साहित्य अकादमी की द्वैमासिक पत्रिका "समकालीन भारतीय साहित्य" के जुलाई - अगस्त, 2024 अंक में हिंदी के चर्चित साहित्यकार शिवनारायण जी के कविता संग्रह "प्रतिरोध का महाशंख" की मेरे द्वारा की गई समीक्षा प्रकाशित हुई है।
🚩समीक्षा के प्रकाशन पर "समकालीन भारतीय साहित्य" के यशस्वी संपादक आदरणीय बलराम जी का हार्दिक आभार🙏
🚩 आदरणीय शिवनारायण जी को एक उम्दा काव्य कृति के लिए हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं💐
समकालीन भारतीय साहित्य से साभार -
पुस्तक समीक्षा
प्रतिरोध का शंखनाद
समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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काव्य संग्रह - प्रतिरोध का महाशंख
कवि - शिवनारायण
प्रकाशक - अयन प्रकाशन, जे-19/39, राजापुरी, उत्तम नगर, नई दिल्ली-110059
मूल्य - 340/-
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प्रतिरोध जीवन में संतुलन बनाए रखने का एक प्राकृतिक ढंग है। जब कहीं कुछ अनुचित अनुपयुक्त अथवा अनावश्यक होता दिखाई देता है तो न केवल संवेदनशील मन अपितु प्रकृति भी प्रतिरोध करने लगती है। पानी अधिक हो जाने पर पेड़-पौधे भी अपनी पत्तियां गिरने लगते हैं। यह उनका अपना प्रतिरोध का तरीका होता है। वे जताना चाहते हैं कि अब बस! उन्हें और अधिक पानी न दिया जाए! इसी तरह मानव जीवन में यदि अनाचार, अत्याचार और अव्यवस्था बढ़ जाती है तो मनुष्य भी प्रतिरोध करने की स्थिति में आ जाता है। यह बात और है कि कुछ लोग मुखर होकर सामने आते हैं और प्रतिरोध का शंखनाद करते हैं, वहीं कुछ लोग नेपथ्य में रहकर मूकदर्शक बने रहते हैंे, लेकिन उनके मन में भी प्रतिरोध की भावना मौजूद रहती है। वे अपनी भीरुता के चलते न तो सामने आते हैं और न समर्थन करते हैं किंतु प्रतिरोध का विरोध भी न करना उनकी ओर से एक तरह का समर्थन ही होता है। प्रतिरोध में जोखिम होता है इसलिए हर व्यक्ति में मुखर प्रतिरोध का साहस नहीं होता है लेकिन एक साहित्यकार जिसका सरोकार समाज से हो दलित, पीड़ित शोषित आमजन से हो वह हर प्रकार का जोखिम लेने के लिए तैयार रहता है। ऐसा साहित्यकार ही प्रतिरोध का शंखनाद कर सकता है। कवि, संपादक एवं आलोचक शिवनारायण का काव्य संग्रह अपने हाथ में प्रतिरोध का महाशंख थामें प्रकाशित हुआ है। इस काव्य संग्रह का नाम ही है “प्रतिरोध का महाशंख”।
कवि के रूप में शिवनारायण ने हमेशा निर्भीकता से अपनी भावनाओं को प्रकट किया है। उनकी कविताएं उस औजार को गढ़ती हैं जो मन, मस्तिष्क पर चढ़ चुकी जंग की धूसर परत को छील-छील कर उतार सकता है। शिवनारायण की कविताएं उस कपास को उगाती हैं, जिससे कपड़ा बुनकर आईने पर चढ़ी धूल को पोंछा जा सकता है। शिक्षा, साहित्य, पत्रकारिता एवं समाजसेवा में समान रूप से दखल रखते हुए कवि शिवनारायण ने निरंतर साहित्य सृजन किया है। अब तक उनके पांच काव्य संग्रह सहित कथेतर गद्य, आलोचना, भाषाविज्ञान, पत्रकारिता आदि विधाओं में 46 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। बहुचर्चित साहित्यिक पत्रिका ‘‘नयी धारा’’ का विगत 32 वर्षों से सतत संपादन कार्य कर रहे हैं। हिंदी के प्राध्यापक के रूप में कार्य करते हुए उन्होंने अपने सृजनात्मक कार्यों को भी बनाए रखा है। राष्ट्रीय तथा अंतरराष्ट्रीय सम्मानों से सम्मानित होने के बावजूद वे स्वयं को हमेशा अपनी जमीन से जुड़ा हुआ पाते हैं। इसीलिए कहीं भी अन्याय अथवा असंतुलन दिखाई देने पर उनका मन विचलित हो उठता है और तब उनके कलम से प्रतिरोध की कविताएं फूट पड़ती है। किंतु इन कविताओं की यह विशेषता है कि ये किसी नारे का रूप धारण नहीं करती हैं। इनमें बहिष्कार है, ललकार है किंतु कठोर पथरीले शब्द नहीं हैं। कवि शिवनारायण पूरे धैर्य के साथ अपनी बात कहते हैं। इसीलिए उनकी प्रत्येक कविता में शब्दों का चयन और पंक्तियों का गठन एक अलग ही स्वर उत्पन्न करता है।
संग्रह ‘‘प्रतिरोध का महाशंख’’ में संग्रहित कविताएं मनोभावों के विविध आयामों को प्रकट करती हैं। जैसे संग्रह की पहली कविता है ‘‘भोर’’। यह कविता वर्तमान में संवाद की विकृत होती दशा को बखूबी दर्शाती है। कविता की कुछ पंक्तियां देखिए -
मध्य रात्रि के बाद
एकांत नीरवता में
किसी ने किसी को फोन किया
जवाब में - भोर का उजास फैलते ही
अपने निर्मम घृणा के शब्दों से
उसने उसका अजूबा सत्कार किया!
