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My Editorials - Dr Sharad Singh

Wednesday, September 21, 2011

इंगलुक शिनवात्रा और महिला तस्करी की चुनौती


- डॉ. शरद सिंह 

अपने परिवार की नौवीं संतान इंगलुक शिनवात्रा उच्च शिक्षा प्राप्त महिला हैं। इंगलुक ने देश के उत्तरी शहर चियांग माइ से स्नातक की डिग्री हासिल करने के बाद अमेरिका के केंटुकी स्टेट यूनिवर्सिटी से परा-स्नातक की डिग्री हासिल की। उसके बाद अपने भाई थाकसिन द्वारा स्थापित दूरसंचार कंपनी एआईएस में प्रबंध निदेशक के पद पर कार्य किया। इंगलुक ने प्रधानमंत्री पद से पूर्व और कोई राजनीतिक पद नहीं संभाला है। वे थाईलैंड की 28 वीं प्रधानमंत्री हैं।

44 वर्षीया इंगलुक शिनवात्रा देश के पूर्व प्रधानमंत्री थाकसिन शिनवात्रा की छोटी बहन हैं अतः राजनीतिक वातावरण से उनका पुराना परिचय है। इंगलुक शिनवात्रा थाईलैंड की पहली महिला प्रधानमंत्री चुनी गईं। थाईलैंड में संसद के लिए आम चुनाव 03 जुलाई, 2011 को कराया गया था। चुनाव आयोग ने थाईलैंड में संसद के लिए हुए आम चुनाव के परिणाम की घोषणा 4 जुलाई, 2011 को की। इस आम चुनाव में इंगलुक शिनवात्रा के नेतृत्व वाली फू थाई पार्टी ने 500 सीटों वाली थाई संसद में 265 सीटें जीतीं। इस दल ने प्रधानमंत्री अभिसित वेज्जाजीवा की सत्ताधारी डेमोक्रेटिक पार्टी को पराजित किया। ब्रिटिश मूल के अभिसित वेज्जाजीवा की डेमोक्रेटिक पार्टी को कुल 159 सीटें मिलीं।  
             
      इंगलुक शिनवात्रा को चार और पार्टियों का समर्थन प्राप्त है, जिससे उनके पक्ष में बहुमत २९९ का हो गया। इंगलुक शिनवात्रा दृढ़ विचारों की महिला मानी जाती हैं लेकिन थाईलैंड की प्रधानमंत्री के रूप में उनकी राह आसान नहीं है।
महिलाओं का भरपूर समर्थन
                                     
           थाईलैंड में महिला प्रधानमंत्री के रूप में सबसे बड़ी चुनौती महिला तस्करी अर्थात्‌ वूमेन ट्रैफिकिंग की है। थाईलैंड लगभग दो दशक पहले महिलाओं की तस्करी के क्षेत्र में सबसे अग्रणी देशों में गिना जाता था। थाईलैंड अब भी वूमेन ट्रैफिकिंग के मार्ग में सहायक देश माना जाता है। महिला तस्करी के विरुद्ध विश्वसंगठन (कोलिटेशन अगेन्स ट्रैफिकिंग इन वूमेन सीएटी डब्ल्यू) की एशिया पेसफिक रिपोर्ट के अनुसार रूस, यूगोस्लाविया, पोलैंड और चेक और स्लोवाक गणराज्यों, दक्षिण अमेरिका से महिलाओं की तस्करी थाईलैंड के रास्ते से की जाती है। थाईलैंड के रास्ते संचालित महिला तस्करी नीदरलैंड और जर्मनी यूरोपीय संघ, जापान, भारत, मलेशिया और मध्य पूर्व के देशों तक फैली हुई है। इसी विश्व संगठन के अनुसार थाईलैंड चीन, वर्मा, लाओस तथा कम्पूचिया के ग्रामीण क्षेत्रों से १८ से ३० वर्ष आयु वर्ग की महिलाएं बैंकाक के रास्ते विश्व के विभिन्न देशों में भेजी जाती हैं। इस तरह निकटवर्ती देशों के साथ ही महिलाओं के साथ ही थाई महिलाएं भी तस्करी की शिकार हैं। वेश्यावृत्ति के लिए उनकी तस्करी की जाती है। इस अवैध व्यापार के कारण थाईलैंड में देह व्यापार भी फल फूल रहा है। 
अपने परिवार के साथ इंगलुक शिनवात्रा
                                                                            
