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My Editorials - Dr Sharad Singh
Thursday, November 30, 2023
बतकाव बिन्ना की | काय भैया हरों धुकधुकी हो रई के नईं? | डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम | प्रवीण प्रभात
Tuesday, November 28, 2023
हमें उन सभी लोगों को याद रखना चाहिए जिन्होंने देश के प्रति अपना अवदान दिया है। - डॉ (सुश्री) शरद सिंह, मुख्य अतिथि
पुस्तक समीक्षा | बुंदेलीकाव्य की चौकड़िया विधा को केन्द्र में लाने का सार्थक प्रयास | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण
प्रस्तुत है आज 28.11.2023 को #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई प्रो. बहादुर सिंह परमार द्वारा संपादित "चौकड़िया कलश" की समीक्षा।
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पुस्तक समीक्षा
बुंदेलीकाव्य की चौकड़िया विधा को केन्द्र में लाने का सार्थक प्रयास
- समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह
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काव्य संग्रह - चौकड़िया-कलश
कवि - लल्लूमल चौरसिया
संपादक - प्रो. बहादुर सिंह परमार
प्रकाशक - जे.टी.एस. पब्लिकेशन्स, जी-508, गली नं. 17,विजयपार्क, दिल्ली-110053
मूल्य - 395/-
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बुंदेलखंड की साहित्यिक विधाओं में विविधता का अपरिमित सौंदर्य है। काव्य की अनेक विधाएं इस भू-भाग में पुष्पित-पल्लवित हुई हैं। इन्हीं में से एक विधा है चौकड़िया। जब बुंदेली काव्य की चर्चा आती है तो कवि ईसुरी का स्मरण सबसे पहले ताजा हो जाता है। ईसुरी ने चौकड़ियां लिखीं जो बहुत लोकप्रिय हुईं। कवि ईसुरी के बाद भी चौकड़िया विधा पर निरंतर काव्य सृजन होता रहा। कुछ प्रकाश में आया और कुछ अंधकार में ही छिपा रह गया। आमतौर पर पुस्तक के रूप में किसी भी सृजन के सामने आने में इच्छाशक्ति तथा आर्थिक स्थिति आड़े आ जाती है। यदि बात लोकभाषा में सृजन की हो तो लोकांचल में रहने वाले सर्जक प्रकाशन की प्रक्रिया की जानकारी न रखने के कारण उस ओर ध्यान ही नहीं देते हैं और उनका महत्वपूर्ण सृजन किसी डायरी, किसी पुस्तिका अथवा फुटकर पन्नों में रह जाने के कारण सुधि पाठकों तक नहीं पहुंच पाता है। इस दिशा में कई जागरूक व्यक्ति हैं जो अंधेरे में खोते जा रहे ऐसे तमाम सृजन को सामने लाने का अथक प्रयास कर रहे हैं। बुंदेलखंड अंचल में उनमें से एक प्रतिनिधि नाम है प्रो. बहादुर सिंह परमार का। दीवान प्रतिपाल सिंह द्वारा लिखा गया बुंदेलखंड का इतिहास जो कि बारह खंडों में है, उसे संपादित कर प्रकाशित कराने का श्रेय भी प्रो. बहादुर सिंह परमार को ही है। वे बुंदेली साहित्य एवं संस्कृति के संरक्षण एवं उन्नयन के लिए निरन्तर क्रियाशील हैं। इसी क्रम में उन्होंने कवि लल्लूमल चौरसिया के काव्य संग्रह ‘‘चौकड़िया-कलश’’ को संपादित कर प्रकाशित कराया है। यह बुंदेली काव्य की चौकड़िया विधा को पुनः केन्द्र में लाने का सशक्त प्रयास है।
विद्वानों के अनुसार चौकड़िया में दो प्रकार के छंद प्रचलित हैं- ईसुरी छंद और टहूका छंद। दोनों ही छंद 16-12 में विधान में लिखे जाते हैं। यह छंद चार पद में ही लिखा जाता है, जिसके पदांत में तुक मिलाई जाती हैं। प्रथम पद के सोलह मात्रा की चौकड़ यति भी तुकांत में शामिल होती है। अर्थात् कवि को एक चौकड़िया लिखने में पांच तुकांते चाहिए। जिसमें एक बार प्रयोग की गई तुकांत दुबारा प्रयोग नहीं लाई जानी चाहिए, भले ही उसका अर्थ अलग हो। अंतिम पद में कवि के नाम/उपनाम के साथ एक कथ्य संदेश भी रहता है। यह माना जाता है कि चौकड़िया का आरम्भ ईसुरी ने किया किन्तु टहूका छंद के नाम से लिखी जाने वाली चौकड़िया भी बुंदेली अंचल में विद्यमान रही है जिसका आरम्भ लोकसृजन के रूप में है अतः यह कब शुरू हुई इस पर विद्वानों में मतभेद हैं।
