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My Editorials - Dr Sharad Singh

Tuesday, October 31, 2023

जंगल पर वही लिख सकता है जिसने जंगल की आत्मा को पहचान हो। - डॉ (सुश्री) शरद सिंह, विशिष्ट अतिथि, पुस्तक लोकार्पण समारोह

"उद्गार : एक फॉरेस्ट ऑफिसर का सफरनामा" दरअसल मात्र एक पुस्तक नहीं अपितु लेखक प्रेम नारायण मिश्रा के उन अनुभवों का दस्तावेज है जो उन्होंने वन परिक्षेत्र में रहकर प्राप्त किया। दरअसल जंगल पर वही लिख सकता है जिसने जंगल की आत्मा को पहचान हो। इस पुस्तक में 40 वर्षों के उनके दीर्घकालिक अनुभवों की वे विशेष घटनाएं हैं जिन्होंने उनके मन और जीवन को किसी न किसी रूप में प्रभावित किया। इस पुस्तक को पढ़ कर वन-जीवन को बखूबी जाना और समझा जा सकता है। - विशिष्ट अतिथि के रूप में मैंने (डॉ सुश्री शरद सिंह) अपने उद्बोधन में कहा। अवसर था श्यामलम संस्था की ओर से आयोजित पुस्तक लोकार्पण समारोह।
       कार्यक्रम की अध्यक्षता की व्यंगकार प्रोफेसर सुरेश आचार्य जी ने तथा मुख्य अतिथि थे सेवानिवृत्ति वन संरक्षक श्री बीपी उपाध्याय। डॉ कविता शुक्ला तथा श्रीमती सुनील सराफ ने पुस्तक पर अपने सारगर्भित विचार रखें। कार्यक्रम का बेहतरीन संचालन किया डॉ अंजना चतुर्वेदी तिवारी ने। स्वागत भाषण श्री रमाकांत शास्त्री जी ने दिया तो आभार प्रदर्शन किया श्री दीक्षित जी ने।
     श्री प्रेम नारायण मिश्र द्वारा लिखित संस्मरण पुस्तक "उद्गार : एक फॉरेस्ट ऑफिसर का सफरनामा" का लोकार्पण समारोह वस्तुत: वन संरक्षण के प्रति जागरूकता और चिंता पर केंद्रित रहा। इस दृष्टि से यह एक विशिष्ट और अत्यंत सफल कार्यक्रम साबित हुआ क्योंकि कार्यक्रम के उपरांत लोगों के मन में जंगलों को बचाने के प्रति चिंतन मनन करते देखा गया।
    वरदान होटल के सभागार में आयोजित इस सार्थक कार्यक्रम के लिए श्यामलम संस्था के अध्यक्ष श्री उमाकांत मिश्रा जी एवं संस्था के सभी सदस्य धन्यवाद के पात्र हैं। वैसे श्यामल संस्था के प्रत्येक कार्यक्रम विशिष्ट एवं गरिमामय होते हैं।
  कुछ तस्वीरें, कुछ खबरें आयोजन की...
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पुस्तक समीक्षा | मटन दिलरुबा : एक महत्वाकांक्षी कहानी संग्रह | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

प्रस्तुत है आज 31.10.2023 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई  युवा कथाकार श्री शुभम उपाध्याय के उपन्यास "मटन दिलरुबा" की समीक्षा।
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पुस्तक समीक्षा      
मटन दिलरुबा: एक महत्वाकांक्षी कहानी संग्रह    
- समीक्षक डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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उपन्यास     - मटन दिलरुबा
लेखक       - शुभम उपाध्याय
प्रकाशक     - इसमाद प्रकाशन, मातृ सदन, दीवानी तकिया, कटहल बाड़ी, दरभंगा, बिहार
मूल्य        - 249/-
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शुभम उपाध्याय कथाजगत में एक नया नाम है। 18 सितंबर 1989 में जन्मे युवा कथाकार शुभम उपाध्याय । ‘‘मटन दिलरुबा’’ इनका प्रथम कहानी संग्रह है जिसमें उनके कथालेखन पर परिचयात्मक लेख लिखा है कथाकार डाॅ. आशुतोष मिश्र ने। ‘‘हैरान होंगे सब देख कर आईने का ज़िगर’’ शीर्षक से भूमिका के रूप में लिखा गया डाॅ. आशुतोष मिश्र का लेख एक नवोदित किन्तु संभावनाशील कथाकार की लेखकीय प्रतिभा पर समुचित किन्तु संतुलित प्रकाश डालता है। कथाकार आशुतोष मिश्र ने शुभम उपाध्याय के कथाकर्म को जहां अनूठा माना है वहीं उन्होंने शुभम के प्रति आशा भी प्रकट की है कि वे अपने कथाकर्म को परवान चढ़ाएंगे। बहरहाल, जैसा कि कहानी संग्रह का नाम है ‘‘मटन दिलरुबा’’, यह संग्रह की पहली कहानी भी है, एक विचित्र प्रतिध्वनि रचती है। ‘‘मटन’’ जो आमिष खाद्य का प्रतीक है तथा ‘‘दिलरुबा’’ जो प्रेम एवं सौंदर्य का बोध कराता है - ये दोनों शब्द एक साथ मिल कर एक ऐसा कंट्रास्ट रचते हैं कि यह अनुमान लगाना एक आम पाठक के लिए कठिन हो जाता है कि संग्रह में किस तासीर की कहानियां होंगी। संग्रह के नाम को ले कर यह अपने आप में सफलता भी है और जोखिम भी। जिज्ञासा जगाता नाम सदा आकर्षित करता है तथा पढ़े जाने का आग्रह करता है किन्तु ‘‘मटन’’ शब्द के साथ हर पाठक अपने आपको ‘‘कंफर्टेबल’’ अनुभव नहीं कर सकता है।
‘‘मटन दिलरुबा’’ शीर्षक कहानी अपने नाम से कहीं हट कर कथित मुजाहिदीनों एवं कश्मीर में फैली आतंकवादी गतिविधियों की ओर अपनी तर्जनी उठाती है। संग्रह में कुल 18 कहानियां हैं जो अलग-अलग कथानक समेटे हैं। इन सभी कहानियों में मुस्लिम समाज को आधार बनाया गया है किन्तु इनके कथानक किसी भी समाज के हो सकते हैं। जैसे एक कहानी है ‘‘इंतज़ार’’। यह कहानी एक ऐसे परिवार की कथा कहती है जिसमें एक कामकाजी मां अकेली अपने दम पर अपनी बेटियों की परवरिश कर रही है। उसकी नौकरीपेशा बेटी को प्रोजेक्ट में मदद करने के लिए जो लड़का घर आता है, उसे ले कर पास-पड़ोस से ले कर कार्यालय के लोग तक बातें बनाते हैं। अपनी बेटियों पर विश्वास करने वाली मां सामाजिक दबाव में आ कर बेटी बुर्का पहन कर आॅफिस जाने को विवश करती है। बेटी अपने प्रोजेक्ट मददगार को अपने प्रेम भावना बताना चाहती है किन्तु उसके हाथ आता है एक सर्वकालिक इंतज़ार। कारण भयावह है। जघन्य है। हर समाज बेटियों पर ही दबाव बनाता है, हर समाज के आवारा लड़के सड़क पर अकेली चलने वाली लड़कियों को अपने मनोरंजन का साधन मान लेते हैं। इसीलिए यह कथानक भले ही एक मुस्लिम परिवार का हो किन्तु इसमें समूचा समाज रेखांकित है।

कहानी ‘‘लोअर बर्थ’’ रेल में अकेली यात्रा कर रही एक स्त्री की कथा है जिसमें एक पुरुष यात्री के आपत्तिजनक स्पर्श से मनोवैज्ञानिक कथानक जन्म लेता है। उस स्त्री को स्पर्श पर आपत्ति भी है और वह उसकी पुनरावृत्ति भी चाहती है। यहां कहानी गहन मनोवैज्ञानिक विश्लेषण की मांग करती है क्योंकि इस बिन्दु पर फ्रायड  और एरिकसन जैसे मनोवैज्ञानिकों के सिद्धांतों का पारस्परिक टकराव कहानी का तानाबाना बुनता है। सिग्मंड फ्रायड ने 1923 में इड, ईगो और सुपर ईगो की अवधारणा दी थी, जिसमें मानव व्यक्तित्व का तीन महत्वपूर्ण घटकों में विभाजन किया गया। इड वह घटक है जिसमें मानव की प्रकृति जनित इच्छाओं (स्वभाव) को रखा गया है। जैसे भूख, प्यास, कामुकता एवं लालच आदि। फ्रायड का मानना था कि व्यक्तित्व का निर्माण केवल बचपन में होता है, वहीं एरिकसन ने अपने  ‘‘मनोसामाजिक विकास सिद्धांत’’ द्वारा व्यक्ति की यौन प्रकृति के बजाय उसकी सामाजिक प्रकृति पर जोर दिया और कहा कि व्यक्ति के स्वभाव में किसी भी आयु में परिवर्तन हो सकता है। व्यक्ति की कामुक भावनाएं किसी भी आयु में बढ़ या घट सकती हैं। ‘‘लोबर बर्थ’’ कहानी यहीं पर नहीं ठहरती है, अपितु एक असंभावित अथवा भ्रमजनित अंत पर जा पहुंचती है। जिसमें अन्य कई मनोग्रंथियां भी जुड़ जाती हैं।

  ‘मुर्दाघर’’ कहानी प्रेम, कामुकता तथा हत्या जैसे जघन्य अपराध के घटनाक्रम को रचती है। यद्यपि इसमें ‘‘प्रेम’’ मात्र एक शब्द के रूप में आया है, कामुकता आधारभूत तत्व है जिसके चलते मुर्दाघर को भी अपनी वासना को शांत करने का स्थल बना लिया जाता है। यह कहानी एक विकृत मनोदशा से बखूबी परिचित कराती है। दुर्भाग्य से ऐसे व्यक्ति समाज में मौजूद है जो यौनविकृतियों के वशीभूत हो कर असंभावित लगने वाली चेष्टाएं करते हैं तथा विभिन्न अपराधों को कारित करते हैं।