संग्रह में एक कविता है ‘‘चिड़िया और जहाज’’। यह कविता साहस उन कथाओं का स्मरण कर देती है जो पूराख्यानों में मौजूद हैं। वह कथाएं जिनमें एक नन्हीं चिड़िया समुद्र से टक्कर लेती है और पर्वत को भी झुकने को विवश कर देती है। शिवनारायण की कविता में मौजूद नन्हीं चिड़िया आसमान में उड़ते जहाज यानी वायुयान को उसकी औकात याद दिलाने की जीवटता दिखाती है। इस कविता में चिड़िया जहाज से कहती है -
तुम मुझसे ही तो जुड़े हो
मैं न होती,
तो आज तुम होते भला!
फिर अपनी विशाल काया
और बर्बर शोर से मुझे
क्यों आतंकित करते हो?
कवि शिवनारायण का चिंतन पारिवारिक संबंधों का विश्लेषण भी करता है। गोया कवि सब कुछ ठीक करने कह पहली कड़ी के रूप में पारिवारिक रिश्तों की अच्छी परवरिश को देखता है। परिवार में बेटा और बेटी को भेदभाव की दृष्टि से न देखा जाए तभी सही संतुलन बना रह सकता है। यूं भी जहां ‘‘ममाज़ ब्वाय“ होता है वहीं ‘‘पापा की परी’’ होती है। एक पिता के लिए उसकी बेटी का बड़ा होना बहुत महत्व रखता है। कांधे का स्पर्श” शीर्षक कविता में कवि ने बेटी के बड़े होने का संकेत करते हुए उसके पिता के कंधे तक आने का उदाहरण लिया है। प्रयास इस तरह के उदाहरण पुत्र के लिए ही प्रयुक्त किए जाते रहे हैं। पुत्री का बड़ा होना और पिता के कंधे तक आना यह उदाहरण मेरे संज्ञान में किसी कविता में प्रथम बार प्रयुक्त हुआ है। पिता के कांधे तक बेटी के आने से बेटी के बड़े होने का संकेत उपयोग में लाते हुए कवि शिवनारायण ने अपनी कविता में एक अनूठापन तो प्रस्तुत किया ही है साथ ही पिता और पुत्री के बीच की संवेदना को बड़े सुंदर ढंग से सामने रखा है -
हथेलियों में उगी बेटियाँ
जब धरती पर उतर
पिता के काँधे तक पहुँच जायें
तो समझो
सृष्टि का एक चक्र पूरा हुआ !!
किसी भी व्यक्ति के जीवन में सबसे दुखद स्थिति होती है जब उसे अपना और अपने परिवार का पेट पालने के लिए अपनी मूल जमीन से कट कर कहीं दूर जाना पड़ता है। एक ऐसे बड़े शहर में जो उसके गांव से बिल्कुल अलग है जिसमें परायापन कूट-कूट कर भरा हुआ है। ऐसे पराए वातावरण में संघर्ष करते हुए अपने जीवन को स्थापित करना ताकि वह अपने लोगों के जीवन को संवार सके, बड़े धैर्य का काम है। अपने गांव-घर का छूटना जीवन भर कचोटता है। दुनिया के तमाम भौतिक सुखों के बीच भी अपनी गांव के अभाव आंतरिक खालीपन का अहसास कराते रहते हैं। शिवनारायण ने भी अपनी कविता “जो छूट नहीं सकता” में ऐसे ही एक विदेशिया का अपने गांव और जमीन से जुड़ाव रेखांकित किया है-
छूटते ही रहे सदैव
घर-परिवार, शहर
जाने कहां-कहां से
पर छूटते हुए भी हम
किसी न किसी से
जुड़ते रहे हमेशा !
जब भी कहीं से छूटे
कहीं और जुड़कर कर लिया
उस नए संसार में विलीन खुद को !