संग्रह की भूमिका में प्रो. बहादुर सिंह ने लिखा है कि ‘‘ चौकड़ियां छंद बुंदेलखण्ड में अत्यधिक लोकप्रिय व प्रचलित छंद है। इसको ऊंचाइयां देने में बुंदेली त्रयी कवि ईसुरी, ख्यालीराम और गंगाधर व्यास प्रमुख हैं। इनके बाद लगातार बुंदेली कवियों द्वारा चौकड़िया छंद में रचनाएं लिखीं जा रही है, जिनमें प्रकाश जी, अवधेश, शिवाजी चौहान, अवध किशोर जड़िया, गोपालदास रूसिया, मोहनदास गुप्त, नर्मदा प्रसाद गुप्त ‘प्रसाद’, गुणसागर सत्यार्थी, शिवानंद बुंदेला, कुंजीलाल पटेल, प्रेमनारायण पाठक, लक्ष्मी प्रसाद गुप्त, प्रमोद कवि जैसे आदि अनेक कवियों की सुदीर्घ परम्परा है। इसी परम्परा में श्री लल्लूमल चौरसिया ने चौकड़िया छंद में अपनी भावनाओं को व्यक्त किया है, जो चौकड़िया कलश के रूप में आपके समक्ष है।’’
महाराजा छत्रसाल बुंदेलखण्ड विश्वविद्यालय, छतरपुर (म.प्र.) की अध्ययनशाला एवं शोध केन्द्र के हिन्दी के आचार्य प्रो. बहादुर सिंह परमार ने इस काव्य संग्रह के प्रकाशन के पूर्व की स्थितियों पर जानकारी देते हुए लिखा है कि ‘‘रचनाकार श्री लल्लूमल चौरसिया मेरी उच्च शिक्षा की प्रारंभिक नौकरी के समय शासकीय महाविद्यालय, बिजावर में पुस्तकालयाध्यक्ष के रूप में साथ में कार्यरत रहें। तभी इनकी काव्य प्रतिभा से परिचय हुआ। समय गुजरता रहा लेकिन उनका संग्रह न आ सका। वृद्धावस्था के चलते उन्होंने पांडुलिपि मुझे सौंपी फिर भी प्रस्तुत संग्रह ‘चौकड़िया कलश’ का प्रकाशन बहुत दिनों से लंबित रहा। इनकी मूल रचनाओं का परिमार्जन अग्रज सुकवि गीतकार श्री सुरेंद्र शर्मा श्शिरीषश् द्वारा किया गया, उनकी स्वास्थ्यगत परेशानियों से उन्होंने मुझे निर्देशित किया कि इनका संपादन कर प्रकाशन करायें। आदेश को शिरोधार्य कर व्यस्तताओं के बीच प्रयास किया परिणाम आपके सामने है।’’
कवि लल्लूमल चौरसिया का जन्म 30 दिसम्बर 1943 को मध्यप्रदेश के छतरपुर जिले की बिजावर तहसील के ग्राम पीपट में हुआ था। उन्होंने मध्यप्रदेश शासन के उचच शिक्षा विभाग में पुस्तकालयाध्यक्ष के पद से सेवानिवृत्ति पाई तथा आज भी वे साहित्य सृजन एवं चिंतन में लीन रहते हैं। उनकी काव्य प्रतिभा चौकड़िया छंद में मुखरित हुई है। उनकी चौकड़िया ईसुरी का चौकड़ियों से यदि इक्कीस नहीं तो उन्नीस भी नहीं हैं। इनमें बुंदेली अंचल के लोकव्यवहार के सोंधेपन को स्पष्ट अनुभव किया जा सकता है। ‘‘वाँकी भूम बुन्देली न्यारी, हमें प्राण से प्यारी ’’ लिखते हुए कवि लल्लूमल चौरसिया ने बुंदेलखंड की भौगोलिक विशेषताओं को अपनी चौकड़िया में बड़े मनोहारी ढंग से पिरोया है-
केन धसान नर्मदा जाके, जीवन की संचारी।
विन्ध्यवासिनी चित्रकूट की, महिमा पर बलिहारी ।।
सबसें भूमि बुन्देली प्यारी, विपत विड़ारन वारी।
कुदवा समाँ बसारा कुटकी, जुन्डी की बलिहारी ।।
पिसी जवा उर धान लठारा, काकुन तन हितकारी ।
छप्पन भोग लगाकें इनके, मिटवै निरसइ सारी।।