चाहे ‘‘मंदिर-मस्जिद’’ हो, ‘‘चश्मदीद’’ हो या फिर ‘‘शहरी’’- सभी कहानियां समाज में व्याप्त वैचारिक दोषों एवं मनोविकारों को चिन्हित करती हैं। संग्रह की सभी कहानियों में अपना अलग, अनूठा तेवर है। एक अधूरापन भी है जिसे कथाकार ने अपने लेखन की विशेषता के रूप में अपनाया है और जो पाठकों के लिए बहुत कुछ छोड़ जाता है सोचने-विचारने को। इसमें कोई संदेह नहीं कि शुभम उपाध्याय ने आम जनजीवन से कथानकों को उठाया है, बस, उसे देखा है मुस्लिम परिवेश के दृष्टिकोण से। हर एक लेखक की अपनी चयनिता होती है कि वह अपनी कहानियों में किस समाज, किस दशा अथवा किस मनोदशा की बात करना चाहता है। शुभम उपाध्याय ने कथालेखन को ही क्यों चुना, इस बारे में उन्होंने ‘‘लेखक की कलम से’’ के अंतर्गत अपने विचार लिखे हैं। वे लिखते हैं कि -‘‘शुरुआत उपन्यास से भी की जा सकती थी पर वह वापिस उसी ठहराव की माँग करता है, जो मेरी नजर में या तो बहुत कम मात्रा में है या फिर नदारद है। मैं ये नहीं कहता कि युवा साथियों में उतना इत्मीनान नहीं है कि लम्बे-चौड़े उपन्यासों को वे दत्त-चित्त होकर पूरा नहीं पढ़ते। पढ़ते होंगे पर मुट्ठी भर। आप माने या न मानें पर ये आज के दौर की हकीक़त है। मेरा मानना है कि छोटी- छोटी कहानियां उन्हें ज्यादा लुभातीं होंगीं। कम समय में सीधे मुद्दे की बात। कोई लाग लपेट नहीं। सो पहले कहानियां लिखना ही चुना गया और फिर कहानियां लिखीं गयीं।’’
अर्थात् शुभम उपाध्याय अपने कथालेखन के उद्देश्य को ले कर स्पष्ट हैं। वे इस उद्देश्य को ले कर चले हैं कि युवा पाठकवर्ग उनकी कहानियों को पढ़े। इस अभिलाषा में कोई दोष नहीं है। हर लेखक चाहता है कि उसका लिखा हुआ पाठकों द्वारा पढ़ा जाए। लेकिन जब प्राथमिक उद्देश्य यही हो तो थोड़ा चैंकाता है। वस्तुतः इसीलिए कहा जाने लगा है कि इस दौर में ‘‘बेस्टसेलर राईटर’’ बनना आसान है किन्तु ‘‘बेस्ट राईटर’’ बनना कठिन है। यह एक चुनौती भरा समय है जो लेखक से धैर्य और समय की मांग करता है। अच्छा है कि शुभम उपाध्याय इस तथ्य को पहचानते हैं।

शुभम उपाध्याय की भाषा और शैली दोनों पर अच्छी पकड़ है। वे थिएटर से भी जुड़े हुए हैं इसलिए संवाद की सटीकता एवं संक्षिप्तता प्रभावी ढंग से उभरी है। रहा भाषा का प्रश्न तो एक बार फिर मैं यहां लेखक के ही विचार उनकी भाषा को ले कर उद्धृत कर रही हूं-‘‘बात करें भाषा की। इस किताब की भाषा खलिश हिन्दुस्तानी है। लिखने वाले नए लेखकों ने सहज, साफसुथरी और सलीकेदार हिंदी में जो काम किया है वो यक़ीनन काबिले तारीफ है इसके लिए वे बधाई के हक़दार हैं! पर हमारी साहित्यिक विरासत का एक हिस्सा “ हिन्दुस्तानी” का भी रहा है तो मक़सद ये था कि आजादी के दौर में लिखी जाने वाली हिंदी -उर्दू ( जिसे आप नई वाली हिंदी की बड़ी बहन यानि पुरानी वाली हिंदी कह सकते हैं) जो अपनी कसावट, ठसकपन और तबरेजी के लिए मशहूर थी से हमारे साथियों (ख़ासकर युवा) को रूबरू कराया जाये। उसी दिशा में यह एक कोशिश है।’’

हिंग्लिश के दौर में उर्दू जायके वाली भाषा की ओर ले जाना एक बेहतर प्रयास कहा जा सकता है। अपने इस कथन में लेखक संभवतः ‘‘खलिश हिन्दुस्तानी’’ की बजाए ‘‘खालिस हिन्दुस्तानी’’ लिखना चाहते थे क्योंकि  खलिश का अर्थ होता है कसक, टीस, मलाल, अफसोस आदि। जबकि खालिस का अर्थ होता है शुद्ध, खरा, सच्चा। संभवतः यह मुद्रण दोष भी हो सकता है।

इस कहानी संग्रह की भाषा सआदत हसन मंटो के समय की भाषा है, प्रेमचंद की नहीं। वर्तमान हिन्दुस्तानी भी नहीं। उर्दू के अरबी, फारसीनिष्ठ अनेक शब्दों का प्रयोग किया गया है। उदाहरण देखें-‘‘जब हर एक इंसान यहां खुदा के रहमो करम पर हो। जब हर एक इंसान का अपना मुख़तलिब तसव्वुर हो। जब हर एक इंसान को नेकी करने का तोहफा मिला हो। जब हरेक इंसान को उसने इबादत बख़शी हो। तो हम कौन होते हैं उसके कानूनों में हेर फेर करने वाले? इतना कमजोर तो नहीं हो सकता वह कि अपनी सल्तनत-ए-कुदरत, अपने दीनो इल्म की हिफाजत करने के लिए वो हम जैसों का आसरा रखे। बस एक मोहब्बत ही है जो मुन्तशिर है ... अल्ताफ।’’

इसी तरह एक और उदाहरण -‘‘अनवर ने ज्यों ही अपनी पेंट की जेब का जायजा लिया तो उसे उस जालिम आशिक जिसकी आंखों में भेंगापन था के खूनी खत का एहसास हुआ जो अपनी मौजूदगी से तशरीफ- ए- अनवर की तरद्दुद बढ़ा रहा था।’’

लेखक का उर्दू पर अच्छा अधिकार है। रहा ‘‘पुरानी हिन्दी’’ और ‘‘नई वाली हिन्दी’’ का प्रश्न तो वह एक अलग लंबी बहस का विषय है, उस पर यहां चर्चा करना अर्थपूर्ण नहीं होगा।

लेखक ने आत्मकथन के अंतिम वाक्य में लिखा है कि -‘‘तो किताब की शक्ल लिए इस डायनामाइट को आप पाठकों के हवाले करता हूं...।’’ शुभम उपाध्याय ने अपने कहानी संग्रह को ‘‘डायनामाइट’’ संज्ञा दी है, जबकि उनकी कहानियां विध्वंस नहीं रचती हैं वरन निर्माण की ओर विचार प्रस्तावित करती हैं। संभवतः वे अपनी कहानियों में आए विस्फोटक विचारों की ओर संकेत करना चाहते हैं। कुुलमिला कर ‘‘मटन दिलरुबा’’ कहानी संग्रह कहानीकार शुभम उपाध्याय का एक महत्वाकांक्षी संग्रह कहा जा सकता है जिसमें परिपक्वता की ओर दृढ़ता से बढ़ाए गए कदमों की स्पष्ट आहट है और पठनीय कहानियां हैं।     
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#डॉसुश्रीशरदसिंह
#पुस्तकसमीक्षा #BookReview #BookReviewer #आचरण  #DrMissSharadSingh

Sunday, October 29, 2023

Article | Protect Vulture ! Which Is A Respected Bird In The Ramayana | Dr (Ms) Sharad Singh | Central Chronicle

Article
Protect Vulture ! Which Is A Respected Bird In The Ramayana
     -    Dr (Ms) Sharad Singh
Writer, Author & Social Activist
Blogger - "Climate Diary Of Dr (Ms) Sharad Singh"
 
