीति 2020 में भाषा शिक्षा को ले कर जो प्रावधान रखा गया है वह चिंता में डालने वाला है।
मैं भी हिन्दी माध्यम स्कूल-कॉलेज में पढ़ी हूं और मुझे अब तक अनेक ऐसे राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय आयोजनों में भाग लेने का अवसर मिला है जो हिन्दी भाषा पर केन्द्रित होते हुए भी अंग्रेजी के बोलबाले के साए में हुए। मुझे असुविधा नहीं हुई क्योंकि हिन्दी पर मेरी भाषाई पकड़ अच्छी है और कक्षा एक से ही घर पर मुझे अंग्रेजी पढ़ाई जाती रही। मेरी मां डॉ, विद्यावती ‘मालविका’ ने हिन्दी की व्याख्याता होते हुए भी मेरी अंग्रेजी भाषा की शिक्षा पर ध्यान दिया तथा उच्चारण को लेकर हमेशा सजग रखा। लेकिन जब मैं उन युवाओं के बारे में सोचती हूं जो समाज के ऐसे तबके से आते हैं जहां माता-पिता दोनों ही भाषाई ज्ञान में कच्चे होते हैं, वे युवा हिन्दी माध्यम स्कूलों में पढ़ते हुए अंग्रेजी के आतंक का कैसे मुकाबला करते होंगे? क्या उनमें हीन भावना पनपने लगती है? क्या वे स्वयं को रोजगार की दौड़ में सबसे निचली सीढ़ी पर खड़ा महसूस करते हैं?
कक्षा पांच तक मातृ भाषा में शिक्षा दिया जाना बड़ी सुखद बात लगती है। निश्चित रूप से इससे बच्चे को विषय को समझने और अपनी मातृभाषा से जुड़े रहने का अवसर मिलेगा। लेकिन क्या इस नीति को अंग्रेजी माध्यम के प्राईवेट स्कूल अपनाएंगे? यदि नहीं अपनाएंगे तो सरकारी और प्राईवेट स्कूलों के बीच की भाषाई खाई और गहरी हो जाएगी। हम दशकों से लॉर्ड मैकाले की शिक्षा नीति को ‘बाबू बनाने की शिक्षा नीति’’ कह कर कोसते आए हैं। लेकिन इस शिक्षा नीति के भाषा-माध्यम पक्ष को लेकर बच्चों के क्या बनने की उम्मींद कर सकते हैं। इसमें कोई संदेह नहीं है कि यह शिक्षा नीति एक महत्वाकांक्षी नीति है। इसमें स्किल डेव्हलपमेंट के अनेक प्रावधान हैं लेकिन इस दौर में जब यह महसूस होने लगा है कि बच्चों को पहली कक्षा से ही द्विभााषी शिक्षा दी जाए तब कक्षा पांच तक केवल मातृ भाषा में शिक्षा का प्रावधान कई चुनौतियां खड़ा करता है। नई शिक्षा नीति में पांचवी क्लास तक मातृभाषा, स्थानीय या क्षेत्रीय भाषा में पढ़ाई का माध्यम रखने की बात कही गई है। इसे क्लास आठ या उससे आगे भी बढ़ाया जा सकता है। विदेशी भाषाओं की पढ़ाई सेकेंडरी लेवल से होगी। इसे लागू करने के साथ ही यह जरूरी होता कि देश में भाषाई एकरूपता पर भी नई नीति बनाई जाती और अंग्रेजी के प्रभाव को समाप्त करने की दिशा में कड़े कदम उठाए जाते। चीन, जापान, रूस, जर्मनी आदि देश एक राष्ट्र भाषा के आधार पर प्रगति कर रहे हैं तो हमारे देश में यह संभव क्यों नहीं हो पाता है? जबकि देश की आज़ादी के बाद से इस दिशा में कई बार ज़ोरदार मांग उठाई गई। यह विचारणीय है कि भाषा का मुद्दा इस नई शिक्षा नीति के व्यावहारिक उद्देश्यों को ठेस पहुंचा सकता है।