इस दुश्चक्र में फंसी अभागी औरतों को नया जीवन प्रदान करने की गंभीर चुनौती इंगलुक शिनवात्रा के सामने है। बैंकाक पोस्ट के एक समाचार के अनुसार बड़ी संख्या में थाई महिलाओं को यौनाचार में धकेल दिया जाता है। इनमें से अधिकांश औरतें गरीब घरों की होती हैं जिन्हें अच्छे वेतन वाली नौकरी का लालच दे कर दुश्चक्र में फंसाया जाता है। जून 1997 में इसी तरह की एक घटना प्रकाश में आई। महिला तस्करी से जुड़े एक आदमी ने तीन बहनों को कुआलालंपुर, मलेशिया में एक रेस्तरां में नौकरी दिलाने का वादा किया। वह उन्हें मलेशिया तो ले गया किंतु नौकरी दिलाने के बजाय उन्हें वेश्यावृत्ति में झोंक दिया। तीनों बहनों में से एक बहन किसी प्रकार अपनी मां को फोन करने में सफल हो गई। तब मां ने बेटियों को बचाने के लिए थाई पुलिस के आगे गुहार की।
विजयी मुद्रा में इंगलुक शिनवात्रा
                               
थाई पुलिस ने मलेशियाई पुलिस के साथ मिलकर एक सफल प्रयास किया और तीनों बहनों को वेश्यावृत्ति के दलदल से बचा लिया। किंतु अधिकांश लड़कियां और महिलाएं जो एक बार इस दलदल में फंसती हैं, उनका उबर पाना बिना कानूनी प्रयास के लगभग असंभव रहता है। एशियाई आर्थिक संकट के कारण स्थितियां और अधिक दुरूह हो चली हैं। एशियाई देशों की मुद्रा के मूल्य के गिरावट ने महंगाई बढ़ाने के साथ-साथ रोजगार के अवसर कम कर दिए हैं और पारिवारिक आय पर भी करारी चोट की है। ऐसी दशा में वूमेन ट्रैफिकिंग जैसे अपराध महिलाओं के जीवन को तेजी से अपनी लपेट में लेता जाएगा।  
इंगलुक शिनवात्रा
      एक महिला होने के नाते इंगलुक शिनवात्रा को महिलाओं की पीड़ा समझ कर उन्हें ट्रैफिकिंग के भयावह अपराध से बचाना होगा जिसके लिए सबसे पहले महिला तस्करी के विरुद्ध कानून और कड़ा करना आवश्यक होगा। चुनाव जीतने के बाद इंगलुक शिनवात्रा ने अपनी फेकबुक पोस्ट में कहा था कि एक प्रधानमंत्री के रूप में उनकी प्राथमिकताओं में रोजगार उपलब्ध कराना और आंतरिक शांति व स्थिरता स्थापित करना रहेगा।
                                                                    
इंगलुक ने सत्य, न्याय और सभी के लिए कानून के शासन से वादा किया तथा सन्‌ 2020 तक अपने लक्ष्यों को प्राप्त कर लेने की आशा व्यक्त की थी। यदि इंगलुक शिनवात्रा अपने घोषित उद्देश्यों में सफल हो पाती हैं तथा वूमेन ट्रैफिकिंग पर अंकुश लगा पाती हैं तो उनका यह कार्य एशिया प्रशांत क्षेत्र ही नहीं अपितु समूचे एशिया पर सकारात्मक प्रभाव डालेगा। 
(साभार- दैनिकनईदुनियामें 04.09.2011 को प्रकाशित मेरा लेख)

Friday, September 9, 2011

ये जीवट वाली औरतें

- डॉ. शरद सिंह

    सुबह होते ही लगभग हर दूसरे-तीसरे घर में प्रतीक्षा होने लगती है उस जीवट औरत की जो आमतौर पर कामवाली बाई के नाम से जानी जाती है। चाहे उसे उसके नाम से पुकारा जाए, चाहे उसे कोई नाम दे दिया जाए किंतु इससे कामवाली बाइयों का महत्व कम नहीं होता है। यदि वह समय पर नहीं आती है तो मालकिन का मानसिक तनाव सिर चढ़कर बोलने लगता है। देर-सबेर उसके आते ही यह तनाव फट पड़ता है। इतनी देर से क्यों आई? आज फिर कोई बहाना? यदि ऐसे ही देर किया करोगी तो तुम्हारी छुट्टी मैं कोई और कामवाली ढूंढ़ लूंगी! ऐसे न जाने कितने वाक्य हैं जो कामवाली कहलाने वाली औरतों को आए दिन सुनने पड़ते हैं।

        
कामवाली बाइयों को डांटते-फटकारते समय शायद ही किसी को याद रहता हो कि उनका भी घर परिवार है और उन पर भी ढेरों जिम्मेदारियां हैं। यदि वह चुपचाप मालकिन के मनोनुकूल काम करती रहे तो सब ठीक है लेकिन जहां उसने एक भी गड़बड़ की तो उसके साथ कहा सुनी तय रहती है। यदि किसी कार्यालय में काम करने वाली महिला अपने कार्यालय में देर से पहुंचती है तो वह पूरी आशा रखती है कि उसके अधिकारी को उसके प्रति दयाभाव दिखाना चाहिए और उसकी लेटलतीफी को अनदेखा कर देना चाहिए लेकिन कामवाली बाई की लेटपतीफी सहनीय नहीं होती है।