      We know that vultures eat dead animals, that is why we look down upon them. The vulture is considered a dirty, ugly bird. In some societies, it is considered a bad omen for a vulture to hover in the sky. But on the other hand, if we look, we will find that the Ramayana which we accept as a religious text and worship, in the same Ramayana the vulture has been described as a helpful and respected bird. Shouldn't we be worried about the declining population of such birds? We have distanced them from ourselves by building skyscrapers, but we will also have to think about how to save them from disappearing.
Ramayana is an epic that makes us understand the difference between good and evil. Shri Ram is a symbol of goodness while Ravana is a symbol of evil. It is not that Ravana was foolish, he was omniscient. But despite being omniscient, he did not use his knowledge and discretion and kidnapped Sita by deceit. That's why despite being knowledgeable, he proved to be a villain. Shri Ram also knew about Ravana's knowledge that is why in Ravana's last moments he had instructed Lakshman to acquire knowledge from Ravana. On the advice of Shri Ram, Lakshman had also received knowledge from Ravana. Ravana was killed by Shri Ram because he covered his knowledge with his ignorance. I am discussing this so that we can examine our actions. If we are not Ravana, then we have not been able to become Shri Ram or Lakshman either. Our demonic power keeps manifesting itself in the form of our actions which cause harm to nature and the environment. 
We know that vultures eat a dead animal that is why we look down upon them. The vulture is considered a dirty, ugly bird. In some societies, it is considered a bad omen for a vulture to hover in the sky. But on the other hand, if we look, we will find that the Ramayana which we accept as a religious text and worship, in the same Ramayana the vulture has been described as a helpful and respected bird. Shouldn't we be worried about the declining population of such birds? We have distanced them from ourselves by building skyscrapers, but we will also have to think about how to save them from disappearing.
Many animals, birds and plants are mentioned in Ramayana, the holy book of Hindu culture. In which vulture is also mentioned. Almost all those people who have read Ramkatha in some form or the other or have seen it as a television serial know about the Vulture King Jatayu. When Ravana is deceitfully kidnapping Sita and taking her to Lanka, Sita calls for help. The vulture king Jatayu hears Sita's call and challenges Ravana. Jatayu asks Ravana to free Sita. While Jatayu knew that the Ravana he was challenging was much stronger than him but Jatayu was not afraid. He courageously tries to stop Ravana. Powerful Ravana injures him by cutting off his wings and runs away with Sita. The injured Vulture King understands that he is so badly injured that he will no longer survive. Still he waits groaningly for Shri Ram and Lakshman. Shri Ram reaches there while wandering in search of Sita. Then Jatayu tells them that Ravana, the king of Lanka, has kidnapped Sita. He tried to save Sita but could not succeed. Ravana has injured him and now he is about to die. Shri Ram knows from the Vulture King who has taken Sita and where. If this incident is read carefully, it becomes clear that Valmiki, the author of Ramayana, was knows about the vulture community. That is why he was called Jatayu  the Vulture King. Any person can be a king only if he has subjects. Being a community means that there is family and community consciousness in that community. If a bird spessies has consciousness of community, then how can that community be bad?
The job of the vulture is to keep nature and the environment clean, that is why he it protects nature from viruses and toxic elements by eating dead animals. He is a top class cleaner. Of course, our cities no longer need such natural cleaners because we have adopted artificial means of cleaning. But here we are not talking about any product but about a bird species. Animals die in forests, mountains and many other inaccessible places and if anyone goes to dispose of their dead bodies, they are vultures. Even today, vultures hold an important place in our life chain. It is our responsibility to save them, because in their absence, a link in the life chain will be broken and this will cause harm to both nature and the environment. If not more, at least we should save the vulture species from extinction by thinking that the vulture king Jatayu did not fear for his life to save Sita and helped Shri Ram. Perhaps Valmiki also wanted to give the same message that every bird is essential for human life and it should be the duty of humans to save them. 
Vultures are scavenging birds that feed on dead animals. Vultures do not kill their own prey, they feed on dead animals. As scavengers, vultures play an important role in the ecosystem by decomposing the dead animal matter, cleaning the environment and reducing the spread of diseases. So, we should remember always Vultures are obligate scavengers that play a crucial role in maintaining ecosystem services such as nutrient recycling, removal of soil and water contaminants, and regulating the spread of diseases. By protecting the Vulture, we will not only preserving a vital species, but also helping to maintain the health and balance of its ecosystem. Additionally, we will be preserving an important cultural symbol that has played a significant role in human history for thousands of years. Whether through supporting conservation efforts or simply spreading awareness of the importance of this species, we can all play a role in ensuring the survival of the Vulture for generations to come. We must accept that no matter what the bird is, it is never ugly and dirty. Every bird is essential for the life and ecosystem of nature.
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Thank you Central Chronicle 🙏
 (29.10.2023)
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Saturday, October 28, 2023

टॉपिक एक्सपर्ट | पत्रिका | ने इने फिकर ने उने फिकर | डॉ (सुश्री) शरद सिंह


आज पत्रिका में "टॉपिक एक्सपर्ट" में बुंदेली में मेरे विचार ...Thank you #Patrika🙏

Thank you Dear Reshu Jain 🙏
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टाॅपिक एक्सपर्ट
ने इने फिकर ने उने फिकर
     - डॉ (सुश्री) शरद सिंह
      कछू ज्यादा दिनां पैले की नईं, अबई काल संझा की बात आए। हम ओरें तीन-चार जनी कछू खरीदबे के लाने पैदल  तिगड्डा लौं जा रईं हतीं के फर्राटा भरत भई बाजू से एक फटफटिया गुजर गई। जोन भौजी ओ साईड में हतीं, बे सकपका के रैं गईं। बे अबे सम्हर नें पाईं हतीं के एक औ फटफटिया ऊंसईं फर्राटा भरत भई उनकी बाजू से कढ़ गई। ऐंसे बे भौजी सलीके वारी आएं, मनो फटफटिया के टेरर ने उने डरा दओ, सो गरियान लगीं। उन्ने बे फटफटिया वारन की दारी-मतारी एक कर दई। हम ओरन ने भौजी खों सम्हारो। बाकी हम ओरन को ध्यान ई बात पे गओ के उन दोई फटफटिया पे मने बाईक पे तीन-तीन मोड़ा लदे हते। छैऊ के छैऊ बिना हैलमेट के। औ स्पीड की तो पूछियोई मत। ऐसो फर्राटा मार के निकरे मनो दोई बाईक वारे रेस कर रए होंए। जबके बा कोनऊं रेसकोर्स ने हतो, सिविल लाईन से मकरोनिया वारी रोड हती रोड।       
         नियम तो जेई आए के एक बाईक पे दो से ज्यादा ने बैंठें, औ बाईक पे बैठबे वारे दोई जने हैलमेट पैनें, चाए लुगवा होय चाए लुगाई। अरे मूंड़ तो दोई के एक से होत आएं। कछू आड़ो-तिरछो हो जाए तो मूंड़ई में पैलऊं घलत आए। औ स्पीड के लाने कओ जात आए के शहर के भीतरे 20-30 से ज्यादा की स्पीड नईं राखो चाइए। मनो अपने इते जे खाली यातायात सप्ताह पे याद करओ जात आए, बाकी टेम पे ने इने फिकर, ने उने फिकर। ने बाईक वारे अपने मूंड़ की सोचत आएं औ ने ट्रेफिक वारे उनें कसत आएं। जे कोन टाईप की स्मार्टनेस आए?
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Friday, October 27, 2023

शून्यकाल | सागर विधानसभा क्षेत्र की प्रथम महिला विधायक | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

