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My Editorials - Dr Sharad Singh
Thursday, December 29, 2022
बतकाव बिन्ना की | ई साल का करी आप ओरन ने? | डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम | बुंदेली व्यंग्य | प्रवीण प्रभात
Wednesday, December 28, 2022
चर्चा प्लस | काश! हम सबक ले लें 2022 की घटनाओं से | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर
Tuesday, December 27, 2022
पुस्तक समीक्षा | कुन्जीदाऊ की शादी की पचासवीं वर्षगांठ | समीक्षक डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह | आचरण
Monday, December 26, 2022
समीक्षक डॉ (सुश्री) शरद सिंह पुस्तक लोकार्पण समारोह में
Sunday, December 25, 2022
Article | Bitter Winter, Homeless People And Our Efforts | Dr (Ms) Sharad Singh | Central Chronicle
Friday, December 23, 2022
बतकाव बिन्ना की | बे ओरें कां गऐं जो मोड़ियन खों टोंकत आएं | डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम | बुंदेली व्यंग्य | प्रवीण प्रभात
"बे ओरें कां गऐं जो मोड़ियन खों टोंकत आएं" मित्रो, ये है मेरा बुंदेली कॉलम "बतकाव बिन्ना की" साप्ताहिक #प्रवीणप्रभात , छतरपुर में।
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बतकाव बिन्ना की
बे ओरें कां गऐं जो मोड़ियन खों टोंकत आएं - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
मैं भैयाजी के घरे पौंची। काए से के मोए पीनी हती चाय। मनो होत जे आए के जब आप सोचो के आज कहूं चाय मिल जाए सो वोई दिनां कोनऊं चाय को लो नईं पूछत। बाकी भैयाजी के इते ऐसो नइयां। भौजी घरे होंए सो बे चाय बना के पिला देत हैं, औ जो बे घरे ने होंय सो भैयाजी बना देत हैं। बड़ी नोनी चाय बनात आएं भैयाजी। फेर जे सोई आए के उनके घरे मैं मों बोल के चाय मंगा सकत हों। कोनऊं ओर के घरे ऐसो थोड़ई हो सकत आए। कोनऊं ने पिलाई सो पी लई, ने तो आंगू से तो मंगाई नईं जा सकत।
मेंने देखी के भैयाजी अपने मोबाईल पे कछु टिपियाने में जुटे हते।
‘‘का कर रऐ भैयाजी?’’ मैंने भैयाजी से पूछी।
‘‘अरे करने का आए, ट्विटर पे पोस्टें देख रऐ।’’ भैयाजी बोले।
‘‘ट्विटर पे? सो आपको एकांट सोई आए ट्विटर पे?’’ मोय भारी अचरज भओ।
‘‘हऔ! ईमें ऐसो का खास कहानो? हमाओ सो इंस्टाग्राम पे सोई एकाउंट आए।’’ भैयाजी शान मारत भए बोले।
‘‘इंस्टाग्राम वारो आपको एकाउंट सो देखों है मैंने, बाकी ट्विटर को पतो नईं हतो।’’मैंने कही।
‘‘जब कोनऊं ट्रोन-मोल वाली पोस्टें देखने होय सो ट्विटर पे जाओ चाइए। ऐसी-ऐसी, ऐसी-ऐसी पोस्टें रैत आएं के अब हम का बताएं तुमाए लाने।’’ भैयाजी बोले।