       
बहरहाल, एक ओर जिनके तीन-चार बच्चे हों (या इससे भी अधिक) कम या अनिश्चित आमदनी वाला पति हो, सास-ससुर, ननद-देवर यानी भरा-पूरा परिवार हो, वह अलस्सुबह जागकर पहले अपने घर के काम निपटाती है फिर चल पड़ती है चार पैसे कमाने की जुगत में। उसकी लालसा रहती है कि उसे अधिक से अधिक घरों में काम मिल जाए ताकि कुछ अधिक पैसे कमा सके। 
पहले घर में पहुंच कर वह झाडू लगाती है, बरतन मांजती है, यदि कपड़े धोने का काम भी साथ में है तो कपड़े भी धोती है, फिर भोजन पकाती है। भोजन पकाने के बाद उसे खाने की मेज पर या फ्रिज में रखने के बाद उसके काम की समाप्ति होती है। यही क्रम दूसरे घर में रहता है। फिर तीसरे, चौथे, पांचवें अर्थात जितने घरों में वह काम करती है, यही सारी काम उसे करने होते हैं। एक ही काम को बार-बार दोहराते हुए न तो उसे बोर होने का समय रहता है और न अधिकार। पैसे कमाने हैं तो काम तो करना ही पड़ेगा। सुबह से शाम तक या लगभग रात तक कामवाली बाई का दायित्व निभाने के बाद जब वह थकी-हारी अपने घर लौटती है तो अकसर उसे हिस्से में ही आते हैं उसके अपने घर के काम-काज। इस व्यस्ततम दिनचर्या में जिस भी घर में पहुंचने में उसे देर हो जाती है वहां चार बातें सुनने को मिलती हैं।                         
देर होने का कारण भले ही छोटा क्यों न हो, उसे बढ़ा-चढ़ाकर बताना उसकी विवशता हो जाती है ताकि मालकिन पसीज जाए और उसे काम से निकालने के बारे में न सोचे। वह सच है कि शहरों में अब कामवाली बाइयों की यूनियनें गठित होने लगी हैं। राज्य सरकारें भी उसके अधिकारों और सम्मान के बारे में सजग हो चली है। लोकसभा में महिला एवं बालविकास मंत्री कृष्णा तीरथ द्वारा महिलाओं का कार्यस्थल में लैंगिक उत्पीड़न से संरक्षण संबंधी विधेयक 2010 पटल पर रखा गया था। यद्यपि इसमें घरेलू नौकरानियों के दैहिक शोषण के संबंध में स्पष्ट व्याख्या नहीं थी। मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने घरों में काम करने वाली महिलाओं को कामवाली बाई के बदले बहन जी अथवा दीदी के संबोधन से पुकारने की अपील की। उनका मानना है कि इससे घरेलू काम-काज करने वाली औरतों के सम्मान को बढ़ाया जा सकता है। उन्होंने घरेलू नौकरानियों की महापंचायत के आयोजन किए जाने का भी आह्वान किया। उन्हें फोटोयुक्त परिचय पत्र तथा प्रशिक्षण दिए जाने की भी योजना है।
       
महाराष्ट्र और केरल की भांति दिल्ली राज्य सरकार घरेलू कामगार एक्ट लागू करने के लिए प्रयास कर रही है। जिनके अंतर्गत कामवाली बाई को साप्ताहिक अवकाश के साथ-साथ अन्य सुविधाएं लेने की भी पात्र होंगी। दिल्ली सरकार के श्रम विभाग द्वारा साप्ताहिक अवकाश, न्यूनतम वेतन तथा अन्य सुविधाओं का खाका तैयार किया जा चुका है। यह लाभ उन सभी कामवाली बाइयों को मिलेगा जो अपना पंजीयन कराएंगी। यदि वह सब यथावत होता है तो इसमें कोई संदेह नहीं कि कामवाली बाइयों की जीवन दशा में सकारात्मक सुधार होकर रहेगा।

  
घरेलू जीवन के रोजमर्रा के तंत्र में कामवाली बाइयों के महत्व को किसी भी तरह से कम करके नहीं आंका जा सकता है। चाहे कामकाजी महिलाएं हों या खांटी घरेलू महिलाएं, कामवाली बाइयों के बिना उनके जीवन की तस्वीर पूरी नहीं उभरती है। कम से कम भारत में तो कामवाली बाइयों को बुनियादी आवश्यकता कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।
(साभार- दैनिकनईदुनियामें 24.07.2011 को प्रकाशित मेरा लेख)