कविता में भाव को भले ही प्रधान तत्व माना गया है किन्तु उसमें निहित वैचारिकी आत्मा की भांति उसमें उपस्थित रहती है। यदि विचार नहीं हैं तो कविता अर्थहीन है। विचार ही तो हैं जो भावनाओं को पोषित, पुष्पित और पल्लवित करते हैं। विचार परिस्थितिजन्य होते हैं। रेगिस्तान का निवासी रेत के ढूंहों के गीत गाएगा तो नदी-तट कर निवासी नदी के शांत और अशांत स्वाभाव को अपने काव्य में पिरोएगा। परिस्थितियां विचारों को खुराक देती हैं, जिससे भावनाएं काव्य रचती हैं। यदि सब कुछ अच्छा नहीं है तो जो कुछ भी बुरा है उसे भी काव्य रेखांकित करता है, और यही उसका समय-पाठ होता है। ठीक वैसे ही जैसे भगवान के आले में एक जलती हुई अगरबत्ती, जिसमें आग भी होती है, धुंआ भी और सब कुछ सुगंधित पवित्रता से भर देने का संघर्ष भी। शिवनारायण की कविताएं सुगंधित धूम्र की भांति अग्नि में से उठ कर विस्तारित होती हैं और प्रतिरोध का आह्वान करती हैं। यूं तो प्रतिरोध की कविताएं हाशिए की आवाजों को आगे बढ़ाकर, सामाजिक मानदंडों पर सवाल उठाकर और आलोचनात्मक प्रतिबिंब को प्रोत्साहित करके प्रतिरोध का एक उपकरण बन जाती है लंकिन शिवनारायण की कविता में चीख-चिल्लाहट नहीं वरन धैर्य की दृढ़ता है। जैसे संग्रह की शीर्षक कविता ‘‘प्रतिरोध का महाशंख’’ अदम्य उत्साह एवं साहस के एक नाद स्वर की भांति गूंजती है-
मैं स्मृति के गर्व में डूबा
किसी मनुपुत्र की स्मृति के
शिलालेख पूजन का महामंत्र नहीं
कि सदियों के स्याहपत्र का भक्षण कर
किसी सभ्यता के आदिम राग का अधिष्ठान रचूँ!
तुम मुझे कितना भी तोड़ो
मैं गाता ही रहूंगा सृजन के गीत !
जब मनुष्य टूटने से डरना बंद कर दे तो उसका डटे रहना सुनिश्चित होता है। तभी बनती है ‘‘साथी हम लड़ेंगे’’ जैसी कविता-‘‘लड़ो, लड़ो, लड़ो साथी/कि लड़ना ही तुम्हारे वश में है/कि जो लड़ नहीं सकता/अपने होने को वह जी नहीं सकता/उसका सारा जीवन समझो हुआ अकारथ!’’
कवि निरंतर आकलन करता रहता है समय-समाज, आत्मसंघर्ष, वेदना-संवेदना, व्यक्त और अव्यक्त भावनाओं, सहजीवन और पलायन का। उसे कभी उड़ते हुए सफेद बादल धुनकी हुई रुई की भांति लगते हैं तो कभी किसी झोपड़ी में टिमटिमाता दीपक महामृत्युंजय पाठ करता हुआ ध्वनित होता है। यही तो है जीवन का वह व्याकरण जिसे कवि समझने की कोशिश करता रहता है। कवि की कविता का बोधितत्व भी इसी व्याकरण से हो कर यात्रा करता है। शिवनारायण अपनी कविता में स्पष्ट करते हैं कि जीवन के व्याकरण को समझना आसान नहीं है। अनेक भ्रम उसकी गोद में पलते रहते हैं। जो सहज है, आमव्यक्ति है, वह इस व्याकरण को न समझपाने की स्थिति में भले ही हारता रहे किन्तु इसी हार में उसकी निर्बोध सत्यता विजय पाती है। ‘‘व्याकरण’’ शीर्षक से इस संग्रह में एक छोटी-सी कविता है, सरल-सहज शब्दों में किन्तु गूढ़ता की अनेक पर्तें लिए हुए-
रेतों से
भरे आकाश में
उड़ान भरने की
मेरी कोशिशें
होती रहीं निष्फल !
मैं मैदान का आदमी
रेगिस्तान के
व्याकरण को
भला कितना जानूं !!
वस्तुतः रेत प्रतीक है उस शुष्कता का जो अनुभवजनित अवसाद से पैदा होती है। जीवन नीरस और निरीह लगने लगता है। ऐसे टूटन भरे पलों में यदि कोई ऐसा तत्व है जो सरसता का संचार कर सकता है तो वह है प्रेम। कवि शिवनारायण ‘‘रेत में कविता’’ के माध्यम से प्रेम का आवाहन करते हैं और पृथ्वी पर असंवेदन के फैलते ऊसरपन के प्रतिकार के रूप में देखते हैं प्रेम कविताओं को।
दुनिया में उग रहे
कैक्टस के विरूद्ध
उसने रेत में उगाई
प्रेम की कविताएँ!
रेत में सृजन
ऊसर होती पृथ्वी का
विकल्प नहीं,
प्रतिकार है
उसे ऊसर बनाए जाने का !
शिवनारायण अपनी कविताओं के द्वारा विषमता, विपन्नता, विडंबना और विस्थापन का खुलासा करते हैं, इनका प्रतिकार एवं प्रतिरोध करते हैं किन्तु उनके सृजन-स्वर में तनिक भी नैराश्य नहीं है। वे विषम परिस्थितियों को कोसते नहीं हैं, अपितु परिस्थितियों से हंस कर जूझने कारास्ता सुझाते हैं। यह एक बड़ी सकारात्मक बात है इस संग्रह की कविताओं में। जब निराशा घर कर रही हो तब कलपना और गहरे अंधकार की ओर धकेल देता है, वहीं यदि अपने भीतर की ऊर्जा को महसूस कर लिया जाए तो विषम के अंधड़ में भी सम की शीतल मंद समीर का अनुभव किया जा सकता है। ‘‘चुप मत रहो’’ एक ऐसी ही कविता है जिसमें कवि प्रकृति से जीवंतता की सीख लेने का तरीका बताता है-
पेड़ों सा हँसो
जंगल सा गाओ
नदियों सा बहो
मेघों सा गरजो
हँसो...गाओ...बहो...गरजो
पर चुप मत रहो!