‘‘हऔ, हमें पतो आए! ऊमें कछू सो ऐसी रैत आएं के पढ़ के जी भन्ना सो जात आए। बाकी आप कोनऊं पोस्ट देख रऐ हते के कोनऊं पढ़ रऐ हते?’’ मैंने भैयाजी से पूछी।
‘‘हम पढ़ रऐ हते! बो का आए, आजकाल बो शाहरुख औ दीपिका की फिलम आई है न, बोई के बारे में ऐसो-ऐसो लिखो गओ है के हम सो तुमाए लाने बता बी नईं सकत। गजबई कर देत आएं लोग सोई।’’ भैयाजी बोले।
‘‘अब ईमें लिखबे वारन को का दोष आए? बे शाहरुख औ दीपिका खों करो धरो आए। काए के लाने उन्ने ऐसो पोज दओ के कछु कैत नहीं बनत। अब कहबे वारे भले कहें के का पैले ऐसे पोज औ ऐसे हुन्ना लत्ता फिलम में नईं होत्ते का? मनो होत्ते लेकिन बे फिलम में नचनियां को रोल करन वारी पैनत्तीं। औ अब देखो सो दीपिका घांई अभिनेत्री ऐसो पोज दे रईं। का उने ऐसो करो चाइए? का उनके लाने ऐसो करबो पोसात आए? कित्ते अच्छे-अच्छे रोल करे हैं उन्ने, सो अब कोन को कर्जा पटाने रओ के ऐसो पोज देने परो।’’ मोए सोई कै आई। सच्ची, कहों सो मोय सो हॉलीवुड की फिलमें बी अच्छी लगत आएं, मनो जब अपने इते की फिलम में बेमतलब की नंगूपना दिखाई जात आए सो मोय तनकऊ नईं पोसात।
‘‘तुम कै तो ठीक रईं बिन्ना, पर पोज भर का, तुम हुन्ना के रंग सोई दखो!’’ भैयाजी बोले।
‘‘अरे रंग में का धरो? मनो दीपिका ने बोई पोज काले या हरीरे रंग के कपड़ा में दओ होतो तो का ऊ सीन की नंगई में कछु कमी आ जाती? रंग की बात सो अलग धरो, मोय सो बा पोज ई नईं पोसाओ। बा सो कोनऊं थर्ड ग्रेड की फिलम को थर्ड ग्रेड की हिरोइन को सीन लग रओ आए। का दीपिका ने खुद नईं देखो पोज देबे के बाद? अब आपई सोचो भैयाजी, के कोनऊं लुगाई नहाबे वारे छोटे-छोटे कपड़ा में समुंदर के किनारे रेती पे लेटी धूप ले रई होय सो ऊको देख के उत्तो बुरौ ने लगहे जित्तो के पचीस फिट के पोस्टर पे ऐसो पोज देख के बुरौ लगहे। धूप लेबे वारी खों देख के सो दिमाग में जेई आहे के बा सो धूप ले रई, मनो जे बाई का कर रईं? का सोचहें मोड़ा-मोड़ी?’’ मोरो मुंडा खराब होन लगो।
‘‘जे अपने इते कछू सेंसर-मेंसर बचो आए के नईं? मोय सो लगत आए के ओटीटी पे सेंसर सो लगा नईं पा रै सो सोचत हुइएं के फिलम को सोई चलन देओ ऊंसई।’’ भैयाजी बोले।
‘‘सांची कई भैयाजी! आजकाल सेंसर बोर्ड सो तभई दिखात आए जब कोनऊं राजनीति वारी फिलम बनत आए। ने तो बाकी टेम पे पल्ली ओढ़ के सोत रैत आए। अरे, आप कोनऊं ‘बाज़ार’ या ‘मंडी’ घांई फिलम बना रए हो सो आप रेड लाईट एरिया की दसा खुल के दिखा लेओ, कोनऊं गलत नईंया। मनो सिरफ फिलम चलाने के लाने औ विवाद बनाबे के लाने ऐसो सीन करो सो जमत नइयां।’’ मैंने कही।
‘‘हऔ तो बिन्ना! मनो तुमने एक बात गौर करी?’’ भैयाजी ने पूछी।
‘‘का? का बात?’’
