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My Editorials - Dr Sharad Singh

Tuesday, August 31, 2021

पुस्तक समीक्षा | शुभाकांक्षाओं से संवाद करती काव्य रचनाएं | समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह

प्रस्तुत है आज 31.08. 2021 को #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई कवयित्री जयन्ती खरे 'जया' के काव्यसंग्रह "सस्मिता" की  समीक्षा...
आभार दैनिक "आचरण" 🙏
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पुस्तक समीक्षा
शुभाकांक्षाओं से संवाद करती काव्य रचनाएं 
समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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पुस्तक      - सस्मिता
कवयित्री    - जयन्ती खरे ‘‘जया’’
प्रकाशक    - साहित्य सदन, जया भवन,तिली अस्पताल रोड, तिली वार्ड, सागर (म.प्र.)
मूल्य       - 80/-
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एक  लोरी  जगी  थी सुलाने मुझे 
किन्तु लोरी स्वयं जागरण बन गई।

इन पंक्तियों की कवयित्री जयन्ती खरे ‘‘जया’’ का सद्यः प्रकाशित काव्य संग्रह ‘‘सस्मिता’’ सुंदर भावनाओं की एक हृदयग्राही प्रस्तुति है। ‘‘सस्मिता’’ का अर्थ होता है मुस्कुराहट सहित और संग्रह की कविताएं एक मुस्कुराहट की तरह हृदय को प्रफुल्लित करने में समर्थ हैं। कवयित्री जयन्ती खरे ‘‘जया’’ का जन्म 18 जुलाई 1944 को हुआ था और 27 अगस्त 2008 को उन्होंने इस संसार से विदा ले ली। किन्तु अपनी कोमलकांत रचनाओं के रूप में सदा के लिए अपनी उपस्थिति दर्ज़ करा गई हैं। इस संग्रह की काव्य रचनाओं की चर्चा के पूर्व इसके एक संवेदनशील पक्ष पर ध्यान देना आवश्यक है कि इसे जयन्ती खरे के जीवनसाथी जगदीशचंद्र श्रीवास्तव ने प्रकाशित कराया है ताकि वे अपनी अद्र्धांगिनी के काव्यात्मक पक्ष को सहेज सकें। पाठकों और साहित्यप्रेमियों तक पहुंचा सकें। निश्चितरूप से यह कार्य प्रशंसनीय है क्योंकि वर्तमान समय असंवेदनशील हो चला है, पारिवारिक विखंडन बढ़ रहा है, छोटी-छोटी बातों में ‘‘ब्रेकअप’’ हो जाते हैं, पारस्परिक संबंधों को दीर्घ समय तक प्रेमपूर्ण बनाए रखना कठिन हो चला है। भावनात्मक दृष्टि से ऐसे विपरीत समय में ‘‘सस्मिता’’ काव्य संग्रह पारस्परिक संबंधों में उष्मा संचरण का कार्य कर सकता है। इस संग्रह की रचनाएं एक अलग ही धरातल पर शब्द-संसार रचती हैं।
‘‘सस्मिता’’ का तानाबाना जयन्ती खरे ‘‘जया’’ ने अपने जीवनकाल में ही बुनना आरम्भ कर दिया था। जोकि उनके द्वारा लिखी गई प्रस्तावना से स्पष्ट होता है। उन्होंने संग्रह की प्रस्तावना में लिखा है कि-‘‘यह काव्यकृति प्रस्तुत करते हुए प्रफुल्लित हूं। विद्या देवी के पावन मंदिर में इसे आरती स्वरूप मानिए। जीवन का स्वर्णकाल छात्राओं के बीच बीता। उनकी बाल्यावस्था की प्रच्छाया का मैंने पूर्ण आनन्द लिया। विद्याधन के अतिरिक्त घरेलू जीवन के सुसंस्कार भी उन्हें सौंपे। शैक्षणिक जगत में माता सरस्वती का सानिध्य निरंतर मिलता रहा। भावनाओं केउद्वेलन ने लिखने का सामथ्र्य दिया, काव्यधारा प्रस्फुटित हुई। यह एक सहज प्रभाव रहा। वैसे काव्य लेखन मुझे विरासत में मिला। मेरे पूज्य पिता श्री अम्बिका प्रसाद ‘दिव्य’ प्रदेश के प्रख्यात साहित्यकार रहे। यही गुण ग्राह्यता मुझमें रही। अपने परिवेश में जो देखा, सुना, अनुभूत किया, उसी की प्रच्छाया ही मेरा काव्य लेखन है।’’

कवयित्री जयन्ती खरे के पिता अम्बिका प्रसाद ‘‘दिव्य’’ एक उच्चकोटि के साहित्यकार थे। उन्होंने कविताए,ं कहानियां, उपन्यास लिखे साथ ही चित्रकारी में भी उनका रुझान था। ‘‘खजुराहो की अतिरूपा’’ उनकी एक प्रसिद्ध कृति है। ऐसे विद्वत साहित्यकार की पुत्री होते हुए कोमल संवेदनाओं का जयंती खरे में पाया जाना स्वाभाविक था। लेकिन जयन्ती खरे ने अपने पिता की लेखकीय छाया को अपने ऊपर नहीं पड़ने दिया, बल्कि अपने अनुभवों को सहेजते हुए अपना स्वतंत्र कल्पनालोक रचा। लेकिन अपने जीवनकाल में वे अपने इस संग्रह को प्रकाशित नहीं करा सकीं। उनके निधन ने उनके परिवार पर वज्राघात किया और सबकुछ मानो बिखर गया। पुस्तक प्रकाशित कराने के विचार के संबंध में उनके पति जगदीशचंद्र श्रीवास्तव ने लिखा है कि -‘‘एक लम्बी शोकावधि व्यतीत करने के उपरान्त बड़े यत्न से जयन्ती जी की डायरी में लिखी हुई तथा यत्र-तत्र बिखरी हुई रचनाओं को समेट, सहेजकर एक संग्रह के रूप में प्रकाशित कराने का मेरे मन में विचार आया।’’ वे पुस्तक के नामकरण के संबंध में जानकारी देते हैं कि ‘‘मैं अकसर जयंती जी के मुख से सुनता रहता था कि बेटी सस्मिता मैं तेरे ही नाम का काव्य संग्रह छपवाऊंगी, जिसका ‘सस्मिता’ काव्य संग्रह नाम रखूंगी। लेकिन इसके पहले ही असमय काल के ग्रास में समा गई, मैंने उनके इस कथन को पूर्ण करने का प्रयास किया।’’ इस तरह देखा जाए तो यह पुस्तक पारिवारिक अंतर्संबंधों की प्रगाढ़ता की काव्यात्मक प्रतीक है।
‘‘सस्मिता’’ काव्य संग्रह की भूमिका लिखी है वरिष्ठ कवयित्री, समीक्षक एवं स्तम्भकार डाॅ. वर्षा सिंह ने। उन्होंने लिखा है-‘‘ कवयित्री जयन्ती खरे जया के काव्य में वह समग्रता दिखाई देती है जो उनकी रचनाओं की काव्यात्मकता को विश्वसनीय बनाती है। यूं तो जयन्ती जी से मेरा घनिष्ठ पारिवारिक परिचय रहा है किन्तु उनके भीतर की कवयित्री को मैंने तब जाना और समझा जब सन् 1997 में दैनिक भास्कर के सागर संस्करण के लिए मेरी माता जी डाॅ. विद्यावती मालविका ने ‘सागर संभाग की कवयित्रियां’ शीर्षक धारावाहिक लेखमाला में जयन्ती जी के काव्यपक्ष को बड़ी बारीकी से रेखांकित किया।’’ डाॅ. वर्षा सिंह जयन्ती खरे के रचनाकर्म के बारे में आगे लिखती हैं कि ‘‘सस्मिता काव्य संग्रह जयन्ती जी की संवेदनात्मक अभिव्यक्ति का पिटारा है। इस संग्रह की काव्य रचनाएं छायावाद से प्रयोगवाद तक की यात्रा को स्पर्श करती हैं। उन्होंने अपने काव्य के केन्द्र में स्त्री को रखते हुए सौंदर्यबोध, प्रकृति चित्रण, पारिवारिक परिवेश, सामाजिक मूल्यवत्ता तथा सांस्कृतिक समन्वय को महत्व दिया है।’’

जयन्ती खरे की कविताओं को पढ़ते हुए जयशंकर प्रसाद युगीन छायावाद का सहसा स्मरण हो जाता है। कोमल भावनाओं को कोमल शब्दों को पिरोना जयन्ती खरे की उन कविताओं को छायावादी सांचे में उतार देता है जिनमें वे मनोउद्गार व्यक्त करने के लिए प्रकृति के तत्वों को आधार बनाती हैं। यह पंक्तियां देखिए-
कि जब कविता करती अभिसार
किरण दल छिपने लगता है
कि रवि शरमाने लगता है।
उषा आती है घूंघट डाल
नील अम्बर का बना दुकूल
डुलाता अंचल मंद समीर
ऋतु सुऋतु बन जाती अनुकूल
सघन छाया वन से गिरिराज
चंदेवा कसने लगता है
पथिक सुख पाने लगता है।

छायावादी काव्य में व्यक्तिगत भावनाओं की प्रधानता है। वहां कवि अपने सुख-दुख एवं हर्ष-शोक को ही वाणी प्रदान करते हुए खुद को अभिव्यक्त करता है। यहां सौन्दर्य का अभिप्राय काव्य सौन्दर्य से नही, सूक्ष्म आतंरिक सौन्दर्य से है। बाह्य सौन्दर्य की अपेक्षा आंतरिक सौन्दर्य के उद्घाटन मे उसकी दृष्टि अधिक रमती है। प्रकृति पर मानव व्यक्तितत्व का आरोप छायावाद की एक प्रमुख विशेषता है। छायावादी कवियों ने प्रकृति को अनेक रूपों मे देखा है। छायावाद नामकरण का श्रेय मुकुटधर पाण्डेय को जाता है. हिन्दी साहित्य के आधुनिक चरण मे द्विवेदी युग के पश्चात हिन्दी काव्य की जो धारा विषय वस्तु की दृष्टि से स्वच्छंद प्रेमभावना, प्रकृति मे मानवीय क्रियाकलापों तथा भाव-व्यापारों के आरोपण और कला की दृष्टि से लाक्षणिकता प्रधान नवीन अभिव्यंजना-पद्धति को लेकर चली, उसे छायावाद कहा गया। जयशंकर प्रसाद ने छायावाद की व्याख्या इस प्रकार की हैं-‘‘छायावाद कविता वाणी का वह लावण्य है जो स्वयं मे मोती के पानी जैसी छाया, तरलता और युवती के लज्जा भूषण जैसी श्री से संयुक्त होता है। यह तरल छाया और लज्जा श्री ही छायावाद कवि की वाणी का सौंदर्य है।’’ इस तारतम्य में जयन्ती खरे ‘‘जया’’ के इस गीत का अंश देखिए कि कितनी सुंदरता से उन्होंने छायावादी प्रवृतियों को अपनाया-
मैं प्रतिबिम्ब बनी दुनिया की
दुनिया भरी समेट हृदय में।
जब आया आनंद कहीं से
मानस में सागर लहराया
ज्वार उठे उत्तुंग गगन को
मन में मन भी नहीं समाया
मैं प्रतिबिम्ब बनी सागर की
सागर भरा समेट प्रणय में।

छायावादी काव्य मे वेदना और करुणा की अधिकता पाई जाती है। छायावादी कवियों ने जीवन के प्रति भावात्मक दृष्टिकोण को अपनाया है। इसका मूल दर्शन सर्वात्मवाद है। सम्पूर्ण जगत मानव चेतना से स्पंदित दिखाई देता है। यही विशेषता जयंती खरे की काव्य रचनाओं में भी देखी जा सकती है-
मैं गीत बनाती उन भावों के
जिनको कहीं न भवन मिले।
भटक रहे जो अंतरिक्ष में
जिनकी कोई रूप न रेखा
जिनने देखा नहीं विश्व को
नहीं विश्व ने जिनको देखा
मैं मूर्ति बनाती उन सपनों की
जिनको कहीं न नयन मिले।

जयन्ती खरे ने देशभक्ति की कविताएं भी लिखीं। उनकी कविताओं में मातृभूमि भारत का स्नेहिल गुणगान है। देश की प्रतिष्ठा को सम्पूर्ण विश्व के ऊपर देखने की इच्छा उनकी कविता में परिलक्षित होती है। उनकी ये पंक्तियां देखिए-
भारत के अनुरूप बनेगें हम उसके श्रृंगार
उच्च बनेंगे हिमगिरि जैसे, चूमेंगे आकाश
खड़े दिखेंगे पृथक सभी से, करके पूर्ण विकास
देवों से हम बात करेंगे, देखेगा संसार

जयन्ती खरे ‘‘जया’’ की काव्य रचनाएं देश के प्रति, जगत के प्रति, प्रत्येक मानव के प्रति, प्रकृति के प्रति तथा स्वयं के प्रति शुभाकांक्षाओं से संवाद करती रचनाएं हैं। ‘‘सस्मिता’’ काव्य संग्रह की सभी रचनाएं मन को बहुत स्नेह से स्पर्श करती हैं और फिर पढ़ने वाले को अपना बना लेती हैं। जयन्ती खरे के भावसंसार को समझना और उसमें सकारात्मक भाव बनाए रखना ही उनकी कविताओं के मर्म को समझने का मनस्वी मार्ग है। माधुर्य और बिंब-प्रतिबिंब छायावादी प्रभावयुक्त होते हुए भी समसामयिकता से सुगमता से जुड़ जाते हैं। ऐसा मधुर काव्यसृजन आजकल बिरले ही देखने को मिलता है। संग्रह की कविताएं अपनी प्रवाहमयी, लयात्मक भाषा-शैली के माध्यम से गुनगुनाते हुए हृदय-मार्ग से भीतर तक उतर जाती हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि मानवीय चेतना के पक्षधर पाठकों को यह पसंद आने योग्य काव्यसंग्रह है।
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Saturday, August 28, 2021

