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My Editorials - Dr Sharad Singh

Sunday, June 30, 2024

टॉपिक एक्सपर्ट | पत्रिका | जे दंगल से कबे छुटकारा मिलहे | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

पत्रिका | टॉपिक एक्सपर्ट | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली में
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टाॅपिक एक्सपर्ट
जे दंगल से कबे छुटकारा मिलहे
    - डॉ (सुश्री) शरद सिंह       
         आप ओरें सोच रए हुइयो के जे हमें दंगल की कां से सूझ रई, अबे तो नागपंचमी लो नई आई? आप ओरन को सोचबो सई आए, काए से असली दंगल तो नागपंचमी से चालू होत आए। बाकी रई लड़बे के लाने ताल ठोंकबे वारों की, सो बे ओरें तो कभऊं बी दंगल कर सकत आएं। अबई कछू दिनां पैले मकरोनिया नगरपालिका में दंगल भओ रओ। खुद पार्षद हरें बोले के इते धांधली मची आए। अब उन ओरन ने कई, सो सांची कई हुइए। ई बारे में उनसे ज्यादा को जान सकत आए? मनो हम बा टाईप के दंगल की नईं कै रए। काए से के ऐसे दंगल होत रैने चाइए, ईसे भैया हरों की पोल-पट्टी खुलत रैत आए। सो बा दंगल तो ठीक आए।
       बाकी हम तो ऊ वारे दंगल की कै रए, जोन आए दिनां सड़कों पे होत रैत आए। कभऊं गैंया-गैंया लड़न लगत आएं, सो कभऊं बैलवा-बैलवा लड़न लगत आएं। उने का परी के उनके बा दंगल से कोनऊं के हाथ-गोड़े टूट रए के, ट्रैफिक जाम भओ जा रओ। औ अपने इते के फंकाई मास्टर “पशु विचरण मुक्त” रोडन की फंकाई देत रैत आएं। सबरी रोडें जरूर मिटी डरी आएं औ जे छुट्टा-छोर ढोरन को दंगल जारी आए। अरे, जो इते जे छुट्टा ढोरन खों पकरबे वारे ने होंय, सो बाहरे से किराए पे बुला लेओ। बा, तला की सफाई के लाने औ राजघाट के पानी चढ़ाबे के लाने तो मुतकी बेर किराए की मशीनें मंगा चुके, ई दार कछू ढोर पकरबे वारे बुला लेओ। काय सई कई के नईं?
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Thank you Patrika 🙏
Thank you Dear Reshu Jain 🙏
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Friday, June 28, 2024

शून्यकाल | राजनीति का एक बेहद रोचक किस्सा - “बॉबी” वर्सेस “बाबूजी | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर

दैनिक नयादौर में मेरा कॉलम "शून्यकाल"

   राजनीति का एक बेहद रोचक किस्सा - “बॉबी” वर्सेस “बाबूजी"

 - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह         

       राजनीति हमेशा दिलचस्प होती है, विशेष रूप से उन लोगों के लिए, जो राजनीति में दिलचस्पी रखते हैं। जब राजनीतिक इतिहास के पन्ने पलटे जाते हैं तो अनेक रोचक किस्से सामने आते हैं। जो राजनेताओं पद, कद और प्रभाव के बारे में बताते ही हैं, तत्कालीन जनमानस का लेखा-जोखा भी प्रस्तुत करते हैं। ऐसे किस्से सभी लोगों को बेहद पसंद आते हैं भले ही राजनीति में उनकी रुचि हो अथवा न हो । ऐसा ही एक रोचक किस्सा है “बॉबी” वर्सेस “बाबूजी”।
  निर्माता-निर्देशक राजकपूर की सुपरहिट फिल्म ‘‘बाॅबी’’ आज भी देखने वालों को रोमांचित कर देती है। सन् 1973 में रिलीज़ हुई इस फिल्म में अभिनेता ऋषि कपूर और अभिनेत्री डिंपल कपाड़िया ने युवा प्रेमी जोड़े का रोल निभाया था। इस फिल्म का सबसे सुपरहिट गाने ‘‘झूठ बोले कौव्वा काटे, काले कव्वे से डरियो’’ के गीतकार थे  विट्ठल भाई पटेल। वे गीतकार थे, समाजसेवी थे और एक राजनीतिज्ञ भी थे। विट्ठल भाई पटेल सुरखी विधान सभा से दो बार विधायक बने। पहली बार सन् 1980 में और दूसरी बार सन् 1985 में। वैसे सुरखी विधान सभा सीट अपने आरम्भ काल से ही महत्वपूर्ण रही है। सन् 1951 में प्रतिष्ठित स्वतंत्रता संग्राम सेनानी पंडित ज्वालाप्रसाद ज्योतिषी कांग्रेस से चुनाव जीते थे। 
   उस समय विट्ठल भाई पटेल सुरखी से विधायक तो नहीं बने थे किन्तु राजनीति में सक्रिय थे और स्व. राजकपूर से भी उनके अच्छे संबंध थे। इसलिए जब राजकपूर ने ‘‘बाॅबी’’ फिल्म का निर्माण शुरू किया तो विट्ठल भाई पटेल से उन्होंने गीतों की मांग की। विट्ठल भाई पटेल  ने उन्हें गीत लिख कर दिए ओर जैसाकि सभी जानते हैं कि इस फिल्म का विट्ठल भाई पटेल द्वारा लिखा गया गीत ‘‘झूठ बोले कौव्वा काटे’’ सुपरहिट तो हुआ ही, साथ ही किसी मुहावरे की तरह लोगों की ज़बान पर चढ़ गया। यहां मैं जिस घटना की चर्चा करने जा रही हूं वह फिल्म ’’बाॅबी’’ के रिलीज़ के समय की है। उन दिनों हर शहर में या हर टाॅकीज़ में एक साथ फिल्म रिलीज नहीं होती थी, जैसे कि आजकल सैटेलाईट के कारण हो पाती है। ‘‘बाॅबी’’ जहां-जहां रिलीज़ हुई, वहां-वहां उसने रिकार्ड तोड़ दर्शकों की भीड़ हासिल की। कहां जाता है कि उन दिनों ‘‘बाॅबी’’ को देखने वाले ऐसे दर्शक भी थे जिन्होंने लगातार दस-दस दिन तक उस फिल्म को टाॅकीज़ में देखा। विट्ठल भाई पटेल का लिखा गाना ‘‘झूठ बोले कौव्वा काटे’’ बच्चे-बच्चे की जुबान पर था। 
     “बॉबी” की कहानी कोई नई नहीं थी। वही अमीरी और गरीबी के बीच का प्रेम। एक अमीर बाप अपने बेटे के लिए गरीब घर की लड़की को बहू के रूप में स्वीकार नहीं करता है और इस प्रेमी जोड़े को अलग करने में जुड़ जाता है। लेकिन शो में इंद्राज कपूर जानते थे की घिसी पिटी कहानी को भी किस तरह से गरमा गरम परोसा जा सकता है। उन्होंने डिंपल कपाड़िया को हीरोइन के रूप में चुनकर ऐसा धमाका किया कि यह फिल्म सुपर डुपर हिट साबित हुई । लेकिन इसके हिट होने से पहले एक मामला ऐसा भी था जहां शो में राज कपूर को भी झुकना पड़ा। इसका अंत राज कपूर ने पहले यह तय किया था की हीरो और हीरोइन फिल्म के अंत में समुद्र में कूद कर अपनी जान दे देते है।  जब फिल्म वितरकों को कहानी के अंत का पता चला तो उन्होंने राज कपूर से अनुरोध किया कि वे इस अंत को बदलकर सुखांत कर दें। दर्शक हीरो हीरोइन दोनों का इस तरह से मरना स्वीकार नहीं करेंगे फिल्म फ्लॉप हो जाएगी । इसके पहले राज कपूर की ‘‘मेरा नाम जोकर’’ फ्लॉप हो चुकी थी। वे एक और आर्थिक झटका बर्दाश्त करने को तैयार नहीं थे इसलिए उन्होंने फिल्म का क्लाइमेक्स बदलना स्वीकार कर लिया। यह सातवीं फिल्म थी जिसे ख्वाजा अहमद अब्बास ने राज कपूर के लिए लिखा था।
    अपने रिलीज़ के पांच साल बाद भी ‘‘बाॅबी’’ की लोकप्रियता सिरचढ़ कर बोल रही थी। बात जनवरी 1977 की है।  18 जनवरी 1977 को प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने लोकसभा चुनाव करवाने की घोषणा कर दी। राजनीति के जानकारों के अनुसार आपातकाल समाप्त करने की यह घोषणा आपातकाल लागू होने की घोषणा की तरह चैंकाने वाली थी। जनवरी 1977 में चुनावों की घोषणा करते हुए इंदिरा गांधी का कहना था, ‘‘करीब 18 महीने पहले हमारा प्यारा देश बर्बादी के कगार पर पहुंच गया था। राष्ट्र में स्थितियां सामान्य नहीं थी। चूंकि अब हालात स्वस्थ हो चुके हैं, इसलिए अब चुनाव करवाए जा सकते हैं।’’
      देश में आपातकाल लागू हुए 19 महीने बीत चुके थे। उस समय तक इंदिरा गांधी और बाबू जगजीवन राम के बीच वैचारिक मतभेद आरम्भ हो चुका था। आपातकाल के समर्थन में लोकसभा में प्रस्ताव लाने वाले बाबू जगजीवन राम ने बाद में कांग्रेस से इस्तीफा देकर जनता पार्टी के साथ 1977 का चुनाव लड़ने का मन बना लिया था। क्यों कि आपातकाल के दौरान संविधान में इस हद तक संशोधन कर दिए गए कि उसे ‘कंस्टीट्यूशन ऑफ इंडिया’ की जगह ‘कंस्टीट्यूशन ऑफ इंदिरा’ कहा जाने लगा था। उसमें ऐसे भी प्रावधान जोड़ दिए गए थे कि सरकार अपने पांच साल के कार्यकाल को कितना भी बढ़ा सकती थी। विपक्ष के सभी बड़े नेता जेलों में कैद थे और कोई नहीं जानता था कि देश इस आपातकाल से कब मुक्त होगा। किन्तु 18 जनवरी 1977 को आपातकाल के समापन की घोषणा कर दी गई। लेकिन तब तक देर हो चुकी थी। कांग्रेस के कद्दावर जमीनी नेता बाबू जगजीवन राम ने कांग्रेस से इस्तीफा देकर जगजीवन राम ने अपनी नई पार्टी ‘कांग्रेस फॉर डेमोक्रेसी’ बनाई। उन्होंने यह भी घोषणा की कि उनकी पार्टी जनता पार्टी के साथ मिलकर ही चुनाव लड़ेगी ताकि बंटे हुए विपक्ष का लाभ कांग्रेस को न मिल सके। माना जाता है कि 1977 में उनके कांग्रेस से अलग होने के कारण जनता पार्टी को दोगुनी मजबूती मिल गई थी।
      5 अप्रैल, 1908 को बिहार के भोजपुर में जन्मे जगजीवन राम स्वतंत्रता संग्राम में भी सक्रिय रहे थे। 1946 में जब जवाहरलाल नेहरु की अध्यक्षता में अंतरिम सरकार का गठन हुआ था, तो जगजीवन राम उसमें सबसे कम उम्र के कैबिनेट मंत्री बने थे। उनके नाम सबसे ज्यादा समय तक कैबिनेट मंत्री रहने का रिकॉर्ड भी दर्ज है। वे 30 साल से ज्यादा समय केंद्रीय कैबिनेट में मंत्री रहे। उनके कांग्रेस से अलग होने पर कांग्रेस को नुकसान तो पहुंचना ही था। वे बहुत अच्छे वक्ता थे। उन्हें सुनने के लिए भीड़ उमड़ पड़ती थी। उन दिनों लोकनायक जयप्रकाश नारायण कांग्रेस के खिलाफ रैलियों पर रैलियां कर रहे थे। पटना, कलकत्ता, बॉम्बे, मद्रास, चंडीगढ़, हैदराबाद, इंदौर, पूना और रतलाम में जनसभाएं करते हुए मार्च की शुरुआत में वे दिल्ली पहुंच गए। मार्च 1977 के ही तीसरे हफ्ते में चुनाव होने थे। बाबू जगजीवन राम ने घोषणा की कि छह मार्च को दिल्ली में एक विशाल जनसभा का आयोजन किया जाएगा। कांग्रेस इस घोषणा से सतर्क हो गई। उसे पता था कि बाबू जगजीवन राम में वह क्षमता है कि वे अपने भाषण से हजारों लोगों की भीड़ जोड़ कसते हें और उन्हें प्रभावित कर सकते हैं।
        कांग्रेस ने बाबू जगजीवन राम के इस प्रभाव को तोड़ने के लिए एक दिलचस्प चाल चली। जिस समय दिल्ली में बाबू जगजीवन राम की सभा होनी थी ठीक उसी समय दूरदर्शन पर फिल्म ‘बॉबी’ का  प्रदर्शन करा दिया। उन दिनों छोटे शहरों में तो दूरदर्शन का नामोनिशान नहीं था लेकिन बड़े शहरों और महानगरों में दूरदर्शन तेजी से आमजनता के जीवन से जुड़ता जा रहा था। वह दौर था जब दूरदर्शन पर हर तरह के कार्यक्रम लोग बड़े चाव से देखते थे। ऐसे समय ‘‘बाॅबी’’ जैसी सुपरहिट फिल्म घर बैठे देखने को मिल रही हो तो उसे भला कौन छोड़ना चाहता। ‘‘बाॅबी’’ के इसी आकर्षण को सियासी हथियार के रूप में प्रयोग में लाया गया। इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने अपनी पुस्तक ‘इंडिया आफ्टर गांधी’ में इस घटना का उल्लेख किया है। कांग्रेस तय मान कर बैठी थी कि ‘‘बाॅबी’’ का आकर्षण बाबूजी अर्थात् बाबू जगजीवनराम की सभा पर भारी पड़ेगा और उन्हें श्रोता नहीं मिलेंगे। लेकिन कांग्रेस का अनुमान गलत साबित हुआ। लगभग दस लाख लोगों की भीड़ सभा में जुड़ गई और सभी ने रुचिपूर्वक बाबू जगजीवन राम और जयप्रकाश नारायण का भाषण सुना। दूसरे दिन सुबह दिल्ली के अंग्रेजी अखबारों में हैडलाइन  थी-‘‘बाबूजी बीट्स बाॅबी’’ अर्थात् बाबूजी ने बाॅबी को हरा दिया। 
      आज भी राजनीतिक गलियारों में जब ‘‘बाॅबी’’ और ‘‘बाबूजी’’ की चर्चा होती है तो इस घटना का जिक्र जरूर होता है। फिल्म गीतकार और राजनीतिज्ञ स्व. विट्ठल भाई पटेल की फिल्मी पहचान बन गई ‘‘बाॅबी’’ उनके दो बार सुरखी क्षेत्र से विधायक बनने के बाद भी अमिट बनी रही। राजनीति और फिल्मी दुनिया के बीच ‘‘बाॅबी’’, ‘‘बाबूजी’’ और विट्ठल भाई पटेल का त्रिकोण कभी भुलाया नहीं जा सकता है, यह इतिहास के पन्ने पर एक दिलचस्प राजनीतिक दांव-पेंच के रूप में दर्ज़ हो चुका है। 
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Thursday, June 27, 2024

बुंदेली छटा के प्रकाश में मंचित हुई फणीश्वरनाथ रेणु की 'पंचलाईट' कला समीक्षक - डॉ (सुश्री) शरद सिंह