यह अच्छी बात है कि समय के साथ शिक्षानीति में भी परिवर्तन होना चाहिए और अब देश की शिक्षा नीति में 34 साल बाद नए बदलाव किए जा रहे हैं। नई प्रणाली में प्री स्कूलिंग के साथ 12 साल की स्कूली शिक्षा और तीन साल की आंगनवाड़ी होगी। प्रायमरी में तीसरी, चौथी और पांचवी क्लास को रखा गया है। इसके बाद मिडिल स्कूल अर्थात् 6-8 कक्षा में विषय का परिचय कराया जाएगा। सभी छात्र केवल तीसरी, पांचवी और आठवीं कक्षा में परीक्षा देंगे। 10वीं और 12वीं की बोर्ड परीक्षा पहले की तरह जारी रहेगी। लेकिन बच्चों के समग्र विकास करने के लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए इन्हें नया स्वरूप दिया जाएगा। पढ़ने-लिखने और जोड़-घटाव (संख्यात्मक ज्ञान) की बुनियादी योग्यता पर ज़ोर दिया जाएगा। बुनियादी साक्षरता और संख्यात्मक ज्ञान अत्यंत ज़रूरी एवं पहली आवश्यकता मानते हुए ’एनईपी 2020’ में ’बुनियादी साक्षरता और संख्यात्मक ज्ञान पर एक राष्ट्रीय मिशन’ की स्थापना की जाएगी। एनसीईआरटी 8 वर्ष की आयु तक के बच्चों के लिए प्रारंभिक बचपन देखभाल और शिक्षा के लिए एक राष्ट्रीय पाठ्यक्रम और शैक्षणिक ढांचा विकसित करेगा। शिक्षकों के लिए राष्ट्रीय प्रोफ़ेशनल मानक राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद द्वारा वर्ष 2022 तक विकसित किया जाएगा, जिसके लिए एनसीईआरटी, एससीईआरटी, शिक्षकों और सभी स्तरों एवं क्षेत्रों के विशेषज्ञ संगठनों के साथ परामर्श किया जाएगा।
पहली बार मल्टीपल एंट्री और एग्ज़िट सिस्टम लागू किया गया है। यानी मल्टीपल एंट्री और एग्ज़िट सिस्टम की इस नई व्यवस्था में एक साल के बाद सर्टिफ़िकेट, दो साल के बाद डिप्लोमा और तीन-चार साल के बाद डिग्री मिल जाएगी। इससे उन छात्रों को लाभ होगा जिनकी पढ़ाई बीच में छूट जाती है। नई शिक्षा नीति में छात्रों को ये आज़ादी होगी कि अगर वो कोई कोर्स बीच में छोड़कर दूसरे कोर्स में दाखिला लेना चाहें तो वो पहले कोर्स से एक खास निश्चित समय तक ब्रेक ले सकते हैं और दूसरा कोर्स ज्वाइन कर सकते हैं। उच्च शिक्षा में कई बदलाव किए गए हैं। जो छात्र रिसर्च करना चाहते हैं उनके लिए चार साल का डिग्री प्रोग्राम होगा। जो लोग नौकरी में जाना चाहते हैं वो तीन साल का ही डिग्री प्रोग्राम करेंगे। लेकिन जो रिसर्च में जाना चाहते हैं वो एक साल के एमए के साथ चार साल के डिग्री प्रोग्राम के बाद सीधे पीएचडी कर सकते हैं। उन्हें एमफ़िल की ज़रूरत नहीं होगी। नई शिक्षा नीति में अनेक ऐसी बातें हैं जिन पर विस्तार से चर्चा अगले किसी ‘‘चर्चा प्लस’’ में करूंगी। फिलहाल भाषा तत्व जो किसी भी शिक्षा नीति की बुनियाद है, उस पर ध्यान दिया जाना आवश्यक है। यानी पहले ‘‘पुर्तगाल और ‘‘पोर्टुगल’’ की दूरी को पाटना भी जरूरी है।
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(दैनिक सागर दिनकर में 20.08.2020 को प्रकाशित)
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स्वच्छता सिर्फ़ सरकार की जिम्मेदारी नहीं | डॉ. (सुश्री) शरद सिंह | दैनिक जागरण में प्रकाशित
Saturday, August 15, 2020
स्वतंत्रता : मात्र एक शब्द नहीं - डाॅ शरद सिंह, सागर दिनकर में प्रकाशित विशेष लेख
स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं
🌷इस अवसर पर पढ़िए मेरा विशेष लेख...