हर युग में मानव जीवन को जितना प्रभावित किया है उसकी अपनी बनाई अर्थसत्ता ने, उतना ही असर डाला है उसकी अपनी गढ़ी हुई राजनीति ने। हर युग में राम हुए तो रावण भी हुए, कुष्ण हुए तो कंस भी हुए, पांडव हुए तो कौरव भी हुए, सुर हुए तो असुर भी हुए। जब राजनीति‘‘खिलखिलाती सत्ता’’ संग्रह की वह कविता है जो स्थितियों के दूषित होने तथा व्यवस्था के बिगड़ते जाने पर कटाक्ष करती है और एक विश्लेषणात्मक दृष्टि प्रस्तुत करती है-‘‘जाने क्या हो गया मुझे/अक्सर कोहरे में ढूंढ़ने लगता हूँ/उस उत्फुल्ल चेहरे को/जो रोशनी में कहीं नजर नहीं आता!’’ फिर इसी कविता में कवि ने आगे लिखा है कि -‘‘ जाने क्या हो गया है मुझे
कांपते रोदन के बीच
सुदीर्घ लय में दुनिया का गान
रह-रह अकथ कथा का वितान
छोड़ जाता है सूनी दीवारों पर
जिनसे टकरा-टकरा कर
खुद को लहूलुहान
महसूस करने लगता हूँ!
संग्रह की कविताओं में बढ़ते क्रम में प्रतिरोध का स्वर गहराता गया है अंतिम पृष्ठों की कुछ कविताएं उस क्लाइमेक्स पर जा पहुंचती है जहां प्रतिरोध की धार तीक्ष्ण से तीक्ष्ण होती गई है। कविता “ये कैसी सरकार” की कुछ पंक्तियां देखिए-
सत्ता मद में चूर हो, उनका तन विकराल
मीडिया करे चाकरी, सबका बेड़ा पार
गोली चले किसान पर, गिर जनता पर गाज
छप्पन इंच का सीना, है योगी का राज
भगवा पताका लिखकर, न कर इसका विश्वास
हिन्दू-हिन्दू जाप कर, करे दलित का नाश
करे धर्म के नाम पर, अधर्म का व्यापार
विरोध पर हमला करे, ये कैसी सरकार
कवि शिवनारायण ने अमूर्त को मूर्त रूप प्रदान करते हुए अपने काव्य में जो दृश्यात्मकता पैदा की है, वह प्रभावित करती है। अनुभूति की गहराई, जीवंतता, संक्षिप्ता और सरलता कवि शिवनारायण के बिम्ब विधान को एक अलग ही स्तर पर ले जाती हैं। शिवनारायण के काव्य में बिम्बों का प्रयोग एक ‘टूल’ के रूप में हुआ है। उन्होंने बिम्बों का प्रयोग अपनी भाषाई लावण्य और चिन्तन को अधिक सुग्राह्य बनाने के लिए किया है। उनके बिम्बों में सादगी के साथ चटखपन भी है। वे गोपन नहीं रखना चाहते हैं किन्तु इतना मुखर भी नहीं हाना चाहते हैं कि दृश्य विद्रूप हो जाए। यहां वे बार्तोल्ल ब्रेख्त के ब्रेख्तीनियन विचार के समीप जा पहुंचते हैं। बर्तोल्ल ब्रेख्त ने जो बात रंगमंच के लिए कह थी, उसे शिवनारायण अपनी कविताओं में प्रतिबिम्बित करते दिखाई देते हैं। बर्तोल्ल ब्रेख्त ने अतियथार्थवाद के रंगमंच का विरोध किया और मंच पर भ्रम पैदा करने से भी परहेज किया। यही कंट्रास्ट शिवनारायण की कविता में बिम्बित होता है। ऐसा करते हुए वे पाब्लो नेरुदा के निकट जा पहुंचते हैं। कविताओं के बारे में पाब्लो नेरुदा कहते थे कि “एक कवि को भाइचारे और एकाकीपन के बीच एवं भावुकता और कर्मठता के बीच, तथा अपने आप से लगाव और समूचे विश्व से सौहार्द व कुदरत के उद्घाटनांे के बीच संतुलित रह कर रचना करना जरूरी होता है और वही सच्ची कविता होती है।”
शिवनारायण की छोटी कविताएं भी विचारों को पूरा विस्तार देती हैं। वे कम शब्दों के छोटे से कैनवास पर विचारों का ऐसा दृश्य चित्रित करते हैं कि उसमें देश, काल, परिस्थिति एवं संभावना-सभी कुछ अपने पूरे शेड्स के साथ उभर कर आंखों के सामने आकार ले लेता है। शिवनारायण के काव्य में विम्बों की विविधता और भाषाई संतुलन बखूबी दिखाई पड़ता है। संग्रह का ब्लर्ब सुप्रसिद्ध कवयित्री अनामिका ने लिखा है। उनका यह कथन सटीक है कि ‘‘इन कविताओं में अभिधा की सादगी तो है ही, लक्षणा- व्यंजना की कौंध भी है। बिजली की कौंध रास्ता प्रकाशित न भी करे, पर इसका अहसास तो दिला ही जाती है, कि अंधेरा कितना घना है।’’
वस्तुतः कवि शिवनारायण की कविताएं एक सविनय अवज्ञा आंदोलन की भांति हैं, जो प्रतिरोध करती है किंतु किसी को नीचा दिखाने का प्रयत्न नहीं करती बल्कि आईना दिखाने का कार्य करती है। प्रतिरोध के शंखनाद में है आशा, ऊर्जा और प्रेम का स्वर। इस संग्रह की सभी कविताएं पढ़े जाने योग्य तथा मनन-चिंतन योग्य हैं।