हार्दिक धन्यवाद #दैनिकभास्कर मेरी नाट्य समीक्षा प्रकाशित करने के लिए 🙏
       कल शाम स्थानीय रवींद्र भवन में दिव्य रंग एकता वेलफ़ेयर फाउंडेशन ने रवींद्र भवन में “पंचलाइट - एक प्रेम कहानी” का मंचन किया गया। यह नाटक फणीश्वर नाथ रेणु की कहानी "पंचलाइट" पर आधारित है। “पंचलाइट - एक प्रेम कहानी” नाटक की विशेषता यह थी कि उसे बिहार अंचल से उठाकर ठेठ बुंदेलखंड के परिवेश में ढाल दिया गया। बुंदेली कॉस्टयूम, बुंदेली मंच-सज्जा और बुंदेली संवाद। कहानी का एक बुंदेली परिवेश के नाटक के रूप में बहुत ही खूबसूरती से रूपांतरण किया गया। इसका बुंदेली रूपांतरण, परिकल्पना एवं निर्देशन  डॉ. अनामिका सागर ने किया तथा संगीत परिकल्पना थी डॉ अश्विनी सागर की।
     इस सफल मंचन के लिए Dr-Anamika Sagar एवं Ashwini Sagar तथा उनकी टीम को हार्दिक बधाई 💐
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पूरी समीक्षा यहां दे रही हूं....
नाट्य समीक्षा
बुंदेली छटा के प्रकाश में मंचित हुई फणीश्वरनाथ रेणु की 'पंचलाईट'
   कला समीक्षक - डॉ (सुश्री) शरद सिंह

     दिव्य रंग एकता वेलफ़ेयर फाउंडेशन ने रवींद्र भवन में “पंचलाइट - एक प्रेम कहानी” का मंचन किया गया। यह नाटक फणीश्वर नाथ रेणु की कहानी "पंचलाइट" पर आधारित है। रेणु हिंदी साहित्य में आंचलिक लेखन के लिए जाने जाते हैं और उनकी इस कहानी में भी बिहार के पूर्णिया अंचल का ग्रामीण परिवेश महसूस किया जा सकता है। यह कहानी उसे समय की है जब पंचलाइट अर्थात पेट्रोमैक्स का चलन शुरू ही हुआ था। इसे उपयोग में लाना सभी नहीं जानते थे। पेट्रोमैक्स को जलाने के दिलचस्प घटनाक्रम में परवान चढ़ता है एक युवा जोड़े का प्रेम। यह कहानी गांव में पाई जाने वाली मासूमियत और सामाजिक गौरव के महत्व के साथ ज्ञान कौशल के महत्व को भी स्थापित करती है।
    “पंचलाइट - एक प्रेम कहानी” नाटक की विशेषता यह रही कि उसे बिहार अंचल से उठाकर ठेठ बुंदेलखंड के परिवेश में सफलतापूर्वक ढाल दिया गया। बुंदेली कॉस्टयूम, बुंदेली पंचायत एवं खेत का इफेक्ट वाली मंच-सज्जा और बुंदेली संवाद। बिहारी कहानी का एक बुंदेली परिवेश के नाटक के रूप में बहुत ही खूबसूरती से रूपांतरण किया गया। इसका बुंदेली रूपांतरण, परिकल्पना एवं निर्देशन  डॉ. अनामिका सागर ने किया तथा संगीत परिकल्पना थी डॉ अश्विनी सागर की।
     कथानक कुछ यूं है कि गांव के एक युवक गोधन का मुनरी नामक लड़की से प्रेम है जिससे नाराज़ होकर पंचायत ने उसका बहिष्कार कर रखा है। एक दिन मेले से गांव वाले सार्वजनिक उपयोग के लिये पेट्रोमैक्स खरीद कर लाते हैं,  जिसे वे पंचलाइट या पंचलैट कहते हैं। पेट्रोमैक्स जालना गोधन के अलावा और कोई नहीं जानता था। यह बात सिर्फ मुनरी को पता थी। मुनरी उचित अवसर को भांपती हुई गांव वालों तक यह जानकारी पहुंचा देती है। गोधन पेट्रोमैक्स जला देता है जिसके एवज में गोधन का बहिष्कार समाप्त कर दिया जाता है और प्रेम एक बार फिर पाबंदियों से मुक्त हो कर खिल उठता है। रेणु की यह कहानी अधिकांश लोगों ने पढ़ी होगी किंतु इसका बुंदेली में मंचन देखना अपने आप में एक अलग ही अनुभव है।         
          आशुतोष बनर्जी, अनुभव श्रीवास, ऋषिका, अमित, अनामिका, अश्विनी, सोनाली, सत्यम, विक्रम, सतीश, शिवम, गोलू ने अपने अभिनय से दर्शकों का दिल जीत लिया । हास्यपरक, चुटिले संवादों पर बार-बार ठहाके घूमते रहे और तालियां बजती रहीं। तारीख़ नगीना की मंच व्यवस्था कथानक के अनुरूप प्रभावी थी तथा  महबूब ख़ान के लाइट इफेक्ट ने हर दृश्य को जीवंत कर दिया। वहीं बैकस्टेज से अर्पित, विवेक,नरेश, अंकिता, विपिन, रामसिंह, एकता, मोनिका ने मंचन को बखूबी सपोर्ट दिया ।
     स्थानीय रवींद्र भवन में बुधवार शाम  बिहार अंचल के कथानक का रोचक बुंदेली नाट्य रूपांतर अपने-आप में एक दिलचस्प प्रस्तुति रही, जिसे प्रत्येक दर्शक ने जी भर कर सराहा। एक अच्छे नाटक का मंचन न केवल मन मोह लेता है, बल्कि अपने पीछे एक बड़ा संदेश भी छोड़ जाता है और यह नाटक अपने इस उद्देश्य में सफल रहा। 
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बतकाव बिन्ना की | बाप-मताई तनक अपनों सोई खयाल राखियो | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम

बुंदेली कॉलम | 'प्रवीण प्रभात' में
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बतकाव बिन्ना की

बाप-मताई तनक अपनों सोई खयाल राखियो !
   - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह

‘रामधई बिन्ना, जो का होन लगो आजकाल?’’ भैया मोय देखतई साथ बोल परे।
‘‘का हो गओ भैयाजी?’’ मैंने पूछी।
‘‘अब का बताए तुमें? खबरें पढ़-पढ़ के तो हमाओ करेजा मों को आ रओ।’’ भैयाजी बोले।
‘‘भओ का? कछू तो बताओ आप!’’ अब मोए भैयाजी की चिंता-सी होन लगी। तभई उते भौजी आ गईं, सो मैंने उनसे पूछी,‘‘काए भौजी? जे भैयाजी खों का हो गओ? आज अजब-सी बातें कर रए?’’
‘‘अरे इनकी ने कओ! बाकी हमाओ सोई जी खराब हो रओ।’’ भौजी बोलीं।
‘‘मनो, ऐसो हो का गओ? अब आप ओरें बुझव्वल ने बुझाओ, जल्दी बताओ के का हो गओ?’’ अब मोए औरई चिंता होन लगी।
‘‘बिन्ना, अपन ओरे लरकोरे से पढ़त आ रए के बाप-मताई देवी-देवता घांई होत आएं। सो, उनकी सेवा करो चाहिए। अपने इते तो मुतकी किसां आएं ई टाईप की जीमें चाए बेटा हो, चाए बेटी होय चाए बहू होय, सबई बाप-मताई की सेवा करत्ते औ उनको कैना मानत्ते।’’ भौयाजी बोले।
‘‘हऔ बा सरवन कुमार नोईं रओ जोन के बाप-माई अंधरा हते, औ बे तीरथ के लाने जाओ चात्ते। सो, सरवन कुमार ने दोई जनों खों टुकनिया में बिठा के कांवर घांई अपने कंधा पे लाद के तीरथ यात्रा कराई हती। बा तो राजा दशरथ ने सरवन कुमार खों तीर ने मारो होतो तो बा अपने बाप-मताई की औरई सेवा करतो।’’ भौजी बोलीं।
‘‘हऔ, सरवन कुमार खों मारबेई के कारण तो ऊके बाप-मताई ने राजा दशरथ खों शाप दे दओ रओ के तुमने हम अंधरन को मोड़ा मार डारो, सो तुमे सोई अपने सबसे लाड़ले बेटा की जुदाई झेलने परहे। जेई से तो रामजी खों बनवास जाने परो औ दशरथ खों उने याद कर-कर के अपने प्रान त्यागने परे।’’ भैयाजी ने अपने स्टाईल में आगे की किसां सुना दई।
‘‘हऔ सो, रामजी सोई इत्ते आज्ञाकारी हते के उन्ने बिगैर कोनऊं बहस करे बनवास एक्सेप्ट कर लओ हतो। जो आजकाल को कोनऊं मोड़ा होतो तो जेई कैतो, के हारे जाने तो तुम ओरें जाओ, हम तो इतई राज करबी। ऊंसई आप ओरन को रियाटरमेंट को समै आ गओ आए।’’ भौजी बोलीं।
भौजी की किसां सुनाबे की स्टाईल पे मोय हंसी आ गई।
‘‘तुमे हंसी आ रई? तुमाई भौजी सांची कै रईं। जो आजकाल के मोड़ा होंय तो घर से निकरबे की कैने पे मताई-बाप खों लुघरिया छुबा दें। औ ऊपे बहू बोलहे के पैले हमाओ हींसा दे देओ फेर हम ओरें तो ख्ुादई चले जाबी।’’ भैयाजी बोले।
‘‘औ का, सीता मैया घांई थोड़े, के बिगैर कछू बोले मूंड़ झुकाए रामजी के संगे महल से कढ़ गईं। जै हो सीता मैया की!’’ भौजी अपने दोई हाथ जोरत भई बोलीं।
‘‘जे आप ओरें आज कोन टाईप की बतकाव कर रए? मोय तो जेई समझ ने आ रई के सरवन कुमार औ रामजी के बनवास से आप ओरन के टेंशन को का लेबो-देबो?’’ मैंने दोई से पूछी।
‘‘अरे तुमने अखबार में पढ़ी नईं का, के आजकाल कित्ती खबरे जेई टाईप की आ रईं के कऊं मोड़ा ने बाप-मताई खों लठिया मार डारो, सो कऊं बहू ने दोई खों कैद कर दओ। को जाने कोन सो जमानो आ गओ।’’ भैयाजी बोले।
‘‘अरे, जे सोचो के पैले तो जेई होत्तो की कोनऊं दारूखोर मोड़ा अपने बाप खों, ने तो मताई खों कूटत-पीटत्तो, वा बी दारू के पइसा के लाने। पर बे सबरे अनपढ़ गंवार दारूखोर होत्ते। अब देखो, अब तो अच्छे पढ़े-लिखे मोड़ा, बहू अपने बाप-मताई औ सास-ससुर के लाने जमराज बने जा रए।’’ भौजी बोलीं।
‘‘हऔ, मैं समझ गई के आप बा लुगाई के बारे में कै रई न जोन ने अपने सास-ससुर के कमरा के आगे दीवार बनवा दई। जींसे कोऊं ने उनसे मिल सके औ ने बे कऊं निकर सकें। औ बा लुगाई अच्छी पढ़ी-लिखी आए। अपनो स्कूल सोई चलात आए। अब तनक सोचो के ऊके स्कूल में मोड़ा-मोड़ी का सीख-पढ़ रए हुइएं?’’ मैंने कई। काए से के बा खबर मैंने सोई पढ़ी रई। बा तो सासबाई ने कैसऊं बी कर के मोबाईल पे अपनो वीडियो बनाके रिस्तेदारन खों भेज दओ। सो रिस्तेदारन ने कलेक्टर से शिकायत करी औ कलेक्टर ने उन ओरन की खोज-खबर लई।
‘‘देख तो बिन्ना, जेई तो मोय लगो के बा कैसी लुगाई हती? औ चलो मान लओ के बा बुरई लुगाई हती, मनो ऊको बेटा भले बाहरे रैत्तो, पर का ऊको अपने बाप-मताई की तनकऊं सुध ने हती? औ बा उन ओरन को पोता? बा सोई अपनी मताई के करम ने देख पा रओ हतो? औ बा दीवार जादू की छड़ी घुमाए से तो ने बन गई हुइए? ऊको बनत में कछू तो टेम लगो हुइए। औ बने के बाद का ऊने ने देखो? का जाने कोन टाईप के लोग आएं बे?’’ भौजी बोलीं।
‘‘हऔ, औ दूसरे दिनां एक खबर पढी के पइसा के लाने मोड़ा ने अपनी बुड्ढी मताई खों लठिया से पीट-पीट के मार डारो। तीसरे दिना फेर जेई टाईप की एक औ खबर पढ़ी। रामधई मोरो तो जी घबड़ान लगो आए के जो हो का रओ? का मोड़ा-मोड़ी खों अपने बाप-मताई से तनकऊ मोह ने बचो?’’ भैयाजी उदास होत भए बोले।
‘‘अपनो जी छोटो ने करो भैयाजी! सबरे मोड़ा ऐसे नईं होत आएं। कोनऊं-कोनऊं ऐसे राच्छस होत आएं, ने तो बाकी तो अपने बाप-मताई की खूब सेवा करत आएं।’’ मैंने भैयाजी खों समझाई।
‘‘काय की सेवा? बे अपनो कैरियर बनाबे में जुटे रैत आएं। बस, इत्तो रैत आए के पैले उनके लाने बाप-मताई पइसा भेजत रैत आएं औ बाद में बे ओरें अपने बाप-मताई के लाने पइसा भेजत आएं। संगे रै के सेवा को कर रओ?’’ भैयाजी बोले।
‘‘औ का! संगे रैने की का, संगे राखत लौं नईयां। हंा, बाकी ब्याओ हो जाए औ डिलेवरी होबे वाली रए सो मताई की, ने तो सासूबाई कों संगे राखबे की जरूरत पर जात आए। औ बच्चा जो तनक आया के पालबे जोग हो जात आए सो मताई खों दूध की मक्खी घांई मेंक दओ जात आए।’’ भौजी बोलीं।
‘अब सबई इत्ते निठुर नईं रैत आएं।’’ मैंने कई। बाकी भौजी औ भैयाजी की बात में दम तो हती। सो मैंने आगे कई, ‘‘भौजी, जेई से तो सरकार ने मताई-बाप के लाने कानून बनाए आएं, के जो चाए मोड़ा होय, चाए बहू होए, जो कोनऊं बाप-मताई खों ठीक से ने राखे तो थाना से ले के कचहरी लौं खटखटाओ जा सकत आए। मनो, होत का आए के बाप-मताई जेई से डरात रैत आएं के जो हम अपनईं बच्चा हरों की शिकायत ले के कऊं जैहें तो उनके बच्चा हरों की समाज में बदनामी हुइए। अरे, जे सोचो चाइए के जोन बच्चा हरों की बे इत्ती फिकर कर रए, बेई उनके प्रान लेबे खों उधारे फिर रए। मैं सब की नईं कै रई। मनो जोन के इते ऐसी समस्या होय, सो ऊको समाज से, थाना, कचहरी से मदद मांगबे में देर नईं करो चाइए। बा सासू बाई ने सई करी, के अपने रिस्तेदारन खों बताओ के उनकी बहू ने उने कैद कर दओ आए। ने तो बे उतई पिड़े-पिड़े देाई रामजी के इते चले जाते औ कोनऊं खों खबरई ने होती।’’ मैंने भैयाजी औ भौजी से कई।
‘‘हऔ बिन्ना! अब तो बाप-मताई से जेई कैबो को जी करत आए के ‘बाप-मताई तनक अपनों सोई खयाल राखियोे!’ बच्चों की फिकर करबो ठीक आए, पर अपने बुढ़ापा की फिकर सोई कर लेओ। जो आंगू चल के बच्चा हरों ने संगे ने राखो तो रहबे-खाबे को अपनो इंतजाम सो होनो चाइए। काय सई कई के नईं?’’ भैयाजी ने मोसे पूछी।
‘‘आपने बिलकुल सई कई भैयाजी! जो बाप-मताई अपने लाने कछू इंतजाम कर के राखहें तो उनकी जिनगी में उनके काम आहे औ उनके बाद उनके मोड़ा-मोड़ी खों तो बा मिलई जैहे। औ जो बाप-मताई बच्चन पे ने लदहें तो बे ओरें कछू ज्यादई खयाल राखहें। मोय तो जेई लगत आए।’’मैंने भैयाजी से कई।
‘‘हऔ बिन्ना जमानो खराब चल रओ। बाप-मताई खों सोई जमाना के हिसाब से चलो चाइए।’’ भौजी बोलीं।    
मनो आप ओरें कोनऊं बेफालतू की चिंता में ने परियो, काय से के सबई बच्चा बुरे नईं होत आएं। हां, सावधानी राखें में कोनऊं हरजा नोंईं। बाकी बतकाव हती सो बढ़ा गई, हंड़ियां हती सो चढ़ा गई। अब अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लों जुगाली करो जेई की।
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Wednesday, June 26, 2024