स्वतंत्रता: मात्र एक शब्द नहीं
- डाॅ शरद सिंह
स्वतंत्रता, आज़ादी, इंडेपेंडेंस - हर भाषा में अलग शब्द लेकिन भावना एक ही है जिसका अर्थ है बोलने, लिखने, पढ़ने और अपने ढंग से जीने की स्वतंत्रता। जी हां, स्वतंत्रता मात्र एक शब्द नहीं है, यह तो मानव जीवन की मूल भावना है। इसीलिए जब कोई इस मूल भावना का दुरुपयोग करने की कोशिश करता है तो वह अपने जीवन का दुरुपयोग कर रहा होता है। इसीलिए स्वतंत्रता शब्द के मूलभाव को आज समझने की बहुत ज़रूरत है।
आज यदि किसी से पूछा जाए कि स्वतंत्रता का क्या अर्थ है तो वह बेहिचक धाराप्रवाह अपनी व्यक्तिगत स्वतंत्रता की बातें करने लगेगा। यदि वह युवा है और उसके माता-पिता उस पर अंकुश रखते हैं तो वह अपने माता-पिता के अंकुश से स्वतंत्र होने की बात करेगा। यदि कोई व्यक्ति पारिवारिक पेरेशानियों में फंसा हुआ है तो उन परेशानियों से मुक्ति में ही उसे अपनी स्वतंत्रता दिखाई देगी। यदि कोई आॅफिस के कामों के बोझ से लदा हुआ है तो उसके लिए उस बोझ से मुक्ति ही स्वतंत्रता है। यानी आज हम स्वतंत्रता के निहायत व्यक्तिगत संस्करणों के साथ जीने लगे हैं। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि हमने अपनी आंखों से स्वतंत्रता आंदोलन नहीं देखा है। जिन्होंने देखा है, वे हमारे बुजुर्ग हैं और हमारे पास उनके संस्मरण सुनने, उनसे अंाखों देखा हाल जानने की फुर्सत नहीं है। ऐसी दशा में हम स्वतंत्रता को स्वतंत्रता दिवस से जोड़ कर एक दिन के लिए समारोही हो जाना पसंद करते हैं, उससे आगे हमें सोचने की फुर्सत नहीं होती है। जबकि स्वतंत्रता मात्र एक शब्द नहीं है, यह अपने आप में एक ऐसी व्यवस्था है जो मनुष्य को मनुष्य होने का बोध कराती है।
यदि आज टिक-टाॅक या व्हाट्सएप्प पर नियंत्रण की बात आती है तो हमें लगता है कि हमारी स्वतंत्रता छिनी जा रही है। अभी साल-डेढ़ साल पहले यही हुआ। व्हाट्एप्प पर पांच से अधिक मैसेजे एक साथ करने पर पाबंदी लगा दी गई। जिस पर व्हाट्सएप्प यूज़र को लगा कि उनकी स्वतंत्रता को सीमित कर दिया गया है। एक बौखलाहट भरा स्वर उभरा लेकिन जल्दी ही यह स्वर शांत भी हो गया क्योंकि लोगों ने इस वास्तविकता को स्वीकार किया कि माॅबलिचिंग के कारण ऐसी पाबंदी लगाई गई थी। किसी भी घटना के होने और उसे समझने के बीच ही सारी कठिनाइयां छिपी रहती हैं जैसे ही बात समझ में आ जाती है मुश्क़िलें भी दूर होने लगती हैं। इसीलिए हमें समझना होगा कि स्वतंत्रता का वास्तविक अर्थ हमारी व्यक्तिगत स्वतंत्रता नहीं बल्कि देश की स्वतंत्रता है। यदि देश स्वतंत्र है तो हम स्वतंत्र हैं। इसलिए देश की स्वतंत्रता को बनाए रखने के लिए उस स्वतंत्रता के प्रति जो भी जरूरी है वह हमें करना होगा। जैसे-आत्मनिर्भरता, आत्मसंयम, समझदारी, अपने मतदान अधिकार का सही प्रयोग, गलत बातों का खुल कर विरोध, अच्छी बातों का मुखर हो कर समर्थन आदि।