"दैनिक नयादौर" में मेरा कॉलम ...
शून्यकाल
सागर विधानसभा क्षेत्र की प्रथम महिला विधायक          
- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                                     
        सागर विधान सभा क्षेत्र में वर्तमान चुनाव में महिला दावेदार मौजूद हैं। इससे पूर्व सागर को विधायक के रूप में महिला नेतृत्व मिल चुका है। वह भी पूरे 15 वर्ष तक। दिलचस्प बात यह कि पूरी क्षमता से अपना कार्य सम्हाला जिसके परिणाम स्वरूप उन्हें जनता ने बार-बार अवसर दिया। जिस राजनीतिक दल ने उनकी योग्यता पर विश्वास किया और उन्हें विभिन्न पद सौंपा, फिर विधान सभा का टिकट भी दिया। किन्तु उसी दल ने उनकी 15 वर्ष की लम्बी पारी के बाद टिकट नहीं दिया। परिवर्तन एक स्वाभाविक प्रक्रिया है जिसे स्वीकार करते हुए उन्होंने अपनी पार्टी का ही साथ दिया तथा दल-बदल नहीं किया। सागर की वह प्रथम महिला विधायक रहीं अधिवक्ता श्रीमती सुधा जैन।
सागर शहर बुंदेलखंड के मध्यप्रदेशीय क्षेत्र का एकमात्र संभागीय मुख्यालय है। विधानसभा क्रमांक 41 सागर विधानसभा पूरी तरह से शहरी विधानसभा है। सागर (निर्वाचन क्षेत्र क्रमांक 41) सागर जिले में स्थित 8 विधानसभा क्षेत्रों में से एक है। सागर अभी भी अपने विकास के लिए संघर्षरत है। पिछले कुछ दशकों में यदि उसे विकास की कुछ सागातें मिलीं तो उनसे जुड़े अनेक विवाद भी उसके खाते में आए। 
    यदि बात की जाए समूचे सागर संभाग की तो विधानसभा में महिला नेतृत्व की स्थिति काफी प्रभावी रही है। पन्ना से कुसुम महदेले 1990, 1998, 2003 एवं 2013 में चुनाव जीतीं। बड़ामलहरा से 1993 में उमा यादव, 2003 में उमा भारती, 2008 और 2013 में रेखा यादव चुनाव जीतकर विधानसभा में पहुंचीं। सागर विधानसभा से सुधा जैन 1993, 98 और 2003 में चुनाव जीतीं। हटा से 1980 में स्नेह सलिला हजारी, 2008 और 2013 में उमादेवी खटीक चुनाव जीतीं। बिजावर से 1957 में गायत्री देवी और 2008 में आशारानी चुनाव जीतीं। बीना से 2003 में सुशीला सिरोठिया, 2008 में डाॅ. विनोद पंथी, पथरिया से 2003 में सोना बाई और 2018 में रामबाई, छतरपुर से 2008 और 2013 में ललिता यादव चुनाव जीतीं। सुरखी से 2013 में पारुल साहू, खुरई से 1985 में मालती मौर्य, निवाड़ी से 2008 में मीरा यादव, पृथ्वीपुर से 2013 में अनीता नायक चुनाव जीतीं। रहा सवाल सागर विधान सभा क्षेत्र की राजनीतिक स्थिति का तो इस पर सागर गर्व कर सकता है उसने अपन प्रथम महिला विधायक को लगातार तीन बार अर्थात लगातार 15 वर्ष विधायकत्व का अवसर दिया। सागर की प्रथम विधायक सुधा जैन को सागर के मतदाताओं ने नहीं वरन उनकी पार्टी ने ही परिवर्तन के तहत चैथी बार मौका नहीं दिया, वरना शायद मतदाता उन्हें एक बार फिर विधायक बनने का अवसर दे देते।    
      सुधा जैन का जन्म 13 अक्टूबर 1949 को सागर में ही हुआ था। उनके पिताजी मुन्नालाल जैन एक बड़े उद्योगपति के साथ ही आरएसएस के प्रमुख कार्यकर्ता एवं भारतीय जनता पार्टी के संस्थापक सदस्यों में थे। माता जी का नाम भगवती जैन था, जो कि गृहणी थीं। सुधा जैन के कुल 11 भाई बहन हैं जिनमें वे दूसरे नंबर की हैं। उन्हें जन्म से ही एक भरा-पूरा और बड़ा परिवार मिला जिससे उन्हें पारिवारिक रिश्तों-नातों के महत्व को उन्होंने भली-भांति समझा। एक बड़े परिवार में रहकर घर के सभी दायित्व को भी बखूबी निभाया, माता-पिता के संस्कारों ने सभी भाई बहनों को एक अच्छा जीवन दिया। सन 1971 में सुधा जैन का विवाह सागर के एक सभ्रांत परिवार पन्नालाल जैन तिली वालों के सुपुत्र रमेश चंद जैन एडवोकेट के साथ हुआ।
      सुधा जैन अपनी पढ़ाई जारी रखना चाहती थीं। ससुराल पक्ष से उन्हें समर्थन मिला और उन्होंने अपनी पढ़ाई जारी रखी। उन्होंने हिंदी साहित्य में प्रथम श्रेणी में एम.ए. किया। तत्पश्चात, सन 1972 से 1975 तक एल.एल.बी. की पढ़ाई की। सागर विश्वविद्यालय से सन 1975 एल.एल.बी. में गोल्ड मेडल प्राप्त किया। सन 1975 से 1990 तक सुधा जैन ने अधिवक्ता के रूप में सागर के जिला न्यायालय में वकालत की। इस दौरान वे लगभग 10 बैंकों की वकील रहीं। उनकी वकालत बहुत अच्छी चल रही थी। लेकिन इसी बीच सन 1989-90 पार्टी ने उन्हें टिकट देना चाहा। उस समय उनका सक्रिय राजनीति में आने का मन नहीं था अतः उन्होंने चुनाव लड़ने से मना कर दिया। किन्तु भाजपा उनकी योग्यता को भांप चुकी थी। भाजपा की सरकार आने पर सन 1990 में सुधा जैन को मध्य प्रदेश समाज कल्याण सलाहकार बोर्ड का अध्यक्ष का पद सौंपा गया, जिसमें उन्हें कैबिनेट मंत्री का दर्जा प्राप्त था। इसके बाद उनका सक्रिय राजनीति के प्रति झुकाव आरंभ हुआ। सन 1992-93 से उन्होंने चुनाव में अपनी भागेदारी आरंभ कर दी। सन 1993 में सागर से विधानसभा का चुनाव लड़ा। आजादी के बाद पहली बार भाजपा को सागर विधानसभा पर जीत मिली थी। इसके बाद सुधा जैन का राजनीतिक सफर गतिमान हो गया।
      सागर विधान सभा क्षेत्र में उनकी लोकप्रियता को देखते हुए भाजपा ने सन 1998 में सुधा जैन को दोबारा टिकट दिया। एक बार फिर उन्होंने अपनी राजनीतिक क्षमता और आमजन में अपनी पैंठ को साबित करते हुए विजय हासिल की। सुधा जैन की विशेषता यह थी कि वे आमजन के लिए सहज उपलब्ध थीं। कई बार वे अपने स्कूटर पर ही निकल पड़ती थीं। उच्चशिक्षा प्राप्त तो वे थीं ही, साथ ही सबसे मिलना और उनकी समस्याएं सुनना उनकी आदत बन गई थी। इसका सीधा प्रभाव मतदाताओं के मन पर पड़ता रहा। इससे उनकी लोकप्रियता बढ़ती गई।  
सन् 2003 में एक बार फिर भाजपा ने सागर विधान सभा क्षेत्र के लिए अपने उम्मीदवार के रूप में सुधा जैन को ही टिकट दिया। एक बार फिर मतदाताओं ने उनके प्रति अपना विश्वास व्यक्त किया और उन्होंने एक बार फिर विजय हासिल की। यह उनकी तीसरी पारी थी। इसके बाद भाजपा ने सागर विधान सभा सीट पर अपने उम्मीवार में परिवर्तन का मन बनाया और सुधा जैन के स्थान पर शैलेन्द्र जैन को टिकट दिया। इससे सुधा जैन तनिक निराश एवं चकित तो हुईं किन्तु अपने दल के प्रति उनकी आस्था में कोई कमी नहीं आई। उन्होंने दलबदल करने का भी विचार अपने मन में नहीं लाया।
     भाजपा ने सुधा जैन को विधानसभा का टिकट भले ही नहीं दिया किन्तु उनकी क्षमताओं को भुलाया भी नहीं। सन 2008 में उन्हें भाजपा का प्रदेश उपाध्यक्ष बनाया गया। इस पद पर रहते हुए उन्होंने पूरे प्रदेश में संगठन को मजबूत करने का महत्वपूर्ण कार्य किया। सन 2009 एवं 2010 में भाजपा की जिला अध्यक्ष बनीं, जिसमें क्षेत्रीय स्तर पर पार्टी को मजबूत करने का कार्य किया।
     सन 2011 में उन्हें म.प्र. महिला वित्त एवं विकास निगम की चेयरमेन बनी जिसमें उन्हें एक बार फिर कैबिनेट मंत्री का दर्जा मिला। महिलाओं को उत्तम रोजगार सेवाएं उपलब्ध कराने की दृष्टि से वर्ष 1986-87 में महिला विकास निगम की स्थापना की गयी थी। इस प्रकार प्रदेश शासन व भाजपा पार्टी में विभिन्न पदों पर रहकर उन्होंने देश, प्रदेश एवं पार्टी की सेवा की। 
     विधायक सुधा जैन ने जनहित में कई महत्वपूर्ण कार्य किए। जैसे मुनिश्री प्रमाण सागर जी की प्रेरणा से म.प्र. में मांस निर्यात निषेध अशासकीय संकल्प विधानसभा से पारित कराया। अनेकों संघर्ष के बाद सागर की स्थाई जल समस्या का हल राजघाट बांध बनवाकर करवाया। सागर में मेडिकल कॉलेज की उपलब्धि व केन्द्रीय विश्वविद्यालय जैसी महात्वपूर्ण उपलब्धियाँ पाने में सफलता प्राप्त की। विधायक अधिवक्ता सुधा जैन को समय-समय पर अनेक सम्मान प्रदान किए गए। विधानसभा के सर्वोच्च श्रेष्ठ विधायक सम्मान से सम्मानित किया गया, जो कि किसी भी विधायक के लिए गौरव का विषय हो सकता है। आज भी अनेक सामाजिक व राजीेतिक गतिविधियों में संलग्न रहने के साथ ही लेखन, अध्ययन एवं धार्मिक कार्यों में व्यस्त रहती हैं।                      
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Thursday, October 26, 2023

बतकाव बिन्ना की | उते तो खूबई बड़ो वारो दोंदरा मचो | डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम | बुंदेली व्यंग्य | प्रवीण प्रभात

"उते तो खूबई बड़ो वारो दोंदरा मचो" - मित्रो, ये है मेरा बुंदेली कॉलम "बतकाव बिन्ना की" साप्ताहिक #प्रवीणप्रभात , छतरपुर में।
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बतकाव बिन्ना की
उते तो खूबई बड़ो वारो दोंदरा मचो
        - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह

‘‘काय भैयाजी, ई दफे कोन के लाने वोट डालने अपन ओरन खों?’’ काल संझा खों मैंने भैयाजी से पूछी।
‘‘इनसे का पूछ रईं बिन्ना? इनको सो खुदई मूंड़ चकरा रओ।’’ भैयाजी की जांगा भौजी ने जवाब दओ।
मैंने देखी के दोई जने थके-मांदे से दिखा रए हते।
‘‘आप ओरें खूबई थक गए दिखा रए। आप दोई हमाए संगे हमाए घरे चलो, हम आप दोई खों अच्छी तुलसी औ अदरक की चाय बना के पियाबी।’’ मैंने दोई जने से कई।
‘‘हऔ चलो!’’ भौजी तुरतईं बोलीं। ठीक बी हतो। काय से के जब कोनऊं थको-थकाओ घरे लौटो होय औ ऊको चाय बनानी परे, सो बा ऊके लाने सजा घांई लगत आए।
‘‘कछु खाबे के लाने होय, सो संगे कछू ख्वा बी दइयो।’’ भैयाजी ने कई।
‘‘हऔ, ने हुइए सो बना देबी, ऊकी फिकर आप ने करो। घरे तारा डारो औ चलो संगे।’’ मैंने भैयाजी से कई।
बे दोई मोरे घरे आ गए। सच्ची मोय दोई पे बड़ी दया सी आ रई हती। ने जाने कां-कां भगत फिरत रैं हुंइए? औ मोय तो लगत आए के जोन के लाने जे ओरें चुनाव को प्रचार करबे खों गए हते, ऊने इन ओरन खों कछू खवाओ, पियाओ नईं। ने तो जे दसा में काय दिखाते? मनो अब उन दोई से पूछबे में बी अच्छो सो नई लग रओ हतो, सो मैंने ने पूंछी।
अपने घरे पौंच के मैंने पैलऊं गैस की एक बर्नर पे चाय को पानी चढ़ाओ औ दूसरे बर्नर पे कढाई में तेल चढ़ा दओ, मंदी आंच कर के। बेसन को डब्बा खोलो। बेसन निकार के पतीली में घोर लओ। फेर तुरतईं गिल्की और बैंगन काटे। तनक प्याज के लच्छा से सोई काट लए। फेर बेसन में नमक औ अजवाईन मिला के, ऊमें कटी भईं सबरी सब्जियां डार के फेंटा मार दओ। जो लो तेल गरम हो आओ हतो। उते चाय के पानी में शक्कर और चायपत्ती डारी। उबलत साथ अदरक औ तुलसी के पत्ता मींड़ के डार दए। ई तरफी चाय खों उबलन दओ औ संगे दूसरी तरफी गरम तेल में भजिया तलबो शुरू कर दओ। भजिया सिंके की गंध लगतई साथ बैठक में बैठी भौजी ने टेर लगाई-‘‘काय बिन्ना मदद के लाने आएं का?’’
‘‘नईं आप तो बैठो! बस, अभई बनो जा रओ।’’ मैंने भौजी से कई। भौजी सांची में भौतई थकीं कहानीं, नें तो बे खाली टेर ने लगातीं, बे तो किचेन में आतीं औ झरिया मोरे हाथ से छुड़ा के खुदई सेंकन लगतीं।
मैंने झट्टई भजिया को पैलो घना उतारो, कपों में चाय छानी औ ले के बैठक में पौंचीं। उते देखी के भैयाजी सो दीवान पे पसरे डरे हते औ उने नींद लग गई रई। भौजी सोई सोफा पे ऊंघत टिकी हतीं। मैंने दोई को जगाओ।
‘‘सच्ची! तुमाई जैसी बिन्ना सबई खों मिले!’’ भैयाजी बोल परे। बे भजिया देख के गदगद हो गए हते। जेई से अंदाजा लगाओ जा सकत्तो के उन ओरन की का दसा हती।
बे दोई चाय के संगे भजिया खान लगे औ मैं भजिया को दूसरो घना उतारबे के लाने किचेन में चली आई। तब लौं दूसरो घना सोई सिंक गओ रओ। मैंने दूसरो घना सोई उन दोई के आंगू परोस दओ। दोई ने ना नईं करी। मनो मईंना-खांड़ से भूकें होंए।
तीसरो घना के संगे फेर के चाय बना लई। एकई बेर में ज्यादा चाय बना लेबे में बा टेस्ट ने रैतो, काय से के फेर के गरम करनी परती। जेई से मैंने दुबारा फेर के ताजा चाय बनाई। तीसरो घना औ संगे चाय को डग्गा देख के दोई की आत्मा जुड़ा गई। अब कऊं जा के उन ओरन को मोरो खयाल आओ।
‘‘बिन्ना, तुम तो सोई खा-पी लेओ! हमई ओरन खों ख्वाए जा रईं। तुमाए लाने कछू बचो के नईं?’’ भैयाजी ने पूछी।
‘‘हऔ, अब तुम इते बैठो, हम तुमाए लाने बनाए दे रए।’’ अबकी भौजी बोलीं। मनो अब उनकी जान में जान लौटी हती।
‘‘अरे, आप ओरें फिकर ने करों! अबे मैं औ ला रई। ओई में मोरे भजिया औ चाय सोई आहें।’’ मैंने दोई खों बताओ।
बे ओरे कछू ने बोले। धीरे-धीरे जीमन लगे। जे बताए के पांछू मोरो मकसद जे रओ के उने पता पर जाए के अबे औ भजिया औ चाय बन रई। बे ओंरे भरपेट जींम लेवें।
सो तीसरो औ चौथो घना संगे ले के मैं बैठक में पौंची। संगे चाय को भरो डग्गा हतो। फेर एक दफा दोई के कप में भर-भर के चाय छान दई। उने खवाए-पिवाए में मोय बड़ो अच्छो सो लग रओ हतो। कोनऊं भूके को ख्वाबे से बड़ो पुन्न औ कोनऊं होई नईं सकत। बे ओरं ऊं टेम पे सबसे बड़े वारे भूके दिखा रए हते।
‘‘आप ओरें सो अलग-अलग पार्टी वारन के लाने प्रचार करबे गए हते न?’’ उन ओरन के खा के मों पोंछ लेबे के बाद मैंने पूछी।
‘‘हऔ, गए तो अलग-अलग हते।’’ भैयाजी मरी सी आवाज में बोले।
‘‘सो उन ओरन ने कछू ने खवाओ का?’’ मनो पूछो तो नईं चाइए रओ, बाकी पूछे बिगैर मोसे रओ नईं गओ।
‘‘अरे कां? उते तो ऐसो दोंदरा मचो, के ने पूछो! बे उन ओरन खों अपनो ठौर-ठिकाना नई सध रओ, हम ओरन खों कां से ख्वाते?’’ भैयाजी खिजियात भए बोले।
‘‘हऔ, कल्ल से हम ओरन खों कोनऊं के लाने नई जाने। चूला में गओ प्रचार-मचार!’’ भौजी सोई बमकत भई बोलीं।
‘‘हो का गओ ऐसो?’’ मैंने पूछी। मोय बड़ो अचरज हो रओ हतो।
‘‘कछू ने पूछो के का भओ!’’ भैयाजी बोले।
‘‘कछू तो बताओ!’’मैंने सोई जिद करी।
‘‘भओ जे के हम ओरें अलग-अलग पार्टी वारन के लाने प्रचार करबे खों गए हते। हमने प्रचार करी बी। मनो टिकट मिलबे के टेम तक मामलई पलट गओ। हमाए उम्मंीदवारन खों टिकट नईं दओ गओ। सो बे भड़कत भए दूसरी पार्टी के लाने सट्ट-पट्ट करन लगे। औ तुमाई भौजी वारे खों तो एक ठलुआ पार्टी ने टिकट दे बी दओ, मनो हमाए वारे उम्मींदवार खों उन्ने बी ने पूछो। सो संझा होत-होत उन्ने निर्दलीय ठाड़े होबे की घोषणा कर दई।’’ भैयाजी बतान लगे।

‘‘हऔ, अब हम उन ओरन से का कैते? जो उनसे खाबे खों मांगते, सो बे ओरें जेई कैते के- देबी फिरैं बिपत की मारीं, औ पण्डा कै मोय परसा देओ!’’ भौजी हंसत भई बोलीं। अब भौजी के मों की रौनक लौट आई हती। जे देख के मोय अच्छो लगो।
‘‘आप ओरें बी कां भटक रए हते!’’ मैंने दोई खों टोंकी।
‘‘बिना ठोंके घड़ा को पतो नई परत के बा कच्चो आए के पक्को!’’ भैयाजी बोले।
‘‘हऔ, औ घड़ा ठोंकेबे के चक्कर में आप ओरें खुदईं ठुके-पिटे से दिखान लगे।’’ मैंने हंस के कई।
मोरी बात सुन के बे दोई सोई हंसन लगे।
‘‘वैसे सांची कैं बिन्ना! सो रामधई, उते तो बड़ो भारी वारो दोंदरा मचो आए। पिछली की पिछली चुनाव में हमने जोन के लाने वोट देबे की कई रई, तुमें याद हुइए के बा पिछली चुनाव में निर्दलीय हो गओ रओ।’’ भैयाजी बतान लगे।
‘‘हऔ, औ आपने संगवार-वाद चलात भए मोसे सोई कओ रओ के बोई खों वोट दइयो।’’ मैंने भैयाजी खों टोंको।
‘‘हऔ! मनो हमें लगत आए के तुमने हमाई नईं सुनी हती, अपने मन की करी हती। बाकी बा जीत गओ रओ।’’ भैयाजी बोले।
‘‘हऔ, सो! वोटर को कभऊं नईं बताओ चाइए के ऊंने कोन खों वोट दओ। आप तो अपनी कओ।’’ मैंने भैयाजी से कई।
‘‘इनसे का पूछ रईं? इनके बा वारे उम्मीदवार सो ई दफा एक दूसरी पार्टी को पट्टा पैन्ह के घूम रए। तुम तो इनकी बातन में ने आइयो। जोन के लाने तुमें ठीक लगे, बोई खों वोट दइयो। उते तो जोई समझ नई पर रई के, को कां पौंच गओ? औ कोन, कोन के संगे ठाड़ो?’’ भौजी ने सोई भैयाजी की खिंचाई कर दई। भैयाजी भए चुप रै गए।        
तो, भैया औ बैनों हरों! आप ओरें कोनऊं दोंदरा में ने फंसियो औ अपनी समझ के हिसाब से वोट डारियो। मनो बतकाव हती सो बढ़ा गई, हंड़ियां हती सो चढ़ा गई। अब अगले हफ्ता"उते तो खूबई बड़ो वारो दोंदरा मचो" - मित्रो, ये है मेरा बुंदेली कॉलम "बतकाव बिन्ना की" साप्ताहिक #प्रवीणप्रभात , छतरपुर में।
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बतकाव बिन्ना की
उते तो खूबई बड़ो वारो दोंदरा मचो
        - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
‘‘काय भैयाजी, ई दफे कोन के लाने वोट डालने अपन ओरन खों?’’ काल संझा खों मैंने भैयाजी से पूछी।
‘‘इनसे का पूछ रईं बिन्ना? इनको सो खुदई मूंड़ चकरा रओ।’’ भैयाजी की जांगा भौजी ने जवाब दओ।
मैंने देखी के दोई जने थके-मांदे से दिखा रए हते।
‘‘आप ओरें खूबई थक गए दिखा रए। आप दोई हमाए संगे हमाए घरे चलो, हम आप दोई खों अच्छी तुलसी औ अदरक की चाय बना के पियाबी।’’ मैंने दोई जने से कई।
‘‘हऔ चलो!’’ भौजी तुरतईं बोलीं। ठीक बी हतो। काय से के जब कोनऊं थको-थकाओ घरे लौटो होय औ ऊको चाय बनानी परे, सो बा ऊके लाने सजा घांई लगत आए।
‘‘कछु खाबे के लाने होय, सो संगे कछू ख्वा बी दइयो।’’ भैयाजी ने कई।
‘‘हऔ, ने हुइए सो बना देबी, ऊकी फिकर आप ने करो। घरे तारा डारो औ चलो संगे।’’ मैंने भैयाजी से कई।
बे दोई मोरे घरे आ गए। सच्ची मोय दोई पे बड़ी दया सी आ रई हती। ने जाने कां-कां भगत फिरत रैं हुंइए? औ मोय तो लगत आए के जोन के लाने जे ओरें चुनाव को प्रचार करबे खों गए हते, ऊने इन ओरन खों कछू खवाओ, पियाओ नईं। ने तो जे दसा में काय दिखाते? मनो अब उन दोई से पूछबे में बी अच्छो सो नई लग रओ हतो, सो मैंने ने पूंछी।
अपने घरे पौंच के मैंने पैलऊं गैस की एक बर्नर पे चाय को पानी चढ़ाओ औ दूसरे बर्नर पे कढाई में तेल चढ़ा दओ, मंदी आंच कर के। बेसन को डब्बा खोलो। बेसन निकार के पतीली में घोर लओ। फेर तुरतईं गिल्की और बैंगन काटे। तनक प्याज के लच्छा से सोई काट लए। फेर बेसन में नमक औ अजवाईन मिला के, ऊमें कटी भईं सबरी सब्जियां डार के फेंटा मार दओ। जो लो तेल गरम हो आओ हतो। उते चाय के पानी में शक्कर और चायपत्ती डारी। उबलत साथ अदरक औ तुलसी के पत्ता मींड़ के डार दए। ई तरफी चाय खों उबलन दओ औ संगे दूसरी तरफी गरम तेल में भजिया तलबो शुरू कर दओ। भजिया सिंके की गंध लगतई साथ बैठक में बैठी भौजी ने टेर लगाई-‘‘काय बिन्ना मदद के लाने आएं का?’’
‘‘नईं आप तो बैठो! बस, अभई बनो जा रओ।’’ मैंने भौजी से कई। भौजी सांची में भौतई थकीं कहानीं, नें तो बे खाली टेर ने लगातीं, बे तो किचेन में आतीं औ झरिया मोरे हाथ से छुड़ा के खुदई सेंकन लगतीं।
मैंने झट्टई भजिया को पैलो घना उतारो, कपों में चाय छानी औ ले के बैठक में पौंचीं। उते देखी के भैयाजी सो दीवान पे पसरे डरे हते औ उने नींद लग गई रई। भौजी सोई सोफा पे ऊंघत टिकी हतीं। मैंने दोई को जगाओ।
‘‘सच्ची! तुमाई जैसी बिन्ना सबई खों मिले!’’ भैयाजी बोल परे। बे भजिया देख के गदगद हो गए हते। जेई से अंदाजा लगाओ जा सकत्तो के उन ओरन की का दसा हती।
बे दोई चाय के संगे भजिया खान लगे औ मैं भजिया को दूसरो घना उतारबे के लाने किचेन में चली आई। तब लौं दूसरो घना सोई सिंक गओ रओ। मैंने दूसरो घना सोई उन दोई के आंगू परोस दओ। दोई ने ना नईं करी। मनो मईंना-खांड़ से भूकें होंए।
तीसरो घना के संगे फेर के चाय बना लई। एकई बेर में ज्यादा चाय बना लेबे में बा टेस्ट ने रैतो, काय से के फेर के गरम करनी परती। जेई से मैंने दुबारा फेर के ताजा चाय बनाई। तीसरो घना औ संगे चाय को डग्गा देख के दोई की आत्मा जुड़ा गई। अब कऊं जा के उन ओरन को मोरो खयाल आओ।
‘‘बिन्ना, तुम तो सोई खा-पी लेओ! हमई ओरन खों ख्वाए जा रईं। तुमाए लाने कछू बचो के नईं?’’ भैयाजी ने पूछी।
‘‘हऔ, अब तुम इते बैठो, हम तुमाए लाने बनाए दे रए।’’ अबकी भौजी बोलीं। मनो अब उनकी जान में जान लौटी हती।
‘‘अरे, आप ओरें फिकर ने करों! अबे मैं औ ला रई। ओई में मोरे भजिया औ चाय सोई आहें।’’ मैंने दोई खों बताओ।
बे ओरे कछू ने बोले। धीरे-धीरे जीमन लगे। जे बताए के पांछू मोरो मकसद जे रओ के उने पता पर जाए के अबे औ भजिया औ चाय बन रई। बे ओंरे भरपेट जींम लेवें।
सो तीसरो औ चौथो घना संगे ले के मैं बैठक में पौंची। संगे चाय को भरो डग्गा हतो। फेर एक दफा दोई के कप में भर-भर के चाय छान दई। उने खवाए-पिवाए में मोय बड़ो अच्छो सो लग रओ हतो। कोनऊं भूके को ख्वाबे से बड़ो पुन्न औ कोनऊं होई नईं सकत। बे ओरं ऊं टेम पे सबसे बड़े वारे भूके दिखा रए हते।
‘‘आप ओरें सो अलग-अलग पार्टी वारन के लाने प्रचार करबे गए हते न?’’ उन ओरन के खा के मों पोंछ लेबे के बाद मैंने पूछी।
‘‘हऔ, गए तो अलग-अलग हते।’’ भैयाजी मरी सी आवाज में बोले।
‘‘सो उन ओरन ने कछू ने खवाओ का?’’ मनो पूछो तो नईं चाइए रओ, बाकी पूछे बिगैर मोसे रओ नईं गओ।
‘‘अरे कां? उते तो ऐसो दोंदरा मचो, के ने पूछो! बे उन ओरन खों अपनो ठौर-ठिकाना नई सध रओ, हम ओरन खों कां से ख्वाते?’’ भैयाजी खिजियात भए बोले।
‘‘हऔ, कल्ल से हम ओरन खों कोनऊं के लाने नई जाने। चूला में गओ प्रचार-मचार!’’ भौजी सोई बमकत भई बोलीं।
‘‘हो का गओ ऐसो?’’ मैंने पूछी। मोय बड़ो अचरज हो रओ हतो।
‘‘कछू ने पूछो के का भओ!’’ भैयाजी बोले।
‘‘कछू तो बताओ!’’मैंने सोई जिद करी।
‘‘भओ जे के हम ओरें अलग-अलग पार्टी वारन के लाने प्रचार करबे खों गए हते। हमने प्रचार करी बी। मनो टिकट मिलबे के टेम तक मामलई पलट गओ। हमाए उम्मंीदवारन खों टिकट नईं दओ गओ। सो बे भड़कत भए दूसरी पार्टी के लाने सट्ट-पट्ट करन लगे। औ तुमाई भौजी वारे खों तो एक ठलुआ पार्टी ने टिकट दे बी दओ, मनो हमाए वारे उम्मींदवार खों उन्ने बी ने पूछो। सो संझा होत-होत उन्ने निर्दलीय ठाड़े होबे की घोषणा कर दई।’’ भैयाजी बतान लगे।