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प्रतिरोध का शंखनाद
समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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काव्य संग्रह - प्रतिरोध का महाशंख
कवि - शिवनारायण
प्रकाशक - अयन प्रकाशन, जे-19/39, राजापुरी, उत्तम नगर, नई दिल्ली-110059
मूल्य - 340/-
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प्रतिरोध जीवन में संतुलन बनाए रखने का एक प्राकृतिक ढंग है। जब कहीं कुछ अनुचित अनुपयुक्त अथवा अनावश्यक होता दिखाई देता है तो न केवल संवेदनशील मन अपितु प्रकृति भी प्रतिरोध करने लगती है। पानी अधिक हो जाने पर पेड़-पौधे भी अपनी पत्तियां गिरने लगते हैं। यह उनका अपना प्रतिरोध का तरीका होता है। वे जताना चाहते हैं कि अब बस! उन्हें और अधिक पानी न दिया जाए! इसी तरह मानव जीवन में यदि अनाचार, अत्याचार और अव्यवस्था बढ़ जाती है तो मनुष्य भी प्रतिरोध करने की स्थिति में आ जाता है। यह बात और है कि कुछ लोग मुखर होकर सामने आते हैं और प्रतिरोध का शंखनाद करते हैं, वहीं कुछ लोग नेपथ्य में रहकर मूकदर्शक बने रहते हैंे, लेकिन उनके मन में भी प्रतिरोध की भावना मौजूद रहती है। वे अपनी भीरुता के चलते न तो सामने आते हैं और न समर्थन करते हैं किंतु प्रतिरोध का विरोध भी न करना उनकी ओर से एक तरह का समर्थन ही होता है। प्रतिरोध में जोखिम होता है इसलिए हर व्यक्ति में मुखर प्रतिरोध का साहस नहीं होता है लेकिन एक साहित्यकार जिसका सरोकार समाज से हो दलित, पीड़ित शोषित आमजन से हो वह हर प्रकार का जोखिम लेने के लिए तैयार रहता है। ऐसा साहित्यकार ही प्रतिरोध का शंखनाद कर सकता है। कवि, संपादक एवं आलोचक शिवनारायण का काव्य संग्रह अपने हाथ में प्रतिरोध का महाशंख थामें प्रकाशित हुआ है। इस काव्य संग्रह का नाम ही है “प्रतिरोध का महाशंख”।
कवि के रूप में शिवनारायण ने हमेशा निर्भीकता से अपनी भावनाओं को प्रकट किया है। उनकी कविताएं उस औजार को गढ़ती हैं जो मन, मस्तिष्क पर चढ़ चुकी जंग की धूसर परत को छील-छील कर उतार सकता है। शिवनारायण की कविताएं उस कपास को उगाती हैं, जिससे कपड़ा बुनकर आईने पर चढ़ी धूल को पोंछा जा सकता है। शिक्षा, साहित्य, पत्रकारिता एवं समाजसेवा में समान रूप से दखल रखते हुए कवि शिवनारायण ने निरंतर साहित्य सृजन किया है। अब तक उनके पांच काव्य संग्रह सहित कथेतर गद्य, आलोचना, भाषाविज्ञान, पत्रकारिता आदि विधाओं में 46 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। बहुचर्चित साहित्यिक पत्रिका ‘‘नयी धारा’’ का विगत 32 वर्षों से सतत संपादन कार्य कर रहे हैं। हिंदी के प्राध्यापक के रूप में कार्य करते हुए उन्होंने अपने सृजनात्मक कार्यों को भी बनाए रखा है। राष्ट्रीय तथा अंतरराष्ट्रीय सम्मानों से सम्मानित होने के बावजूद वे स्वयं को हमेशा अपनी जमीन से जुड़ा हुआ पाते हैं। इसीलिए कहीं भी अन्याय अथवा असंतुलन दिखाई देने पर उनका मन विचलित हो उठता है और तब उनके कलम से प्रतिरोध की कविताएं फूट पड़ती है। किंतु इन कविताओं की यह विशेषता है कि ये किसी नारे का रूप धारण नहीं करती हैं। इनमें बहिष्कार है, ललकार है किंतु कठोर पथरीले शब्द नहीं हैं। कवि शिवनारायण पूरे धैर्य के साथ अपनी बात कहते हैं। इसीलिए उनकी प्रत्येक कविता में शब्दों का चयन और पंक्तियों का गठन एक अलग ही स्वर उत्पन्न करता है।
संग्रह ‘‘प्रतिरोध का महाशंख’’ में संग्रहित कविताएं मनोभावों के विविध आयामों को प्रकट करती हैं। जैसे संग्रह की पहली कविता है ‘‘भोर’’। यह कविता वर्तमान में संवाद की विकृत होती दशा को बखूबी दर्शाती है। कविता की कुछ पंक्तियां देखिए -
मध्य रात्रि के बाद
एकांत नीरवता में
किसी ने किसी को फोन किया
जवाब में - भोर का उजास फैलते ही
अपने निर्मम घृणा के शब्दों से
उसने उसका अजूबा सत्कार किया!