डॉ वर्षा सिंह जन्म जयंती आयोजन - 2021

प्रिय ब्लॉग साथियों, 
मेरी दीदी डॉ वर्षा सिंह के जन्मदिन की पूर्व संध्या पर महिला काव्य मंच सागर इकाई द्वारा "डॉ वर्षा सिंह जन्म जयंती आयोजन" रखा गया। आयोजन में श्यामलम संस्था के अध्यक्ष श्री उमाकांत मिश्र, शायर अशोक मिजाज़, कवि वीरेन्द्र  प्रधान, लेखक राजकुमार तिवारी, समाज सेवी भाई कपिल स्वामी एवं भाई डॉ विनोद तिवारी, लोकगीत गायक शिवरतन यादव, डॉ. चंचला दवे, श्रीमती सुनीला सराफ, डॉ. अंजना चतुर्वेदी, देवकी नाईक दीपा, भाई पुष्पेन्द्र दुबे आदि बड़ी संख्या में विद्वतजन ने वर्षा दीदी के प्रति अपने श्रद्धा सुमन अर्पित किए।
शिवरतन यादव जी ने वर्षा दीदी की ग़ज़ल का गायन किया। मुख्य वक्ता के रूप में मैंने दीदी के संस्मरण साझा किए। आयोजन की अध्यक्ष डॉ. चंचला दवे, मुख्य अतिथि श्रीमती सुनीला सराफ, संचालक डॉ अंजना चतुर्वेदी ने वर्षा दीदी का भावभीना स्मरण किया। भाई पुष्पेन्द्र दुबे ने वर्षा दीदी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर अपनी कविता प्रस्तुत की। श्री उमाकांत मिश्र, शायर अशोक मिजाज़, कवि वीरेन्द्र  प्रधान, लेखक राजकुमार तिवारी, समाज सेवी कपिल स्वामी ने अपने भावसुमन अर्पित किए।
      इस अवसर पर प्रतिष्ठित चित्रकार श्री असरार अहमद द्वारा बनाया गया वर्षा दीदी का पोट्रेट मुझे भेंट किया गया। यह आयोजन आदर्श संगीत महाविद्यालय के सभाकक्ष में आयोजित किया गया था। (28.08.2021)
🙏हार्दिक धन्यवाद महिला काव्य मंच सागर इकाई 🙏


Friday, August 27, 2021

आधुनिक हिंदी कथा लेखन में डॉ शरद सिंह का महत्वपूर्ण स्थान - पत्रिका, 27.08.2021

 पत्रिका समाचारपत्र के 7वें स्थापना दिवस पर प्रकाशित विशेष बुंदेलखंड उत्सव परिशिष्ट में आज मेरे लेखन के बारे में.....
हार्दिक धन्यवाद #पत्रिका 🙏
Thank you #Patrika 🙏🙏
27.08.2021

Thursday, August 26, 2021

बुंदेली व्यंग्य | पैले बनीं, के पैले खुदीं | डॉ शरद सिंह | पत्रिका में प्रकाशित

मित्रो, 15 अगस्त 2021 को #पत्रिका समाचार पत्र में मेरा बुंदेली व्यंग्य "पैले बनीं, के पैले खुदीं " प्रकाशित हुआ था... आप भी पढ़ें...आंनद लें....
#Thank you #Patrika
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बुंदेली व्यंग्य    
पैले बनीं, के पैले खुदीं
- डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
        ‘‘काए, नोने भैया! आज का हो गओ, जो ऐसो मों लटकाए बैठे हो?’’ मैंने पूछी नोने भैया से। काए से के नोने भैया को मों तभई लटकत आए जबे उने कोनऊ गम्म खान लगत आए। 
‘‘कछु नईयां!’’ नोने भैया मरी-सी आवाज में बोले।
‘‘ये लेओ, अब अपनी जे बिन्ना से ने छिपाओ। तुमाए मों पे तुमाई चिन्ता की फिलम चल रई है, बाकी डिस्क तनक गड़बड़ आए सो साफ नई दिखा रओ के पर्दा पे का चल रओ आए।’’ मैंने कही। मोरी बात सुन के नोने भैया ने मुस्का दओ।
‘‘जे भई न बात! चलो अब बता भी देओ। जे कोनऊ जेम्सबांड की फिलम नइयां के अखीरी में पता चले के कतल कोन करो हतो।’’ मैंने तनक और पिंची-सी करी। सो, काम कर गई पिंची।
‘‘हऔ, जे तो शाहरुख की फिलम आए जीमें सुरुअई से सबई खों पता रैत है के कौन ने कतल करो।’’ नोने भैया बोले।
‘‘सो, अब बताओ के का भओ? मुतकी पहेलियां-सी ने बुझाओ।’’
‘‘हमें जे समझ में ने आ रई बिन्ना के हमाई सिटी स्मार्ट कब लौं बनहें?’’ नोने भैया कहत भए, फेर के चिन्ता में डूब गए। 
‘‘ऐं, सो तुम जे आ सोच रए हो? हमने तो सोची के कोनऊ गंभीर बात आए।’’ मोए बड़ो अचरज भओ।
‘‘काए, जे का गंभीर बात नइयां?’’
‘‘तुम काए चिन्ता कर रए? हो जे हे स्मार्ट। और होत्तो जा रई आए, तुमें दिखात नइयां का? बे उते सिविल लाईन के पांछू आई लव सागर लिखो है। सबरे उते जा के सेल्फी-सेल्फी खेलत हैं। तुमने तो सोई अपनी फोटू खिंचवाई हती उते’’ मैंने सुरता कराई।
‘‘हऔ, ओ बोई के पांछू वारी घास-पतूले की दीवार गिर गई हती, बा भुला गईं?’’ नोने भैया चिढ़ के बोले।
‘‘बे तो अपनी सिटी में मुतकी जांगे लगी हैं, कोऊ कहां-कहां लो सम्हारे? एकाध गिर गई सो फेर के खड़ी कर दई। अब ईमें मूंड़ खराब करबे की का बात है?’’ मैंने पूछी।
‘‘चलो घास-पतूला की छोड़ो, झील की बोलो?’’ 
‘‘का बोले?’’
‘‘झील तो ने सुधरी बाकी गिलावा मच गओ। हाय, कित्ती नोनी झील हती, अब का हो के रै गई। सुंगरा बी न लोटें अब तो उते।’’ नोने भैया बोले।
‘‘अब ऐसो बी ने कहो। सब ठीक हो जेहे।’’
‘‘तुमें का बताएं, बिन्ना! हमने अपने अनवरसिटी वारे दिनन में नाव पे सैर करी हती ऊ झील में, वो बी एक मोड़ी के संगे। हमाए साथ पढ़त्ती।’’ नोने भैया खयालन में डूबत भए बोले।
‘‘सो अब वो कहां गई? कहीं हमाई भौजी तो ने आए वो?’’ मैंने पूछी।
‘‘अरे, भली कहीं! कहां वो गोरी-चिट्टी पहाड़न औ कहां तुमाई भौजी, करिया-सी भंटा-सी।’’ नोने भैया ठंडी आह भरत बोले।
‘‘जो का कै रए भैया? भौजी के लाने कछू और कही तो सो हमसे चुप ने रई जेहे, उनके ऐंगर सबलो हाल सुना देबी।’’ हमें नोने भैया की लवस्टोरी ने पोसाई।
‘‘अरे, बा तो ऊंसई कै दई हमने। अब तो खबरई नईयां ऊकी। बाकी जे झील को नास कर दओ, सबने मिल के।’’ नोने भइया को सुर फेर के झील पे पोंच गओ।
‘‘अरे झील को छोड़ो भैया, तुमें सड़कें ने दिखा रईं का? उने देख के तो लगत आए के बे सिमेंट या डामल की नोईं, गिलावे की बनी आएं। जैसे बरफ वारी स्लेज गाड़ी चलत आए न, ऊंसई गिलावे वारी स्लेज गाड़ी मंगा लेओ चइए।’’ मोसे बी चुप ने रओ गओ। 
‘‘जे कही तुमने हमाए मन की बात, बिन्ना! जुग-जुग जियो! जे ई सब तो हम सोच रए के कां तो हमाई सिटी स्मार्ट बनबे जा रई हती और कां अब गिलावा सिटी बन के रै गई आए। जो का हो रओ?’’ नोने भैया चहक के बोले। उने मोरो समर्थन जो मिल गओ।
‘‘गम्म खाओ भैया! एक दिना हमाई सिटी सोई बन जेहे स्मार्ट। अभई तो हमाई सड़कें हड्डियन के डाक्टर की फ्रेंडली आएं।’’ 
‘‘हऔ, भली कही! ऊंसई हमाए इते अंडा-मुर्गी को खेल चलत रैत आए। पैले सड़क बनत है, फेर टेलीफोन वारे, मोबाईल वारे, पाईप वारे, नाली वारे, जे वारे-बे वारे, सबरे वारे जमीन खोदत की मशीन ले के सड़कई खोद देत आएं। फेर पाईप, नाली, तार को काम हो जात आए तो फेर के सड़क बनत है। ओ, सड़क बन के तैयार ने हो पाए के फेर के कोनऊ ने कोनऊ सड़क खोदबे के लाने दनदनानत भओ आ जात है। जेई समझ में न आ पात है के पैले सड़क बनी, के पैले सड़क खुदी? रामधई, सोच-सोच के मूंड़ पिरान लगत आए।’’ नोने भैया अपनो मूंड़ पकड़त भए बोले।
‘‘येल्लो, अब सोच-सोच के तुमई पिछड़ रए? अरे भैया, स्मार्ट बनने है तो सोच-फिकर छोड़ो। तुम सोई अपने घरे घास-पतूला लगाओ, ऊमें पानी डारो और खुस हो जाओ। स्मार्ट सिटी के लाने सोचबे खों हमाए नेता औ अधिकारी तो हैं, तुम ने फिकर करो! जे ऊंसई बरसात को सीजन आए, सो भुंटा खाओ औ खुस हो जाओ!’’
‘‘हऔ, बिन्ना! जे सही कही। अबई हम तुमाई भौजी से भुंटा भूंजबे के लाने कहत हैं, मनो पैले भुंटा लाने पड़हे।’’ नोने भैया ने भुंटा की सुनी सो स्मार्ट सिटी की भूल गए। और गिलावा में फिसलत भए चल पड़े भुंटा लाने। हम सबई तो हमाए नोने भैया घांई आएं के भुंटा याद आ गओ तो पिराबलम भूल गए। अब कहां की झील, कहां की सड़कें, कहां के गढ़ा और कहां को गिलाबो! सो भैया, सबई जने भुंटा खाओ औ खुस हो जाओ!     
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Wednesday, August 25, 2021

चर्चा प्लस | एक ऐसा शायर जो राष्ट्रपति जियाउल हक़ से नहीं डरा | डाॅ शरद सिंह

चर्चा प्लस           
एक ऐसा शायर जो राष्ट्रपति जियाउल हक़ से नहीं डरा
    - डाॅ शरद सिंह
   25 अगस्त 2008 को उस शायर ने इस दुनिया से विदा ले ली थी जो भारत और पाकिस्तान की दोस्ती को महत्व देता था और जिसने पाकिस्तानी राष्ट्रपति जियाउल हक़ की हुकूमत के आगे घुटने टेकने से इनकार कर दिया था। बदले में उसे देशनिकाला झेलना पड़ा। उस शायर का नाम है अहमद फ़राज़।   

    

कहते हैं कि जो काम राजनीतिज्ञ नहीं कर पाते हंै वह काम साहित्यकार कर सकता है। हर देश का साहित्यकार अपने देश का अघोषित राजदूत होता है। वह सच्चे अर्थों में जनमत की आवाज़ होता है। पाकिस्तानी राजनीतिज्ञ भले ही न चाहें कि भारत के साथ उनके देश के संबंध मधुर हो जाएं लेकिन वहां की आम जनता हमेशा भारत के साथ अच्छे संबंध चाहती है। आम जनता की इसी इच्छा को समय-समय पर अभिव्यक्ति देते रहते हैं वहां के शांति पसंद साहित्यकार। ऐसे साहित्यकारों में एक अग्रणी नाम रहा है अहमद फ़राज़ का। रूमानियत के शायर, प्रगतिशीलता के शायर और भावनाओं को एक कलाकृति की तरह अपने शब्दों के ढांचे में उतार देने वाले शायर अहमद फ़राज़।
एक दिलचस्प घटना है जिससे पता चलता है कि अहमद फ़राज़ और एक भारतीय शायर के विचार  किस तरह एक जैसे थे। पश्चिम एशिया के अरबी बोलने वाले देशों में एक ‘‘जश्ने-शोरा’’ नाम का एक काव्योत्सव हांेता है। उसमें विभिन्न देशों से अलग-अलग भाषाओं के सुप्रसिद्ध शायर आमंत्रित किए जाते हैं। उसी में पाकिस्तान से उर्दू का प्रतिनिधित्व करने गए थे अहमद फराज और हिन्दुस्तान से उर्दू का प्रतिनिधित्व करने पहुंचे थे शायर रिफ़त सरोश। यह वह समय था, जब इराक की लड़ाई ईरान से चल रही थी। विभिन्न देशों के शायर बगदाद में मौजूद थे। इराकी सरकार को लगा कि यह बढ़िया अवसर है, दुनिया भर के शायरों को ईरान की ज्यादतियों को दिखाने का. इसलिए उन्होंने काव्योत्सव के एक दिन पहले जंग के मोर्चे पर ले जाने के लिए एक बस की व्यवस्था की। सभी को एक-एक यूनीफॉर्म पहनने को दिया। इसका कारण यह बताया गया कि युद्ध के मोर्चे पर जा रहे हैं तो युद्ध की पोशाक होनी चाहिए। सुरक्षा की दृष्टि से यह आवश्यक है। सभी देशों के शायर पोशाक लेकर बस में जा बैठे। जब भारत से पहुंचे रिफत सरोश भी अड़ गए-‘‘आपकी फौजी वर्दी पहनकर हर्गिज नहीं जाऊंगा। कभी अगर फौजी वर्दी पहनने का अवसर आया भी तो अपने देश के लिए पहनूंगा, इराक या ईरान की नहीं।’’ रिफत सरोश को वसपस होटल भेज दिया गया। वे जब होटल पहुंचे तो वहां अहमद फ़राज़ लाॅबी में पहले से बैठे दिखे। रिफत सरोश ने उनसे पूछा कि आपको भी वे लोग साथ नहीं ले गए? तो अहमद फ़राज़ ने हंस कर उत्तर दिया-‘‘निहायत अहमक़ाना ज़िद थी। मैं भी इसी वजह वापस आ गया था। मैं क्यों पहनूं किसी दूसरे मुल्क की वर्दी।’ फिर उन्होंने एक अपना शेर पढ़ा -
जिसको देखो वही जंजीर-ब-पा लगता है
शहर का शहर हुआ दाखिले-जिन्दा जानां।
अहमद फ़राज़ को राष्ट्रपति जियाउल हक की नीतियां पसंद नहीं थीं। उनकी नीतियों को फराज़ जनविरोधी कहते थे। उन्होंने उन नीतियों के विरोध में शायरी भी की। इससे पहले उन्हें पाकिस्तान का सबसे बड़ा सम्मान ‘‘हिलाल-ऐ-इम्तियाज’’ से सम्मानित किया जा चुका था। लेकिन सन् 2006 में उन्होंने यह सम्मान सरकार की नीतियों के विरोध में वापस कर दिया। स्थितियां बिगड़ गईं। उन्हें देशनिकाला दे दिया गया। लेकिन इन सबसे उनके प्रशंसकों की संख्या घटी नहीं अपितु और बढ़ गई। प्रशंसकों के सिलसिले में एक दिलचस्प घटना यह भी है कि एक बार अमेरिका में उनका मुशायरा था। मुशायरे के समापन पर एक लड़की उनके पास ऑटोग्राफ लेने आयी। नाम पूछने पर लड़की ने अपना नाम बताया-‘‘फ़राज़ा’’। अहमद फ़राज़ ने चैंककर कहा, ‘‘यह क्या नाम हुआ?” तो उस लड़की ने बताया कि, ‘‘मेरे मम्मी-पापा के आप पसंदीदा शायर हैं। उन्होंने सोचा था कि बेटा होने पर उसका नाम फ़राज़ रखेंगे। मैं पैदा हो गई तो उन्होंने मेरा नाम फ़राज़ा रख दियाए आपके नाम पर।” इस घटना पर अहमद फ़राज़ ने यह शेर कहा था-
और ‘‘फ़राज’’  चाहिए  कितनी  मोहब्बतें तुझे
मांओं ने तेरे नाम पर बच्चों का नाम रख दिया


