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My Editorials - Dr Sharad Singh

Wednesday, June 28, 2023

चर्चा प्लस | हिन्दी साहित्य बनाम लुगदी साहित्य | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस  
हिन्दी साहित्य बनाम लुगदी साहित्य
        - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह  
         जब टीवी और इंटरनेट का बूम नहीं था तब मनोरंजन के लिए पाॅकेटबुक्स पढ़ी जाती थीं। वे पाॅकेटबुक्स जिन्हें ‘पल्प फिक्शन’ या ‘लुगदी साहित्य’ आदि कहा गया। लुगदी साहित्य का अपना विस्तृत साम्राज्य था। अपनी रुचि के अनुरुप सामाजिक और जासूसी उपन्यास बड़े पैमाने पर पढ़े जाते रहे। कुछ लोग खरीद के पढ़ते थे, तो कुछ किराए पर ले कर। कुछ खुल कर पढ़ते थे, तो कुछ छिपा कर। अनेक छात्र कक्षा में बैठ कर भी अपनी कोर्स की किताबों के बीच पाॅकेटबुक्स दबा कर पढ़ते थे ताकि शिक्षक को भनक न लगे। इनकी लोकप्रियता को देखते हुए ही लेखिका शिवानी के साहित्यिक उपन्यासों को पाॅकेटबुक्स के रूप में भी छापा गया। फिर भी लुगदी साहित्य और हिन्दी साहित्य में मेल नहीं हो सका।
आजकल टेलीविज़न में सनसनी फैलाने वाले ऐसे अनेक कार्यक्रम प्राइम टाईम और प्राईम टाईम के बाद देर रात तक धड़ाके से चलते रहते हैं। लेकिन ये कार्यक्रम वैसी लोकप्रियता हासिल नहीं कर पाए जैसी कभी जासूसी उपन्यासों ने हासिल की थी। हर पाठक के लिए अपनी पसंद का जासूस मौजूद रहता था। किसी को युवा, बिंदास सुनील पसंद था, किसी को जासूस विनोद पसंद आता था तो किसी को, मेजर बलवंत। ये उपन्यास आर्थिक दृष्टि से पाठकों के लिए ‘बटुआ फ्रेण्डली’ होते थे। ये किराए पर उपलब्ध रहते थे, आधे और चौथाई मूल्य में भी खरीदे-बेचे जाते थे। कम मूल्य में अधिक पृष्ठों वाली यह रोचक पुस्तकें पाठकों को सहज आकर्षित करती थीं। रेल्वे व्हीलर्स और बस स्टेन्ड्स की दूकानों से ले कर फुटपाथों तक राज करने वाली हिन्दी साहित्य की इन पुस्तकों को समीक्षकों द्वारा कभी गंभीर समीक्षा के दायरे में नहीं रखा गया। मोटे, दरदरे, भूरे-पीले से सफेद कागज पर छपने वाला यह साहित्य, उपन्यासों के रूप में पाठकों के दिल-दिमाग पर छाया रहता था। माता-पिता द्वारा रोके जाने पर भी स्कूल, कॉलेज के विद्यार्थी अपनी पाठ्य पुस्तकों में छिपा कर इन्हें पढ़ते थे। दूसरी ओर इनमें से कई लेखक ऐसे थे जिनके उपन्यास स्वयं माता-पिता की पहली पसन्द होते थे। अस्सी के दशक तक पूरे उठान के साथ ऐसे उपन्यासों की उपस्थिति रही है। यह साहित्य लुगदी साहित्य के नाम से जाना जाता था। जिसे अंग्रेजी में पल्प फिक्शन कहा जाता है।

लुगदी साहित्य के रूप में जो उपन्यास लिखे गए वे निःसंदेह बेस्ट सेलर रहे लेकिन साहित्य समीक्षकों ने उन्हें आकलन परिधि से ही बाहर रखा। अंग्रेजी की प्रसिद्ध लेखिका अगाथा क्रिस्टी ने इब्ने सफी को भारतीय उपमहाद्वीप का अकेला मौलिक जासूसी लेखक करार दिया था। लेकिन जब सामाजिक मूल्यों से सराबोर लुगदी उपन्यासों को समीक्षकों की कृपादृष्टि नहीं मिली तो जासूसी उपन्यासों पर तो ध्यान दिए जाने का प्रश्न ही नहीं था। कहा जाता है कि गुलशन नंदा एक बार अपना एक उपन्यास ले कर रामधारी सिंह दिनकर को भेंट करने उनके पास पहुंचे। दिनकर ने उस उपन्यास को देखा, उल्टा-पुल्टा और ‘घटिया साहित्य’ कहते हुए एक ओर फेंक दिया। उनके इस व्यवहार से गुलशन नंदा को बड़ा धक्का पहुंचा। मगर वे चुपचाप लौट आए।