‘‘हऔ, अब हम उन ओरन से का कैते? जो उनसे खाबे खों मांगते, सो बे ओरें जेई कैते के- देबी फिरैं बिपत की मारीं, औ पण्डा कै मोय परसा देओ!’’ भौजी हंसत भई बोलीं। अब भौजी के मों की रौनक लौट आई हती। जे देख के मोय अच्छो लगो।
‘‘आप ओरें बी कां भटक रए हते!’’ मैंने दोई खों टोंकी।
‘‘बिना ठोंके घड़ा को पतो नई परत के बा कच्चो आए के पक्को!’’ भैयाजी बोले।
‘‘हऔ, औ घड़ा ठोंकेबे के चक्कर में आप ओरें खुदईं ठुके-पिटे से दिखान लगे।’’ मैंने हंस के कई।
मोरी बात सुन के बे दोई सोई हंसन लगे।
‘‘वैसे सांची कैं बिन्ना! सो रामधई, उते तो बड़ो भारी वारो दोंदरा मचो आए। पिछली की पिछली चुनाव में हमने जोन के लाने वोट देबे की कई रई, तुमें याद हुइए के बा पिछली चुनाव में निर्दलीय हो गओ रओ।’’ भैयाजी बतान लगे।
‘‘हऔ, औ आपने संगवार-वाद चलात भए मोसे सोई कओ रओ के बोई खों वोट दइयो।’’ मैंने भैयाजी खों टोंको।
‘‘हऔ! मनो हमें लगत आए के तुमने हमाई नईं सुनी हती, अपने मन की करी हती। बाकी बा जीत गओ रओ।’’ भैयाजी बोले।
‘‘हऔ, सो! वोटर को कभऊं नईं बताओ चाइए के ऊंने कोन खों वोट दओ। आप तो अपनी कओ।’’ मैंने भैयाजी से कई।
‘‘इनसे का पूछ रईं? इनके बा वारे उम्मीदवार सो ई दफा एक दूसरी पार्टी को पट्टा पैन्ह के घूम रए। तुम तो इनकी बातन में ने आइयो। जोन के लाने तुमें ठीक लगे, बोई खों वोट दइयो। उते तो जोई समझ नई पर रई के, को कां पौंच गओ? औ कोन, कोन के संगे ठाड़ो?’’ भौजी ने सोई भैयाजी की खिंचाई कर दई। भैयाजी भए चुप रै गए।        
तो, भैया औ बैनों हरों! आप ओरें कोनऊं दोंदरा में ने फंसियो औ अपनी समझ के हिसाब से वोट डारियो। मनो बतकाव हती सो बढ़ा गई, हंड़ियां हती सो चढ़ा गई। अब अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लों जुगाली करो जेई की। सो, सबई जनन खों शरद बिन्ना की राम-राम!
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चर्चा प्लस | एक थे डाॅ. सालिम अली | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस  
एक थे डाॅ. सालिम अली.....
  - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                                        
       पक्षियों को देखना सभी को अच्छा लगता है। उनकी आवाजें सुन कर मन खुश हो जाता है। लेकिन हर सदी, हर दशक में पक्षियों पर कोई न कोई संकट हम मनुष्यों के कारण आता रहा है। उसमें सबसे बड़ा संकट है पक्षियों से उनके रहवास के छिन जाने का। जंगलों की अवैध कटाई और शहरों के असंतुलित विकास ने पक्षियों की कई प्रजातियां ही लगभग समाप्त कर दी हैं। डाॅ. सालिम अली जैसे पक्षीविद ने जो पहल की, उसका अनुकरण करते हुए हमारे देश में आज पक्षियों की प्रजातियों एवं उनके रहवास को बचाने का कार्य चल रहा है, जिसके बारे आमजन को पता ही नहीं है। आमजन मात्र यही सोच कर रह जाता है कि आजकल फलां पक्षी नहीं दिखते। मगर क्यों? इस दिशा में वे नहीं सोचते हैं। जबकि डाॅ सालिम अली ने सिर्फ सोचा नही, बल्कि उन्हें बचाने का प्रयास भी किया।
अभी कुछ दिनों पहले की ही बात है जब श्राद्ध पक्ष चल रहा था मेरे एक परिचित ने दुखी होते हुए कहा कि ‘‘मैंने कुत्ते, गाय आदि सबको उनका अंश खिला दिया किंतु कौवे नहीं मिले और मैं श्राद्ध पक्ष का भोग उन्हें नहीं लग पाया हूं।’’ फिर उन्होंने आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहा, ‘‘पता नहीं कौवे आजकल दिखते क्यों नहीं? कहां चले गए?’’
मैंने उनसे पूछा कि ‘‘भैया जी, ये बताइए कि ये सब ऊंचे-ऊंचे वृक्ष जो अपने आसपास थे, वे सब कहां गए?’’ तो उन्होंने लापरवाही से कहा, ‘‘वे वृक्ष कहां जाएंगे? काट दिए गए। उनकी जगह पर घर बन गए। देखा तो रही हैं आप। लेकिन इन पेड़ों से उन कौवों का क्या रिश्ता?’’ मैंने उनसे कहा, ‘‘भैया जी, शायद आपको पता नहीं है कि कौवे हमेशा ऊंचे वृक्षों पर ही अपना घोंसला बनाते हैं और जब ऊंचे वृक्ष ही नहीं रहेंगे तो वे यहां क्यों आएंगे? क्या अपना घर तोड़ने वालों के पास आएंगे वे?’’
‘‘लेकिन मैंने तो न उन वृक्षों को काटा है और न उनका घर तोड़ा है, फिर वह मेरी छत पर क्यों नहीं आते?’’ झुंझलाहट में बचकानी सी बात पूछ बैठे भैया जी।
‘‘अपने पेड़ काटने वालों को रोका भी तो नहीं!’’ मैंने भैया जी को उलाहना दिया।
‘‘क्या सिर्फ मेरे रोकने से कोई रुकता?’’ अपनी कमजोरी को छुपाने के लिए भैया जी के पास तर्कों की कोई कमी नहीं थी। मैंने कहा,‘‘भैया जी अगर यही बात हम सब सोचते रहेंगे तो कभी किसी को रोक नहीं सकेंगे और सारे पेड़, सारे जंगल यूं ही कटते रहेंगे।’’
सिर्फ मेरे करने से क्या होगा? यदि यही बात डाॅ सालिम अली सोचते तो क्या वे पक्षियों के उन रहवास को बचा पाते जो उस समय उजाड़े जा रहे थे? यदि सालिम अली नहीं होते तो शायद मेरे जैसे अनेक लोग बचपन से पक्षियों के प्रति अपनापन महसूस नहीं कर पाते। एक ऐसे पक्षी प्रेमी जिन्होंने अपना पूरा जीवन पक्षियों के लिए समर्पित कर दिया। वे एक सच्चे प्रकृति प्रेमी थे, पक्षियों के सच्चे हितैषी थे और एक सच्चे भारतीय थे, तभी तो उन्होंने पक्षियों के जीवन के महत्व को समझा।
      मुझे भी बचपन से ही पक्षियों से प्रेम रहा। क्योंकि पन्ना (मप्र) के हमारे घर में एक मध्यम आकार का बगीचा था जिसमें केले, बेर, मुनगे आदि के पेड़ और बहुत से पौधे तथा बेलें लगी थीं। हिरणबाग नाम की हमारी काॅलोनी राजाओं के समय बाग हुआ करती थी जहां हिरण पाले जाते थे। अतः वहां आम, नीम, वट और पीपल के वर्षों पुराने वृक्ष थे। इसीलिए मेरी काॅलोनी और मेरे घर के बगीचे में तरह-तरह के पक्षी आया करते थे। मैं उन सारे पक्षियों का नाम नहीं जानती थी, इसलिए उनका अपने मन से कुछ भी नामकरण कर दिया करती थी। उन्हीं दिनों मां को डाॅ सालिम अली की पुस्तक ‘द बुक ऑफ इंडियन बर्ड्स’ का पता चला। उन दिनो आॅनलाइन शाॅपिंग तो थी नहीं, अतः उन्होंने सीधे प्रकाशक से डाक द्वारा वह किताब मेरे लिए मंगाई। उस किताब में भारत में पाए जाने वाले पक्षियों का चित्र सहित विवरण दिया गया था। वह किताब अंग्रेजी में थी और मैं थी हिन्दी माध्यम की छात्रा। फिर भी जिज्ञासावश मैंने डिक्शनरी की सहायता ले-ले कर और कभी वर्षा दीदी से पूछ-पूछ कर पूरी किताब पढ़ डाली। उस किताब के जरिए ही मैंने सेवन सिस्टर्स, क्रो फीसेंट, बुलबुल, ब्लैक ड्रोंगो, हार्न बिल, हमिंग बर्ड, बया, हुकना जैसे पक्षियों को पहचाना और उनकी आदतें तथा आवाजों के बारे में जाना। उस समय मैं प्रायमरी कक्षा में पढ़ती थी। ठीक उसी समय से मैंने डाॅ. सालिम अली को भी जाना और उनकी अमिट छाप मेरे मन-मस्तिष्क पर अंकित हो गई।