कवि चौरसिया की इन पंक्तियों पर ध्यान दिया जाना जरूरी है जिसमें उन्होंने राह चलती स्त्री के प्रति उद्दण्ड लोगों के रवैये को लक्षित किया है और ऐसे लोगों के लिए ‘‘फरचट्टा’’ शब्द का प्रयोग किया है। कवि के अनुसार ऐसे लोग अवसर की तलाश में रहते हैं और राह चलती स्त्रियों को घूरते रहते हैं। यदि इन्हें अवसर मिल जाए तो ये ‘‘साख में बट्टा’’ लगाने से नहीं चूकते हैं -
कऊँ कऊँ अँगुरिन की दुबीच सें, सामूँ कछू निहारें।
कझ्यक एक झलक खाँ ठाँड़े, पलक पाँवड़े डारें।।
गुइयाँ डारन लगौ दुपट्टा, नजरन लागे गट्टा ।
पीठ पछारुं चर्चा सोइ, करन लगे फरचट्टा ।।
देखत डारें लार गली में, मारें वाज झपट्टा।
तनक चूक में देखौ बिन्नू, लगै साख में बट्टा ।।
फिर इसी तारतम्य में वे उस प्रेम भावना की भी बात करते हैं जिसमें परिष्कार है। कवि चौरसिया ने श्रृंगार रस को भी बड़ी सुंदरता एवं सहजता से व्यक्त किया है। वे कुशलता पूर्वक प्रेयसी नायिका एवं प्रिय नायक के मनोभावों को वर्णित कर देते हैं, किन्तु कहीं भी सीमाएं नहीं लांघते हैं-
हरदम नैनन डोलत रातीं, रूप अनूप दिखातीं ।
बिना तार के तार जोर कें, कानन में बतयातीं ।।
पकर स्वाँस की डोर हृदय को, मन माफिक धड़कातीं।
यौवन आँच लहू खाँ दैकें, रग-रग खाँ फड़कातीं ।।
गुइयाँ जब ऐंगर आ जातीं, हँसतीं और हँसातीं।
तन मन के सारे कष्टन कों, छिन में तुरत भुलातीं ।।
सूने जीवन के मरुस्थल में, नौने फूल खिलातीं।
छणिक मिलन में पुनः मिलन की, फिर-फिर ललक बड़ातीं ।।
लल्लूमल चौरसिया उनका सृजन श्रृंगार रस तक सीमित नहीं है। उन्होंने समाज में व्याप्त व्यसनों पर भी लक्ष्य किया है। बुंदेलखंड में ग्रामीण अंचल में लोगों को प्रायः आर्थिक विपन्नता से जूझना पड़ता है। उस पर यदि घर के मुखिया को ही ‘‘दारू खोरी’’ अर्थात् शराब पीने की आदत हो जाए तो घर का सत्यानाश होना तय है। इसीलिए कवि ने ‘दारू खोरी’ न करने का संदेश देते हुए चौकड़ियां लिखी हैं-
दारु पीकें रोटी खावें, नाहक जिंस नशावें।
टोरत कौर हाँत के काँपत, तरकारी लुड़कावें ।।
झूमत कौर लगे डाँड़ी में, सब मों तुरत भिड़ावें।
खात-खात थारी पै लुड़कें, झबलन लार बहावें ।।
दारु पीवौ छोड़ौ सइयाँ, परों तुमारी पड्याँ।
खुखलौ भओ करेजौ जरकें, तन में धज रइ नइयाँ ।।
भर ज्वानी में चबुआ बैठे, बन गइ कमर धनुइयाँ।
खों खों करौ रात भर लेटे, तनक परत कल नइयाँ।।
जो तुम चाहौ नेक भलाई, नशा छोड़ दो भाई।
दारु पियें गलिन में गिरकें, होश हवास गँवाई।।
पाँव उठाकें कूकर मूतै, जग में होत हँसाई।
सात पुस्त की इज्जत छिन में, माटी में मिल जाई ।।
दारु होश हवास विगारै, बुद्धि भ्रष्ट कर डारै।
मद के अंधे बने भेड़िया, कुकरम करम विचारै ।।
बेटी-बहु वैन के रिश्ते, मद में सबई बिसारै।
लोक लाज मरजाद नशा में, मन से तुरत उतारै।।
- इतना व्यवहारिक वर्णन एवं चेतावनी भरा संदेश देती ये चौकड़ियां लोकव्यवहार में जागरूकता लाने में सहायक हैं।
कवि चौरसिया ने देशद्रोहियों को भी निशाना बनाया है। उन्होंने लिखा है-
घर कौ भेदी भेद बताकें, छिन में लंका ढायें।
देश बचावें इन द्रोहिन खाँ, सूली पै लटकायें।।
वस्तुतः विगत कुछ दशकों से हिन्दी साहित्य में काव्य की पाश्चात्य शैली एवं अरबी-फारसी शैली ने अपना प्रभाव जमा लिया है। यह सच है कि शैलियों की विविधता एवं बहुसंख्यात्मकता साहित्य को समृद्ध करती है किन्तु अपनी मौलिक एवं देशज शैली को भूल कर या त्याग कर किसी अन्य शैली में रम जाना अपनी जड़ों से कटने के समान है। काव्य की देशज शैलियां हमेशा संबंधित अंचल की पहचान लिए हुए होती हैं। इस पहचान की पुनस्र्थापना की दिशा में ‘‘चौकड़िया-कलश’’ का प्रकाशित होना एक महत्वपूर्ण कदम है और निश्चत ही इस कदम का स्वागत किया जाना चाहिए। हां, इस हार्डबाउंड पुस्तक का मूल्य रुपये 395/- बहुत अधिक है अतः इसे पेपरबैक में कम मूल्य पर भी प्रकाशित किया जाना चाहिए, तब जन-जन तक पहुंचने का इसका असली उद्देश्य पूर्ण हो सकेगा।