इस प्रकार के साहित्य को लुगदी साहित्य इसलिए कहा गया क्योंकि ये रचनाएं जिस कागज पर छपा करती थीं, वह कागज अखबारी कचरे और किताबों के कबाड़ की लुगदी बनाकर दोबारा तैयार किया जाता था अर्थात ‘‘रीसाइकल्ड पेपर’’ के रूप में। लुगदी साहित्य वह साहित्य बन कर रह गया जिसकी ओर समीक्षकों ने देखना भी पसंद नहीं किया। लुगदी साहित्य के दौर में हिन्दी के जो लेखक सामने आए उनमें प्रमुख थे- दत्त भारती, प्रेमशंकर बाजपेयी, कुशवाहा कांत, राजवंश, रानू आदि। लेकिन इनमें सबसे प्रसिद्ध थे गुलशन नंदा। हिन्दी साहित्य की प्रबुद्ध लेखिका शिवानी के उपन्यास भी लुगदी काग़ज़ों पर उपलब्ध रहते थे। वैसे गोपालराम गहमरी को हिन्दी में जासूसी उपन्यास का जन्मदाता माना जाता है।

जासूसी उपन्यासों से इतर गुलशन नंदा हिन्दी में लुगदी साहित्य के सबसे ज्यादा बिकने वाले लेखक रहे। गुलशन नंदा के अनेक बहुचर्चित उपन्यास थे- जलती चट्टान, नीलकंठ, घाट का पत्थर, गेलार्ड, झील के उस पार, पालेखां आदि। ‘झील के उस पार’ वह उपन्यास था जिसका हिन्दी पुस्तक प्रकाशन के इतिहास में शायद ही इससे पहले इतना जबर्दस्त प्रोमोशन हुआ हो। प्रचार में इस बात को रेखांकित किया गया था कि पहली बार हिन्दी में किसी पुस्तक का पहला एडीशन ही पांच लाख कापी का छापा गया है। गुलशन नंदा को प्रकाशक अग्रिम रॉयल्टी देते थे जिससे वे आगामी उपन्यास लिख कर देने के लिए अनुबंधित रहें। लुगदी साहित्यकारों के लेखन की सफलता की यह गारंटी गंभीर किस्म के साहित्य के रचयिता कभी हासिल नहीं कर सके। दरअसल गंभीर किस्म का साहित्य पढ़ने वाला एक विशेष पाठक वर्ग होता है जबकि लुगदी साहित्य की सरलता और रोचकता हर तरह के पाठकों को लुभाती रही। ऐसे उपन्यासों ने न केवल पुस्तक के रूप में बल्कि सिनेमाघरों में सिनेमा के रूप में भी धूम मचाई। गुलशन नंदा के अनेक उपन्यासों पर फिल्में बनीं और बॉक्स ऑफिस पर हिट रहीं जैसे- सावन की घटा, जोशीला, जुगनू, झील के उस पार, नया जमाना, अजनबी, कटी पतंग, नीलकमल, शर्मीली, नजराना, दाग, खिलौना, पालेखां आदि। सिनेमा की पटकथा में ढालते समय लुगदी साहित्यकारों ने अपने लेखन को ‘फ्लेसिबल’ रखा। जैसे गुलशन नंदा के उपन्यास ‘अजनबी’ पर जब राजेश खन्ना और ज़ीनत अमान को ले कर फिल्म बनाई गई तो उसका अंत उपन्यास में दिए गए अंत से एकदम विपरीत कर दिया गया। फिल्म प्रदर्शित होने के बाद ‘अजनबी’ की जो पटकथा पाॅकेटबुक के रूप में छपी, उसमें फिल्म वाला अंत ही प्रकाशित किया गया।  

बुक स्टॉल्स पर गंभीर साहित्य की तुलना में इब्ने सफी, कुशवाहा कांत, गुलशन नंदा, रानू, राजवंश, वेदप्रकाश कम्बोज, कर्नल रंजीत, सुरेंद्र मोहन पाठक और वेदप्रकाश शर्मा जैसे लुगदी साहित्यकार ज्यादा बिकते रहे। इन रचनाकारों के उपन्यासों को बस, ट्रेन की यात्रा के दौरान बहुत पढ़ा जाता था।  प्रसिद्ध पत्रकार प्रभाष जोशी ने एक बार कहा था कि ‘‘रेल यात्राओं का एक बड़ा फायदा उनकी जिंदगी में यह रहा है कि इसी दौरान उन्होंने कई अहम किताबें पढ़ लीं। रेल यात्रियों के मनोरंजन में किताबों की जो भूमिका रही है, उसमें एक बड़ा हाथ ए.एच. ह्वीलर बुक कंपनी और सर्वोदय पुस्तक भंडार जैसे स्टॉल का भी रहा।’’