14 जनवरी 1931 को जन्मे अहमद फ़राज़ का असली नाम सैयद अहमद शाह था। उनका जन्म पाकिस्तान के नौशेरां शहर में हुआ था। उन्होंने पेशावर विश्वविद्यालय में फारसी और उर्दू विषय का अध्ययन किया था। अहमद फराज ने रेडियो पाकिस्तान में भी नौकरी की और फिर अध्यापन से भी जुड़े। फ़राज़ बचपन में पायलट बनना चाहते थे। अपने एक इंटरव्यू में उन्होंने बताया था कि उन्हें बचपन में पायलट बनने का शौक था पर उनकी मां ने इसके लिए मना कर दिया। वे अंत्याक्षरी की प्रतियोगिताओं में हिस्सा लिया करते थे। लेखन के प्रारंभिक काल में वे इकबाल की रचनाओं से प्रभावित रहे। फिर धीरे धीरे प्रगतिवादी कविता को पसंद करने लगे। अली सरदार जाफरी और फैज अहमद फैज के पदचिन्हों पर चलते हुए उन्होंने जियाउल हक के शासन के समय कुछ ऐसी गजलें लिखकर मुशायरों में पढ़ीं जिनके कारण उन्हें ग़िरफ़्तार किया गया। गिरफ्तारी के बाद वे आत्म-निर्वासन में ब्रिटेन, कनाडा और यूरोप में 6 साल तक रहे। उन्हें क्रिकेट खेलने का भी शौक था। लेकिन शायरी का शौक उन पर ऐसा छाया कि वे अपने समय के गालिब कहलाए। उन्होंने नज़्में भी लिखीं लेकिन उनकी ग़ज़लों ने उन्हें भारत और पाकिस्तान दोनों देशों में ख्याति दिलाई।
अहमद फ़राज़ भारत को अपना दूसरा घर कहते थे। हिन्दुस्तानी मुशायरों में उन्हें जो सम्मान दिया जाता था, उसकी प्रशंसा करते वे नहीं थकते थे। वे कहते थे-‘‘भारत आ कर मुझे लगता है कि मैं अपने भाइयों के बीच बैठा हूं।’’ एक बार एक पत्रकार ने उनसे कश्मीर विवाद को ले कर भारत और पाकिस्तान के संबंधों के बारे में प्रश्न किया तो अहमद फ़राज़ ने पूरी गंभीरता से उत्तर देते हुए कहा-‘‘भले ही खूबसूरत है लेकिन है तो ज़मीन का एक टुकड़ा ही, उसे ले कर आपस में लड़ना सही नहीं है। अम्न और चैन का रास्ता ही सबसे सही रास्ता होता है।’’
अहमद फ़राज़ की शायरी में जो नज़ाकत और नफ़ासत है, वह उन्हें एक अलग ही मुक़ाम देती है। अनेक पाकिस्तानी एवं भारतीय ग़ज़ल गायकों ने उनकी ग़ज़लें गाई हैं। उनकी एक प्रसिद्ध ग़ज़ल है-
रंजिश ही सही, दिल ही दुखाने के लिए आ
आ फिर से मुझे छोड़ के जाने  के लिए आ
किस किस को बताएंगे जुदाई का सबब हम
तू मुझसे ख़फा है तो  जमाने  के लिए आ
पहले से मरासिम न सही फिर भी कभी तो
रस्मो-रहे-दुनिया  ही  निभाने के लिए आ
जैसे  तुझे  आते हैं  न  आने  के  बहाने
ऐसे ही  किसी  रोज न  जाने के लिए आ


अहमद फ़राज़ अविभाजित भारत में जन्में थे और उनकी शायरी की लोकप्रियता भी अविभाजित रही। वे जितने पाकिस्तान में पसंद किए गए, उतने ही भारत में भी। उनके एक मशहूर शेर देखिए-
अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें
जिस  तरह  सूखे  हुए  फूल  किताबों  में मिलें


25 अगस्त 2008 को किडनी फेल होने के कारण इस्लामाबाद के एक अस्पताल में अहमद फ़राज़ का निधन हो गया। लेकिन वे अपनी शायरी के दम पर सभी के दिलों में ज़िन्दा हैं। उनके ये दो शेर आज भी लोगों की जुबान पर रहते हैं -
तुम तकल्लुफ को भी इख़लास समझते हो ‘फराज’
दोस्त  होता  नहीं   हर   हाथ  मिलाने  वाला।

और दूसरा शेर -
किसी को घर से निकलते ही मिल गई मंज़िल
कोई  हमारी  तरह  उम्र  भर  सफ़र में रहा।

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(सागर दिनकर, 25.08.2021)
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Tuesday, August 24, 2021

पुस्तक समीक्षा | युवा पीढ़ी को समर्पित ‘श्री राम कहानी' | समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह


प्रस्तुत है आज 24.08. 2021 को #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई शायर अशोक मिज़ाज की पुस्तक "श्री राम कहानी" की  समीक्षा...
आभार दैनिक "आचरण" 🙏
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पुस्तक समीक्षा
युवा पीढ़ी को समर्पित ‘श्री राम कहानी’  
समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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पुस्तक      - श्री राम कहानी
लेखक      - अशोक मिज़ाज
प्रकाशक    - भारतीय ज्ञानपीठ, 18, इंस्टीट्यूशनल एरिया, लोदी रोड, नई दिल्ली-3
मूल्य       - 250/-
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इस बार समीक्षा के लिए जिस पुस्तक को मैंने चुना है वह एक कहानी पुस्तक। इस पुस्तक का नाम है -‘‘श्री राम कहानी’’। इसके लेखक हैं अशोक मिज़ाज। यूं तो अशोक मिज़ाज का नाम शायरी के क्षेत्र में विख्यात है किन्तु श्रीराम की कहानी लिख कर उन्होंने अपनी शायरी के प्रशंसकों को चैंकाने वाला काम किया है। पुस्तक की विधा को प्रकाशक ने कहानी की श्रेणी में रखा है और निश्चित रूप से यह महाकाव्य के सबसे आदर्श पात्र श्रीराम के जीवन पर एक लम्बी कहानी है। इस कहानी का मूलाधार तुलसीदास कृत ‘‘रामचरित मानस’’ है। यूं तो रामकथा पर हिंदीकथा में अभी तक सबसे चर्चित लेखन रहा है नरेंद्र कोहली का। ‘‘आधुनिक तुलसीदास’’ के रूप में लोकप्रिय वरिष्ठ साहित्यकार नरेंद्र कोहली प्रख्यात कथाकार नरेन्द्र कोहली यह उपन्यास रामकथा से सामाग्री लेकर चार खंडों में पृष्ठों का एक 1800 बृहदाकार उपन्यास है। संपूर्ण रामकथा को लेकर किसी भी भाषा में लिखा गया यह प्रथम प्रकाशित उपन्यास है। इस उपन्यास के माध्यम से उनका उद्देश्य जीवन के उदात्त, महान तथा सात्विक पक्ष का चित्रण करना था। हिंदी उपन्यास की धारा बदल देने वाली इस कृति का अभूतपूर्व स्वागत हुआ। अपने इस उपन्यास के लिए नरेन्द्र कोहली ‘‘आधुनिक तुलसीदास’’ कहे जाने लगे। यूं तो ‘‘रामचरित मानस’’ की टीका सहित प्रतियां सुगमता से उपलब्ध हो जाती हैं, फिर ‘‘श्री राम कहानी’’ के रूप में ‘‘रामचरित मानस’’ का गद्यानुवाद करने की आवश्यकता अशोक मिज़ाज को क्यों महसूस हुई? इसका उत्तर लेखक ने अपनी पुस्तक के प्राक्कथन में तो दिया ही है, लेकिन इससे पहले पुस्तक के दोनों ब्र्लब पढ़ कर इसका उत्तर काफी कुछ स्पष्ट हो जाता है। पहला ब्लर्ब लिखा है जानेमाने अभिनेता एवं धर्म-दर्शन के व्याख्याकार आशुतोष राणा ने। वे लिखते हैं-‘श्रीरामचरित मानस वह पवित्र ग्रंथ है जिसने मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के मात्र पूजनीय ही नहीं अपितु अनुकरणीय- धारणीय चरित्र को प्रत्येक जन के मन, मानस और हृदय सिंहासन पर सदा के लिए प्रतिष्ठित कर दिया। कुछ इसी तरह का उद्यम श्री अशोक मिज़ाज जी ने किया है, श्री अशोक जी यूं तो अपने पद्य के लिए विख्यात हैं किन्तु उन्होंने श्रीरामचरित मानस का अत्यंत सरल हिंदी भाषा में गद्यानुवाद कर केइसे आज की उस युवा पीढ़ी तक पहुंचाने का प्रयास किया, जो संस्कृत या अवधी भाषा को न जानने के कारण श्रीरामकथामृत पढ़ने व समझने से वंचित रह गए हैं।’’
पुस्तक का दूसरा ब्लर्ब लिखा है डाॅ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर के हिन्दी एवं संस्कृत के विभागाध्यक्ष प्रो. आनन्द प्रकाश त्रिपाठी ने। वे पुस्तक पर टिप्पणी करते हुए लिखते हैं कि -’‘हिंदी और उर्दूं के मशहूर शायर अशोक मिज़ाज ने रामचरितमानस को जस का तस, सरस एवं सहज हिन्दी भाषा में श्रीराम कहानी के रूप में गद्यांतरित करने का सुंदर प्रयास किया है। ..... निस्संदेह श्रीराम कहानी अवधी भाषा से अनभिज्ञ रामकथा प्रेमियों के लिए एक अनूठा उपहार है। हमारे युवाओं और बच्चों को तुलसी के रामचरितमानस से परिचित कराने का यह स्तुत्य प्रयास कहा जाएगा।’’
‘‘श्री राम कहानी’’ के लेखक अशोक मिज़ाज अपने ‘‘प्राक्कथन’’ में इस पुस्तक के लिखने के तीन उद्देश्य बताते हैं। अपने पहले उद्देश्य की चर्चा करते हुए वे लिखते हैं कि ‘‘यह पुस्तक उन पाठकों के लिए है जो धर्मग्रंथों को छूने में संकोच करते हैं, एक भय-सा महसूस करते हैं। कम उम्र के लोग सोचते हैं कि ये तो पंडितों, बूढ़े लोगों और माता-पिता के पढ़ने के लिए है और वयस्क इसलिए नहीं छूते कि वे अपने आपको अपात्र मानते हैं।’’ अशोक मिज़ाज आगे लिखते हैं कि -‘‘ऐसे पाठकों (भक्तों) के लिए यह पुस्तक एक सच्ची कहानी के रूप में प्रस्तुत की जा रही है जिसमें कोई चित्र इत्यादि भी प्रकायिात नहीं किए गए हैं।’’
इस पुस्तक के लेखन का दूसरा उद्देश्य जो लेखक ने बताया है वह इस प्रकार है कि -‘‘तुलसीदास जी ने अवधी में रामचरित मानस लिखी है। यह एक क्षेत्रीय भाषा है जो सभी के समझ में नहीं आती है। और यह पद्य रूप में है। सभी में कविता की समझ भी नहीं होती है। जब मैंने भी रामचरित मानस पढ़ी तो मुझे भी यही दिक्कतें आईं।’’ इस ‘दिक्कत’ के निवारण के लिए लेखक ने जो तय किया वह उन्हीं के शब्दों में-‘‘मैंने इसे सरल हिन्दी में गद्यरूप में कहानी की तरह पिरोया है। यह राम कहानी मैंने परमपूज्य गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचित रामचरित मानस के गीताप्रेस गोरखपुर से प्रकाशित एवं श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार की टीका सहित पुस्तक के आधार पर प्रस्तुत की है।’’  
तीसरे उद्देश्य के बारे में बताते हुए अशोक मिज़ाज स्पष्ट करते हैं कि इस पुस्तक के लेखन द्वारा वे तुलसीदास कृत ‘‘श्रीरामचरित मानस’’ के श्रीराम के महत्व को स्मरणीय बनाए रखना चाहते हैं।  
समूचे विश्व में वाल्मीकि रामायण, कंबन रामायण और रामचरित मानस, अद्भुत रामायण, अध्यात्म रामायण, आनंद रामायण आदि 300 से अधिक ‘‘रामायण’’ प्रचलित हैं। वाल्मीकी रचित ‘‘रामायण’’ को सबसे पुराना रामायण माना जाता है। भारतीय साहित्यिक परंपरा में इसे उपजिव्य काव्य भी कहा जाता है, क्योंकि इस महाग्रंथ के आधार पर अन्य साहित्य विकसित हुआ है। इसके बाद तुलसीदास के द्वारा लिखा गया ‘‘श्रीरामचरितमानस’’ का स्थान है। सर्वविदित है कि रामकथा उन श्रीराम की जीवनकथा है जो आज से हजारों साल पहले त्रेता युग में भगवान विष्णु के अवतार के रूप में प्रकट हुए। रामकथा की महत्ता भारत में ही नहीं वरन् विदेशों में भी व्याप्त है। रामकथा के महत्व को निरुपित करते हुए तुलसीदास ने लिखा है-
महामोह  महिषेसु  बिसाला ।  
रामकथा  कालिका  कराला ।।
रामकथा ससि किरन समाना ।
संत चकोर करहिं जेहि पाना ।।
(बालकाण्ड, 47)
अर्थात् जीव महामोह में पड़ा हुआ है। यह मोह विशालकाय महिषासुर की तरह है और श्रीराम कथा इस राक्षस का वध करन के लिये काली देवी के समान समर्थ और शक्तिशाली हैं। रामकथा चंद्रमा की किरणों के समान है जिसकी ओर संत समाज चकोर की भांति देखता रहता है और आनन्दित होता है। ‘‘श्रीरामचरित मानस’’ के बालकाण्ड (35) में तुलसीदास ‘‘श्रीरामचरित मानस’’ नाम का औचित्य भी बताते हैं-
रामचरितमानस    एहि    नामा।    
सुनत    श्रवन   पाइअ  बिश्रामा।।
मन करि बिषय अनल  बन  जरई।  
होई  सुखी  जौं  एहिं  सर  परई।।
रामचरितमानस   मुनि    भावन।  
बिरचेउ   संभु   सुहावन  पावन।।
त्रिबिध दोष दुख दारिद दावन।
कलि कुचालि कुलि कलुष नसावन।। (बालकाण्ड, 35)