‘‘जेई के, जोन विरोध कर रए बेई अपनी पोस्टें चमकाबे के लाने सबसे पैले बोई फोटू लगा रए। फोटू दिखा के लिखत आएं के देखो जे कित्ती गंदी आए। अरे, भैया हरो! जो बे फोटुएं गंदी आंए सो तुम काए के लाने पोस्ट कर कर के फैला रए? तुमई कछु संसर कर लेओ? नईं उने सोई अपनी पोस्ट चमकाने आए।’’ भैयाजी बोले।
‘‘जे सो, होतई रैत आए भैयाजी! मोय सो जे लगत है के ई टेम पे बे ओरे कां हिरा गए जो बच्चियन के लाने, लुगाइयन के लाने उपदेस देत रैत आएं के पश्चिमी टाईप के कपड़ा पहनबे के कारण लोग उनपे गंदी नज़र डारत आएं। अब उन ओरन खों जे सब नईं दिखा रओ? सबरे कां चले गए?’’ मोय सोई कै बिना रओ नई गओ।
‘‘सांची कै रईं बिन्ना! बच्चियां तनकऊं जींस पैहन लें सो बोई खटकन लगत आए। कछू करें अपराधी मनो दोष दओ जात आए मोड़ियन के हुन्ना-लत्ता खों। औ जे सब देख के अपराधी हरें का सीखहें? बात उठत है सो इंटरनेट को दोष दे दओ जात आए। चलो ठीक, मान लई! मनो जे सो फिल्म आए, ई के लाने सो कछु ध्यान रखो चाइए।। ने तो सबई खों एक सो रैन देओ। कोनऊं के लाने नियम कनून, औ कोनऊं के लाने कछु नईं।" मैंने कही।
"चलो छोड़ो बिन्ना! अपन ओरें काय गिचड़ रऐ? उनें अपनी फिलम हिट कराने हती सो करा लई।" भैयाजी बोले।
"हऔ! मनो बदनाम भऐ सो का, नांव सो भऔ!" मैंने कही। भैयाजी की बातन में दम सो हती।
‘‘औ का जे का पैलई बार हो रई? आजकाल सो फिलम को नांव चमकाने के लाने कछु ने कछु विवाद कर लो जात आए।’’ भैयाजी बोले।
‘‘हऔ, कै सो आप ठीक रै हो! बाकी अब मोय चलो चाइए।’’ मैंने कही।
‘‘रुको तो, चाय पी लेओ, फेर जाइयो!’’ भौजी जबलौं चाय ले आई।ं
सो, मैंने चाय पी। भौजी के लाने दिल से दुआएं दीं औ निकर परी उते से।
बाकी मोए सोई बतकाव करनी हती सो कर लई। मोय सो जाने नइयां फिलम देखबे के लाने, सो मोय का। तो अब अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लों जुगाली करो जेई की। औ कोनऊ साजी सी कहनात याद आए सो मोए जरूर बतइयो! सो, सबई जनन खों शरद बिन्ना की राम-राम!
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(22.12.2022)
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Wednesday, December 21, 2022
चर्चा प्लस | ट्रेंड : फिल्म, धमाल और बवाल का | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर
Tuesday, December 20, 2022
पुस्तक समीक्षा | कितना सन्नाटा है | समीक्षक डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह | आचरण
प्रस्तुत है आज 20.12.2022 को #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई कवि श्री महेंद्र सिंह के ग़ज़ल संग्रह "कितना सन्नाटा है" की समीक्षा...