चर्चा प्लस | पेपरलीक का भस्मासुर और युवाओं का भविष्य | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस   
पेपरलीक का भस्मासुर और युवाओं का भविष्य
    - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                                        
      चाहे अधिकारी हों, नेता हों, शिक्षक या पत्रकार हों, अभिभावक हों अथवा नीति निर्धारक हों, सभी को अपने उन दिनों को याद करना चाहिए जब वे स्वयं विद्यार्थी थे। एक विद्यार्थी के लिए किसी भी परीक्षा का महत्व कितना अधिक होता है और उसके लिए उसे कितनी अधिक मेहनत करनी पड़ती है यह विद्यार्थी ही समझ सकता है। हम सभी विद्यार्थी जीवन के उसे दूर से गुजरें हैं। पेपर लीक होना यानी विद्यार्थियों की मेहनत पर पानी फिरना। यह ठीक उसी तरह है जैसे सीढ़ियां चढ़ चुके किसी इंसान को अचानक धक्का देकर नीचे गिरा दिया जाए और उससे कहा जाए कि एक बार फिर चढ़ो! क्या वह इंसान उसी ऊर्जा से दोबारा सीढ़ियां चढ़ सकेगा? दरअसल पेपर लीक का भस्मासुर युवाओं की ऊर्जा को और भविष्य को लील रहा है। उस पर त्रासदी यह कि ये घटनाएं बार-बार घट रही हैं।
देशभर में पेपर लीक को लेकर हो रहे प्रदर्शन के बीच 21 जून 2024 की देर रात को केंद्र सरकार ने एंट्री पेपर लीक कानून लागू कर दिया है। इसका अधिनियम भी जारी कर दिया गया है। इसके अनुसार पेपर लीक करने या आंसर शीट के साथ छेड़छाड़ करने पर कम से कम 3 साल की जेल और 10 लाख रुपये का जुर्माना लगाया जा सकता है। इस कानून को लागू करने का मुख्य उद्देश्य परीक्षाओं में हो रही गड़बड़ी को रोकना है।  इस अधिनियम ने लागू होने में कुछ महीनों का सफर तय किया है। दरअसल, प्रतियोगी परीक्षाओं में हो रही गड़बड़ियों को रोकने के लिए केंद्र सरकार लोक परीक्षा (अनुचित साधनों की रोकथाम) अधिनियम, 2024 को 5 फरवरी को लोकसभा में पेश किया था। वहां ये बिल 6 फरवरी को पास हो गया था। उसके बाद इसे राज्यसभा में पेश किया गया जहां पर इसे 9 फरवरी को पास करवा लिया गया था। दोनों सदनों से पास होने के बाद इस विधेयक को 13 फरवरी राष्ट्रपति द्रोपदी मुर्मू ने मंजूरी दे दी थी। फरवरी में मंजूरी मिलने के बाद केंद्र सरकार ने इस एंटी पेपर लीक कानून को 21 जून 2024 की रात से देशभर में लागू कर दिया।
  इस नए एंटी पेपर लीक कानून यानी की लोक परीक्षा कानून के दायरे में यूपीएससी, एसएससी, जेईई, नीट, सीयूईटी, रेलवे, बैंकिंग भर्ती परीक्षाएं और एनटीए की तरफ से आयोजित सभी परीक्षाएं आएंगी। अगर अब इन परीक्षाओं में कोई भी किसी भी तरह की गड़बड़ी करता पाया जाएगा। उसके खिलाफ एंटी पेपर लीक कानून के तहत कार्रवाई की जाएगी। इस कानून के तहत पेपर लीक करने या अनुचित साधन का इस्तेमाल करने पर कम से कम तीन साल की सजा और 10 लाख रुपये का जुर्माना लगाने का प्रावधान है। इसके साथ ही परीक्षा संचालन के लिए नियुक्त सर्विस प्रोवाइडर के दोषी पाए जाने पर 1 करोड़ रुपए तक जुर्माना लगाया जा सकता है।
जब संसद में इस बिल पेश किया गया था तो उस वक्त केंद्रीय मंत्री जितेंद्र सिंह ने कहा था कि इस कानून का उद्देश्य केवल धांधली करके युवाओं के भविष्य से खिलवाड़ करने वालों को रोकना है। परीक्षार्थियों को इस एंटी पेपर लीक कानून के दायरे से बाहर रखा गया है। यह उचित भी है क्योंकि परीक्षार्थी प्रतियोगिता के अतिदबाव के कारण ऐसे गलत कामों में शामिल होते हैं। अतः प्रयास यह होना चाहिए कि यह अतिदबाव वाली स्थिति बदली जा सके। इसी दबाव के कारण अनेक छात्र-छात्राएं आत्महत्या तक कर लेते हैं। हर छात्र कौंसलर के पास नहीं पहुंच सकता है। हमारे देश में मात्र मनोदशा सुणारने के लिए कौंसलिंग का इतना चलन भी नहीं है। ऐसे में प्रतियोगी परीक्षाओं एवं प्रवेश परीक्षाओं के सिस्टम में सुधार किए जाने की जरूरत है। यदि दबाव कम होगा तो इससे जुड़े अपराध भी कम होंगे। यह दबाव ही था जिसने घोटाले की हद को डार्कनेट तक पहुंचा दिया।

एनटीए द्वारा 18 जून को आयोजित की गई इस परीक्षा में लगभग 9 लाख छात्रों ने भाग लिया था। जांच में पता चला कि लीक हुआ प्रश्नपत्र डार्कनेट पर दिखाई दिया और मूल प्रश्नपत्र से मेल खाता था। इस खोज के बाद छात्रों के हितों की रक्षा के लिए परीक्षा को तत्काल रद्द कर दिया गया।
क्या है डार्कनेट? वस्तुतः इंटरनेट पर ऐसी कई वेबसाइट्स हैं जो आमतौर पर प्रयोग किये जाने वाले गूगल, बिंग जैसे सर्च इंजनों और सामान्य ब्राउजिंग के दायरे से परे होती हैं। इन्हें डार्क नेट या डीप नेट कहा जाता है। यह केवल टीओआर यानी दी ओनियन राऊटर अथवा आईटूपी अर्थात इनविजिबल इंरनेट प्रोजेक्ट जैसे विशेष सॉफ्टवेयर का उपयोग करने वाली इंटरनेट की एक परत है। डार्कनेट अनेक आपत्तिजनक सामग्रियां उपलब्ध रहती हैं। यद्यपि डार्कनेट की सर्फिंग करना खतरे से खाली नहीं होता है क्योंकि यह सुरक्षा कवच से परे होते हैं।

आज की गला काट प्रतियोगिता के चलते हर युवा प्रवेश परीक्षा में सफलता पाना चाहता है। कट ऑफ का हाई रेट युवाओं में घबराहट पैदा करता है। जैसे नीट परीक्षा में अर्हता के अलग-अलग मापदंड इस प्रकार हैं - नीट 2024 परीक्षा के लिए अर्हता प्राप्त करने के लिए आवश्यक न्यूनतम अंक यानी  सामान्य श्रेणी के लिए कट ऑफ 720-164 है, एससी/एसटी/ओबीसी के लिए यह 163-129 है, सामान्य-पीएच के लिए यह 163-146 है, और एससी/ओबीसी- पीएच के लिए यह 145-129 है।  इसीलिए स्थिति यह है कि अनेक युवा अपनी योग्यता पर भरोसा नहीं कर पाते हैं और तब उन्हें लगता है कि कहीं से उन्हें कोई ऐसा सूत्र मिल जाए जो उन्हें आसानी से प्रतियोगी परीक्षा उत्तीर्ण करवा दे। जालसाज युवाओं की इसी घबराहट का फायदा उठाते हैं। वे चंद भ्रष्टाचारियों की मदद से वास्तविक प्रश्न पत्र प्राप्त कर लेते हैं और प्रतियोगी युवाओं में बेचकर लाखों रुपए कमाते हैं। 22 वर्षीय अनुराग यादव ने परीक्षा से एक दिन पहले अपने चाचा सिकंदर प्रसाद यादवेंदु से परीक्षा सामग्री प्राप्त करने की बात स्वीकार की। इस घटना के कारण गिरफ्तारियां हुई हैं और परीक्षा की सत्यनिष्ठा पर सवाल उठे। जब इस तरह के पेपरलीक होने का कांड उजागर होता है तो परीक्षाएं रद्द कर दी जाती हैं जिसे जहां एक और प्रतिभावान विद्यार्थियों की मेहनत पर पानी फिर जाता है, वहीं प्रश्न पत्र खरीदने वाले प्रतियोगियों का पैसा मिट्टी में मिल जाता है। वहीं युवाओं के समय का भी नुकसान होता है।