संग्रह में एक कविता है ‘‘चिड़िया और जहाज’’। यह कविता साहस उन कथाओं का स्मरण कर देती है जो पूराख्यानों में मौजूद हैं। वह कथाएं जिनमें एक नन्हीं चिड़िया समुद्र से टक्कर लेती है और पर्वत को भी झुकने को विवश कर देती है। शिवनारायण की कविता में मौजूद नन्हीं चिड़िया आसमान में उड़ते जहाज यानी वायुयान को उसकी औकात याद दिलाने की जीवटता दिखाती है। इस कविता में चिड़िया जहाज से कहती है -
तुम मुझसे ही तो जुड़े हो
मैं न होती,
तो आज तुम होते भला!
फिर अपनी विशाल काया
और बर्बर शोर से मुझे
क्यों आतंकित करते हो?
कवि शिवनारायण का चिंतन पारिवारिक संबंधों का विश्लेषण भी करता है। गोया कवि सब कुछ ठीक करने कह पहली कड़ी के रूप में पारिवारिक रिश्तों की अच्छी परवरिश को देखता है। परिवार में बेटा और बेटी को भेदभाव की दृष्टि से न देखा जाए तभी सही संतुलन बना रह सकता है। यूं भी जहां ‘‘ममाज़ ब्वाय“ होता है वहीं ‘‘पापा की परी’’ होती है। एक पिता के लिए उसकी बेटी का बड़ा होना बहुत महत्व रखता है। कांधे का स्पर्श” शीर्षक कविता में कवि ने बेटी के बड़े होने का संकेत करते हुए उसके पिता के कंधे तक आने का उदाहरण लिया है। प्रयास इस तरह के उदाहरण पुत्र के लिए ही प्रयुक्त किए जाते रहे हैं। पुत्री का बड़ा होना और पिता के कंधे तक आना यह उदाहरण मेरे संज्ञान में किसी कविता में प्रथम बार प्रयुक्त हुआ है। पिता के कांधे तक बेटी के आने से बेटी के बड़े होने का संकेत उपयोग में लाते हुए कवि शिवनारायण ने अपनी कविता में एक अनूठापन तो प्रस्तुत किया ही है साथ ही पिता और पुत्री के बीच की संवेदना को बड़े सुंदर ढंग से सामने रखा है -
हथेलियों में उगी बेटियाँ
जब धरती पर उतर
पिता के काँधे तक पहुँच जायें
तो समझो
सृष्टि का एक चक्र पूरा हुआ !!
किसी भी व्यक्ति के जीवन में सबसे दुखद स्थिति होती है जब उसे अपना और अपने परिवार का पेट पालने के लिए अपनी मूल जमीन से कट कर कहीं दूर जाना पड़ता है। एक ऐसे बड़े शहर में जो उसके गांव से बिल्कुल अलग है जिसमें परायापन कूट-कूट कर भरा हुआ है। ऐसे पराए वातावरण में संघर्ष करते हुए अपने जीवन को स्थापित करना ताकि वह अपने लोगों के जीवन को संवार सके, बड़े धैर्य का काम है। अपने गांव-घर का छूटना जीवन भर कचोटता है। दुनिया के तमाम भौतिक सुखों के बीच भी अपनी गांव के अभाव आंतरिक खालीपन का अहसास कराते रहते हैं। शिवनारायण ने भी अपनी कविता “जो छूट नहीं सकता” में ऐसे ही एक विदेशिया का अपने गांव और जमीन से जुड़ाव रेखांकित किया है-
छूटते ही रहे सदैव
घर-परिवार, शहर
जाने कहां-कहां से
पर छूटते हुए भी हम
किसी न किसी से
जुड़ते रहे हमेशा !
जब भी कहीं से छूटे
कहीं और जुड़कर कर लिया
उस नए संसार में विलीन खुद को !
कविता में भाव को भले ही प्रधान तत्व माना गया है किन्तु उसमें निहित वैचारिकी आत्मा की भांति उसमें उपस्थित रहती है। यदि विचार नहीं हैं तो कविता अर्थहीन है। विचार ही तो हैं जो भावनाओं को पोषित, पुष्पित और पल्लवित करते हैं। विचार परिस्थितिजन्य होते हैं। रेगिस्तान का निवासी रेत के ढूंहों के गीत गाएगा तो नदी-तट कर निवासी नदी के शांत और अशांत स्वाभाव को अपने काव्य में पिरोएगा। परिस्थितियां विचारों को खुराक देती हैं, जिससे भावनाएं काव्य रचती हैं। यदि सब कुछ अच्छा नहीं है तो जो कुछ भी बुरा है उसे भी काव्य रेखांकित करता है, और यही उसका समय-पाठ होता है। ठीक वैसे ही जैसे भगवान के आले में एक जलती हुई अगरबत्ती, जिसमें आग भी होती है, धुंआ भी और सब कुछ सुगंधित पवित्रता से भर देने का संघर्ष भी। शिवनारायण की कविताएं सुगंधित धूम्र की भांति अग्नि में से उठ कर विस्तारित होती हैं और प्रतिरोध का आह्वान करती हैं। यूं तो प्रतिरोध की कविताएं हाशिए की आवाजों को आगे बढ़ाकर, सामाजिक मानदंडों पर सवाल उठाकर और आलोचनात्मक प्रतिबिंब को प्रोत्साहित करके प्रतिरोध का एक उपकरण बन जाती है लंकिन शिवनारायण की कविता में चीख-चिल्लाहट नहीं वरन धैर्य की दृढ़ता है। जैसे संग्रह की शीर्षक कविता ‘‘प्रतिरोध का महाशंख’’ अदम्य उत्साह एवं साहस के एक नाद स्वर की भांति गूंजती है-
मैं स्मृति के गर्व में डूबा
किसी मनुपुत्र की स्मृति के
शिलालेख पूजन का महामंत्र नहीं
कि सदियों के स्याहपत्र का भक्षण कर
किसी सभ्यता के आदिम राग का अधिष्ठान रचूँ!