मुखर होने का मतलब यह नहीं है कि जो जी में आए वह अनाप-शनाप बका जाए। इनदिनों टेलीविज़न के अधिकांश समाचार चैनलों में जिस तरह की डिबेट होती है उसे देख-सुन कर यही लगता है जैसे इंसान आपस में चर्चा नहीं कर रहे हैं बल्कि जानवर एक दूसरे पर चींख-चिल्ला रहे हैं। एक तो उनकी चींख-चिल्लाहट में आवाजें एक-दूसरे पर इतनी बोव्हरलेप होती हैं कि उन्हें समझना कठिन रहता है। यदि समझ में आ भी जाएं तो यह समझ में नहीं आता है कि वे डिबेटियर्स मूल मुद्दे से भटक कर कितनी दूर निकल गए हैं। यदि राजनीतिक डिबेट हुई तो एक-दूसरे के नेताओं की जन्मपत्रियां खुलने लगती हैं। भले ही उससे मूल विषय का कोई सरोकार न हो। यह आमजन को भटकाने का बड़ा सुंदर तरीका है जो बोलने की स्वतंत्रता का लाभ उठाते हुए अपना लिया गया है। एक डिबेटियर की हार्टअटैक से मौत के बाद स्थिति की गंभीरता को समझते हुए इलेक्ट्राॅनिक मीडिया को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दुरुपयोग करने से स्वयं को रोकना होगा, इसके पहले कि किसी कठोर कानून के शिकंजे में उन्हें जकड़ा जाए।
जब हम स्वतंत्रता की बात करते हैं तो आर्थिक स्वतंत्रता भी मायने रखती है। इसी से शुरू होता है आत्मनिर्भरता का सफर। देखा जाए तो आत्मनिर्भरता और आर्थिक स्वतंत्रता एक-दूसरे के पूरक हैं। यदि हम आत्मनिर्भर हैं तो हम स्वतंत्रतापूर्वक अपने आर्थिक संसाधनों का उपभोग कर सकते हैं। वहीं यदि हम अपने आर्थिक संसाधनों पूरा उपयोग करते हुए स्वदेशी को महत्व देंगे तो आत्मनिर्भरता बढ़ती जाएगी। यदि चीन दुनिया के बाज़ार पर पांव पसार सकता है तो हम क्यों नहीं। हमारे यहां तो चीन से अधिक स्वतंत्रता है। लेकिन एक कमी है जिसके कारण हम चीन से पिछड़ जाते हैं। वह कारण है भ्रष्टाचार। भ्रष्टाचार ने आज तक हज़ारों उद्यमियों को पनपने से पहले ही तोड़ कर मसल दिया है। जब फाइलें ही आगे नहीं सरकेंगी तो उद्योग के पहिए कैसे घूमेंगे? ऐसे भ्रष्टाचारी तत्व जिस तरह स्वतंत्रता का दुरुपयोग करते हैं उसे देख कर बड़े-बुजुर्ग यह कहने को मजबूर हो जाते हैं कि इससे तो अंग्रेजों का जमाना अच्छा थां यदि हमारे बड़े-बुजुर्गों की यह पीड़ा हमारी चेतना को झकझोर नहीं पाती है तो इसका अर्थ है कि हम स्वतंत्रता का आदर करना ही नहीं जानते हैं।