Sunday, August 28, 2011

नशीली दवाओं के विरुद्ध अरब औरतें




- डॉ. शरद सिंह

 अरब में औरतें के अधिकारों को लेकर अनेक प्रश्न उठते रहे हैं लेकिन ये अरब औरतें अपने अधिकारों के साथ-साथ अपने बच्चों और समाज के प्रत्येक व्यक्ति के लिए आवाज उठाने लगी हैं। ये अरब औरतें नशीली दवाओं के विरुद्ध एकजुट होती जा रही हैं। संयुक्त अरब अमीरात के महिला विकास मंत्रालय के डायरेक्टर अमाल खशोगी ने एक ऐसा कार्यक्रम भी चला रखा है जो महिलाओं को नशीली दवाओं से होने वाली हानियों की समुचित जानकारी देता है। अमाल मानते हैं कि जब औरतें भी नशे की लत में डूबने लगती हैं, उस स्थिति में समस्या और विकट हो जाती है इसलिए यदि औरतें अपने घर अपने परिवार को बचाने के लिए नशीली दवाओं का विरोध करने लगी हैं तो सरकार हर हाल में उनका साथ देगी।

   मुस्लिम औरतों और वह भी यदि खाड़ी देशों की हों तो एक ही तस्वीर सामने आती है, बुर्के (हिजाब) में लिपटी, रूढ़िवादी परंपराओं की जंजीरों से जकड़ी और पुरुषों की दासता में जीती औरत। मगर अब खाड़ी देशों की औरतों की तस्वीर तेजी से बदल रही है। विशेष रूप से संयुक्त अरब अमीरात में औरतों के समुचित विकास पर ध्यान दिया जा रहा है।  
      
राजकुमारी लुलुआ
    अरब क्षेत्र में महिलाओं की दशा में सुधार लाने का श्रेय सऊदी के राजकुमार सऊद अल फैजल और उनकी बहन राजकुमारी लुलुआ को दिया जा सकता है जो लगातार इस दिशा में प्रयत्नशील हैं। राजकुमारी लुलुआ ने अरब महिलाओं की शिक्षा ओर शिक्षित महिलाओं को रोजगार से जोड़ने की महत्वपूर्ण पहल की। राजकुमार सऊद अल फैजल भी उनके साथ हैं। राजकुमारी लुलुआ का कहना है कि हम अपनी महिलाओं को पश्चिमी शैली में नहीं, अपनी स्वस्थ परंपराओं के अनुरूप विकास की मुख्यधारा से जोड़ रहे हैं, हम कट्टर रूढ़ियों से औरतों को बाहर निकलने में मदद कर रहे हैं।

      
राजकुमारी लुलुआ की बातों में दम है। सदियों की परंपराओं को एक झटके के साथ तोड़ना कभी कारगर नहीं रहा। शिक्षा के प्रति रुचि लगा कर, स्वास्थ्य एवं समाज संबंधी बुराइयों के विरुद्ध जागरूकता ला कर आमूलचूल परिवर्तन लाया जा सकता है। यह सही रास्ता है। अब अरब औरतें इसी रास्ते पर बढ़ती जा रही हैं। यह भी सही है कि यह सब कुछ बहुत आसान नहीं है, इसमें अभी बहुत समय लगेगा फिर भी एक अच्छी पहल हमेशा अच्छी ही होती है। भारत में भी इस तरह के बहुत सार्थक प्रयास किए गए तब कहीं जाकर आज भारतीय औरतें खुली हवा में सांस ले पा रही हैं। भारत में भी नशीली दवाओं के विरुद्ध अनेक कानून हैं- मृत्युदंड को छोड़कर। नशेड़ियों को नशे की लत से मुक्त कराने के लिए अनेक स्वयंसेवी संगठन काम कर रहे हैं।
कभी-कभी घरेलू महिलाएं भी संगठित होकर स्वयं निकल पड़ती हैं शराब जैसे नशे का विरोध करने। किंतु अन्य नशीली सामग्रियों और उनके दुष्प्रभावों की जानकारी उन्हें नहीं के बराबर है। इसी तथ्य को अरब प्रशासन ने अपने यहां समझा और उस पर ध्यान दिया। वहां का प्रशासन अपने देश की औरतों को हर तरह के नशों के विरुद्ध सजग कर देना चाहता है।
       
संयुक्त अरब अमीरात के कानून के अनुसार नशीली दवाओं के तस्करी पर मृत्युदंड तक का प्रावधान है। फिर भी वहां का प्रशासन उस समय चौंका जब एक सलाहकार शोरा परिषद के समक्ष प्रस्तुत रिपोर्ट में यह तथ्य सामने आया कि लगभग एक लाख से अधिक युवा सऊदी पुरुष और महिलाएं किसी न किसी नशीली दवा के शिकार हैं। इसीलिए वहां की सरकार ने महिलाओं को नशामुक्ति के अपने अभियान में शामिल कर लिया क्योंकि महिलाएं घरेलू स्तर पर नशे की प्रवृत्ति को रोकने में कानून से भी अधिक कारगर साबित हो सकती हैं।

     
संयुक्त अरब अमीरात के मदीना, हाइल, जझान, ताबुक और कासिम आदि क्षेत्रों में सरकार की ओर से महिलाओं को विभिन्न स्तरों पर नशीली दवाओं नारकोटिक्स और उससे होने वाली हानि तथा नशीली दवाएं लेने से रोकने के उपायों की जानकारी देने वाले केंद्र काम कर रहे हैं।
         