आखिर कहां चूक हो रही है जो बार-बार पेपरलीक हो रहें हैं? विगत 5 साल में 15 राज्यों में 41 भर्ती परीक्षाओं में धांधली के मामले उजागर हुए। नीट और नेट परीक्षा कराने वाली केंद्रीय एंजेंसी एनटीए यानी नेशनल टेस्टिंग एजेंसी पर भी सवाल उठने लगे। नीट जेईई जैसी  परीक्षाओं में शामिल होने वाली प्रतियोगी अब झुंझलाने लगे हैं वह इस बात से तंग आ गए हैं कि कितनी बार वे परीक्षा दें? एक बार पूरे दमखम से तैयारी करके वे परीक्षा में शामिल होते हैं और फिर पता चलता है कि धांधली के कारण परीक्षाएं रद्द कर दी गई हैं जिससे वे हतोत्साहित हो जाते हैं। इससे उनके मनोबल पर भी बुरा असर पड़ता है।

     प्रवेश परीक्षा में धांधली के एक नहीं अनेक दुष्परिणाम होते हैं। व्यापमं घोटाला तो सभी को याद ही होगा। 2013 में भारत के मध्य प्रदेश में भारतीय इतिहास का सबसे बड़ा परीक्षा घोटाला यानी व्यवसायिक परीक्षा मंडल (व्यापम) सामने आया था। परीक्षा में किसी की जगह दूसरे को बैठाना, नकल कराना और अन्य तरह की धांधलियों आदि के कारण से इस घोटाले में हजारों लोगों को गिरफ्तार किया गया। इस घोटाले का दुखद पक्ष यह रहा कि घोटाले से जुड़े संदिग्धों की एक के बाद एक मौत होने लगी। इन लोगों की मौत के कारणों में दिल का दौरा और सीने में दर्द से लेकर सड़क दुर्घटनाएं और आत्महत्याएं शामिल थीं। जांच अधिकारियों ने पाया कि ये सभी मौतें असामयिक और रहस्यमयी थीं। मीडिया रिपोर्टों में दावा किया गया कि घोटाले से जुड़े 40 से अधिक लोगों की रहस्यमय परिस्थितियों में मौत हो गई थी।
चाहे अधिकारी हों, नेता हों, शिक्षक या पत्रकार हों, अभिभावक हों अथवा नीति निर्धारक हों, सभी को अपने उन दिनों को याद करना चाहिए जब वे स्वयं विद्यार्थी थे। एक विद्यार्थी के लिए प्रवेश परीक्षा का महत्व कितना अधिक होता है और उसके लिए उसे कितनी अधिक मेहनत करनी पड़ती है यह विद्यार्थी ही समझ सकता है। हम सभी विद्यार्थी जीवन के उसे दूर से गुजरें हैं। पेपर लीक होना यानी विद्यार्थियों की मेहनत पर पानी फिरना। यह ठीक उसी तरह है जैसे सीढ़ियां चढ़ चुके किसी इंसान को अचानक धक्का देकर नीचे गिरा दिया जाए और उससे कहा जाए कि एक बार फिर चढ़ो! क्या वह इंसान उसी ऊर्जा से दोबारा सीढ़ियां चढ़ सकेगा?

प्रशासन के नाक के नीचे परीक्षा आयोजित करने वाली एजेंसियों के जिम्मेदार अधिकारियों की मिलीभगत ठीक भस्मासुर के समान है। जैसे एक असुर ने शिव की तपस्या की और शिव ने प्रसन्न होकर उसे अपना एक कंगन वरदान स्वरुप दे दिया कि वह जिसके सिर पर कंगन रखेगा वह व्यक्ति भस्म हो जाएगा। उस असुर ने सबसे पहले वह कंगन शिव के सिर पर ही रखने का प्रयास किया। शिव अपने ही द्वारा दिए गए वरदान के शिकार हो जाते यदि विष्णु अप्सरा के रूप में भस्मासुर को मोहित करके उसी के सिर पर कंगन वाला उसका हाथ न रखवा देते। इसी तरह सरकार के द्वारा नियुक्त अधिकारी कर्मचारी ही जलसा जो से मिली भगत करके सरकार की छवि को ही नुकसान पहुंचाते हैं तथा युवाओं की जीवन और भविष्य से खिलवाड़ करते हैं। दरअसल पेपर लीक का भस्मासुर युवाओं की ऊर्जा को और भविष्य को लील रहा है। अब देखना यह है कि  एंट्री पेपर लीक कानून कितना कारगर सिद्ध होता है क्योंकि देश में कानून तो अनेक है किंतु उनका क्रियान्वयन सही तरीके से अक्सर नहीं होता है। अच्छा तो यही होगा कि पेपर लीक के मुद्दे को हल्के से न लिया जाए क्यों कि यह भावी देश निर्माताओं यानी युवाओं के भविष्य का सवाल है।
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Tuesday, June 25, 2024

पुस्तक समीक्षा | अशोक वाजपेयी पर दस्तावेज़ी पुस्तकाकार विशेषांक ‘‘सापेक्ष 62-63’’ | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

प्रस्तुत है आज 25.06.2024 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई महावीर अग्रवाल जी द्वारा अशोक वाजपेई पर केंद्रित, संपादित "सापेक्ष 62-63" की समीक्षा।
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पुस्तक समीक्षा    
अशोक वाजपेयी पर दस्तावेज़ी पुस्तकाकार विशेषांक ‘‘सापेक्ष 62-63’’                           
- समीक्षक डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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पुस्तक  - सापेक्ष 62-63 (अशोक वाजपेयी - अद्भुत अनहद : अन्य अभिव्यक्ति)
संपादक  - महावीर अग्रवाल
प्रकाशक - सापेक्ष, ए-14, आदर्श नगर, दुर्ग (छ.ग.)
मूल्य        - 350/-
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छत्तीसगढ़ के दुर्ग जिले के नाम से ‘‘सापेक्ष’’ पत्रिका ही सबसे पहले स्मरण में कौंधती है। महावीर अग्रवाल ने ‘‘सापेक्ष’’ पत्रिका को संपादित करते हुए अनेक महत्वपूर्ण अंक साहित्य जगत को दिए हैं। हाल ही में ‘‘सापेक्ष’’ का 62-63 अंक संयुक्तांक रूप में प्रकाशित हुआ है। इसे किसी पत्रिका के संयुक्तांक से कहीं अधिक एक पुस्तक कहा जा सकता है। यह संयुक्तांक विख्यात कवि अशोक वाजपेयी के रचना संसार पर केंद्रित है। इसलिए इस संयुक्तांक का नाम दिया गया है ‘‘अशोक वाजपेयी - अद्भुत अनहद: अन्य अभिव्यक्ति’’।
जब यह पुस्तकाकर संयुक्तांक मुझे डाक द्वारा प्राप्त हुआ तो मुझे याद आया कि नई दिल्ली से प्रकाशित ‘‘सामयिक सरस्वती’’ में भी अशोक वाजपेयी पर केंद्रित सामग्री का प्रकाशन किया गया था। इस साहित्यिक पत्रिका के संपादक थे महेश भारद्वाज तथा कार्यकारी संपादक मैं थी। संपादक की संकल्पना के अनुरूप इस पत्रिका में किसी एक वरिष्ठ साहित्यकार पर ‘‘रचना, आलोचना, साक्षात्कार’’ के अंतर्गत सामग्री प्रकाशित की जाती थी। ‘‘सामयिक सरस्वती’’ जनवरी-मार्च 2016 में ‘‘रचना, आलोचना, साक्षात्कार’’ के अंतर्गत अशोक वाजपेयी के रचना संसार पर सामग्री प्रकाशित की गई थी। इसमें अशोक वाजपेयी की कविताओं के साथ रामशंकर द्विवेदी का आलोचनात्मक लेख तथा मनीषा कुलश्रेष्ठ द्वारा लिया गया अशोक वाजपेयी  का साक्षात्कार प्रकाशित किया गया था। इस बात का उल्लेख मात्र स्मरण के रूप में है इसका ‘‘सापेक्ष’’ के संयुक्तांक से कोई तुलनात्मक संबंध नहीं है। ‘‘सापेक्ष’’ का यह विशेषांक अनेक पक्षों में अपने आप में अनूठा है।
महावीर अग्रवाल इसके पूर्व ‘‘सापेक्ष 59-60’’ को प्रतिष्ठित लेखिका कृष्णा सोबती विशेषण के रूप में प्रकाशित कर चुके हैं। वह संयुक्तांक भी हार्डबाउन्ड पुस्तक के रूप में था जिसकी पृष्ठ संख्या 472 और मूल्य मात्र 200 रुपए था। उस समय मुझे इतनी मोटी पुस्तक का मूल्य मात्र 200 रुपए रखना किसी चमत्कार से काम नहीं लगा था। किंतु अब जब ‘सापेक्ष’’ का 62-63 संयुक्तांक मेरे हाथों में आया तो महावीर अग्रवाल जी ने एक बार फिर चौंका दिया। इस हार्डबाउंड संयुक्तांक की पृष्ठ संख्या 951 है, जबकि इसका मूल्य मात्र 350 रुपए है। इसके वितरक सेतु प्रकाशन प्रा.लि. नोएडा, (उ.प्र.) है तथा डाक द्वारा मांगने पर रु. 50/- डाकखर्च रखा गया है। यदि यह राशि जोड़कर भी देखी जाए तो रु.400/- में 951 पृष्ठ की हार्ड बाउंड पुस्तक मिलना आज के समय में नामुमकिन-सा लगता है। किंतु शायद महावीर अग्रवाल के लिए नामुमकिन कुछ भी नहीं है।