तुम मुझे कितना भी तोड़ो
मैं गाता ही रहूंगा सृजन के गीत !
जब मनुष्य टूटने से डरना बंद कर दे तो उसका डटे रहना सुनिश्चित होता है। तभी बनती है ‘‘साथी हम लड़ेंगे’’ जैसी कविता-‘‘लड़ो, लड़ो, लड़ो साथी/कि लड़ना ही तुम्हारे वश में है/कि जो लड़ नहीं सकता/अपने होने को वह जी नहीं सकता/उसका सारा जीवन समझो हुआ अकारथ!’’
कवि निरंतर आकलन करता रहता है समय-समाज, आत्मसंघर्ष, वेदना-संवेदना, व्यक्त और अव्यक्त भावनाओं, सहजीवन और पलायन का। उसे कभी उड़ते हुए सफेद बादल धुनकी हुई रुई की भांति लगते हैं तो कभी किसी झोपड़ी में टिमटिमाता दीपक महामृत्युंजय पाठ करता हुआ ध्वनित होता है। यही तो है जीवन का वह व्याकरण जिसे कवि समझने की कोशिश करता रहता है। कवि की कविता का बोधितत्व भी इसी व्याकरण से हो कर यात्रा करता है। शिवनारायण अपनी कविता में स्पष्ट करते हैं कि जीवन के व्याकरण को समझना आसान नहीं है। अनेक भ्रम उसकी गोद में पलते रहते हैं। जो सहज है, आमव्यक्ति है, वह इस व्याकरण को न समझपाने की स्थिति में भले ही हारता रहे किन्तु इसी हार में उसकी निर्बोध सत्यता विजय पाती है। ‘‘व्याकरण’’ शीर्षक से इस संग्रह में एक छोटी-सी कविता है, सरल-सहज शब्दों में किन्तु गूढ़ता की अनेक पर्तें लिए हुए-
रेतों से
भरे आकाश में
उड़ान भरने की
मेरी कोशिशें
होती रहीं निष्फल !
मैं मैदान का आदमी
रेगिस्तान के
व्याकरण को
भला कितना जानूं !!
वस्तुतः रेत प्रतीक है उस शुष्कता का जो अनुभवजनित अवसाद से पैदा होती है। जीवन नीरस और निरीह लगने लगता है। ऐसे टूटन भरे पलों में यदि कोई ऐसा तत्व है जो सरसता का संचार कर सकता है तो वह है प्रेम। कवि शिवनारायण ‘‘रेत में कविता’’ के माध्यम से प्रेम का आवाहन करते हैं और पृथ्वी पर असंवेदन के फैलते ऊसरपन के प्रतिकार के रूप में देखते हैं प्रेम कविताओं को।
दुनिया में उग रहे
कैक्टस के विरूद्ध
उसने रेत में उगाई
प्रेम की कविताएँ!
रेत में सृजन
ऊसर होती पृथ्वी का
विकल्प नहीं,
प्रतिकार है
उसे ऊसर बनाए जाने का !
शिवनारायण अपनी कविताओं के द्वारा विषमता, विपन्नता, विडंबना और विस्थापन का खुलासा करते हैं, इनका प्रतिकार एवं प्रतिरोध करते हैं किन्तु उनके सृजन-स्वर में तनिक भी नैराश्य नहीं है। वे विषम परिस्थितियों को कोसते नहीं हैं, अपितु परिस्थितियों से हंस कर जूझने कारास्ता सुझाते हैं। यह एक बड़ी सकारात्मक बात है इस संग्रह की कविताओं में। जब निराशा घर कर रही हो तब कलपना और गहरे अंधकार की ओर धकेल देता है, वहीं यदि अपने भीतर की ऊर्जा को महसूस कर लिया जाए तो विषम के अंधड़ में भी सम की शीतल मंद समीर का अनुभव किया जा सकता है। ‘‘चुप मत रहो’’ एक ऐसी ही कविता है जिसमें कवि प्रकृति से जीवंतता की सीख लेने का तरीका बताता है-
पेड़ों सा हँसो
जंगल सा गाओ
नदियों सा बहो
मेघों सा गरजो
हँसो...गाओ...बहो...गरजो
पर चुप मत रहो!