दूसरी दृष्टि से देखा जाए तो जिस लुगदी साहित्य ने पाठकों में पढ़ने का रुझान पैदा किया तथा जिस लुगदी साहित्य ने पाठकों को गंभीर अर्थात् समीक्षकों एवं आलोचकों द्वारा जांचे-परखे गए साहित्य की ओर प्रेरित किया उस लुगदी साहित्य को कभी भी समीक्षकों एवं आलोचकों ने नहीं स्वीकारा। इसके विपरीत उसे तुच्छ हेय और घटिया साहित्य माना गया। हिन्दी साहित्य के किसी भी मानक साहित्यकार की पुस्तकों की तुलना में लुगदी कागज पर छपने वाले वेदप्रकाश शर्मा के उपन्यास लाखों की संख्या में छपते रहे हैं। उनका उपन्यास ‘‘वर्दी वाला गुंडा’’ रिकार्डतोड़ बिका। पहले ही दिन उसकी 15 लाख कॉपी बिकी थी। लगभग सन् 1971 से हिंदी में फिक्शन लिख रहे वेद प्रकाश शर्मा का नाम देश के बड़े बेस्टसेलर्स में शामिल है। उनके पाठकों की संख्या लाखों में रही है। वेद प्रकाश ने कहा था कि ‘‘मेरे पाठकों की सही-सही संख्या मुझे मालूम ही नहीं है, लेकिन हाई क्लास साहित्यकार मुझे अंग्रेजी में पल्प राइटर और हिंदी में लुगदी साहित्यकार कहते हैं, लुगदी का अर्थ होता है, हल्के दर्जे का कागज। हालांकि मुझे लुगदी साहित्यकार कहे जाने पर कोई फर्क नहीं पड़ता। मुझे संतोष है कि मेरे पाठक लाखों में है और मैं जनता का मनोरंजन करता हूं। वहीं हिंदी साहित्य वालों की दुनिया में जिसे साहित्य कहा जाता है, उसके पाठक ही नहीं है।’’

लुगदी साहित्यकारों के इस आत्मसंतोष ने ही उन्हें पाठकों के दिलों पर राज करना सिखाया।   ओमप्रकाश शर्मा के उपन्यासों ने भी पाठकों को वर्षों तक अपने आकर्षण में बांधे रखा। एस सी बेदी के उपन्यास समाज में घटित होने वाले अपराधों का बेहतरीन विश्लेषण करते थे। इनमें अपराध के दुष्परिणामों की भी व्याख्या विस्तृत रूप से की जाती थी। जब बात आती है जासूसी उपन्यासों की तो सबसे पहला नाम आता है इब्ने सफी का। लेकिन यदि मैं अपनी पीढ़ी के पाठकों की बात करूं तो अंग्रेजी में जेम्स हेडली चेज़ और हिन्दी में सुरेन्द्र मोहन पाठक का दबदबा रहा। हार्पर कॉलिन्स मूलतः अंग्रेजी का प्रकाशन संस्थान है लेकिन इसने लुगदी के पहले जासूसी उपन्यास लेखक इब्ने सफी के उपन्यासों को फिर से छापा। हार्पर कॉलिन्स प्रकाशन से सुरेंद्र मोहन पाठक के दो उपन्यास ‘कोलाबा कॉन्सपिरेसी’ और ‘जो लड़े दीन के हेत’ भी छापे। सुरेंद्र मोहन पाठक के दोनों उपन्यासों के आरम्भिक प्रिंट ऑर्डर 30 हजार आए और इन दोनों उपन्यासों का पाठकों द्वारा जोरदार स्वागत किया गया था। ऑनलाइन रिटेल स्टोर्स पर भी सुरेंद्र मोहन पाठक के उपन्यासों ने अपनी मांग बनाई। लेकिन सुरेन्द्र मोहन पाठक के ये दोनों उपन्यास लुगदी काग़ज़ पर नहीं बल्कि उम्दा किस्म के काग़ज़ पर छपे। इससे एक प्रश्न उठ खड़ा हुआ कि क्या लुगदी साहित्य अपने उस स्वरूप में अब कभी नहीं दिखेगा जो उसने कभी मेरठ में पाया था?