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Saturday, November 25, 2023
टॉपिक एक्सपर्ट | पत्रिका | जड़कारे में अपने इते के पल्ली प्रेम की का कई जाए | डॉ (सुश्री) शरद सिंह
Thursday, November 23, 2023
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Wednesday, November 22, 2023
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Tuesday, November 21, 2023
पुस्तक समीक्षा | स्त्री, पुरुष और समाज के त्रिकोण का विश्लेषण करता उपन्यास | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण
Monday, November 20, 2023
'जनसत्ता' के वार्षिक अंक 'दीपावली 2023' में डॉ (सुश्री) शरद सिंह की कहानी "लव ट्रेंडिंग वाया मलूकदास"
ब्लॉग मित्रो, 'जनसत्ता' के वार्षिक अंक 'दीपावली 2023' में मेरी कहानी "लव ट्रेंडिंग वाया मलूकदास" प्रकाशित हुई है जिसके लिए मैं आदरणीय मुकेश भारद्वाज जी तथा प्रिय मृणाल वल्लरी जी की हार्दिक आभारी हूं जिन्होंने वार्षिकांक में मेरी कहानी को शामिल किया 🌹🙏🌹
Sunday, November 19, 2023
Article | Carefully Read ! Puranas Says Save Environment | Dr (Ms) Sharad Singh | Central Chronicle
Article
Carefully Read ! Puranas Says Save Environment
- Dr (Ms) Sharad Singh
Writer, Author & Social Activist
Blogger - "Climate Diary Of Dr (Ms) Sharad Singh"
We all want a good healthy life and to get it we do yoga, exercises and eat vitamin pills. We try our best to control our diet. We have understood that our modern lifestyle has started having a negative impact on our health. Unfortunately, we forget that these efforts are not enough to keep us healthy. If one wants to remain healthy then one has to keep the environmental elements like air, water, soil etc. clean. This is what has been explained in the Puranas. We read the Puranas as religious texts but do not try to understand their messages.
Our Indian civilization and culture seems to have started from the worship and worship of Prati since ancient times. Whose basis is fear and worship. Indian literature has its own special importance and that is why Puranas have a special place in Indian literature. In these, not only is there an explanation of the Nirguna meanings of the Vedas, apart from this, along with ritual worship and expansion of knowledge, there is also a mantra or source for the protection of the environment, which is an attempt to bring humans closer to nature and make them aware about doing good with it. Does. In the Puranas, yagyas were performed for the purification of the environment by those people who consider yagya to be performed only to fulfill one's work or wish. The elements of protecting the atmosphere of nature remained present through these yagyas. For this reason it is said in Padma Purana that-
Yagyenpyayita deva vrishtyutsargen manvah.