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पुस्तक समीक्षा
सन्नाटे को ललकारतीं जनवादी स्वर की ग़ज़लें
समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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ग़ज़ल संग्रह - कितना सन्नाटा है
कवि - महेंद्र सिंह
प्रकाशक - शिवना प्रकाशन, पीसी लैब, सम्राट कॉम्प्लेक्स बेसमेंट, बसस्टैंड, सिहोर, म.प्र. - 466001
मूल्य - 200/-
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हिन्दी साहित्य जगत में महेंद्र सिंह की पहचान प्रतिरोध के कवि के रूप में है। सन् 2000 में उनका एक कविता संग्रह आया था जिसका नाम था ‘‘उनकी आवाज़’’। इसमें एक दलित समर्थक कविता थी जिसको लेकर भारी विवाद हुआ और महेंद्र सिंह पर आपराधिक प्रकरण दर्ज करि दिया गया। उन दिनों वे सागर में कार्यरत थे। कतिपय लोग उन्हें झुकाना चाहते थे और वे झुकने को तैयार नहीं थे। अंततः साहित्यिक संगठनों के प्रभावी हस्तक्षेप से प्रकरण पर विराम लगा। मध्यप्रदेश शासन के प्रशासनिक तबके में नायब तहसीलदार से यात्रा आरम्भ कर के डिप्टी कलेक्टर के पद से सेवानिवृत्त होने वाले महेंद्र सिंह ने भ्रमणशील लोहगढ़ियों को स्थायित्व एवं वोटर आईडी दिलाने की दिशा में भी महत्वपूर्ण कार्य किया। लिहाजा जिस साहित्यकार का जनसरोकार से गहरा रिश्ता होगा, उसकी लेखनी की आंच भी गहरी होगी।
‘‘कितना सन्नाटा है’’ महेंद्र सिंह का ताजा ग़ज़ल संग्रह है। पुस्तक की भूमिका प्रख्यात आलोचक डॉ. विजय बहादुर सिंह तथा सुप्रसिद्ध ग़ज़लकार हरेराम समीप ने लिखी है। डॉ. विजय बहादुर सिंह ने लिखा है कि ‘‘उनके ग़ज़लों की बुनियादी भाषा आम बोलचाल वाली हिंदी है। अपनी उस मुहावरेदानी के साथ जिससे कहन में असरदारी आती है। महेंद्र सिंह ने अपनी ग़ज़लें इसी में कहीं भी हैं। बेशक़ इसी के चलते उनकी शायरी में जिंदादिली और खूबसूरती स्वतः चलकर आई है। फिर भी असल बात तो वह ‘बात’ है, जिसके लिए कोई भी शायर या कवि इस विधा के पास आता है। और महेंद्र सिंह इसी अर्थ में ‘बात’ के शायर हैं जो उनकी प्रत्येक ग़ज़ल के प्रत्येक शेर में साफ-साफ मौजूद है।’’
वहीं, हरेराम समीप ने रेखांकित किया है कि ‘‘महेंद्र सिंह की ग़ज़लों में समकाल निरंतर ध्वनित होता रहता है और भरे-पूरे समाज की उपस्थिति इन ग़ज़लों को जीवंत बनाए रखती है। अधिकांश ग़ज़लें समय से साक्षात्कार करती हैं। कवि की प्रतिबद्धता समाज में हाशिए पर जी रहे संघर्षरत वर्ग के प्रति स्पष्ट दिखाई देती है।’’
निःसंदेह महेंद्र सिंह की ग़ज़लों में जनवादी स्वर की हुंकार स्पष्ट सुनी जा सकती है। जनवादी ग़ज़लों की चर्चा आते ही बल्ली सिंह चीमा, अदम गोंडवी और दुष्यंत कुमार के नाम स्मृति में कौंध जाते हैं। इसके बाद जनवादी ग़ज़लों का जो स्वरूप सामने आता है वह सियासी नहीं (भले ही उसे सियासी रंग दे दिया जाता है) विशुद्ध जनपक्ष में खड़ा दिखाई देता है। जनवादी ग़ज़लकारों की भांति महेन्द्र सिंह को भी अव्यवस्था के प्रति सहनशील रवैया और प्रतिरोध की कमी निरन्तर चुभती है। इस चुभन की पीड़ा उनकी ग़ज़लों के रास्ते मुखर हुई है। संग्रह की पहली ही ग़ज़ल देखिए-
न जाने क्या थी लाचारी, किसी ने कुछ नहीं बोला।
सभी ने चुप्पियां धारी, किसी ने कुछ नहीं बोला।
न सुबहों के, न उजले दिन के अब बाकी बचे मानी
मुसलसल रात है तारी, किसी ने कुछ नहीं बोला।
हमारे तौर जीने के, कोई तय और करता है