दिलचस्प बात यह भी है कि इन केंद्रों के प्रति अरब औरतों में स्वतः उत्साह है। वे अपने पति, अपने बेटों, अपनी बेटियों और अपने अन्य परिवारजन को नशीली दवाओं से मुफ्त देखना चाहती हैं। हन्ना अल फरीह शासकीय संस्थान की यूनिट डायरेक्टर हैं। जझान के केंद्र में लगभग ६० औरतें जानकारी प्राप्त कर चुकी हैं जो अब नशीली दवाओं के विरुद्व उठ खड़ी हुई हैं। निश्चितरूप से यह अरब औरतों की जागृति की वह बयार है जो अन्य मुस्लिम देशों पर भी सकारात्मक प्रभाव डालेगी।
(साभार- दैनिकनईदुनियामें 31.07.2011 को प्रकाशित मेरा लेख)

Saturday, July 30, 2011

दक्षिणी सूडान की स्वतंत्रता और स्त्री शक्ति

- डॉ. शरद सिंह 

 आंधी-तूफान के बाद खिलने वाली सुनहरी धूप की भांति दक्षिणी सूडान की स्वतंत्रता एक लंबे गृहयुद्ध के बाद हासिल हुई है। गृहयुद्ध के दौरान पुरुषों ने बढ़-चढ़ कर अपने अधिकारों की लड़ाई लड़ी और बड़ी संख्या में हताहत हुए। इसका सबसे अधिक दुष्परिणाम झेला स्त्रियों ने। अपनों के मारे जाने का दुख और शेष रह गए जीवितों के प्रति जिम्मेदारी का संघर्ष। इन सबके बीच अनेक स्त्रियों को बलात्कार जैसी मर्मांतक पीड़ा से भी गुजरना पड़ा।


     छत्तीस वर्षीया जेसिका फोनी ने अपने अभी तक के जीवन में आठ बार प्रसव पीड़ा सहन की है और सुविधा के अभाव में अपने दो बच्चों को मौत के मुंह में जाते देखा है। जेसिका को जब इस बात का पता चला कि उसकी जन्मभूमि एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में दुनिया के नक्शे पर स्थापित होने जा रही है तो वह स्वयं को रोक नहीं सकी। जेसिका की आंतरिक प्रसन्नता और अपने स्वतंत्र राष्ट्र से जुड़ी हुई आशा और दक्षिणी सूडान की राजधानी खींच लाई जहां देश की स्वतंत्रता की विधिवत घोषणा की जाने वाली थी। सुदूर ग्रामीण क्षेत्र से आई जेसिका ने उत्सव का जी भर कर आनंद लिया।    
    आंधी-तूफान के बाद खिलने वाली सुनहरी धूप की भांति दक्षिणी सूडान की स्वतंत्रता एक लंबे गृहयुद्ध के बाद हासिल हुई है। गृहयुद्ध के दौरान पुरुषों ने बढ़-चढ़ कर अपने अधिकारों की लड़ाई लड़ी और बड़ी संख्या में हताहत हुए। इसका सबसे अधिक दुष्परिणाम झेला स्त्रियों ने। अपनों के मारे जाने का दुख और शेष रह गए जीवितों के प्रति जिम्मेदारी का संघर्ष। इन सबके बीच अनेक स्त्रियों को बलात्कार जैसी मर्मांतक पीड़ा से भी गुजरना पड़ा। वह दक्षिणी सूडान के इतिहास का एक अंधकारमय समय था किंतु जैसा कि अंधेरा छंटता है और सूरज दिखाई देने लगता है, दक्षिणी सूडान में भी स्वतंत्रता का सूरज उग ही गया। 
   जेसिका फोनी के लिए देश की स्वतंत्रता का एक अर्थ है कि अब उसके सुदूर गांव जैसे ग्रामीण अंचलों में प्रसूति से जुड़ी चिकित्सा सुविधाएं उपलब्ध हो जाएंगी। उसे आशा है कि अब उसकी तरह किसी और मां को चिकित्सा सुविधा के अभाव में अपने बच्चों को अपनी आंखों के सामने मरते हुए नहीं देखना पड़ेगा। विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकडों के अनुसार दक्षिणी सूडान में मातृ-शिशु मृत्यु दर विश्व में सर्वाधिक है। वहां अब तक प्रत्येक एक लाख प्रसव के दौरान लगभग २०५४ स्त्रियों की मृत्यु हो जाती है। ऐसी विकट स्थिति में जेसिका के सुरक्षित मातृत्व का सपना देश की स्वतंत्रता का पर्याय है।
        