Apyayan Vai kurvati yagyah kalyan hetavah
That is, it is clearly said that the gods are nourished by Yagya, rains caused by Yagya sustain the life of humans and trees. That is, it is clear that these rivers were created not only to distribute the gods but also to preserve and protect them.
All types of Yagya are performed not only to please God but also to clean the elements that pollute the environment. At present, human attention is being attracted towards scientific concepts, ignoring these reasons for environmental protection. To protect the environment, the message of saving the life of trees, rivers, ponds and purifying the environment has been continuously given in the Puranas or in Indian literature. The Puranas serve as an inspiration to conserve and protect the environment. Matsya Purana clearly says-
Dashkoop samovapi dashvapisamohardah
Dashahridasam: Putro, Dashputrasam: Drumah
(Vidhan Parijat Section 4.A. 49)
That is, the virtue in building one lake is equal to the construction of ten wells and the virtue in building ten ponds is equal to the construction of one heart (huge lake). Ten huge lakes have been considered like a son. And planting of one tree was said to be equivalent to ten sons, that is, the highest ideal of life has been presented. In the Puranas, saving the environment has been linked to virtue. Many virtues have been attributed to the planting of trees in the Puranas, so that humans can also plant trees due to their virtues. It is said in the Shiv Purana that those who plant gardens and shade trees, go to Yamaloka without suffering. People who plant flowers in large quantities go to Yamaloka through Pushpak Vimana. Water has been said to sustain the entire living community because the environment is not only the basis of trees and human civilization, but water is also the main basis of the environment. Life cannot be imagined without water. Or it would be more appropriate to say that Panch Mahabhoot elements are the main basis of life because life cannot be imagined without them.
Paniyadanam Paramam Danamuttaman Tada
Sarvesham jeevapunjaanam tarpanam jeevanam smashtam
According to the Puranas, the virtuous work of serving the entire creation is accomplished by serving trees. Irrigation with water has a paramount place in the service of trees. Getting enough water protects the life of trees, they grow faster, the creatures dependent on them get happiness and the environment improves. In Skanda Purana, Bhavishya Purana and other Puranas too, there is a provision of watering trees like Tulsi, Peepal and Bael etc. with religious significance, which is prevalent even today in our religious beliefs. Rishis and scholars who do research on human consciousness believe that the hard work and effort a person spends in the service of the Lord reduces his sins, increases the power of virtue and due to its effect, all kinds of sorrows and misfortunes are removed and happiness and good fortune are obtained. arises. This earning is not done without hard work but in exchange for penance. The presence of sacred trees under the pretext of water irrigation gives us good thoughts and the power to follow them and refines our personality.
Sechanadapi vrikshasya ropitasya paren tu.
Mahatphalamvaapnoti natra karya vicharana.'
(Vishnuttara Purana 3.297)
That is, irrigating a tree planted by someone else also yields great fruits, there is no need to think about it.
All humans should make stepwells (ponds). When water is drawn from a well or comes out, it eliminates half of the sins of the sinful person. Takes away all the sins of man. The one whose cow, Brahmin, sage, saint and sage drink water from the dug pond, he saves his entire clan. If we want the welfare of the environment, then its edification is necessary and sages have given indications through mantras to save the environment. If present day humans adopt these tips, then our world will not fall victim to this modernity and the entire world will become free from environmental pollution. Mahatmas, sages and monks have said that those who plant trees at inaccessible places save their past and future generations, for which planting trees is very important and the environment will continue to be protected and protected. Explaining the usefulness of trees in the Bhavishya Purana, it has been said that at that time the area around ten feet from the root of the tree was considered to be the best area, and as far as its shadow extends, the water flowing in contact with a healthy tree is as far as that area. The area it reaches is considered as sacred as the sanctity of the Ganga. Aayu Vedic tree science has been described in Agni Purana. After achieving the goal in the north direction of the planet, Banyan in the East, Mango in the South and a healthy Peepal tree in the South is considered Mars. A thorny tree growing in the south direction near the house is also auspicious. A garden should be built near the residence.
Actually in almost all the Puranas i.e. Vishnu Purana, Agni Purana, Natsya Purana, Varaha Purana, Vamana Purana and other Puranas, instructions related to environmental protection have been given, all that is needed is to understand them.
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Thank you Central Chronicle 🙏
(19.11.2023)
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