 आशय यह कि श्रीराम की कथा का नाम ‘‘श्री रामचरितमानस’’ इसलिये रखा है कि इसको सुनकर व्यक्ति को विश्राम मिलेगा । इस कथा के प्रभाव से मानसिक स्वस्थता प्राप्त होगी । मन में विषय वासनायें भरी हुई हैं। जिस प्रकार अग्नि में लकड़ी जल जाती है, उसी प्रकार जब लोग रामकथा सुनेंगे तो यह उनके हृदय में पहुंचकर विषयों की वासना को समाप्त कर देगी। श्री रामचरितमानस एक सरोवर के समान है जो इस सरोवर में डुबकी लगायेगा वह सुखी हो जायेगा । विषयों की अग्नि में व्यक्तियों के हृदय जल रहे हैं और यह ताप उन्हें दुख देता है। जिसने श्री रामचरितमानस रूपी सरोवर में डुबकी लगाई उसका सन्ताप दूर होकर शीतलता प्राप्त हो जाती है।
जनमानस में राम कथा क्यों रची-बसी है? इसीलिए कि राम का चरित्र आदर्श पुत्र, आदर्श शिष्य, आदर्श भाई, आदर्श मित्र, आदर्श वीर और आदर्श राजा के रूप में सभी को आकर्षित करता है। राम का रामत्व उनकी संघर्षशीलता में है, न कि देवत्व में। राम के संघर्ष से साधारण जनता को एक नई शक्ति मिलती है। राम उदारता, अंतःकरण की विशालता एवं भारतीय चारित्रिक आदर्श की साकार प्रतिमा हैं। रामचरित मानस महज एक धार्मिक ग्रंथ ही नहीं बल्कि यह सामाजिक संबंधों की आचार संहिता भी है। इस ग्रंथ में गोस्वामी तुलसीदास जी ने भाई से भाई का, पति से पत्नी का, सेवक से स्वामी का, माता से पुत्र का, मित्र का अपने मित्र से, राजा का अपनी प्रजा के साथ, भाई का बहन के साथ किस तरह का आचरण होना चाहिए इसकी चर्चा विभिन्न पात्रों के माध्यम से की है। राम चरित मानस सनातन सभ्यता व संस्कृति का साक्षात प्रतीक है। इसके नायक प्रभु श्रीराम ने अपने आचरण व व्यवहार से उदात्त चरित्र का एक अदभुत प्रतिमान स्थापित किया है। देखा जाए तो श्रीराम के नाम एवं उनके चरित्र के महत्व को समझते हुए तुलसीदास ने ऐसे विपरीत सामाजिक, राजनीति एवं धार्मिक दशा में ‘‘श्रीरामचरित मानस’’ की रचना की थी जब समाज और राजनीति विदेशी आक्रांताओं के धार्मिक दबाव में जी रहा था। ‘‘श्रीरामचरितमानस’’ 15वीं शताब्दी में गोस्वामी तुलसीदास द्वारा लिखा गया। स्वयं तुलसीदास ने रामचरित मानस के बालकाण्ड में लिखा है कि उन्होंने रामचरित मानस की रचना का आरम्भ विक्रम संवत 1631 (1574 ईस्वी) को रामनवमी के दिन (मंगलवार) किया था। तुलसीदास मुगल शासक अकबर के समकालीन थे। अकबर के पूर्ववर्ती शासकों ने जिस तरह धार्मिक कट्टरता का परिचय दिया था, उससे भारतीय जनमानस उबरना चाहता था और तब तुलसीदास ने श्रीराम की कथा को जनभाषा में जननायक की कथा श्रीरामचरित मानस के रूप में सृजित किया। यदि वर्तमान वैश्विक परिवेश पर दृष्टिपात किया जाए तो आज भी अस्थिरता और नैराश्य दिखाई देती है। कोरोना महामारी, आर्थिक संकट, बेरोजगारी, आतंकवाद आदि ने जनमानस को विचलित कर रखा है। भारत इससे अछूता नहीं है। ऐसे वातावरण में एक बार फिर रामकथा सुदृढ़ संबल बन सकती है।
सरल, सहज और प्रवाहपूर्ण कथात्मक भाषा-शैली में लिखी गई पुस्तक ‘‘श्री राम कहानी’’ सुगमता से जनरुचि का विषय बन सकती है। जैसा कि इस पुस्तक का उद्देश्य युवाओं को रामकथा की ओर आकर्षित करना है तो आशा की जा सकती है कि यह पुस्तक अपने उद्देश्य को पूरा कर सकेगी और युवाओं में रामकथा तथा धर्मग्रंथों के प्रति रुचि बढ़ा सकेगी। रामकथा जीवन और समाज का दर्पण है। लेखक ने पुस्तक में श्रीराम के जीवन के प्रसंगों को श्रीरामचरित मानस के अनुरूप रखते हुए श्रीराम की कथा प्रस्तुत करने का सकारात्मक प्रयास किया है। ‘‘श्रीरामचरित मानस’’ में यह प्रसंग वर्णित है कि पुष्प पाकर मुनि विश्वामित्र ने राम और लक्ष्मण दोनों भाइयों को आशीर्वाद दिया कि तुम्हारे मनोरथ सफल हों-  
सुमन पाइ मुनि पूजा कीन्ही।
पुनि असीस दुहु भाइन्ह दीन्ही।।
सुफल मनोरथ होहुं तुम्हारे।
रामु लखनु सुनि भय सुखारे।।
    ठीक इसी प्रकार इस पुस्तक के उद्देश्य की सफलता के लिए कहा जा सकता है कि -‘‘सुफल मनोरथ होहुं तुम्हारे।’’ यह पुस्तक एक अच्छे उद्देश्य और एक अच्छे प्रयास के रूप में स्वागत योग्य एवं पठनीय है।  
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Sunday, August 22, 2021

व्यंग्य | महात्म्य 'प' अक्षर का | डॉ (सुश्री) शरद सिंह, नवभारत में प्रकाशित, 22.08.2021

  
Dr (Miss) Sharad Singh
आज 22.08.2021 को "नवभारत" के रविवारीय परिशिष्ट में मेरा व्यंग्य लेख "महात्म्य 'प' अक्षर का" प्रकाशित हुआ है...आप भी पढ़िए और आनंद लीजिए.... हार्दिक धन्यवाद #नवभारत 🙏 __________________________


 व्यंग्य 

महात्म्य 'प' अक्षर का 

- डॉ (सुश्री) शरद सिंह 

 एक दिन परमपिता परमेश्वर की कृपा से मेरे ज्ञानचक्षु ठीक उसी प्रकार से खुल गए जैसे ओपनर से खोले जाने पर शीतल पेय की बोतल का ढक्कन खुल जाता है-"खट्". हुआ कुछ यूं कि एक प्रोफेसर साहब ने दुखी होते हुए मुझसे चर्चा की कि आजकल भाषा के क्षेत्र में कोई नया शोध कार्य हो ही नहीं रहा है. बस, उनकी यह बात मुझे लग गई और मेरी अल्प बुद्धि का नन्हा-सा अश्व शोध के नूतन विषय की ओर खड़दम-खड़दम दौड़ने लगा. जैसा कि मैंने पहले ही निवेदन किया कि अचानक मेरी बुद्धि के पट खुल गए. बुद्धि के पट खुलते ही मुझे वर्णमाला का प,फ,ब,भ,म शिरीज़ का प्रथम अक्षर "प" जगमगाता हुआ दिखाई दिया. मैंने उसी समय तय कर लिया कि यही है वह अक्षर जिसके बाल की खाल मुझे संवारनी है. वैसे, मैं यह दावे से कह सकती हूं कि मेरे इस शोध कार्य का लोहा उद्भट विद्वानों को भी मानना पड़ेगा. खैर, लोहा न सही टीन-टप्पर ही मान लें तो भी चलेगा. मेरा एक दावा यह भी है कि "प" अक्षर से अधिक दमदार अक्षर पूरी वर्णमाला में नहीं मिलेगा. आखिर, पूरा जीवन "प" अक्षर में समाया हुआ है. विश्वास न हो तो देखिए कि "प" से होता है "प्रसव" अर्थात जीवन का प्रारंभ और यहीं से शुरू हो जाता है "प" का सिलसिला. फिर तो पाप, पापा, पापी सबसे पाला पड़ता है. "प" से प्रेमी-प्रेमिका बनते हैं. "प" से प्यार बनता है. प्रेमी-प्रेमिका और प्यार के त्रिकोण से पागलपन उत्पन्न होता है. इस पागलपन में पहले जमाने में प्रेमपत्रों की आवाजाही शुरू हो जाती थी। प्रेमपत्रों की इस आवाजाही में भी "प" अक्षर की अहम भूमिका होती थी. यानी कि पोस्टमैन की भूमिका. प्रेमपत्रों का सिलसिला प्रेमी-प्रेमिका के हृदय में प्रेम-परायणता को जगा देता था. वह कभी-कभी उनके मधुर रिश्ते को पति-पत्नी के रूप में सिरे चढ़ा कर परिवार रूपी झमेले का निर्माण करा डालता था. जी हां "प" से ही बनते हैं पति-पत्नी. "प" से ही पिता, पुत्र और पुत्री की रचना होती है. पुत्र और पुत्री के युवा होते ही मामला फिर वहीं जा पहुंचता है. पिता को पुत्र की प्रेमिका और पुत्री के प्रेमी से पीड़ा होती है और परेशानियों का एक पुराना सिलसिला दोहराया जाता है. जब पिता अपना पुराना जमाना भूल कर विलेन की भूमिका अपना लेता है तो नूतन पर पुरातन की गाज गिरती है और शहजादे सलीम जैसे प्रेमी को अनारकली जैसी प्रेमिका से बिछड़ना पड़ता है. "प" अक्षर की महिमा प्रेम-प्यार की परिधि से बाहर भी है. जी हां, इस "प" अक्षर से प्रधानमंत्री शब्द बनता है तो पहरेदार भी बनता है. पत्रकार बनता है तो प्राध्यापक भी बनता है. जहां तक साहित्यकार का प्रश्न है तो उसका संबंध "प" अक्षर से प्रत्यक्ष दिखाई नहीं देता किंतु गहराई से देखने पर पता चलता है कि साहित्यकारों का समूचा जीवन पा के इर्द-गिर्द मंडराता रहता है, गोया साहित्यकार पतंगा हो और "प" अक्षर जलती हुई शमा हो. जी हां, यदि साहित्यकार कवि हो तो पद्य ही उसके जीवन का आधार होगा. वैसे चाहे गद्यकार हो या पद्यकार उसके सृजन में प्रेरणा की भूमिका अहम होती है. प्रेरणा के बिना वह सृजन कर ही नहीं सकता. ठीक वैसे ही जैसे अदालत में पक्षकार की भूमिका अहम होती है. अगर मुकद्दमे में पक्षकार और पैरवी करने वाला ना हो तो मुकदमा काहे का. बहरहाल, बात चल रही थी साहित्यकारों की. तो साहित्य जगत में पुरस्कार, पद, और पीठ का वर्चस्व देखने को मिलता है. यहां पीठ का मतलब है शोध संस्थान वाले पीठ से. शोध पीठ पर पीठासीन होना बड़े सौभाग्य की बात मानी जाती है. जो पीठासीन नहीं हो पाते, पैंतरेबाज़ी से काम चलाते हैं। "प" अक्षर से अनेक मुहावरे और कहावतें में प्रचलित है. जैसे पूत के पांव पालने में नजर आते हैं, पानी पानी होना, पीछे पड़ना या पैर उखड़ना वगैरह- वगैरह। लगे हाथ यह भी स्मरण कर लिया जाए कि "प" अक्षर का रिश्ता मारामारी से भी है. जी हां, "प" अक्षर से पहलवानी बनती है और पहलवानी में भी धोबी पछाड़, घोड़ा पछाड़ और ना जाने कौन-कौन से पछाड़ होते हैं. "प" से पता न हो तो पत्र नहीं पहुंच सकता, "प" से पुण्य ना हो तो स्वर्ग नहीं पहुंचा जा सकता और "प" से पाप न हो तो नर्क के दर्शन नहीं हो सकते. वैसे ही परलोक की यात्रा शुरू होती है "प" से. अर्थात प्रसव से परलोक तक की यात्रा "प" के सहारे ही होती है. है न, परंपरा से हटकर एक नया शोध. तो "प" अक्षर के बारे में इतना शोध कार्य करके मैंने तो पुण्य कमा लिया, अब अगर कोई और अक्षर प्रेमी इस शोध कार्य को आगे बढ़ा कर पुण्य कमाना चाहता हो तो शीघ्र कार्य प्रारंभ कर दें. साथ ही, विश्वास रखे कि अक्षरों के इतिहास के पन्ने पर उसका नाम स्वर्ण अक्षरों से लिखा जाएगा. परमात्मा शोधार्थी के मार्ग को प्रशस्त करें. आमीन!!! 
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(नवभारत में प्रकाशित, 22.08.2021)
Vyang- Dr (Miss) Sharad Singh, Navbharat, 22.08.2021