  वे एक भारतीय पक्षी विज्ञानी, वन्यजीव संरक्षणवादी और प्रकृतिवादी थे। डॉ अली देश के पहले ऐसे पक्षी विज्ञानी थे जिन्होंने सम्पूर्ण भारत में व्यवस्थित रूप से पक्षियों का सर्वेक्षण किया और पक्षियों पर ढेर सारे लेख और किताबें लिखीं। उनके द्वारा लिखी पुस्तकों ने भारत में पक्षी-विज्ञान के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। उन्हें “भारत का बर्डमैन” के रूप में जाना जाता है। उनके कार्यों और योगदान के लिए भारत सरकार ने उन्हें सन 1958 में पद्म भूषण और सन 1976 में देश के दूसरे सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘‘पद्म विभूषण’’ से सम्मानित किया था। सन 1947 के बाद वे ‘बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी’ के सबसे प्रधान व्यक्ति बने और ‘भरतपुर पक्षी अभयारण्य’ (केओलदेव् राष्ट्रीय उद्यान) के गठन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने ‘साइलेंट वैली नेशनल पार्क’ को बर्बादी से बचाने में भी अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया।
      डाॅ सालिम अली का पूरा नाम था डॉ सालिम मोइजुद्दीन अब्दुल अली। सालीम अली का जन्म मुंबई के एक सुलेमानी बोहरा परिवार में 12 नवम्बर 1896 में हुआ। वे अपने नौ भाई-बहनों में सबसे छोटे थे। जब वे एक साल के थे तब उनके पिता मोइजुद्दीन अली चल बसे और जब वे तीन साल के हुए तब उनकी माता जीनतुन्निस्सा की भी मृत्यु हो गई। मुंबई की खेतवाड़ी में सालीम अली और उनके भाई-बहनों की परवरिश उनके मामा अमिरुद्दीन तैयाबजी और चाची हमिदा ने की।
        सालिम की प्रारंभिक रुचि शिकार से संबंधित किताबों पर थी जो बाद में स्पोर्ट-शूटिंग की दिशा में आ गई जिसमें उनके मामा अमिरुद्दीन ने उन्हें काफी प्रोत्साहित भी किया। उनके आस-पड़ोस में अक्सर शूटिंग प्रतियोगिता का आयोजन होता था। जब वे 13 साल के थे तब गंभीर सिरदर्द की बीमारी से पीड़ित हुए, जिसके कारण उन्हें अक्सर कक्षा छोड़नी पड़ती थी। किसी ने सुझाव दिया कि सिंध की शुष्क हवा से शायद उन्हें ठीक होने में मदद मिले इसलिए उन्हें अपने एक चाचा के साथ रहने के लिए सिंध भेज दिया गया। वे लंबे समय के बाद सिंध से वापस लौटे और बड़ी मुश्किल से सन 1913 में बॉम्बे विश्वविद्यालय से दसवीं की परीक्षा उत्तीर्ण की। इस दौरान बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी (बीएनएचएस) के सचिव डबल्यू.एस. मिलार्ड ने सालिम अली में पक्षियों के प्रति जिज्ञासा बढ़ाई और छात्र सालिम को पक्षियों के अध्ययन के लिए उत्साहित किया जिसके स्वरुप सालिम ने गंभीर अध्ययन करना शुरू किया। मिलार्ड ने सोसायटी में संग्रहीत सभी पक्षियों को सालिम को दिखाना प्रारंभ किया और पक्षियों के संग्रहण के लिए प्रोत्साहित भी किया। उन्होंने सालिम को कुछ किताबें भी दी जिसमें ‘कॉमन बर्ड्स ऑफ मुंबई’ भी शामिल थी। मिलार्ड ने सालिम अली की मुलाकात नोर्मन बॉयड किनियर से करवाई, जो कि बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी में प्रथम पेड क्यूरेटर थे।
      सालिम अली ने प्रारंभिक शिक्षा मुंबई के सेंट जेवियर्स कॉलेज से ग्रहण की। किन्तु कॉलेज का पहले साल में ही कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। जिसके बाद उन्होंने पढ़ाई छोड़ दी और परिवार के वोलफ्रेम (टंग्सटन) माइनिंग और इमारती लकड़ियों के व्यवसाय की देख-रेख के लिए टेवोय, बर्मा (टेनासेरिम) चले गए। वह स्थान सालिम के अभिरुचि में सहायक सिद्ध हुआ क्योंकि वहां पर घने जंगले थे। जहां उनका मन तरह-तरह के पक्षियों को देखने में लगता। लगभग 7 साल बाद सालिम अली मुंबई वापस लौट गए और पक्षी शास्त्र विषय में प्रशिक्षण लिया और बंबई के ‘नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी’ के म्यूजियम में गाइड के पद पर नियुक्त हो गये। कुछ समय बाद अवकाश लेकर जर्मनी जाकर पक्षी विज्ञान में उच्च प्रशिक्षण प्राप्त किया। उन्होंने पक्षियों की अलग-अलग प्रजातियों के बारे में अध्ययन के लिए देश के कई भागों और जंगलों में भ्रमण किया। कुमाऊं के तराई क्षेत्र से डॉ अली ने बया पक्षी की एक ऐसी प्रजाति ढूंढ़ निकाली जो लुप्त घोषित हो चुकी थी। साइबेरियाई सारसों की एक-एक आदत की उनको अच्छी तरह पहचान थी। उन्होंने ही अपने अध्ययन के माध्यम से बताया था कि साइबेरियन सारस मांसाहारी नहीं होते, बल्कि वे पानी के किनारे पर जमी काई खाते हैं। वे पक्षियों के साथ दोस्ताना व्यवहार करते थे और उन्हें बिना कष्ट पहुंचाए पकड़ने के 100 से भी अधिक तरीके उनके पास थे। पक्षियों को पकड़ने के लिए डॉ सालिम अली ने प्रसिद्ध ‘गोंग एंड फायर’ व ‘डेक्कन विधि’ की खोज की जिन्हें आज भी पक्षी विज्ञानियों द्वारा प्रयोग किया जाता है। जर्मनी के ‘बर्लिन विश्वविद्यालय’ में उन्होंने प्रसिद्ध जीव वैज्ञानिक इरविन स्ट्रेसमैन के देख-रेख में काम किया। उसके बाद सन 1930 में वे भारत लौट आए। जब एक साल बाद भारत लौटे तब पता चला कि इनका पद समाप्त किया जा चुका था। सालिम अली की पत्नी के पास कुछ रुपए थे जिससे उन्होंने बंबई बन्दरगाह के पास किहिम नामक स्थान पर एक छोटा सा घर ले लिया। फिर पक्षियों पर और तेजी से कार्य प्रारंभ किया। देश की आजादी के बाद डॉ सालिम अली ‘बांबे नेचुरल हिस्ट्री सोसायटी’ के प्रमुख लोगों में रहे। भरतपुर पक्षी विहार की स्थापना में उनकी मुख्य भूमिका रही।