ये जाने कब से है जारी, किसी ने कुछ नहीं बोला।
विगत कुछ दशक में जनहित को रौंदने वाले बड़े से बड़े घोटाले और अपराध सामने आए किन्तु अपराधियों के विरूद्ध आमजन की ओर से कोई आंदोलन खड़ा नहीं किया गया। गोया आमजन आंदोलन की चेतना को गहरी नींद में सुला चुका है। यह सब महसूस कर ग़ज़लकार महेंद्र सिंह अन्याय को सहते हुए ख़ामोश रहने वालों को धिक्कारते हुए कहते हैं-
थर-थर कांपों, डरो कि डरने के दिन आए हैं।
मर जाओ अधमरो कि मरने के दिन आए हैं।
हे धन पशुओं सिर्फ आपके हित प्रभु जन्में हैं
बाड़ा तोड़ो चरो कि चरने के दिन आए हैं।
जनसेवा के नाम भड़ैती, ठगी, लूट करके
चलो सकेलो धरो कि धरने के दिन आए हैं।
धर्म, जाति, वर्ग के नाम पर लोगों के बीच परस्पर वैमनस्य फैलाने वालों की पोल खोलते हुए महेंद्र सिंह कहते हैं-
दिल में वो नफरत जगा कर मार देना चाहते हैं।
मौत का दर्शन पढ़ा कर मार देना चाहते हैं।
लूट के कानून पर उंगली उठाई इसलिए बस
वो हमें जालिम बताकर मार देना चाहते हैं।
महेंद्र सिंह का शब्द-संसार विस्तृत है। वे हिंदी और उर्दू शब्दों का मिलाजुला प्रयोग इतनी खूबसूरती से करते हैं कि वह एक चमत्कार-सा करती हुई पढ़ने वाले के अंतस को झकझोर देती है। बानगी देखिए-
आग भीतर तक लगी है सायबां दिखता नहीं।
यह जलन निर्धूम है जिसका धुआं दिखता नहीं।
कुछ नहीं है सिर्फ मृग़ज़ल और रेती के सिवा
सीझती है प्यास पर कोई कुआं दिखता नहीं।
जाति, मजहब की गली में सब भटकते रह गए
मंजिलों की ओर चलता कारवां दिखता नहीं।
कवि के सामाजिक सरोकार स्त्री वर्ग के प्रति भी हैं। उन्हें इस बात से कष्ट है कि स्त्रियों में अभी तक जागरूकता की कमी क्यों है? स्त्रियां अपने अधिकारों को हासिल क्यों नहीं कर पा रही हैं? अबोध, बेसहारा, लाचार, अबला जैसे विशेषणों के साथ वे क्यों घुट रही हैं? जबकि उन्हें अपने अधिकारों के लिए डटकर सामने आना चाहिए।
खरी-खरी कड़वी लगती है लग जाए।
जगता है आमर्ष अगर तो जग जाए।
क्यों अबोध है आधी आबादी अब तक
बहला-फुसलाकर जो चाहे ठग जाए।
‘‘कितना सन्नाटा है’’ संग्रह की यह एक ग़ज़ल महेंद्र सिंह की लेखनी के वैचारिक तेवर को पूरी तरह प्रतिबिंबित करने में सक्षम है-
सब देवों के धाम हमारी बस्ती में।
फिर भी है कोहराम हमारी बस्ती में।
कामयाब छल-कपट दबंगी ठकुराई मेहनत है नाकाम हमारी बस्ती में।
लड़की हुई जवान पिता की नींद उड़ी महंगे वर के दाम हमारी बस्ती में।
बाम्हन ठाकुर बनियों के टोले जाहिर
बाकी सब गुमनाम हमारी बस्ती में।
दारू ढलती, इज्जत बिकती रात ढले
आते कुछ हुक्काम हमारी बस्ती में।
संग्रह में छोटी बहर की बड़ी चोट करने वाली ग़ज़लें भी मौजूद हैं। दो उदाहरण देखिए-
वह हमें बहका रहे हैं।
हम बहकते जा रहे हैं।
पेट पर लातें लगाकर
पीठ को सहला रहे हैं।
जाति-पांति का चलन आम है।
देश रूढ़ियों का गुलाम है।
लूट के घर भरने वालों का
जनसेवा तकिया - कलाम है।
महेन्द्र सिंह का जन्म और शिक्षा भले ही बघेलखंड में हुई लेकिन बुंदेलखंड में वे लम्बे समय तक रहे और बुंदेली ने उनके मन पर अपनी जगह बना ली। छोटे बहर के क्रम में एक बुंदेली ग़ज़ल भी है जिसके तेवर संग्रह की अन्य ग़ज़लों की भांति तीखे और प्रहारक हैं -
परतौं कितउं परन नईं देनें।
इनखों हमें जियन नईं देनें।
कैसे छुऐ अकास चिरैया
पिजरौ बंद, उड़न नईं देनें।