Wednesday, August 18, 2021

चर्चा प्लस | तालिबान शासन में क्या होगा अफ़गानी स्त्रियों का भविष्य ? | डाॅ शरद सिंह


चर्चा प्लस           
तालिबान शासन में क्या होगा अफ़गानी स्त्रियों का भविष्य ?
- डाॅ शरद सिंह
       अफगानिस्तान में सत्ता की बागडोर तालिबान के हाथ में आने से यदि सबसे बड़ा नुकसान किसी का हो रहा है तो, वह वहां की आधी आबादी यानी स्त्रियों का। बिना बुर्के के दिखाई देने वाली स्त्रियों को गोली मार देना, स्त्रियों के घर से बाहर निकलने पर हज़ार पाबंदियां और घर के भीतर उनके साथ ऐसा सुलूक कि जैसे वे इंसान ही न हों। क्या होगा अफगानिस्तान में स्त्रियों का भविष्य? राजनीति की अंगीठी में सुलग रहे हैं यह प्रश्न। फिलहाल, अंतर्राष्ट्रीय माॅनीटरिंग ज़रूरी होगी अफ़गानी स्त्रियों की दशा की।       


अफ़गानिस्तान से भारत का नाता पुराना है। किसी जमाने में कांधार भी भारत का हिस्सा हुआ करता था। भारत से चल कर बौद्ध धर्म अफ़गानिस्तान तक जा पहुंचा था। बामयान की भगवान बुद्ध की वे प्रसिद्ध मूर्तियां इस तथ्य का साक्ष्य थीं। चौथी और पांचवीं शताब्दी में बनी बुद्ध की दो खडी मूर्तियां थीं जो अफगानिस्तान के बामयान में स्थित थीं। मार्च 2001 में अफगानिस्तान के जिहादी संगठन तालिबान के नेता मुल्ला मोहम्मद उमर के कहने पर डाइनेमाइट से मूर्तियों को उडा दिया गया था।
सन् 2005 में एक आत्मकथात्मक उपन्यास प्रकाशित हुआ था-‘‘काबुलीवाले की बंगाली बीवी’’। बंगाली ब्राह्मण परिवार की लड़की का एक अफगानी लड़के से प्रेम, फिर विवाह और फिर आठ साल तक अफगानिस्तान में यातनाओं के कुचक्र पर आधारित था यह उपन्यास। इस आत्मकथ्य में जहां तालिबानी पृष्ठभूमि की निरंकुश धार्मिकता कट्टरताओं को सामने लाया गया था। उस बंगाली स्त्री का अपने देश वापस लौटने का प्रयास उसके जीवन-मरण का प्रश्न बन गया था। सुष्मिता ने हार नहीं मानी अंततः 1995 में वे स्वदेश लौटने में सफल हो गई थीं। लेखिका सुष्मिता वंद्योपाध्याय की स्वयं की भोगी हुई यातना का एक ऐसा दस्तावेज है यह उपन्यास जो आज भी अफगानिस्तान में स्त्रियों की दशा के प्रति चिन्तित कर देता है।
अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इस बात को लेकर चिंता जताई जा रही है कि तालिबानी शासन आने के बाद अफगानिस्तान में महिलाओं की जिंदगियों पर क्या असर पड़ेगा? पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश से लेकर संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटरेश ने महिलाओं की स्थिति को लेकर चिंता व्यक्त की है? संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटरेश ने ट्वीट किया कि ‘‘गंभीर रूप से मानवाधिकार उल्लंघन की ख़बरों के बीच अफगानिस्तान में जारी संघर्ष हजारों लोगों को भागने पर मजबूर कर रहा है। सभी तरह की यातनाएं बंद होनी चाहिए। अंतरराष्ट्रीय मानवीय कानून और मानवाधिकारों, विशेष रूप से महिलाओं और लड़कियों के मामले में बहुत मेहनत के बाद जो कामयाबी हासिल की गई है, उसे संरक्षित किया जाना चाहिए।’’
वहीं तालिबान के प्रवक्ता सुहैल शाहीन ने बीबीसी को दिए इंटरव्यू में बताया है कि आने वाली सरकार में महिलाओं को काम करने और पढ़ाई करने की आजादी होगी। बीबीसी संवाददाता याल्दा हकीम से बातचीत करते हुए सुहैल शाहीन ने विस्तार से तालिबानी शासन के अंतर्गत न्यायपालिका, शासन और सामाजिक व्यवस्था पर बात की। लेकिन सवाल ये है कि क्या इस तालिबानी शासन में पिछले दौर के तालिबानी शासन की अपेक्षा महिलाओं की स्थिति बेहतर होगी। सुहैल शाहीन ने कहा कि ‘‘ये भविष्य की सरकार पर निर्भर करेगा. स्कूल आदि के लिए यूनिफॉर्म होगी। हमें शिक्षा क्षेत्र के लिए काम करना होगा. इकोनॉमी और सरकार का बहुत सारा काम होगा। लेकिन नीति यही है कि महिलाओं को काम और पढ़ाई करने की आजादी होगी।’’ सुहैल शाहीन की बातें सुनने में लुभावनी लग सकता हैं, आश्वस्त भी कर सकती हैं लेकिन उस सच्चाई का उत्तर क्या है जिसमें महिलाओं को घर से अकेले निकलने पर तालिबानी धार्मिक पुलिस द्वारा पीटा जाता था। महिलाओं को पिता, भाई और पति के साथ ही घर से बाहर निकलने की इजाजत थी। कहीं खाने के दांत और दिखाने के दांत में अंतर तो नहीं?
लगभग 22 प्रतिशत अफगान लोग शहरी हैं और शेष 78 प्रतिशत ग्रामीण क्षेत्रों में रहते हैं। लड़कियों का अधिक पढ़ाने की परम्परा नहीं रही। स्कूली शिक्षा भी बडी मुश्क़िल से ही वे पूरी कर पाती हैं। छोटी आयु में ही उनका विवाह कर दिया जाता है। उसके बाद उनका जीवन घर-गृहस्थी में सिमट कर रह जाता है। बीमार परंपराएं उनके कंधों पर लाद दी जाती हैं। ऐसा नहीं है कि कभी किसी ने उनके बारे में सोचा ही नहीं। अफगानिस्तान के शासकों में राजा अमानुल्लाह थे, जिन्होंने 1919 से 1929 तक शासन किया और देश को आधुनिकीकरण के साथ-साथ एकजुट करने के प्रयास में कुछ और उल्लेखनीय बदलाव किए। उन्होंने स्त्रियों की शिक्षा के अधिकार को सुनिश्चित किया। समय-समय पर अफगानिस्तान का सामाजिक परिदृश्य करवटें लेता रहा। अफगान संसद के सदस्यों के रूप में शुक्रिया बराकजई, फौजिया गेलानी, निलोफर इब्राहिमी, फौजिया कोओफी, मलालाई जॉय जैसी कई महिलाएं सत्ता तक पहुंचीं। सुहेला सेदिक्की, सिमा समर, हुसैन बनू गजानफर और सुराया दलील सहित कई स्त्रियों ने मंत्रीपद भी सम्हाले। हबीबा सरबी पहली महिला गवर्नर बनीं। उन्होंने महिला मामलों के मंत्री के रूप में भी कार्य किया। आजरा जाफरी पहली महिला महापौर बनीं। अफगानिस्तान की वर्तमान स्थिति देखते हुए यह सब कपोलकल्पित का की भांति लगता है कि कभी वहां स्त्रियां सत्ता के उच्च पदों तक भी पहुंची थीं। आज घरों की कैद में और पर्दों में रहने वाली महिलाएं 70 के दशक तक पेंसिल स्कर्ट और फैशनेबल बालों में नजर आती थीं। छात्राएं अपने गले में स्टाइलिश स्कार्फ और फ्रिली ब्लाउज पहनती थीं। पुरुष धारीदार शर्ट और ब्लेजर में नजर आते थे। लगभग 50 साल पहले अफगान महिलाएं मेडिकल में अपना करियर बनाती थीं। लड़के-लड़कियां मूवी थिएटेर और यूनिवर्सिटी कैंपस में आजादी से मिलते थे। कानून व्यवस्था थी और सरकार बड़े प्रोजेक्ट्स को शुरू करने में सक्षम थी। लोग शिक्षा के प्रति आकर्षित थे क्योंकि उन्हें लगता था कि यह उनके रास्ते खोल सकती है। तीन दशकों के युद्ध ने यहां सब कुछ खत्म कर दिया है।
पिछले तीन दशक में क्या अफगानिस्तान में महिलाओं के लिए कुछ बदला है? उत्तर यही होगा कि - बहुत कम। जनवरी 2015 में फरयाब प्रांत में एक महिला रेजा गुल के पति ने पारिवारिक कलह के बाद उसकी नाक और होंठ का ऊपरी हिस्सा काट दिया था। इसके बाद उसका पति तालिबान के नियंत्रण वाले इलाके में चला गया और उसे अब तक गिरफ्तार नहीं किया जा सका है। नवंबर 2015 में मध्य अफगानिस्तान में व्यभिचार के आरोप में एक युवा महिला रुखसाना की हत्या पत्थर मार-मारकर कर दी गई। 30 सेकंड के इस वीडियो को ऑनलाइन भी पोस्ट किया गया। जिस पुरुष के साथ वह कथित रूप से भागी, उसे भी कोड़े लगाए गए। अफगान मानवाधिकार आयोग का कहना है कि ‘‘ऑनर किलिंग’’ के मामले बढ़े हैं। साल भर में जो 150 महिलाओं की हत्या हुई, उनमें 101 को इसलिए मारा गया कि उनके परिजनों का मान ना था कि उनसे परिवार की बदनामी हुई थी। इनमें एक लड़की 18 साल की थी। पिता ने उसकी हत्या कुल्हाड़ी से कर दी थी, क्योंकि वह उनकी ‘आज्ञा’ नहीं मान रही थी। अफगानिस्तान में 2015 में महिलाओं के विरुद्ध हिंसा के 5,000 से अधिक मामले दर्ज हुए। संयुक्त राष्ट्र के अनुसार लगभग 90 प्रतिशत अफगान महिलाओं के साथ मारपीट या यौन हिंसा होती है।
अफगानिस्तान में आज सिर्फ हिंसा और अराजकता है। घर से बाहर निकलने, बुर्का पहनने और पढ़ाई-लिखाई पर प्रतिबंध जैसी कई बंदिशें पहले से लागू हो चुकी हैं। हालांकि हमेशा से अफगानिस्तान इतना असुरक्षित, अशांत और अराजक नहीं था। एक समय पर अफगानिस्तान अपने फैशन, रोजगार, करियर और कानून-व्यवस्था के लिए प्रसिद्ध था। पुरानी तस्वीरों में अफगान महिलाएं और पुरुष यूरोप के किसी देश की तरह फैशनेबल लग हैं लेकिन आज यह सब किसी सपने की तरह है। एक कट्टरपंथी आतंकवादी संगठन ने हर चीज की परिभाषा को बदलकर रख दिया है। आज अफगानिस्तान की सड़कों पर जो अराजक भीड़ दिखाई देती है उसमें हाथों में अत्याधुनिक हथियार लिए हुए पुरुष ही नज़र आते हैं। एक बार फिर सड़कें स्त्रियों के लिए प्रतिबंधित कर दी गई हैं। यह परिदृश्य भयावह है। अफगानी स्त्रियों के भविष्य के प्रति चिंता पैदा करने वाला है। संयुक्तराष्ट्र संघ को ही नहीं वरन दुनिया के सभी देशों को चाहिए कि वे अफगानिस्तान में स्त्रियों की दशा की माॅनीटरिंग करते रहें और समय रहते संयुक्त रूप से हस्तक्षेप भी करें। 
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    (सागर दिनकर, 18.08.2021)

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Tuesday, August 17, 2021

पुस्तक समीक्षा | अंतर्मन को अभिव्यक्त करती कविताएं | समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह

प्रस्तुत है आज 17.08. 2021 को #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई कवि जे. पी. लववंशी के काव्य संग्रह "धूप को तरसते गमले" की  समीक्षा...
आभार दैनिक "आचरण" 🙏
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पुस्तक समीक्षा
अंतर्मन को अभिव्यक्त करती कविताएं
समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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काव्य संग्रह - धूप को तरसते गमले
कवि       - जे. पी. लववंशी
प्रकाशक    - कलमकार मंच, 3,विष्णु विहार, दुर्गापुर, जयपुर
मूल्य       - 150/-
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‘‘धूप को तरसते गमले’’ कवि जे.पी. लववंशी का दूसरा काव्य संग्रह है। इससे पूर्व ‘‘मन की मधुर चेतना’’ नामक एक काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुका है। उनका ताज़ा काव्य संग्रह ‘‘धूप को तरसते गमले’’ तुकांत-अतुकांत कविताओं का रोचक संग्रह है। इन कविताओं से हो कर गुज़रने पर यह अनुभव होता है कि कवि की दृष्टि जीवन के विविध पक्षों पर है और वे उन पक्षों का आकलन करते हुए तथ्यों को अपने मन में तौलते हैं, जांचते हैं, परखते हैं और फिर काव्य रूप में ढाल देते हैं। यूं भी, कविता मनुष्य के सुख-दुःख की सहज अभिव्यक्ति है। काव्य हमें चेतना प्रदान करता है और कुछ करने की ही नहीं, कुछ कर गुजरने की भी प्रेरणा देता है। कविता  देश-दुनिया और समाज से मनुष्य को बारीकी से जोड़ती है। यही कारण है कि कविता केवल साहित्य ही नहीं है, बल्कि वह समस्त विषयों को साथ ले कर चलती है। कविता हमें संवेदना के उस स्तर तक ले जाती है, जहां केवल विश्वास की दुनिया फल-फूल रही होती है, अविश्वास का कोई काम नहीं होता है। शोक, पीड़ा से ऊपर उठ कर वर्तमान की विसंगतियों तथा भविष्य की संभावनाओं पर गौर करना भी कवि का ही दायित्व होता है।
जे.पी. लववंशी की कविताओं में आशावादिता का प्रबल आह्वान है। वे जीवन के प्रत्येक त्रासद प्रसंग के बीच सब कुछ बेहतर हो जाने की बात करते दिखाई देते हैं। जैसे उनकी एक कविता है ‘‘फिर से होगा सवेरा’’। इस कविता में कटे हुए पेड़ से नई कोंपलें फूटने जैसा विश्वास प्रकट किया गया है-
फिर से होगा सवेरा
खुशियों की होगी धूम
हटा दो मन की निराशा
ले विश्वास खूब झूम।
दुख के काले-काले बादल
छंट जाएंगे ओ मेरे यार
हर घर राशन पानी होगा
खिलखिलाएगा परिवार।

कवि ने अपनी कविताओं में जल, जंगल और गांवों की भी बात की है। वे जल की कमी को ध्यान में रखते हुए जल संरक्षण के लिए आवाज़ उठाते हैं और जल की महत्ता को ध्यानाकर्षण में रखते हैं। ‘‘फिर नहीं होगा कल’’ कविता की कुछ पंक्तियां देखिए-
जल है अमृत तुल्य
पहचानो इसका मूल्य
जुड़ा है इससे जीवन
बचा लो अपने वन
जल बिन है सब सूना
खोज रहे हम हर कोना
धरा का सोना है
नहीं इसको खोना है।

कवि जे.पी. लववंशी जब गांवों की बात करते हैं तो उनकी कविता पहले ही उद्घोष करती है कि ‘‘दिल में मेरे गांव बसता’’। इसके बाद अपने दिल में बसे हुए गंाव की खूबियां उनकी कविता में शब्दबद्ध होती चली जाती हैं। इसी कविता से उदाहरण -
दिल में मेरे गांव बसता
जुबां पर यही नाम रहता
बड़े-बूड़ों का सम्मान पाते
सबसे सदा राम-राम करता
सूरज को भगवान मानते
चंदा यहां मामा कहलाते
पेड़-पौधे संगी-साथी हमारे
सबको मिल कर खूूब हंसाते।

कवि पर्यावरण और वन संपदा के प्रति चिंतित है। कवि की यह चिंता स्वाभाविक है। जंगलों की अवैध कटाई और शहरों में वृ़क्षों की कमी ने पर्यावरण को संकट में डाल रखा है। ऐसे विपरीत समय में कवि जे.पी. लववंशी पेड़ों की विशेषताएं गिना कर प्रकृति को बचाने का लक्ष्य तय करते हैं। उनकी ‘‘पेड़’’ शीर्षक रचना तथ्यात्मक निवेदन के रूप में दिखाई देती है-
ठंडी-ठंडी छाया देते
मीठे-मीठे फल लगते
पंछियों का बनते बसेरा
सबको दिखाते नया सवेरा
रोज-रोज कट रहे
बंजन धरा सब कहे
मूक हो कर सब सहे
पेड़ों बिना माटी बहे।           

पर्यावरण संरक्षण की बुनियाद है वृक्षों, पेड़ों का होना। पेड़ों के न होने से भू-क्षरण बढ़ जाता है। इसीलिए कवि खुल कर कहता है कि ‘‘पेड़ न तुम काटो’’। साथ ही पेड़ों से होने वाले लाभों को भी गिनाता है-
पेड़ न तुम काटो
यही संदेश बांटो।
पेड़ हमारे....
धरती के हैं रक्षक
प्रदूषण के भक्षक
धूप में सबको छाया देते
तुम मजे से मीठे फल खाते
पंछी पेड़ों पर बनाते बसेरा
और पंथी का बनते सहारा
बारिश को पास बुलाते
सब के मन को भाते।
जे.पी. लववंशी की कविताएं सामाजिक सरोकार रखती हैं। रोज़गार की तलाश में गांव से शहर की ओर पलायन करने वाले मजदूरों की विवशता और दुरावस्था की ओर ध्यानाकर्षित करते हुए कवि ने ‘‘रोटी’’ शीर्षक कविता में लिखा है कि किस प्रकार कोरोना आपदा में लगाए गए लाॅकडाउन के दौरान शहर में काम करने वाले श्रमिकों को शराणार्थियों के समान भटकते हुए घर वापस लौटना पड़ा क्यों कि उनके मालिकों ने उन्हें बेरोज़गार कर दिया-
रोटी की लगा कर आस
गांव छोड चला था शहर
आई एक विपदा भारी
टूट पड़ी बन कर कहर।
अपना पसीना सींच-सींच कर
मालिक को किया मालामाल
जब हुआ काम सारा बंद
हमें बाहर किया, हुए बेहाल।
रात-दिन चल रहे भूखे-प्यासे
मिलता नहीं कोई ठौर ठिकाना
चल पड़े हम अपने गांव की ओर
हे ईश्वर! ऐसे दिन फिर न दिखाना।

‘‘धूप को तरसते गमले’’ में कुछ दोहे भी हैं। इनमें से सावन पर लिखे गए दोहे मधुर और रोचक हैं किन्तु इनमें अतीत और वर्तमान के सावनी परिदृश्य में आ चुके अंतर को स्पष्ट किया गया है-
ऐसा सावन खो गया, जब खिलते थे फूल।
रिश्तों में थी मधुरता, कभी नहीं थे शूल।।
पेड़ों पर झूले नहीं, नहीं बचा आनंद।
ऐसा सावन खो गया, जब गाते थे छंद।।
रिमझिम-रिमझिम न बरसे, सावन की बौछार।
ऐसा सावन खो गया, कैसे हो त्योहार।।
बाहर सब जन बैठ के करते थे दो बात।
ऐसा सावन खो गया, गुमसुम बैठे तात।।

जे.पी. लववंशी का कविता संग्रह ‘‘धूप को तरसते गमले’’ की कविताएं जहां एक ओर संस्कृति और संस्कार का आह्वान करती हैं तो वहीं दूसरी ओर अव्यवस्था पर चोट भी करती हैं। कविताओं के शिल्प के रूप-रंग में विविधता होने के बावजूद स्वर एक जैसा है। कविताओं में जीवन की वास्तविकताओं से सामना और मानवीय संवेदना के बारीक तंतुओं की बुनावट है। जीवन का उल्लास और विश्वास भी कविताओं में गुंथा है। भाषा मूलतः सरल सामान्य बोलचाल की खड़ीबोली हिन्दी है, जो स्पष्ट भावसम्प्रेषण में समर्थ है। इस संग्रह में संग्रहीत कविताओं की सबसे बड़ी विशेषता है कि ये सभी 116 कविताएं अंतर्मन से उपजी हुई  हैं इसीलिए इनके भाव मन को छूने में सक्षम हैं।
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Wednesday, August 11, 2021

चर्चा प्लस | एक बलिदानी लड़का जो फैशन आईकाॅन बन गया | डाॅ शरद सिंह

चर्चा प्लस           
एक बलिदानी लड़का जो फैशन आईकाॅन बन गया
       - डाॅ शरद सिंह
        उम्र मात्र 18 माह कुछ महीने अर्थात् पूरे 19 साल का भी नहीं हुआ था। उसने देशभक्ति का ऐसा उदाहरण सामने रखा कि अंग्रेज हुकूमत थर्रा उठी। उस लड़के ने जिस प्रकार धोती-कुर्ता पहन का स्वतंत्रता संग्राम का जयघोष किया था वह धोती-कुर्ता उस समय युवाओं में फैशन की तरह लोकप्रिय हो गया था। उस लड़के नाम था खुदीराम बोस। 