 
जेम्मा नुनू कुंबा
   जेसिका फोनी के सपने को सच होने की संभावना तक लाने का श्रेय उन स्त्रियों को है जो स्वतंत्रता के संघर्ष के दौरान पुरुषों के कंधे से कंधा मिलाकर सशस्त्र लड़ाई लड़ती रहीं। सूडान पीपुल्स लिबरेशन आर्मी की गर्ल्स बटालियन ने द्वितीय गृह युद्ध में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। सूडान में दो प्रमुख गृहयुद्ध हुए। पहला सन्‌ १९४३ से १९७२ तक और दूसरा १९८३ से आरंभ हुआ और देश को स्वतंत्रता का दर्जा दिलाने तक चला। गर्ल्स बटालियन की कमांडर अगिएर अगुम ने जिस साहस और दृढ़ता के साथ बटालियन का संचालन किया था वह गृहयुद्ध को सकारात्मक परिणाम में बदलने में एक अहम निर्णायक पक्ष रहा। कमांडर अगिएर अगुम ने सहायता शिविरों के लिए भी काम किया था।
      
अगिएर अगुम की भांति जेम्मा नुनू कुंबा ने भी दक्षिणी सूडान के स्वतंत्रता संघर्ष में बढ़ चढ़ कर भाग लिया था। यह जानते हुए भी कि इस संघर्ष में किसी भी पल वे किसी गोली या बम का शिकार हो सकती थीं। जेम्मा नुनू कुंबा का मानना है कि प्रत्येक मनुष्य में स्वतंत्रता की भावना प्राकृतिक रूप से पाई जाती है। जेम्मा ने स्वतंत्रता संघर्ष में शामिल होने के लिए विश्वविद्यालय की अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी थी। जेम्मा का जन्म अन्या-न्या में उस समय हुआ था जब प्रथम गृह युद्ध शुरू हो चुका था। देश में अस्थिरता का वातावरण था। इसीलिए जेम्मा के भीतर देश की स्वतंत्रता की भावना उम्र बढ़ने के साथ-साथ बलवती होती गई। जेम्मा स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए सशस्त्र संघर्ष को उचित ठहराती हैं। उनके अनुसार, "प्रत्येक व्यक्ति स्वतंत्रता के वातावरण में सांस लेना चाहता है और स्वतंत्रता उसका जन्मसिद्ध अधिकार है। अतः यदि स्वतंत्रता पाने के लिए सशस्त्र संघर्ष भी करना पड़े तो वह जीवन संघर्ष की भांति उचित है। "
  स्वतंत्र दक्षिणी सूडान में जेम्मा नुनू कुंबा पर जिम्मेदारी है जेसिका फोनी जैसी हजारों स्त्रियों के सपनों को पूरा करने की। वे स्वतंत्र दक्षिणी सूडान की प्रथम महिला गवर्नर होने का गौरव पाने के साथ ही देश के प्रथम राष्ट्रपति साल्वा कीर मयार्दित सरकार में हाउसिंग और इन्फ्रास्ट्रक्चर मंत्री हैं। जेम्मा को अरूबा का सपना भी पूरा करना है जो एक शिक्षिका है और जिसने अपने स्कूल के बच्चों को कठिनतम समय में भी पढ़ाई से जोड़े रखा। अरूबा के स्कूल में न तो फर्नीचर है और न ब्लैक बोर्ड। दाने-दाने के लिए जूझने वाले बच्चों के पास किताबें होने का तो प्रश्न ही नहीं था। फिर भी अरूबा ने हिम्मत नहीं हारी और अपने ज्ञान को मौखिक रूप से बच्चों को देती रहीं ताकि वे जीवन के आवश्यक ज्ञान से वंचित न रह जाएं। अरूबा को कुछ समय भूमिगत भी रहना पड़ा क्योंकि उसके क्षेत्र के सैन्य अधिकारी को संदेह हो गया था कि वह पढ़ाने के साथ-साथ उन लोगों की सहायता करती है जो स्वतंत्रता के लिए संघर्षरत हैं।
                                     
       
दक्षिणी सूडान
जेम्मा नुनू कुंबा, अगिएर अगुम, अरूबा, साफिया इश्क आदि अनेक स्त्रियों ने अपना सब कुछ दांव पर लगाकर दक्षिणी सूडान को स्वतंत्रता दिलाई है और अब यही स्त्री शक्ति एक सुदृढ़ देश का ताना-बाना रचेगी।
(साभार- दैनिकनईदुनियामें 17.07.2011 को प्रकाशित मेरा लेख)


Sunday, July 17, 2011

अपनों के हाथों बिकतीं लड़कियां

 - डॉ. शरद सिंह        
  
        इसमें कोई संदेह नहीं है कि गरीबी की आंच सबसे पहले औरत की देह को जलाती है। अपने पेट की आग बुझाने के लिए एक औरत अपनी देह का सौदा शायद ही कभी करे, वह बिकती है तो अपने परिवार के उन सदस्यों के लिए जिन्हें वह अपने से बढ़कर प्रेम करती है और जिनके लिए अपना सब कुछ लुटा सकती है। लेकिन देह के खेल का एक पक्ष और भी है जो निरा घिनौना है। यही है वह पक्ष जिसमें परिवार के सदस्य अपने पेट की आग बुझाने के लिए अपनी बेटी या बहन को रुपयों के लालच में किसी के भी हाथों बेच दें। 
        