अशोक वाजपेयी के समग्र रचना कर्म को प्रस्तुत करने का प्रयास करते हुए संपूर्ण सामग्री को 10 अध्यायों में बांटा गया है। पहले अध्याय में अशोक वाजपेयी जी की कविताओं पर चर्चा है। इस अध्याय में जीवन यदु, रामनारायण उपाध्याय, रमेश दत्त दुबे तथा प्रभात त्रिपाठी के लेख है जिन्होंने अशोक वाजपेयी की कविताओं पर व्याख्यात्मक टिप्पणी की है। दूसरे अध्याय में अशोक वाजपेयी का गद्य और कविताएं इन पर आधारित सामग्री है। तीसरे अध्याय में अशोक वाजपेयी के काव्य कर्म पर विविध लेख हैं। इन लेखों के लेखक हैं - निर्मल वर्मा, रमेश चंद्र शाह, नंदकिशोर नवल, नंदकिशोर आचार्य, रघुवीर सहाय, परमानंद श्रीवास्तव, के. सच्चिदानंद, डॉ. सुषमा भटनागर, गोपेश्वर सिंह, ए. अरविंदाक्षन, आशीष त्रिपाठी, अनामिका, अरुण होता, भारतेंदु मिश्र, देवशंकर नवीन, सुलोचना दास, डॉ. कुमारी उर्वशी एवं सुरेश धींगड़ा। चैथा अध्याय समालोचना का है इसमें समालोचनात्मक दृष्टि से जिन लोगों ने अशोक वाजपेयी की सर्जना का आकलन किया है वे हैं - वैभव सिंह, मीना झा, अंबरीश त्रिपाठी, राजेंद्र सोनबोईर, डॉ राम शंकर द्विवेदी, लीलाधर मंडलोई, कमलेश भट्ट कमल, प्रियदर्शन, विष्णु नगर, डॉ शोभा जैन, डॉ सुभाष शर्मा, अश्विनी कुमार दुबे, प्रकाश कांत, योगेश प्रताप शेखर तथा विनोद तिवारी।

पांचवा अध्याय ‘‘परस्पर’’ शीर्षक से संवाद का अध्याय है। इसमें विष्णु खरे से सुधीश पचौरी का संवाद, कृष्णा सोबती से महावीर अग्रवाल का संवाद, विनोद शाही से महावीर अग्रवाल का संवाद, ललित सुरजन से महावीर अग्रवाल का संवाद, रमेश नैयर से महावीर अग्रवाल का संवाद संजोया गया है। छठा अध्याय अशोक वाजपेयी के व्यक्तित्व पर केंद्रित है। इसमें गुलाम मोहम्मद शेख, यू आर अनंतमूर्ति, अय्यप्पा पाणिकर, चार्ल्स कोरिया, कुमार साहनी, सोनल मानसिंह, मकरंद परांजपे, सत्याशील देशपांडे, जितेंद्र कुमार, मैनेजर पांडेय, सुबोध सरकार, विजय कुमार, ध्रुव शुक्ल, प्रयाग शुक्ल तथा कुंवर नारायण के लेख शामिल हैं। सातवां अध्याय में अशोक वाजपेयी से किए गए संवादों को अर्थात साक्षात्कारों को रखा गया है। इसमें अशोक वाजपेयी से वजदा खान, मनीषा कुलश्रेष्ठ, महेंद्र प्रसाद कुशवाहा, नवनाथ शिंदे, साधना अग्रवाल तथा उमाकांत और रमाकांत गुंदेचा द्वारा लिए गए साक्षात्कारों को पढ़ा जा सकता है। यह अध्याय अशोक वाजपेयी के विचारों को गहराई से समझने और जानने की दिशा में महत्वपूर्ण है।
आठवां अध्याय पत्रों का अध्याय है। इसमें धर्मवीर भारती, भारत भूषण अग्रवाल, केदारनाथ सिंह, नरेश मेहता, धूमिल, विनोद कुमार शुक्ल, कुंवर नारायण तथा ज्ञानरंजन के पत्र रखे गए हैं। पत्रों का यह अध्याय अत्यंत रोचक और महत्वपूर्ण है। यह युवा रचनाकारों के लिए एक शिक्षाप्रद अध्याय भी कहा जा सकता है। विशेष रूप से उन नवोदित रचनाकारों के लिए जो ‘‘छपास’’ की शीघ्रता में होते हैं। यह उनके लिए भी दिशा निर्देश के रूप में है जो अपनी अत्यंत कच्ची रचनाओं को भी प्रकाशित कराने में झिझकते नहीं हैं। इसी आठवें अध्याय से तीन पत्रों की कुछ पंक्तियों को यहां उद्धृत कर रही हूं जिसमें पहला पत्र है धर्मवीर भारती का। यह उन्होंने ‘‘धर्मयुग’’ के संपादक के रूप में अशोक वाजपेयी को 25 मई 1966 को लिखा था। इसमें उन्होंने लिखा था कि- ‘‘प्रिय भाई, पिछली दो कविताएं नहीं लीं, यह कविता प्रेम में स्वीकृत है, यथासमय प्रकाशित होगी।’’ क्या आज के नवोदित रचनाकार इस बात को जानते हैं कि अशोक वाजपेयी जैसे वरिष्ठ साहित्यकार की कविताएं भी कभी अस्वीकृति की गईं? नवोदित रचनाकार या तो इस बात को जानते नहीं है या जानना नहीं चाहते हैं, अन्यथा वे अपनी रचनाओं के प्रकाशन में धैर्य का परिचय देते। दरअसल हर वरिष्ठ रचनाकार भी कभी न कभी नवोदय होता है और यदि वह धैर्य से अपनी रचनाओं का परीक्षण करता है तथा अपने वरिष्ठ व्यक्तियों की सलाह पर ध्यान देता है तो उसे वरिष्ठता के कद तक पहुंचने से कोई नहीं रोक सकता है।