हर युग में मानव जीवन को जितना प्रभावित किया है उसकी अपनी बनाई अर्थसत्ता ने, उतना ही असर डाला है उसकी अपनी गढ़ी हुई राजनीति ने। हर युग में राम हुए तो रावण भी हुए, कुष्ण हुए तो कंस भी हुए, पांडव हुए तो कौरव भी हुए, सुर हुए तो असुर भी हुए। जब राजनीति‘‘खिलखिलाती सत्ता’’ संग्रह की वह कविता है जो स्थितियों के दूषित होने तथा व्यवस्था के बिगड़ते जाने पर कटाक्ष करती है और एक विश्लेषणात्मक दृष्टि प्रस्तुत करती है-‘‘जाने क्या हो गया मुझे/अक्सर कोहरे में ढूंढ़ने लगता हूँ/उस उत्फुल्ल चेहरे को/जो रोशनी में कहीं नजर नहीं आता!’’ फिर इसी कविता में कवि ने आगे लिखा है कि -‘‘ जाने क्या हो गया है मुझे
कांपते रोदन के बीच
सुदीर्घ लय में दुनिया का गान
रह-रह अकथ कथा का वितान
छोड़ जाता है सूनी दीवारों पर
जिनसे टकरा-टकरा कर
खुद को लहूलुहान
महसूस करने लगता हूँ!
संग्रह की कविताओं में बढ़ते क्रम में प्रतिरोध का स्वर गहराता गया है अंतिम पृष्ठों की कुछ कविताएं उस क्लाइमेक्स पर जा पहुंचती है जहां प्रतिरोध की धार तीक्ष्ण से तीक्ष्ण होती गई है। कविता “ये कैसी सरकार” की कुछ पंक्तियां देखिए-
सत्ता मद में चूर हो, उनका तन विकराल
मीडिया करे चाकरी, सबका बेड़ा पार
गोली चले किसान पर, गिर जनता पर गाज
छप्पन इंच का सीना, है योगी का राज
भगवा पताका लिखकर, न कर इसका विश्वास
हिन्दू-हिन्दू जाप कर, करे दलित का नाश
करे धर्म के नाम पर, अधर्म का व्यापार
विरोध पर हमला करे, ये कैसी सरकार
कवि शिवनारायण ने अमूर्त को मूर्त रूप प्रदान करते हुए अपने काव्य में जो दृश्यात्मकता पैदा की है, वह प्रभावित करती है। अनुभूति की गहराई, जीवंतता, संक्षिप्ता और सरलता कवि शिवनारायण के बिम्ब विधान को एक अलग ही स्तर पर ले जाती हैं। शिवनारायण के काव्य में बिम्बों का प्रयोग एक ‘टूल’ के रूप में हुआ है। उन्होंने बिम्बों का प्रयोग अपनी भाषाई लावण्य और चिन्तन को अधिक सुग्राह्य बनाने के लिए किया है। उनके बिम्बों में सादगी के साथ चटखपन भी है। वे गोपन नहीं रखना चाहते हैं किन्तु इतना मुखर भी नहीं हाना चाहते हैं कि दृश्य विद्रूप हो जाए। यहां वे बार्तोल्ल ब्रेख्त के ब्रेख्तीनियन विचार के समीप जा पहुंचते हैं। बर्तोल्ल ब्रेख्त ने जो बात रंगमंच के लिए कह थी, उसे शिवनारायण अपनी कविताओं में प्रतिबिम्बित करते दिखाई देते हैं। बर्तोल्ल ब्रेख्त ने अतियथार्थवाद के रंगमंच का विरोध किया और मंच पर भ्रम पैदा करने से भी परहेज किया। यही कंट्रास्ट शिवनारायण की कविता में बिम्बित होता है। ऐसा करते हुए वे पाब्लो नेरुदा के निकट जा पहुंचते हैं। कविताओं के बारे में पाब्लो नेरुदा कहते थे कि “एक कवि को भाइचारे और एकाकीपन के बीच एवं भावुकता और कर्मठता के बीच, तथा अपने आप से लगाव और समूचे विश्व से सौहार्द व कुदरत के उद्घाटनांे के बीच संतुलित रह कर रचना करना जरूरी होता है और वही सच्ची कविता होती है।”
शिवनारायण की छोटी कविताएं भी विचारों को पूरा विस्तार देती हैं। वे कम शब्दों के छोटे से कैनवास पर विचारों का ऐसा दृश्य चित्रित करते हैं कि उसमें देश, काल, परिस्थिति एवं संभावना-सभी कुछ अपने पूरे शेड्स के साथ उभर कर आंखों के सामने आकार ले लेता है। शिवनारायण के काव्य में विम्बों की विविधता और भाषाई संतुलन बखूबी दिखाई पड़ता है। संग्रह का ब्लर्ब सुप्रसिद्ध कवयित्री अनामिका ने लिखा है। उनका यह कथन सटीक है कि ‘‘इन कविताओं में अभिधा की सादगी तो है ही, लक्षणा- व्यंजना की कौंध भी है। बिजली की कौंध रास्ता प्रकाशित न भी करे, पर इसका अहसास तो दिला ही जाती है, कि अंधेरा कितना घना है।’’
वस्तुतः कवि शिवनारायण की कविताएं एक सविनय अवज्ञा आंदोलन की भांति हैं, जो प्रतिरोध करती है किंतु किसी को नीचा दिखाने का प्रयत्न नहीं करती बल्कि आईना दिखाने का कार्य करती है। प्रतिरोध के शंखनाद में है आशा, ऊर्जा और प्रेम का स्वर। इस संग्रह की सभी कविताएं पढ़े जाने योग्य तथा मनन-चिंतन योग्य हैं।
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