        औरतों का जीवन मानो कोई उपभोग वस्तु हो-कुछ इस तरह स्त्रियों को चंद रुपयों के बदले बेचा और खरीदा जाता है। इसे मानव तस्करी, महिला तस्करी या तथाकथित "विवाह" का नाम भले ही दे दिया जाए लेकिन उन औरतों की पीड़ा को भला कौन समझ सकेगा जो अपने ही माता-पिता, चाचा, मामा, ताऊ, जीजा आदि निकट संबंधियों के द्वारा "विवाह" के नाम पर बेची जा रही हैं। इस प्रकार के अपराध कुछ समय पहले तक बिहार, पश्चिम बंगाल तथा उत्तर प्रदेश के सीमांत क्षेत्रों में ही प्रकाश में आते थे लेकिन अब इस अपराध ने अपने पांव इतने पसार लिए हैं कि इसे मध्य प्रदेश के गांवों में भी घटित होते देखा जा सकता है। इस अपराध का रूप "विवाह" का है ताकि इसे सामाजिक मान्यताओं एवं कानूनी अड़चनों को पार करने में कोई परेशानी न हो।

            
 
          मध्य प्रदेश के बुंदेलखंड में भी उड़ीसा तथा आदिवासी अंचलों से अनेक लड़कियों को विवाह करके लाया जाना ध्यान दिए जाने योग्य मसला है, क्योंकि यह विवाह सामान्य विवाह नहीं है। ये उन घरों की लड़कियां हैं जिनके मां-बाप के पास इतनी सामर्थ्य नहीं है कि वे अपनी बेटी का विवाह कर सकें , ये उन परिवारों की लड़कियां हैं जहां उनके परिवारजन उनसे न केवल छुटकारा पाना चाहते हैं बल्कि छुटकारा पाने के साथ ही आर्थिक लाभ कमाना चाहते हैं। ये गरीब लड़कियां कहीं संतान प्राप्ति के उद्देश्य से लाई जा रही हैं तो कहीं मुफ्त की नौकरानी पाने के लालच में खरीदी जा रही हैं। इनके खरीदारों पर उंगली उठाना कठिन है क्योंकि वे इन लड़कियों को ब्याह कर ला रहे हैं।

               
                खरीदार जानते हैं कि "ब्याह कर" लाई गईं ये लड़कियां पूरी तरह से उन्हीं की दया पर निर्भर हैं क्योंकि ये लड़कियां न तो पढ़ी-लिखी हैं और न ही इनका कोई नाते-रिश्तेदार इनकी खोज-खबर लेने वाला है। ये लड़कियां भी जानती हैं कि इन्हें ब्याहता का दर्जा भले ही दे दिया गया है लेकिन ये सिर नहीं उठा सकती हैं। ये अपनी उपयोगिता जता कर ही जीवन के संसाधन हासिल कर सकती हैं। इन लड़कियों के साथ सबसे बड़ी विडंबना यह भी है कि ये अपनी बोली-भाषा के अलावा दूसरी बोली-भाषा नहीं जानती हैं अतः ये किसी अन्य व्यक्ति से संवाद स्थापित करके अपने दुख-दर्द भी नहीं बता सकती हैं। 
        
             इनमें से अनेक लड़कियां ऐसी हैं जिन्होंने इससे पहले कभी किसी बस या रेल पर यात्रा नहीं की थी अतः वे घर लौटने का रास्ता भी नहीं जानती हैं। इससे भी बड़ा दुर्भाग्य यह है कि लौटकर जाने के लिए इनके पास कोई "अपना" नहीं है। जिन्होंने इन लड़कियों को विवाह के नाम पर अनजान रास्ते पर धकेला है वे या तो इन्हें अपनाएंगे नहीं या फिर कोई और "ग्राहक" ढूंढ़ निकालेंगे।

(साभार- दैनिकनईदुनियामें 16.01.2011 को प्रकाशित मेरा लेख)