महेंद्र सिंह के सृजन की है खूबी है कि वह अपनी ग़ज़लों के द्वारा सीधे समय से संवाद करते हैं और सोए हुए जनमानस को झकझोरते हैं, धिक्कारते हैं, फटकारते हैं और अव्यवस्था के कैनवास पर जनमत के रंगों से सुव्यवस्था का सुंदर चित्र बना देना चाहते हैं। दरअसल जनवाद विद्रूपताओं को उघाड़ कर सबके सामने रख देने का माद्दा है जिसे राजनीति से परे रख कर देखा जाना चाहिए, तब उसके वास्तविक स्वरूप को समझा जा सकता है। जनवादी स्वर की ग़ज़ल पसंद करने वालों के लिए यह एक महत्वपूर्ण संग्रह है।
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Sunday, December 18, 2022
Article | Oh No! Toxic waste on the 'roof of the world'? | Dr (Ms) Sharad Singh | Central Chronicle
Article
Oh No! Toxic waste on the 'roof of the world'?
- Dr (Ms) Sharad Singh
Writer, Author & Social Activist
Blogger - "Climate Diary Of Dr (Ms) Sharad Singh"
Often we have a habit of keeping unnecessary things on the roof of the house. Old coolers, cooler trolleys, old chair tables etc., we keep dumping many such junks on the roof of our house. But still prefer to throw the waste of the house in the dustbin. But there is someone who is dumping toxic waste on the roof of the house. This is wrong, isn't it? Toxic and radioactive waste, that too on the roof of the house can pose a threat to the entire atmosphere and the entire climate, if that roof is the roof of the world. Yes, according to news reports, China has turned the Tibetan Plateau into a dumping station for toxic waste. Remember that this plateau is between India and China.
The whole world is currently worried about climate change. International seminars are being held continuously on this and efforts are being made to adopt all those measures by which the condition of climate and environment can be improved. Even the traditional energy source like coal is being cut off, but on the other hand, a country is secretly making an entire plateau a dumping station for toxic waste. This is a matter of concern. Yes, China is the country that has made the plateau of Tibet a dumping station for toxic waste. Tibet is in danger from this, as well as India is also in danger because Tibet is situated between India and China. As far as toxic waste is concerned, it has the potential to harm not just one or two countries but the entire climate with its radiation.
New research suggests that the area of Himalayan glaciers has shrunk by 40 percent since the Little Ice Age maximum between 400-700 years ago, and that in the past few decades ice melt has accelerated faster than in other mountainous parts of the world. Atmospheric warming is the main driver of glacier melt in the Hindu Kush Himalayas—temperatures here, as at the poles, are rising faster than the global average. But local topography and other factors may also be shaping the pace of retreat, scientists say. Central Asia's Tibetan Plateau is called nicknamed "the roof of the world"-its average elevation is more than 4,500 meters (14,764 feet). It is the world's highest and largest plateau.