पल्प फिक्शन के साथ सौतेला व्यवहार क्यों किया गया और उसकी टीस लुगदी साहित्यकारों को किस तरह पीड़ा देती है, इसका उत्तर सुरेन्द्र मोहन पाठक के इस कथन में महसूस किया जा सकता है जो उन्होंने एक साक्षात्कार में कहा था- ‘‘इस बारे में एक भ्रम बना दिया गया है। ऐसा लगता है मानो हिंदी साहित्य लेखक बहुत कुलीन हैं और उनके मुकाबले लोकप्रिय साहित्य लेखक का दर्जा बाजारू औरत का है। ये हाउसवाइफ और हारलोट (वेश्या) जैसी तुलना है। इसके जरिये साहित्यिक लेखक अपने ईगो की तुष्टि करते हैं। जब राजकपूर बतौर फिल्म निर्माता अपनी मकबूलियत के शिखर पर थे तब किसी ने कहा था कि वो सत्यजीत रे जैसी फिल्में कभी नहीं बना सकते। इसका माकूल जवाब राजकपूर के बड़े बेटे ने दिया था कि क्या सत्यजीत रे राजकपूर जैसी फिल्में बना सकते थे? एक व्यक्ति का दूसरे व्यक्ति के काम को हिकारत की निगाह से देखना गलत है, नाजायज है, गैरजरूरी है! क्या जासूसी उपन्यास लिखने में मेहनत नहीं लगती! ऊर्जा खर्च नहीं होती ! क्या इस काम को बिना कमिटमेंट के, लापरवाही से अंजाम दिया जा सकता है! आप ऐसा कैसे मान सकते हैं कि लोकप्रिय साहित्य पढ़ने वाले पाठक के सामने कुछ भी परोसा जा सकता है, ऐसा नहीं है। पाठक घोड़े और गधे में फर्क कर लेता है। लोकप्रिय साहित्य का पाठक कल था, आज है और आगे भी रहेगा लेकिन ‘साहित्य’ का पाठक हमेशा नहीं रहता क्योंकि पाठक है ही नहीं। इसमें दोष पाठकों का नहीं है। गंभीर साहित्य लेखकों की तरफ से, प्रकाशकों की तरफ से ऐसी कोशिशें ही नहीं होती कि पाठक तक साहित्य आसानी से पहुंच जाए। जो लेखक और प्रकाशक पाठकों की कमी का रोना रोते हैं वही अपनी 100 पन्ने की किताब की कीमत 100 रुपये रखकर एक तरह से पाठक को धकियाते हैं, नतीजा ये होता है कि साहित्यिक किताबें आपस में पढ़ी-पढ़वाई जाती हैं। एक सीमित, स्थापित जमात में उसकी चर्चा होती है बल्कि सप्रयास कराई जाती है और वाहवाही बटोरी जाती है। लोकप्रिय साहित्य का सिलसिला ठीक है, जिसमें पाठक का अपने प्रिय लेखक से निरंतर जुड़ाव बना रहता है। लोकप्रिय साहित्य का पाठक अपने लेखक की हैसियत बनाता है। जबकि खालिस साहित्यकार इस हैसियत से वंचित है क्योंकि पाठक उन्हें नसीब ही नहीं होता।’’

सुरेन्द्र मोहन पाठक की बातों में दम है। आखिर यह सोचना ही पड़ता है कि भारत में साहित्य के अनगिनत पुरस्कारों में पल्प फिक्शन के लिए कोई श्रेणी कभी क्यों नहीं तय की गई? क्या वे लेखक नहीं थे अथवा उनका लिखा हुआ साहित्य किसी भी साहित्यिक श्रेणी में रखा ही नहीं जा सकता था। क्या लुगदी साहित्य की अलग श्रेणी नहीं बनाई जा सकती थी? लुगदी साहित्य को हिन्दी साहित्य से अलग अथवा उपेक्षित रखा जाता रहा जबकि इस साहित्य की भी सदा अपनी विशिष्ट उपादेयता रही है और इस विशिष्ट उपादेयता को भुलाया नहीं किया जा सकता है।  
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1 comment:

  1. सामाजिक उपन्यासों की मैं नहीं कहता किन्तु जासूसी उपन्यासों की एक बड़ी खामी मौलिकता का अभाव थी. हिंदी के अधिकांश जासूसी उपन्यास विदेशी उपन्यासों से कथानक चुरा कर लिखे जाते थे. उन्हें रचने वालों को सम्मान न मिलने का एक प्रमुख कारण यह भी था.

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