दूसरे लंबे पत्र की कुछ पंक्तियां यहां देना जरूरी समझती हूं जो 11 फरवरी 1971 को धूमिल ने अशोक वाजपेयी को लिखा था। इसमें उन्होंने लिखा था - ‘‘आपकी चिट्ठी मिली अपने लगाव और आपकी आत्मीयता से एक निजी किस्म का सुख मिलता है। ऐसी हालत में कविता के लिए मिलने वाली लताड़ से लज्जा भी आई। क्या सफाई दूं कि आपके पास भेजने लायक कविताओं के लिए मैं इन दोनों किस तरह जूझ रहा हूं। मैं मानता हूं कि कविता जीने के कर्म का हिस्सा है लेकिन यदि उसमें मात्र रद्दोबदल की गुंजाइश न ढूंढ कर यदि समूची कविता के संस्कार में परिवर्तन की कोशिश कर रहा हूं तो एक अजीब-सी खीझ भारी उकताहट सी महसूस करने लगता हूं। ज्यादातर अकेला हो जाता हूं, लेकिन एकजुट होकर ठोंकपीट में लगा हुआ हूं। कोशिश यह है कि अपने घेराव से उबरकर आप तक कुछ सही और नई कविताएं भेज सकूं।’’ धूमिल की यह पंक्तियां बताती हैं कि उनमें कितना धैर्य था और इसी धैर्य ने उन्हें एक बड़ा कवि बनाया।

तीसरा पत्र है ज्ञानरंजन का। यह उन्होंने 4 फरवरी 2002 को अशोक वाजपेयी को लिखा था। इस पत्र की ये पंक्तियां रेखांकित करने योग्य हैं -‘‘प्रिय अशोक, तुम्हारा साक्षात्कार ‘पुनर्नवा’ में देख-पढ़ा। हमेशा की तरह तीखा और गतिमय। तुम इतने साक्षात्कार दे रहे हो कि अब नई बात नहीं निकल रही है बस स्पष्टीकरण जैसा हो रहा है और अपने किए का बयान। तुमने दिग्विजय कर ली है।’’ ज्ञान रंजन के पत्र में लिखे उनके यह शब्द इस बात का साक्ष्य है की बड़े से बड़े रचनाकार को भी कभी-कभी परिमार्जन की आवश्यकता होती है और परिमार्जन के लिए संकोच का त्याग करना भी आवश्यक होता है। नौवां अध्याय डायरी का है। इसमें संपादक महावीर अग्रवाल की डायरी के वे पन्ने हैं जो अशोक वाजपेयी के कृतित्व पर भरपूर प्रकाश डालते हैं। दसवें अध्याय में अशोक वाजपेयी से महावीर अग्रवाल के 11 संवाद अर्थात साक्षात्कार संकलित हैं। अंत में संदर्भों का परिशिष्ट है।

अशोक वाजपेयी का वैचारिक एवं भावनात्मक संसार वृहत्तर है। उनके व्यक्तित्व के अनेक आयाम हैं। वे एक ओर कविता के कोमल तत्वों से भरपूर है तो दूसरी ओर धारदार वामपंथी विचारों के पक्षधर हैं। शासकीय उच्चाधिकारी के दायित्वों का निर्वहन करते हुए साहित्य, कला और संस्कृति के विकास केंद्र के रूप में भारत भवन की स्थापना कराने वाले व्यक्ति के साथ ही जनपक्ष में शासकीय सम्मान लौटाने वाले व्यक्ति के रूप में भी वे दिखाई देते हैं। अशोक वाजपेयी जब कविता की बात करते हैं तो मात्र हिंदी कविता की नहीं, वरन विश्व कविता की बात करते हैं जिसमें सभी भाषाओं, सभी संवेदों की कविताएं शामिल रहती हैं। वे काव्य के मानवीय पक्ष का अनुमोदन करते हैं। इसलिए इस संयुक्तांक का नाम ‘‘अशोक वाजपेयी - अद्भुत अनहद: अन्य अभिव्यक्ति’’ दिया जाना एकदम सटीक है।

‘‘सापेक्ष’’ का यह संयुक्तांक अपने आप में विशिष्ट और संग्रहणीय है क्योंकि इसमें दी गई सामग्री के द्वारा अशोक वाजपेयी की सृजनात्मकता को गहराई से जाना समझ जा सकता है। यद्यपि इसमें कुछ और लोगों के संस्मरण शामिल किए जाने चाहिए थे, जो सागर (मध्य प्रदेश) में निवास के दौरान उनके मित्रवत एवं निकटस्थ रहे। इस विशेषांक में एक बात और खटकने वाली लगी कि  संपादक महावीर अग्रवाल ने अपने संपादकीय को अशोक वाजपेयी की मात्र एक कविता ‘‘विलाप’’ के इर्द-गिर्द समेट रखा। निश्चित रूप से यह कविता महत्वपूर्ण है और अशोक वाजपेयी के विचारों एवं भावनाओं का बेहतरीन प्रतिनिधित्व करती है फिर भी विशेषांक के विस्तृत कलेवर को देखते हुए अन्य पक्षों पर भी कुछ टीका-टिप्पणी संपादकीय में होनी चाहिए थी, जिससे इस पुस्तकाकार विशेषांक को पढ़ना आरंभ करने वाले पाठक को संपादकीय में पुस्तक की रूपरेखा की एक झलक मिल जाती और उसमें इसे आद्योपांत पढ़ने की उत्कंठा जाग जातीे। बहरहाल, इसमें कोई संदेह नहीं कि यह विशेषांक अशोक वाजपेयी पर एक दस्तावेजी विशेषांक है। इसे जरूर पढ़ा जाना चाहिए क्योंकि इसमें न केवल अशोक वाजपेयी के बारे में जानकारी है अपितु उन साहित्यिक संस्कारों का भी आलेखन है, जो वर्तमान में कहीं गुम होते जा रहे हैं। ‘सापेक्ष’’ के संपादक महावीर अग्रवाल इस विशेषांक के लिए साधुवाद के पात्र हैं।
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Saturday, June 22, 2024

टॉपिक एक्सपर्ट | पत्रिका | आबे लगी बरात, सो ओटन लगे कपास | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

पत्रिका | टॉपिक एक्सपर्ट | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली में
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टाॅपिक एक्सपर्ट
आबे लगी बरात, सो ओटन लगे कपास
    - डॉ (सुश्री) शरद सिंह       
         जे अपने इते की कहनात आए के ‘‘आबे लगी बरात, सो ओटन लगे कपास’’। जोन खों नई पतो उनके लाने बताबो जरूरी आए के जबे पैले से तैयारी ने करी जाए औ जबे टेम ने बचो होय तबे काम शुरू करो जाए, तभईं जे कहनात कई जात आए। बाकी अपने इते तो जे हर की साल होत रैत आए। अपन ओरन खों आजादी मिले ई दफा 77 सालें हो जैहें। अपने खुद के शासन-प्रशासन में रैत भए सोई इत्तई सालें भईं जा रईं, पर अपने ई शहर में आज लौं ऐसी परमानेंट व्यवस्था ने हो पाई के हर की साल समै से पैले नाली-नरदा साफ-सुथरा हो जाएं। अपने शहर में मुतके मुहाल ऐसे आएं जिनमें पानी बरसतई साथ नाली को पानी घरे घुसन लगत आए। कछू तो अच्छी-अच्छी कालोनियन में नरदा को पानी बाढ़ घाईं भरन लगत आए। मनो उते पानी के निस्तार के बारे में कोनऊं सोचतई नईयां। पैले तो एक बात के समै के पैले नाली-नरदा की सफाई नई करी जात आए। जो कहूं करी बी जाए तो कुल्ल दिनां नरदा को गंदो गिलावो नरदा के बाहरे उतई डरो रैत आए। जब लोग चिचियान लगत आएं तब कहूं जा के बा गिलावो उते से हटाओ जात आए। औ कहूं ऊसे पैले बरसात आ जाए सो आधो गिलावो फेर के नरदा में पौंच जात आए। 
     बाकी उम्मीद तो जेई करो जाओ चाइए के बरसात चालू होबे के पैले नाली-नरदा की सफाई हो जैहे। ने तो बरसात में तो पतो परई जैहे। काय से के बरात आबे पे सो अपन कपास ओटबे बैठत आएं, सो ऊ कपास के हुन्ना-लत्ता कबे बनहें, जे ने पूछियो।
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