सन 1930 में सालिम अली  ने अपने अनुसंधान और अध्ययन पर आधारित लेख लिखे। इन लेखों के माध्यम से लोगों को उनके कार्यों के बारे में पता चला और उन्हें एक ‘पक्षी शास्त्री’ के रूप में पहचाना मिली। लेखों  के साथ-साथ सालिम अली ने कुछ पुस्तकें भी लिखीं। वे जगह जगह जाकर पक्षियों के बारे में जानकारी इकठ्ठी करते थे। उन्होंने इन जानकारियों के आधार पर एक पुस्तक तैयार की जिसका नाम था ‘द बुक ऑफ इंडियन बर्ड्स’। सन 1941 में प्रकाशित इस पुस्तक ने रिकॉर्ड बिक्री की। इसके बाद उन्होंने एक दूसरी पुस्तक ‘हैण्डबुक ऑफ द बर्ड्स ऑफ इंडिया एण्ड पाकिस्तान’ भी लिखी, जिसमें सभी प्रकार के पक्षियों, उनके गुणों-अवगुणों, प्रवासी आदतों आदि से संबंधित अनेक रोचक और मतवपूर्ण जानकारियां दी गई थी। डॉ सालिम अली ने एक और पुस्तक ‘द फाल ऑफ ए स्पैरो’ भी लिखी, जिसमें उन्होंने अपने जीवन से जुड़ी कई घटनाओं का जिक्र किया है।
      डॉ सालिम अली ने अपना पूरा जीवन पक्षियों के लिए समर्पित कर दिया। ऐसा कहा जाता है कि सालिम मोइजुद्दीन अब्दुल अली पक्षियों की बोली समझते थे। उन्होंने पक्षियों के अध्ययन को आम जनमानस से जोड़ा और कई पक्षी विहारों की स्थापना में अग्रणी भूमिका निभाई।

       27 जुलाई 1987 को 91 साल की उम्र में डॉ. सालिम अली का निधन मुंबई में हुआ। डॉ सालिम अली भारत में एक ‘पक्षी अध्ययन व शोध केन्द्र’ की स्थापना करना चाहते थे। इनके महत्वपूर्ण कार्यों और प्रकृति विज्ञान और पक्षी विज्ञान के क्षेत्र में अहम् योगदान के  कारण ‘बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी’ और ‘पर्यावरण एवं वन मंत्रालय’ द्वारा कोयम्बटूर के निकट ‘अनाइकट्टी’ नामक स्थान पर ‘सालिम अली पक्षीविज्ञान एवं प्राकृतिक इतिहास केन्द्र’ स्थापित किया गया। उनकी जन्मशती पर सन 1996 में भारत सरकार ने दो डाक टिकट जारी किए  थे ।

     आज पक्षियों के बारे में नेशनल जियोग्राफी, डिस्कवरी, बीबीसी अर्थ आदि अनेक टीवी चैनल्स हैं, लेकिन जब ये सब कुछ नहीं था तब डाॅ. सालिम अली थे और उनका जुनून था जिसने अनगिनत पक्षियों की जान बचाई, उनके निवासस्थानों को बचाया और आमजन को पक्षियों लिए सोचने की दिशा दी। अब यह सरकार तथा स्वयंसेवी संगठनों का दायित्व है कि वे पक्षियों के प्रति आमजन में जागरूकता लाएं। उनके रहवास (हैबिटेट) की जानकारी दें। पर्यावरण चक्र में उनके महत्व की जानकारी दें। एक छोटा पक्षी भी छोटे-मोटे हानिकारक कीटों को खा कर हमारे स्वास्थ्य की रक्षा करता है और फूलों के परागण तथा बीजों के फैलाव में पक्षियों की भूमिका सभी जानते ही हैं। पृथ्वी नामक इस घर में पक्षी हमारे परिवार के सदस्य हैं, बस, यही तो समझाना चाहते थे डाॅ. सालिम अली।  
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Wednesday, October 25, 2023

जो अनुभव के दायरे का हो, जो आपकी दृष्टि से गुज़रा हो, जिसने आपके मानस को स्पर्श किया हो, उस पर कलम चलाना ज़्यादा सही होता है। - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह

डाॅ (सुश्री) शरद सिंह, मुख्यअतिथि,  श्रीमतीआराधना खरे की पुस्तकों का लोकार्पण, 15.10.2023


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'काशी का अस्सी' काशीनाथ सिंह का संस्मरण है जिसमें उन्होंने बनारस के अस्सी घाट के बारे में लिखा है। आदरणीय काशीनाथ सिंह जी ने अपने एक साक्षात्कार में कहा था कि "पढ़ो और ख़ूब पढ़ो—किताबें भर नहीं, इंसान भी। किताबें भी पढ़ो, लेकिन यह देखते हुए कि वे दुनिया और आदमी को समझने में कितनी मदद देती हैं।"
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इंसानों को पढ़ना यानी जीवन से अनुभव प्राप्त करना जीवन का आकलन करना जीवन का सर्वेक्षण करना। कई बार लोग सिर्फ सुनी सुनाई बातों पर अथवा गूगल सर्च करके अपनी जानकारी का आधार बना लेते हैं जिससे कई तथ्यात्मक भूलें उनसे हो जाते हैं जैसे मैं आपको एक घटना बताऊं ..... एक लेखक जिन्होंने अब दिवंगत हो गए हैं अतः में उनका नाम नहीं लेना चाहूंगी, इंदौर के निवासी थे उन्होंने बांछड़ा समाज पर एक उपन्यास लिखा और जिसमें उन्होंने बेड़िया समाज का भी जिक्र किया... जो की तथ्यात्मक दृष्टि से गलत थे जिससे मैं अपनी समीक्षा में प्वाइंट आउट किया। इस पर वे मुझे फोन करके बुरा-भला कहने लगे। उम्र में मुझसे बड़े थे अतः मैं विनम्रतापूर्वक उनसे सिर्फ यही कहा कि जिस तथ्य के बारे में आपको जानकारी ना हो उस पर लिखना कोई विवशता नहीं है। आप उस विषय के बदले किसी और विषय पर लिख सकते थे।
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इसीलिए जो अनुभव के दायरे का हो, जो आपकी दृष्टि से गुज़रा हो, जिसने आपके मानस को स्पर्श किया हो, उस पर कलम चलाना ज़्यादा सही होता है।
..... या फिर आपमें इतनी घनी, गहरी कल्पनाशीलता हो कि आप किसी घटना व्यक्ति या समाज में ट्रांसफॉर्म हो सकें तभी सही लेखन कर सकते हैं ..... दरअसल यही तो है इंसानों को पढ़ाना।
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आराधना खरे जी ने इंसानों और इंसानी रिश्तों को बखूबी पढ़ा है। यह बात उनकी कहानियों और कविताओं को पढ़ने के बाद दावे से कहीं जा सकती है। कहानी संग्रह "जीवन एक रंग अनेक" तथा कविता संग्रह "काव्य रश्मि" के प्रकाशन पर उन्हें हार्दिक बधाई
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आराधना खरे जी की कहानियां परिवार विमर्श की कहानियां हैं। वे पारिवारिक रिश्तों के तानेबाने को बड़ी बारीकी से अपनी कहानियों में प्रस्तुत करती हैं, जिनमें पात्रों का मनोविज्ञान भी शामिल है।
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आराधना खरे जी की कविताओं में मन:स्थितियों का सुंदर प्रस्तुतीकरण है, जिनमें उदासी, उच्छ्वास, पीड़ा, अवसाद एकाकीपन के साथ ही वह अदम्य साहस भी दिखाई देता है जो स्त्री को इस समाज में बने रहने का साहस देता है। आराधना खरे जी के रचनाकर्म में कथा और कविता दोनों में संतुलन है। उन्होंने दोनों विधाओं को साधने का सफल प्रयास किया है।"
मैंने अपने ये विचार व्यक्त किए थे मुख्य अतिथि के रूप में... विगत दिनों प्रगतिशील लेखक संघ की सागर इकाई द्वारा आयोजित पुस्तक लोकार्पण समारोह में। कवयित्री एवं कथाकार श्रीमती आराधना खरे की दो पुस्तकों - कहानी संग्रह एवं काव्य संग्रह के लोकार्पण समारोह की अध्यक्षता की थी इकाई के अध्यक्ष श्री टीकाराम त्रिपाठी जी ने। पुस्तकों के समीक्षक थे श्री पी आर मलैया, डॉ कविता शुक्ला एवं डॉ छाया चौकसे। संचालन किया था डॉ मनोज श्रीवास्तव ने। शेष व्यवस्थाओं का संचालन इकाई के सचिव श्री पेट्रिस फुसकेले ने किया।
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समारोह में उमाकांत मिश्र जी, मुन्ना शुक्ला जी, आर के तिवारी जी, प्रभात कटारे जी, स्वाति हल्वे जी, प्रफुल्ल हल्वे जी, वीरेन्द्र प्रधान जी आदि कला एवं साहित्य मनीषियों सहित प्रगतिशील लेखक संघ इकाई सागर के सदस्यगण उपस्थित रहे।
डाॅ (सुश्री) शरद सिंह, मुख्यअतिथि,  श्रीमतीआराधना खरे की पुस्तकों का लोकार्पण, 15.10.2023

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