यदि बात हम अपने समाज की करें तो हमने सामाजिक स्वतंत्रता तो पाई है लेकिन जात-पांत, ऊंच-नीच, साम्प्रदायिकता आदि से आज भी मुक्त नहीं हुए हैं। आज भी हमारी चर्चा का विषय आरक्षण के मुद्दे पर अटका रहता है। उससे आगे सोचने की आदत हमें नहीं पड़ी है। क्योंकि राजनेता अपने निहित स्वार्थों के चलते आगे नहीं सोचने देना चाहते हैं। जहां हमें सामाजिक समानता ज़मीन पर खड़े होना चाहिए था वहां आज हम और भी छोटी-छोटी इकाइयों में बंटते जा रहे हैं। आज समाज का हर वर्ग अपने तरह का अलग-अलग वोट बैंक बन गया है। यही हाल धर्म का है। ईश्वर एक है के तथ्य को मानते हुए भी हर धर्म एक है को हम नहीं मान पाते हैं। हमारे भीतर के धार्मिक उन्माद को मिटाने के बजाए उसे बढ़ा कर हमें वोटबैंक में बदला जाता है और हम खुद को बदलने देते हैं।
देश को स्वतंत्रता मिले 73 साल हो गए लेकिन आज भी हमारे देश में आए दिन बलात्कार के नृशंस अपराध होते रहते हैं जो स्त्री-प्रगति के चित्र पर रक्त के धब्बे के समान दिखाई देते हैं। स्वतंत्रता मिले 73 साल हो गए लेकिन आज भी बेरोजगारी युवाओं को निगलती जा रही है। सच तो यह है कि स्वतंत्रता मिले 73 साल हो गए लेकिन हम स्वतंत्रता के वास्तविक अर्थ को मानो भुलाते जा रहे हैं और स्वतंत्रता के नाम पर अनाचार को बढ़ते देख रहे हैं। यह वह स्वतंत्रता नहीं है जिसके लिए महात्मा गांधी ने डंडे खाए अथवा शहीदों ने फांसी के फंदे को हंसते-हंसते अपने गले में डाला। इसीलिए स्वतंत्रता शब्द के मूलभाव को आज समझने की बहुत ज़रूरत है कि स्वतंत्रता अधिकारों को पाने और उसके सदुपयोग में निहित होती है। स्वतंत्रता स्त्री के सम्मान और आत्मनिर्भरता में मौजूद होती है। स्वतंत्रता स्वस्थ वैचारिक बहस में फलती-फूलती है। जी हां, स्वतंत्रता मात्र एक शब्द नहीं है, यह तो मनुष्य को मनुष्य बनाए रखने वाला आत्मनियंत्रित तंत्र है जिसका पालन करना और सम्मान करना हमारा कर्त्तव्य है।
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(दैनिक सागर दिनकर में 15.08.2020 को प्रकाशित)
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Thursday, August 13, 2020
किसी चुनौती से कम नहीं ‘गंदगी भारत छोड़ो’ अभियान | डॉ. (सुश्री) शरद सिंह | दैनिक जागरण में प्रकाशित
Wednesday, August 12, 2020
चर्चा प्लस | जन्मोत्सव सदा प्रासंगिक श्रीकृष्ण का | डाॅ शरद सिंह
Saturday, August 8, 2020
स्त्री-अध्ययन : एक गंभीर कार्य | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह
व्याख्यान-आलेख
स्त्री-अध्ययन: एक गंभीर कार्य
- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह
स्त्रीविमर्श लेखिका एवं उपन्यासकार
drsharadsingh@gmail.com
मोबाईल - 09425192542