आजकल की युवा पीढ़ी टेलीविजन और इंटरनेट पर चल रहे ट्रेंड के अुनसार फैशन अपनाती है। कुछ समय पहले तक सिनेमा से भी पहनाव-पोशाक के फैशन अपनाए जाते थे। लेकिन एक समय ऐसा भी था जब हमारे देश के युवा अपने बलिदानी साथियों की एक झलक मात्र देख कर अथवा तस्वीर देख कर ही उनका पहनावा फैशन के रूप में अपना लेते थे क्यों वह समय था देश के प्रति समर्पण का, आजादी के लिए लड़ने के जुनून का। अनेक कम उम्र युवा देश को आजाद कराने के लिए अपने प्राणों की बाज़ी लगाने को आगे आए और देश के तत्कालीन युवाओं के आईकान यानी आदर्श बन गए।  इनमें एक नाम खुदीराम बोस का है, जिन्हें 11 अगस्त 1908 को फांसी दी गई थी। उस समय उनकी उम्र मात्र 18 साल कुछ महीने थी, पूरे उन्नीस साल भी नहीं हुए थे। अंग्रेज सरकार उनकी निडरता और वीरता से आतंकित हो उठी थी। अंग्रेज सरकार को लगा कि यदि खुदीराम बोस को कठोर दण्ड नहीं दिया गया तो उनसे प्रेरणा ले कर और युवा आगे आएंगे। इसीलिए उनकी इतनी कम उम्र होते हुए भी अंग्रेज सरकार ने क्रूर निर्णय लेते हुए उन्हें फांसी की सजा सुनाई दी। खुदीराम बोस ने न तो माफी मांगी और भयभीत हुए। वे ‘गीता’ का पाठ करते हुए निर्भकता से फांसी के फंदे पर झूल गए। खुदीराम बोस धोती-कुर्ता पहनते थे। उनको फांसी दिए जाने के बाद बंगाल के जुलाहों ने देखा कि युवाओं में खुदीराम बोस की तरह धोती-कुर्ता पहनने का चाव बढ़ गया है। यह देखते हुए जुलाहों ने विशेष धोतियां बुननी शुरू कर दीं जिसकी किनारी पर ‘खुदीराम’ लिखा होता था। यह धोती बंगाल के युवाओं में फैशन की तरह अपना ली गई। खुदीराम का नाम लिखी हुई धोती को पहन कर युवा स्वयं को खुदीराम के की भावना से स्वयं को जुड़ा हुआ महसूस करते थे। उनमें देश के लिए मर-मिटने की भावना बलवती हो उठती थी। 
खुदीराम बोस के बलिदान ने बंगाल ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण देश में देशभक्ति की लहर दौड़ा दी। जिसे भी पता चला कि इतने कम उम्र युवा को फांसी दी दी गई है, वह सुन कर बौखला उठा। खुदीराम बोस की वीरता के गीत लिखो जाने लगे और ये गीत इतने लोकप्रिय हुए कि इन्होंने धीरे-धीरे लोकगीत का रूप ले लिया। युवा जब अंग्रेज सरकार की नीतियों का विरोध करने के लिए सड़कों पर निकलते तो इन्हीं गीतों को गाया करते।
3 दिसंबर 1889 ई. को बंगाल में मिदनापुर जिले के हबीबपुर गांव में खुदीराम बोस का जन्म हुआ था। उनके पिता का नाम त्रैलोक्य नाथ बोस और माता का नाम लक्ष्मीप्रिय देवी था। दुर्भाग्यवश, बाल्यावस्था में ही खुदीराम को अपने माता-पिता की मृत्यु का दुख सहन करना पड़ा। उनका लालन-पालन उनकी बड़ी बहन ने किया। खुदीराम बोस के मन में बचपन से ही देशभक्ति की प्रबल भावना थी। उन्होंने अपने विद्यालयीन दिनों में ही राजनीतिक गतिविधियों में भाग लेना प्रारंभ कर दिया था। सन 1902 और 1903 के दौरान अरविंदो घोष और भगिनी निवेदिता ने मेदिनीपुर में कई जनसभाएं की और क्रांतिकारी समूहों के साथ भी गोपनीय बैठकें आयोजित की। खुदीराम बोस भी अपने शहर के उस युवा वर्ग में शामिल थे जो अंग्रेजी हुकुमत को उखाड़ फेंकने के लिए आन्दोलन में शामिल होना चाहता था।
खुदीराम बोस ने नौंवी कक्षा के बाद स्कूल छोड़ दिया और सक्रिय रूप से जनआंदोलनों में भाग लेने लगे। वह समय बंगाल विभाजन का था। इस विभाजन का लोग विरोध कर रहे थे।  सैंकड़ों जानें जा रही थीं। श्ह सब देख-देख कर किशोरवय खुदीराम बोस का खून खौलने लगता था।  सन् 1905 ई. में बंगाल विभाजन के बाद खुदीराम बोस स्वाधीनता आंदोलन में कूद पड़े। उन्होंने अपना क्रांतिकारी जीवन सत्येन बोस के नेतृत्व में शुरू किया था। मात्र 16 साल की उम्र में उन्होंने पुलिस स्टेशनों के पास बम रखा और सरकारी कर्मचारियों को निशाना बनाया। वे रिवोल्यूशनरी पार्टी में शामिल हो गए और ‘वंदेमातरम’ के पर्चे वितरित करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। सन 1906 में पुलिस ने बोस को दो बार पकड़ा।  28 फरवरी, सन 1906 को एक पर्चा बांटते हुए पकडे गए जिस पर लिखा था ‘‘सोनार बांग्ला’’। पुलिस उन्हें जेल में डालना चाहती थी लेकिन वे पुलिस को चकमा दे कर भाग निकले। इस मामले में उनपर राजद्रोह का आरोप लगाया गया और उन पर अभियोग चलाया परन्तु गवाही न मिलने से खुदीराम निर्दोष छूट गये। दूसरी बार पुलिस ने उन्हें 16 मई को गिरफ्तार किया पर कम आयु होने के कारण उन्हें चेतावनी देकर छोड़ दिया गया। 6 दिसंबर 1907 को खुदीराम बोस ने नारायणगढ़ नामक रेलवे स्टेशन पर बंगाल के गवर्नर की विशेष ट्रेन पर हमला किया। परन्तु गवर्नर साफ-साफ बच निकला। वर्ष 1908 में उन्होंने वाट्सन और पैम्फायल्ट फुलर नामक दो अंग्रेज अधिकारियों पर बम से हमला किया लेकिन किस्मत ने उनका साथ दिया और वे बच गए। बंगाल विभाजन के लिए दोषी तानते हुए लोग कलकत्ता के मजिस्ट्रेट किंग्जफोर्ड से बदला लेना चाहते थे। किंग्जफोर्ड भी क्रूर प्रवृत्ति का था। वह क्रान्तिकारियों को कठोर से कठोर दण्ड सुनाया करता था। अंग्रेज सरकार ने किंग्जफोर्ड पदोन्नत कर  मुजफ्फरपुर जिले में सत्र न्यायाधीश बना दिया। तब क्रांतिकारियों ने किंग्जफोर्ड को मारने का निश्चय किया और इस कार्य के लिए चयन हुआ खुदीराम बोस और प्रफुल्लकुमार चाकी का। मुजफ्फरपुर पहुंचने के बाद इन दोनों ने किंग्जफोर्ड के बंगले और कार्यालय की निगरानी की। 30 अप्रैल 1908 को चाकी और बोस बाहर निकले और किंग्जफोर्ड के बंगले के बाहर खड़े होकर उसका इंतजार करने लगे। खुदीराम ने अंधेरे में ही आगे वाली बग्गी पर बम फेंका पर उस बग्गी में किंग्स्फोर्ड नहीं बल्कि दो यूरोपियन महिलायें थीं जिनकी मौत हो गयी। अफरा-तफरी के बीच दोनों वहां से नंगे पांव भागे। किन्तु रेलवे स्टेशन पर पुलिस द्वारा पकड़ लिए गए। वहां से उन्हें से मुजफ्फरपुर लाया गया।
उधर प्रफ्फुल चाकी पुलिस से छिपते-छिपाते जब हावड़ा के लिए ट्रेन बदलने के लिए मोकामाघाट स्टेशन पर उतरे तब तक पुलिस को उनके बारे में भनक लग चुकी थी। पुलिस ने मोकामाघाट स्टेशन पर प्रफुल्ल कुमार चाकी को घेर लिया। तब चाकी ने ‘‘भारत माता की जय’’ का नारा लगाते हुए खुद को गोली मार ली और शहीद हो गए। जबकि खुदीराम बोस को गिरफ्तार कर, उन पर मुकदमा चलाया गया और फिर फांसी की सजा सुनाई गयी। 11 अगस्त सन 1908 को उन्हें फांसी दे दी गयी। उस समय उनकी उम्र मात्र 18 साल और कुछ महीने थी। खुदीराम बोस इतने निडर थे कि हाथ में गीता लेकर खुशी-खुशी फांसी चढ़ गए।
11 अगस्त 1908 की सुबह जब खुदीराम बोस को फांसी स्थल की ओर ले जाया जा रहा था। उस वक्त उनके दोनो हाथ पीछे की ओर रस्सियों से बांध दिया गया था। चार पुलिसकर्मी आगे-पीछे चल रहे थे। खुदीराम बोस जैसे ही वे फांसी के तख्ते पर चढे, ऊंची आवाज में वंदे मातरम् का नारा लगाया। उनकी ऊंची आवाज सुनकर बगल में स्थित जेल अस्पताल में सोए कैदियों की नींद खुल गई और वे भी खिडकी से झांकते हुए खुदीराम के सूर में सूर मिलाकर वंदे मातरम् का जयघोष कर शहीद होते वीर सपूत को अंतिम विदाई दिए। इसके पूर्व शहीद के मृत शरीर पर चाकू से गोदकर वंदे मातरम् लिखा गया। हजारों लोगों की भीड के बीच बूढ़ी गंडक नदी के तट पर उनका दाह-संस्कार किया गया। मुजफ्फरपुर के दो अधिवक्ता एवं तीन बंगाली युवकों ने सामूहिक रूप से शहीद को मुखाग्नि दी थी। खुदीराम बोस के बलिदान ने युवाओं में आक्रोश के साथ नया जोश भर दिया। जहां अंग्रेज सरकार ने सोचा था कि खुदीराम बोस को फांसी देने से युवा भयभीत हो जाएंगे और क्रांतिकरियों का साथ देना बंद कर देंगे, वहीं इसका विपरीत असर हुआ। अनेक युवा प्रत्यक्ष रूप से क्रांतिकारी आंदोलनों में सक्रिय हो गए और कई युवा भूमिगत कार्य करते हुए क्रांतिकारियों की मदद करने लगे। अपने प्राण दे कर जो मशाल खुदीराम बोस ने जलाई थी, उसके प्रकाश में स्वतंत्रता संग्राम ओर तेजी से आगे बढ़ता गया। 
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(सागर दिनकर, 11.08.2021)
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Tuesday, August 10, 2021

पुस्तक समीक्षा | आंग्ल और ओड़िया साॅनेट पर महत्वपूर्ण पुस्तक | समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह

प्रस्तुत है आज 10.08. 2021 को #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई लेखक एवं अनुवादक द्वय विनीत मोहन औदिच्य तथा अनिमा दास की पुस्तक "प्रतीची से प्राची पर्यंत" की  समीक्षा... 
आभार दैनिक "आचरण" 🙏
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पुस्तक समीक्षा
आंग्ल और ओड़िया साॅनेट पर महत्वपूर्ण पुस्तक
  समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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काव्य संग्रह - प्रतीची से प्राची पर्यंत
अनुवादक   - विनीत मोहन औदिच्य एवं अनिमा दास
प्रकाशक    - ब्लैक ईगल बुक्स, ई/312, ट्राईडेंट गैलेक्सी, कलिंग नगर, भुवनेश्वर, ओडिशा
मूल्य       - 300/-
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साॅनेट काव्य की एक विदेशी शैली है किन्तु हिन्दी में साॅनेट को पहचान दिलाने और उसका पूर्वी संस्करण तैयार करने का श्रेय जाता है त्रिलोचन शास्त्री को। उन्होंने अंग्रेजी और योरोपियन साॅनेट की शैली को अपना कर उसमें देसज परिदृश्यों को अभिव्यक्त किया। कई समालोचक त्रिलोचन शास्त्री के साॅनेट को शेक्सपियर की परम्परा के मानते हैं किन्तु कुछ वर्ष पूर्व मैं शोध कर के पाया कि त्रिलोचन शास्त्री के साॅनेट शेक्सपियर के ‘एलीट’ साॅनेट की अपेक्षा किसानों और मज़दूरों की बात करने वाले कैल्टिक साॅनेट के अधिक निकट हैं। समीक्ष्य ग्रंथ में हिन्दी साॅनेट को नहीं लिया गया है किन्तु अंग्रेजी साॅनेट और भारतीय साॅनेट में ओड़िया साॅनेट की विस्तार से चर्चा की गई है। हिन्दी में हिन्दी से इतर भाषाओं के साॅनेट्स पर शोधात्मक सामग्री हिन्दी साॅनेट्स को भी मार्गदर्शन देने का काम करेगी। इस पुस्तक का नाम है ‘‘प्रतीची से प्राची पर्यंत’’ अर्थात् पश्चिम से पूर्व तक। इसमें दो खंड हैं। प्रथम खंड में साॅनेट की आंग्ल परम्परा के उद्गम की जानकारी देते हुए पश्चिमी कवियों के 67 साॅनेट अनूदित किए गए हैं। यह अनुवाद कार्य साहित्यकार एवं सागर (म.प्र.) जिले के शासकीय महाविद्यालय में अंग्रेजी के प्राध्यापक विनीत मोहन औदिच्य ने किया है। वे एक अच्छे ग़ज़लकार भी हैं। उनकी पांच पुस्तकें प्रकाशित हो चुके हैं। द्वितीय खंड में ओड़िया साॅनेट की की परम्परा और ओड़िया कवियों के 59 साॅनेट दिए गए हैं। इस खंड का अनुवादकार्य किया है अनिमा दास ने जो कटक (उड़ीसा) के मिशनरी स्कूल में शिक्षिका हैं। वे स्वयं साॅनेट एवं छंदमुक्त कविताएं लिखती हैं। उनका एक काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुका है। 
मेरे अपने शोध के अनुसार कुछ विद्वानों की मान्यता है कि सॉनेट का जन्म ग्रीक सूक्तियों अर्थात् एपीग्राम से हुआ। प्राचीन काल में एपीग्राम का प्रयोग एक ही विचार या भाव को व्यक्त करने के लिए होता था। यह भी मान्यता है कि इसका जन्म इटली में हुआ। वहीं कुछ विद्वान इसका जन्मस्थान सिसली मानते हैं और  वे तर्क देते हैं कि जैतून के वृक्षों की छंटाई करते समय कामगार जिस गीत को गाया करते थे, वही साॅनेट है। निष्कर्षतः यह तो मानना ही होगा कि साॅनेट का जन्म योरोप में हुआ जहां कामगारों से ले कर साहित्यकारों तक यह लोकप्रिय था। उस दौरान में योरोप में एक और गीत शिल्प और गायनशैली प्रचलित थी जिसे आम बोलचाल में ‘थर्डक्लास’ गीत कहा जाता था। यह तीसरे दर्जे का गीत अपने कथ्य को ले कर तीसरे दर्जे का नहीं था बल्कि इसे इसलिए तीसरे दर्जे का माना जाता था क्यों कि इस पर थकाहारा श्रमिक वर्ग मदिरालय के प्रांगण में इसकी धुन पर नाचता था और अपनी थकान को मनोरंजन की दिशा में मोड़ देता था। ‘‘प्रतीची से प्राची पर्यंत’’ के प्रथम खंड की प्रस्तावना लिखते हुए विनीत मोहन औदिच्य ने साॅनेट की परिभाषा दी है साॅनेट के इटैलियन जन्मस्थान को स्वीकार करते हैं। वे लिखते हैं-‘‘सोनेट की व्युत्पत्ति इटैलियन भाषा के ‘सोनेटो’ से हुई जिसका अर्थ है नन्हीं-सी संगीतमयी ध्वनि। मध्यकालीन इटली में विकसित यह काव्य विधा मानवीय भावनाओं की कलात्मक अभिव्यक्ति का उत्कृष्ट वाह सिद्ध हुई और अपनी अत्यंत लोकप्रियता के चलते शताब्दियों की यात्रा हुई सम्पूर्ण विश्व में फैल गई।’’ 
आंग्ल साॅनेट को समझने की दिशा में पुस्तक के प्रथम खंड की प्रस्तावना बहुत महत्वपूर्ण है। इसमें साॅनेट की परिभाषा, इसके आरम्भिक कवियों की जानकारी तथा विधा के प्रकार का भी उल्लेख किया गया है। लेखक के अनुसार ‘‘संरचना के आधार पर साॅनेट विधा के पांच प्रकार कहे गए हैं जो निम्नानुसार हैं- 1-पैट्रार्कन साॅनेट 2-स्पेंसरियन साॅनेट 3-शैक्सपिरियन साॅनेट 4-मिल्टोनिक साॅनेट व 5-समकालीन साॅनेट।’’ 
साॅनेट के योरोपियन परंपरा के प्रतिनिधि कवियों का उल्लेख करते हुए अपने द्वारा संपादित एवं अनूदित प्रतीची खंड के बारे में लिखा है कि-‘‘इस संग्रह के भाग पश्चिमी काल खंड प्रतीची में अधिसंख्य साॅनेट 1886 में प्रकाशित विलियम शार्प के ‘साॅनेट्स आफॅ दिस सेंचुरी’ से चयनित किए गए हैं। एलीजाबेथ काल की सोलहवीं शताब्दी से 21 वीं शताब्दी के उत्तर आधुनिक काल तक के प्रतिनिधि 46 आंग्ल भाषा कवियों की विविध संरचनाओं से युक्त 67 साॅनेट को अनूदित किया गया है जो भिन्न-भिन्न कालखंडों में अपने निहित सौंदर्य व सार्वभौमिकता के फलस्वरूप कालजयी सिद्ध हुए अस्तु देशकाल की सीमा से परे लोकप्रिय भी।’’ 
इस प्रथम खंड में कालक्रमानुसार एडमंड स्पेंसर, सैमुएल डेनियल, माइकेल ड्राइटन, विलियम शेक्सपियर, जाॅन डन, जाॅन पायने, जाॅन मिल्टन, विलियम वर्ड्सवर्थ, सैमुअल टेलर कालरिज, जाॅन होब्गेन, चाल्र्स स्ट्रांग, ओब्रे डि वियर जूनियर, जाॅन कीट्स, हार्टले कालरिज, थामस हुड, ऐलीजाबेथ बैरेट ब्राउनिंग, लार्ड हाउटन, हेनरी एलीसन, विलियम फ्रीलेंड, फ्रेडरिक लाकर, मैथ्यू अर्नाल्ड, सिडनी डोबेल, दांते गैब्रियल रोसेट्टी, ऐलेक्जेंडर स्मिथ, क्रिस्टीना रेजेट्टी, जाॅन विलियम इंचबोल्ड, थियोडोर वाट्स, रिचर्ड वाटसन डिक्सन, अल्फ्रेउ आस्टिन, एल्गरनान चाल्र्स स्विनबर्न, विल्फ्रेड स्केवन ब्लंट, आर.ए. थोर्पे, जाॅन एडिंगटन साइमंड्स, अर्नेस्ट मायर्स, ए. मेरी एफ. रोबिंसन, मार्क आन्द्रे राफालोविच, राबर्ट लारेंस बिनयोन, राबर्ट फ्रास्ट, हरबर्ट ई क्लार्क, जोसेफ एलिस, जाॅन टोड हंटर, क्लोड मैके, एडना सेंट विंसेंट मिल्ले, वेंडी कोप, लोर्ना डेविस तथा इवान मैंटिक के साॅनेट्स अनूदित कर के प्रस्तुत किए गए हैं। यह क्रम और चयन साॅनेट की विषयवस्तु के विकास को समझने में अत्यंत सहयोगी होगा। उदाहरण के लिए एडमंड स्पेंसर (1552-1599) का स्पेंसरियन साॅनेट की पंक्तियां देखिए -
रेत पर लिखा मैंने उसका नामएक दिन हाथ से
परंतु बहा कर ले गई उसे अचानक तीव्र लहरें
दूसरे हाथ से लिख दिया मैंने उसका नाम फिर से
फिर से अपना ले गईं अपना शिकार पीड़ा की भंवरें।