Saturday, July 2, 2011

जमीला, सारा, दारा और सरकोजी

- डॉ. शरद सिंह

फ्रांस में नए कानून के अनुसार पुलिस बुर्का पहनी किसी भी महिला पर जुर्माना लगा सकती है। फ्रांस इसके पहले २००४ में एक कानून बनाकर स्कूलों में स्कार्फ पर रोक लगा चुका है। उस समय भी सरकार को विरोध का सामना करना पड़ा था। अततः अब यूरोप के सबसे अधिक मुस्लिम आबादी वाले देश फ्रांस में बुर्का पहनने पर प्रतिबंध लगा दिया गया और इसका श्रेय फ्रांस के राष्ट्रपति निकोलस सरकोजी को है। इस नए नियम के अनुसार अब महिलाएं सार्वजनिक स्थलों पर बुर्का नहीं पहन सकेंगी। 
राष्ट्रपति सरकोज़ी
         इस कानून को प्रयोग में लाना काफी कठिन होगा क्योंकि यह चेहरा ढंकने वाले किसी भी तरीके का विरोध करता है लेकिन अनेक लोगों का यह भी मानना है कि इस कानून का उद्देश्य इस्लाम की निंदा करना नहीं बल्कि महिलाओं को बिना परदे के चलने की स्वतंत्रता देना है जिससे वे अन्य महिलाओं की तरह स्वयं को महसूस कर सकें। राष्ट्रपति सरकोजी को हमेशा से एक प्रगतिशील विचारों का नेता माना जाता रहा है और समय-समय पर उन्होंने अपनी प्रगतिशीलता के प्रमाण भी दिए हैं। 
     देखा जाए तो यह बहुत विचित्र लगता है कि देश की एक बड़ी संख्या में महिलाएं इच्छानुसार मुक्तभाव से कपड़े पहनें और दूसरी ओर कुछ महिलाएं पर्दे के चलन का निर्वाह करती रहें। इस दृष्टि से राष्ट्रपति सरकोजी का यह कदम न्यायसंगत लगता है किंतु बहुत कठिन डगर है इस कानून की।

           
बुर्का इस्लामिक आचार-व्यवहार में इतना रचा-बसा है कि उसे छोड़ पाना मुस्लिम महिलाओं के लिए कितना कठिन होगा इसका अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि कुछ प्रमुख इस्लामिक देशों में नन्ही-मुन्नी बच्चियां जिन गुड़ियों से खेलती हैं वे गुड़ियां भी बुर्का सहित गढ़ी जाती हैं। 

बार्बी डॉल फुल्ला
          गुड्डे-गुड़िया का खेल सामाजिक संस्कार देता है और बुर्के वाली गुड़ियों से खेलने वाली नन्ही बालिकाओं को बुर्का पहनने के संस्कार गुड़ियों के द्वारा उनकी अबोध अवस्था में ही उनके मानस में डाल दिए जाते हैं। नन्ही बालिकाएं बचपन से ही अपनी मां को बुर्के में लिपटी देखती हैं, अपनी गुड़ियों को बुर्का पहने देखती हैं और परिवार-समाज के लोगों को बुर्के की तरफदारी करते पाती हैं, तब वे एक झटके से बुर्के के बाहर कैसे आ सकती हैं?

        
जब बार्बी गुड़िया बनाने वाली कंपनी ने सन्‌ २००३ में "फुल्ला" नाम की गुड़िया बनाकर बाजार में उतारी थी जिसे "अबाया" और सिर पर रूमाल पहनाया गया था। अनेक पश्चिमी और एशियाई देशों में इस गुड़िया पर टीका-टिप्पणी की गई थी जबकि इस्लामिक देशों में इसका स्वागत किया गया था। अरब गुड़िया "जमीला" "फुल्ला" से कहीं अधिक बुर्काधारी रूप में सामने आई। 
गुड़िया सारा और दारा
अरब गुड़िया जमीला
इसे सिम्बा टॉय ने मध्य एशिया के बाजारों में सन्‌ २००६ में उतारा था। सऊदी अरब के बाजारों में इसे बहुत पसंद किया गया। इसका चेहरा बहुत ही सुंदरता से गढ़ा गया था किंतु यह भी काले रंग का "अबाया" (बुर्का जैसा वस्त्र) और सिर पर रूमाल बांधे हुए थी।

        
जमीला और फुल्ला से भी पहले ईरान में बॉर्बी की भांति सुंदर और नन्ही लड़कियों के सपनों की गुड़ियां "सारा" और "दारा" सन्‌ २००२ से बाजार में आ चुकी थीं। उस समय इसे अमेरिकी संस्कृति और ईरानी संस्कृति के मध्य टकराव के रूप में देखा गया। छोटी फ्रॉक में सजी बॉर्बी की तुलना में ईरानी सलवार, घुटनों से लंबा घेरदार कुर्ता, वास्केट, सिर पर रूमाल और उस पर चादर।

        
परंपरा और स्वतंत्रता के बीच गहरी खाई होती है जिसे एक मुट्ठी रेत से पाटा नहीं जा सकता है, पुल जरूर बनाया जा सकता हैबशर्ते खाई की गहराई में झाकें बिना उस पर चलने का साहस किसी में हो। अंतर्रात्मा की आवाज कुछ ही पल में सब कुछ बदल सकती है लेकिन कानून किसी बात को विरोध सहित मनवा सकता है, निर्विरोध नहीं।
 (साभार- दैनिकनईदुनिया’ में 01मई 2011 को प्रकाशित मेरा लेख)