Shocking facts were revealed in the Rajgir Manifesto issued after the convention of the Indo-Tibetan Friendship Association held at the International Convention Center in Rajgir (Bihar) on 31 October and 1 November 2022. The declaration said that the inhuman way in which China has exploited the natural forests, dense vast forests and natural resources of Tibet has resulted in a serious imbalance in the environment. Tibet is a country situated at high altitude, which is the origin of ten major rivers flowing in Asian countries. According to environmentalists, due to this most of the rivers have become dry, or their flow has reduced. The Chinese rulers have started the work of reversing the course of the Brahmaputra river flowing in the north-east and Assam towards China. There used to be 46,000 marked glaciers in Tibet. The way the temperature is increasing, it is estimated that by 2030, 60 percent of the glaciers will end. Tibet has been turned into a dustbin of nuclear waste. To save Tibet's environment, the international community needs to take collective action so that Tibet can be saved from environmental destruction. This has serious global implications as 'Tibet' is the roof of the world. It affects the entire planet Earth.
Another report says, the carbon footprint of China's industrial activities, mining of lithium, and mining for nuclear minerals has also deeply affected the monsoon cycle in the region, said an article in Providence Journal. Subsequently, excessive industrial mining in the occupied territories of Tibet has also robbed the country of its natural resources, leaving the land barren and infertile, Tibet Press reported. In addition, China has also continuously ignored the Montreal Protocol, which exclusively prevents Beijing from using hydrocarbons, said the International Centre for Integrated Mountain Development. Beijing's land and resource policies for Tibet have largely inflicted severe damage to the people and environment. Detrimental waste dumping actions have destructed and degraded Beijing's eco-system, worryingly affecting its marine and offshore life. The negligence of Tibet's ecosystem led overseas Tibetan communities to demonstrate against China during the Glasgow COP26 summit in November 2021.
Many other reports prove this fact. An US-based journal (Jianli Yang, Providence, 28 December 2021) was claimed that China is dumping toxic waste in Tibet and further that it does not provide adequate resources to the region to protect its ecosystem. The carbon footprint of China’s industrial activities, mining of lithium, and mining for nuclear minerals in Tibet has deeply affected the monsoon cycle in the region claims the article in the Providence Journal.
The plateau of Tibet is also known as the "Water Tower" of Asia. It gives drinking water to about 2 billion people. Experts fear that by 2050 most of the water reserves in this region may be over. By the middle of this century, the entire Tibetan Plateau will lose a large part of its water tower. This information has been revealed from a study. This is by far the most comprehensive research on this issue. The research paper has been published in the natural climate change journal 'Nature'. Amu Darya Basin – which supplies water to Central Asia and Afghanistan, research shows a 119% drop in its water supply capacity. The Indus Basin – which supplies water to northern India, Kashmir and Pakistan – has shown a 79% drop in its water supply capacity. Overall, a quarter of the entire human population will be affected by it. In the news published in Radio Free Asia in 2020, a person named Gyaltsen said, the environment is worshiped in Tibet as the roof of the world. There is hardly any problem in the air and water here. Due to excessive exploitation of China, problems like pollution of air and water have also started coming here. Many species of animals have become extinct. Tibetans have been famous for their nomadic lifestyle. The number of nomads has also decreased due to the forced resettlement of China. They are facing a huge problem in adapting to the new lifestyle and gathering resources for living.
We cannot carry the load of toxic waste on the roof of our world when not only Asia but the whole earth is going through climate crisis. Not as a politician but as an environmentalist and a humanist, it has to be understood and appropriate steps have to be taken in time. It is better that the plateau of Tibet should be handed over to the Tibetans so that they can always protect that land.
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(18.12.2022)
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