एक उदाहरण वर्तमान कवि इवान मैंटिक के साॅनेट का। इवान मैंटिक सासायटी आॅफ क्लासिकल पोइट्स के सह संस्थापक एवं अध्यक्ष सोसायटी के जर्नल और वेबसाईट के मुख्य संपादक हैं। वे इतिहास को खंगालते हुए लिखते हैं-
ये एक यहूदी के ही हैं,पहने हुए पदत्राण पुराने
जो गए हैं चटक, भाग कर कई मील चलने के बाद
वृक्ष के तने सी बढ़ी ये है उस दास की सशक्त टांगे
जिसने क्रूरता से पीट कर मारे जाने तक किया श्रम अबाध।

पुस्तक का दूसरा भाग है ‘‘प्राची’’ यानी पूर्व। इस भाग का प्रस्तावना लेखन, संपादन तथा अनुवाद अनिमा दास ने किया है। अपनी प्रस्तावना में अनिमा दास ने ओड़िया साॅनेट्स का इतिहास एवं प्रवृत्तियों की विस्तुत चर्चा की है। वे लिखती है-‘‘गवेषक डाॅ. क्षेत्रवासी नायक की सूचना के अनुसार 1872 में श्री रुद्रनारायण पट्टनायक ‘राम’ शीर्षक से सर्वप्रथम साॅनेट लिखने का उद्यम किया था किंतु सफल नहीं हो सके। 1872 में प्रकाशित ‘कविता मंजरी’ संकलन में श्री गोपाल वल्लभ दास ‘उपेंद्रभंज’ ‘वनमल्ली’ एवं गोलाप (गुलाब) आदि कुछ साॅनेट संकलित किए थे किंतु इन सभी में साॅनेट की सूक्ष्म सत्ता के अभाव के कारण इन कवि द्वय को ओड़िया साॅनेट के आद्यसृष्टा नहीं माना गया।’’ लेखिका के अनुसार ओड़िया साॅनेट का प्रारंभिक काल सन् 1870 से माना जाता है। ओडिया साॅनेट के चार काल खंड लेखिका ने निर्धारित किए हैं- प्रारंभिक काल, मध्यकाल, नूतन कविता एवं ओड़िया साॅनेट तथा 21 वीं सदी के ओड़िया साॅनेट जिसे ओड़िया साॅनेट का सुवर्णमय काल कहा जाता है।
‘‘प्राची’’ खंड भक्तकवि मधुसूदन राओ (1853-1912) के साॅनेट से आरंभ होता है। इसके बाद कालक्रमानुसार साधुचरण राव, व्यासकवि फ़कीर मोहन सेनापति, स्वभाव कवि गंगाधर मेहेर, पल्लीकवि नंदकिशोर बल, कविशेखर चिंतामणि महांति, उत्कलमणि गोपबंधु दास, पद्मचरण पट्टनायक, लक्ष्मीकांत महापात्र, कुंतला कुमारी साबत, गोदावरिश महापात्र, वैकुण्ठनाथ पट्टनायक, पद्मश्री डाॅ. मायाधर मानसिंह, पद्मश्री राधामोहन गडनायक, पद्मश्री सच्चिदानंद राउतराय, कुंजबिहारी दाश, कृष्णचंद्र त्रिपाठी, गुरुप्रसाद महांति, पद्मभूषण रमाकांत रथ, चिंतामणि बेहेरा, बिभुदत्त मिश्र, सौभाग्य कुमार मिश्र, सत्यनारायण नंद, बनज देवी, गिरिजा कुमार बलियारसिंह, सुरेश पड़िरा, सत्य पट्टनायक, वीणापाणि पंडा तथा लक्ष्मीकांत पाढ़ी के साॅनेट्स दिए गए हैं। इस खंड से भी आदि और अद्यतन साॅनेट उदाहरण के लिए चुनते हुए पहले मधुसूदन राओ के साॅनेट की कुछ पंक्तियां देखिए-
जाना कहां मुझे, छिपना कहां, किस संगोपन में
किसी गृह में अथवा सागर में किंवा स्तीर्ण गगन में
दस दिशाओं में अथवा तमिस्त्रा के सघन तमस में
लोकारण्य में किंवा विजन में वा आभामय दिवस में?

कवयित्री वीणापाणि पंडा (जन्म 1958) के साॅनेट की यह चंद पंक्तियां वर्तमान ओड़िया साॅनेट की प्रतिबद्धता को रेखांकित करती हैं-
यदि मुझे मार्ग के अंतिम छोर से लौट कर आना पड़े
यदि आ जाऊं मत्स्य मुंह में, आंचल की गांठ से खुल कर
सटीक ठिकाने का पत्र मैं, यदि पहुंच जाऊं भूले ठिकाने पर
मैं हूं हारी हुई, द्यूतक्रीड़ा की गोटी, उस दिन समझ जाना।

‘‘प्रतीची से प्राची पर्यंत’’ आंग्ल और ओड़िया साॅनेट को जानने और समझने की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण पुस्तक मानी जा सकती है। वैसे इस पुस्तक की सबसे बड़ी विशेषता है- अनुवाद की सावधानी। क्योंकि इसमें साॅनेट्स का मात्र शाब्दिक अनुवाद नहीं किया गया है अपितु काव्यात्मक अनुवाद किया गया है। दोनो अनुवादकों ने इस बात का पूरा ध्यान रखा है कि मूल साॅनेट की गयात्मकता एवं प्रवाह बाधित न हो। उनके इस श्रम के लिए दोनों अनुवादक बधाई के पात्र हैं। एक बात और जो उल्लेखनीय है कि दोनों अनुवादक स्वयं कवि हैं, साॅनेट लिखते हैं किंतु 21 वीं सदी के साॅनेटकारों के रूप में उन्होंने अपने साॅनेट पुस्तक में शामिल नहीं किए हैं। यह लोभसंवरण बहुधा कवियों से नहीं हो पाता हैं।
चूंकि पुस्तक प्रकाशन अहिन्दी भाषी क्षेत्र में हुआ है अतः कुछ शाब्दिक त्रुटियां हैं जो खटकती हैं। जैसे ‘ड’ के स्थान पर ’ड़’ का मुद्रण तथा ‘कवयित्री’ के स्थान पर ‘कवियत्री’ का मुद्रण होना। किंतु पुस्तक की सामग्री के महत्व को देखते हुए उसे अनदेखा किया जा सकता है। इस शोधात्मक पुस्तक के लिए और आंग्ल और ओड़िया के साॅनेट्स पर सम्वेत चर्चा की हिन्दी में संभवतः यह पहली पुस्तक लिखे जाने के लिए विनीत मोहन औदिच्य तथा अनिमा दास बधाई की पात्र हैं। आशा है कि यह दोनों लेखक एवं अनुवादक द्वय इसके बाद हिन्दी साॅनेट पर भी इसी तरह की पुस्तक संपादित करेंगे।          
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Sunday, August 8, 2021

व्यंग्य लेख | ‘अ’ से अधिकारी, जा पे लक्ष्मी करे सवार | डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह | नवभारत में प्रकाशित, 08.08.2021

Dr (Miss) Sharad Singh

 व्यंग्य लेख                                

   ‘अ’ से अधिकारी, जा पे लक्ष्मी करे सवार                                                       

        - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह


हिन्दी माध्यम के सरकारी स्कूलों में जब ककहरा सिखाया जाता है तो पहले अक्षर की पहचान कराई जाती है अनार के ‘अ’ से। भले ही ज़िन्दगी में उसे अनार का स्वाद चखने को न मिले। ‘ग’ से ‘गऊ’ रटाया जाता है, यह डांटते हुए कि ‘अबे गधे ‘ग’ गऊ’ होता है।’ 

अब ‘ग’ से गधा ही रख देते तो क्या जाता? खैर, ‘ग’ से चाहे गधा हो या न हो लेकिन ‘अ’ से ‘अनार’ के बदले ‘अ’ से ‘अधिकारी’ अवश्य होना चाहिए। इस प्रकार, ज्ञान का पहला अक्षर अधिकारी से ही शुरू होना चाहिए। क्योंकि इस अधिकारी नामक जीव से जीवन भर पीछा नहीं छूटता है। ये अधिकारी नामक जीव ‘साहब जी’ के सम्बोधन से पुकारे जाते हैं। जीवन के हर क़दम पर छोटे साहब, बड़े साहब, बड़े से बड़े साहब, बड़े से बड़े से बड़े साहब यानी अधिकारियों की एक लम्बी कतार मिलती है। किसी भी काम से चाहे नेता के पास जाओ या अभिनेता के पास, अंततः जाना पड़ता है किसी न किसी अधिकारी के पास। वैसे अधिकारी वह दो-पाया जीव होता है जो शेर जैसे दमदार कर्मचारियों को भी गीदड़ बना देता है। इस दो पाए प्राणी की कार्यप्रणाली सरकस के ‘रिंग मास्टर’ जैसी होती है। इसके हाथ में अपने अधीनस्थ कर्मचारियों की ‘सी.आर.’ यानी कॅान्फीडेन्शल रिपोर्ट यानी गोपनीय चरित्रावली का चाबुक होता है। इसी चाबुक के संकेत पर सभी कर्मचारी करतब दिखाते रहते हैं।   

अधिकारी प्रायः धनसम्पन्न प्राणी होता है। इस अधिकारी नामक जीव की जीवनी अर्थात् इसकी जीवन संगिनी भी धन की सम्पन्नता बटोरने के लिए इसे सदा प्रेरित करती रहती है। अधिकारी नामक प्राणी की कृपादृष्टि पाने वाले स्वयं का जीवन धन्य समझते हैं और अधिकारी की कृपादृष्टि स्वयं पर बनाए रखने के लिए साम-दाम-दण्ड-भेद से काम लेते रहते हैं। क्यों कि वे जानते हैं कि यदि अधिकारी मेहरबान तो कर्मचारी पहलवान। अधिकारी चाहे तो प्रसन्न हो कर खाऊ-पिऊ अनुभाग दे सकता है अन्यथा अप्रसन्न होने पर काला-पानी कहलाने वाले दुर्गम स्थानों पर स्थानान्तरित कर सकता है। 

आप नौकरी करें या न करें, अपने जीवन में आप अधिकारी से बच कर नहीं रह सकते हैं।  कर्मचारियों को ही नहीं गैरकर्मचारियों को भी इस अधिकारी नामक प्राणी का मुंह जोहना पड़ता है और चरणवंदना करनी पड़ती है। क्योंकि, यदि राशन चाहिए तो अधिकारी से राशनकार्ड बनवाओ, दूकान खोलना है तो अधिकारी से अनुमति लो, मकान बनाना है तो अधिकारी के चक्कर लगाओ। यदि गज़टेड अधिकारी से सत्यापित कराए हुए काग़ज़ात आपके पास नहीं हैं तो आपके काग़ज़ातों की कोई क़ीमत नहीं है।  हर व्यक्ति को अपने जीवन में कभी न कभी किसी न किसी अधिकारी के दर्शन करने ही पड़ते हैं। यदि आय अच्छी है तो आयकर अधिकारी के दर्शन करने पड़ते हैं, विदेश भ्रमण करना है तो स्थानीय अधिकारी से ले कर दूतावास अधिकारी तक के दर्शन करने पड़ते हैं। चोर-डकैतों से पाला पड़े तो पुलिस अधिकारी का मुंह देखना पड़ता है। और, जो कहीं दुर्योग से कवि-लेखक बन गए तो साहित्य अकादमी के अध्यक्षनुमा अधिकारी को सलाम करने में ही भलाई नज़र आती है।  

इस मानव जीवन में अधिकारी के बिना कोई गति प्राप्त नहीं होती है, बस, दुर्गति ही दुर्गति  रहती है। कुल मिला कर हाल ये है कि यदि जन्म लो तो पंजीयन अधिकारी के पास दर्ज़ हो जाओ और मरो तो पंजीयन अधिकारी के पास दर्ज़ रहो। वरना आपको कोई ज़िन्दा या मुर्दा मानेगा ही नहीं। अर्थात् बिना अधिकारी के आपका कोई अस्तित्व नहीं है।

अच्छा तो यही है कि जब भगवान जी के आगे अगरबत्ती जलाने का मन करे तो उससे पहले अधिकारी जी का स्मण अवश्य कर लेना चाहिए। साथ ही यह आरती भी कंठस्थ कर लेना चाहिए क्यों कि याद रहे अधिकारी प्रसन्न हो जाए तो मंदिर में भवान के दर्शन भी वी.आई.पी. कोटे से हो सकते हैं। तो सब मिल कर गाइए-

               ‘अ’ से अधिकारी, जा पे लक्ष्मी करे सवारी,

               जाकी हरकत कारी-कारी, 

               जो है सिर से पांव कटारी,

              वा से बचे न जन संसारी, 

               तो बोलो, जय-जय-जय अधिकारी।।

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(नवभारत में प्रकाशित, 08.08.2021)

Vyang- Dr (Miss) Sharad Singh, Navbharat, 08.08.2021