Tuesday, January 28, 2025

पुस्तक समीक्षा | छात्रों एवं शोधार्थियों के लिए उपयोगी है यह ‘‘हिन्दी साहित्य के इतिहास’’ | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

आज 28.01.2025 को 'आचरण' में प्रकाशित 
पुस्तक समीक्षा  
छात्रों एवं शोधार्थियों के लिए उपयोगी है यह ‘‘हिन्दी साहित्य के इतिहास’’
- समीक्षक डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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पुस्तक       - हिन्दी साहित्य का इतिहास
संपादन      - डाॅ. घनश्याम भारती
प्रकाशक     - जेटीएस पब्लिकेशन्स, वी 508, गली नं.17, विजय पार्क, दिल्ली - 110053        
मूल्य        - 995/- 
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       16 जुलाई 1978 को जन्मे डॉ घनश्याम भारती एक युवा प्राध्यापक है जो महाविद्यालय में अध्यापन कार्य करते हुए सतत शोध कार्य एवं लेखन व संपादन से जुड़े हुए हैं। उनके 60 से अधिक शोध-पत्र राष्ट्रीय तथा अन्तरराष्ट्रीय शोध पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। अब तक उनकी कई पुस्तक के प्रकाशित हो चुकी है जिनमें - रांगेय राघव के कथा-साहित्य में लोकजीवन, शोध और समीक्षा के विविध आयाम, समय-समाज-साहित्यरू एक परिशीलन, सत्य से साक्षात्कार के कवि निर्मल चन्द निर्मल, व्यक्तित्व-भाषा-मीडियाः एक अनुशीलन, हिन्दी की प्रतिनिधि कहानियाँ, रामकथा का वैश्विक परिदृश्य, वैश्विक जीवन मूल्य और रामकथा, लोकजीवन में रामकथा, मानक साहित्यिक निबंध, मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम, अतुल्य भारत: संस्कृति और राष्ट्र, महात्मा गांधी का समग्र जीवन-दर्शन, चक्रव्यूह, महामारी कोरोना एक रहस्य, साहित्य में पर्यावरण विमर्श, महात्मा गांधी: विविध संदर्भ, नारी विमर्श विविध संदर्भ, साहित्य में स्त्री-विमर्श, मानव जीवन और कोरोनारू बौद्धिक संदर्भ में, साहित्य में राष्ट्रीय चेतना, आपदा प्रबंधन और संचार माध्यम, साहित्य में राष्ट्रबोध, साहित्य विविध विमर्श, दलित चेतना के स्वर, दलित साहित्य वैचारिक चेतना अयोध्या की महिमा, भाषा और साहित्य शिक्षण, विश्व साहित्य में श्रीराम, मध्यकालीन हिंदी साहित्य, ऊर्जा संरक्षण चुनौतियाँ और समाधान, आपदा प्रबंधन में राष्ट्रीय सेवा योजना की भूमिका, हिन्दी साहित्य का इतिहास, नई शिक्षा नीति-2020: विविध आयाम आदि प्रमुख हैं।
        डॉ घनश्याम भारती की उनके द्वारा संपादित नवीनतम पुस्तक “हिंदी साहित्य का इतिहास” प्रकाशित हुई है। यह पुस्तक हिंदी साहित्य के इतिहास के विविध आयामों से जोड़ने में सक्षम है क्योंकि इसमें विभिन्न महाविद्यालयों में कार्यरत हिंदी शिक्षकों एवं विद्वानों के आलेखों का संग्रह है। हिंदी साहित्य के इतिहास का लेखन हमेशा नवीन  दृष्टि की मांग करता रहा है।    
          कई बार इस बात पर भी प्रश्न किया जाता है की क्या हिंदी साहित्य का इतिहास लिखा जाना आवश्यक है? तो इसका उत्तर यही है कि यह बहुत आवश्यक है क्योंकि इससे साहित्य की प्रवृत्तियों और समाज के विकास को समझने में सहायता मिलती है। किसी भी भाषा के साहित्य का इतिहास मात्र उस भाषा के साहित्य तक ही सीमित नहीं रहता है अपितु उसे लिखे जाने के देशकाल एवं परिस्थितियों का भी इतिहास उसमें दर्ज होता है अतः साहित्य के इतिहास के लेखन की अर्थवत्ता को नकारा नहीं जा सकता है। 
         हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन का इतिहास अधिक पुराना नहीं है। 19 वीं सदी में गार्सां द तासी का ‘‘इस्तवार द ला लित्रेत्युर ऐन्दुई ऐन्दुस्तानी’’, शिवसिंह सेंगर का ‘‘शिवसिंह सरोज’’ आदि ने हिंदी साहित्य के इतिहास के आरंभिक चरण को स्पर्श किया। फिर जॉर्ज ग्रियर्सन  ने “मॉडर्न वर्नाक्यूलर लिटरेचर ऑफ हिंदुस्तान” लिखकर हिंदी साहित्य के इतिहास को एक निश्चित खाका प्रदान किया। वहीं मिश्रबंधु “मिश्रबंधु विनोद” को हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखन को आरंभिक इतिहास लेखन की श्रेणी में रखा जा सकता है। यद्यपि विद्वानों के अनुसार इन दोनों ग्रंथों में इतिहास बोध के गहन तत्व नहीं थे। इसी क्रम में रामचंद्र शुक्ल का ‘‘हिंदी साहित्य का इतिहास’’ आया जिसने हिंदी साहित्य के इतिहास के क्षेत्र में विश्वसनीय ढंग से अपने उपस्थिति जताई। रामचंद्र शुक्ल ने अपने इतिहास लेखन में देश, काल और वातावरण को सर्वाधिक महत्व दिया। देश, काल और वातावरण के प्रभाव को साहित्य में स्वीकार करते हुए रामचंद्र शुक्ल लिखा कि, ‘‘जबकि प्रत्येक देश का साहित्य वहाँ की जनता की चित्तवृत्ति का संचित प्रतिबिंब होता है, तब यह निश्चित है कि जनता की चित्तवृत्ति के परिवर्तन के साथ-साथ साहित्य के स्वरूप में भी परिवर्तन होता चला जाता है। आदि से अंत तक इन्हीं चित्तवृत्तियों की परंपरा को परखते हुए साहित्य परंपरा के साथ उनका सामंजस्य दिखाना ही साहित्य का इतिहास कहलाता है।’’ 
         हजारी प्रसाद द्विवेदी ने ‘‘हिंदी साहित्य का आदिकाल’’, ‘‘हिंदी साहित्य की भूमिका’’ तथा ‘‘हिंदी साहित्य रू उद्भव और विकास’’ के द्वारा हिंदी साहित्य लेखन की परंपरा को रामचंद्र शुक्ल से आगे बढ़ाया।  हजारी प्रसाद द्विवेदी  ने वैज्ञानिक विश्लेषण और वर्गीकरण पर संश्लेषण और समग्रता के आधार पर साहित्य के मूल्यांकन में मानवतावादी दृष्टिकोण को अपनाया। हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन में जो काल विभाजन किया गया है वह है - आदिकाल, भक्तिकाल, रीतिकाल एवं आधुनिक काल। किंतु काल विभाजन की इस स्थिति पर हमेशा विद्वानों में मतभेद होता रहा है।
        डाॅ घनश्याम भारती द्वारा संपादित ‘‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’’ हिन्दी साहित्य पर विभिन्न विद्वानों द्वारा लिखे गए शोधपत्रों का संकलन है जिन्हें उन्होंने अपने सुचारु संपादन के द्वारा एक पुस्तक के रूप में प्रकाशित कराया है। चूंकि इस पुस्तक में हिन्दी साहित्य के विभिन्न कालखण्डों तथा उनसे संबंधित पूर्व विचारको एवं उनकी पुस्तकों पर केन्द्रित लेख हैं अतः यह छात्रों एवे शोधार्थियों के लिए विशेष महत्व की पुस्तक है। यह पुस्तक हिन्दी इतिहास पर आधारित विभिन्न दृष्टिकोणों का एक उत्तम संकलन है। पुस्तक की प्रथम भूमिका आचार्य पण्डित पृथ्वीनाथ पाण्डेय (भाषाविज्ञानी, समीक्षक एवं मीडियाध्ययन-विशेषज्ञ), प्रयागराज ने लिखी है तथा द्वितीय भूमिका डॉ, आनन्दप्रकाश त्रिपाठी, प्रोफेसर एवं विभागाध्यक्ष, हिन्दी-विभाग, डॉ. हरीसिंह गौर केंद्रीय विश्वविद्यालय सागर (मध्यप्रदेश) द्वारा लिखी गई है। पुस्तक की अवधारणा पर इस पुस्तक के संपादक डॉ. घनश्याम भारती ने प्रकाश डाला है।
          पुस्तक में चार विषय खण्डों में कुल 33 लेख हैं। प्रथम खण्ड - पूर्व-पीठिका एवं आदिकाल में चार अध्याय हैं- अध्याय 1 - हिन्दी साहित्य में इतिहास लेखन की परम्परा -डॉ. ओकेन्द्र, अध्याय 2 आदिकाल - विविध संदर्भ -राजकुमार अहिरवार, अध्याय 3- आदिकाल की प्रवृत्तियाँ- शिवलाल अहिरवार तथा अध्याय 4- आदिकालीन रासो काव्य-परम्परा - डॉ. संजीव विश्वकर्मा द्वारा लिखित शोध आलेख के रूप में।
        द्वितीय खण्ड पूर्व-मध्यकाल अथवा भक्तिकाल में अध्याय 05 से 12 तक हैं। अध्याय 5 भक्तिकाल की शाखाएँ- प्रसादराव जामि, अध्याय 6 भक्ति-आंदोलन की अवधारणा- डॉ. सविता मरावी, अध्याय 7 भक्तिकाल रू हिन्दी साहित्य का स्वर्णयुग डॉ. के.सी. जैन, अध्याय 8 संत (ज्ञान मार्गी) काव्यधारा का स्वरूप और प्रवृत्तियाँ - रेखा मौर्या, अध्याय 9 - सूफी (प्रेमाश्रयी) काव्यधारा का स्वरूप और प्रवृत्तियाँ - रेखा मौर्या, अध्याय 10 - भक्तिकाल और बुन्देलखण्ड के कवि- राजीव नामदेव, अध्याय 11 - अष्टछाप के कवि और उनका साहित्यिक योगदान - डॉ. सीताराम आठिया, अध्याय 12 भक्तिकाल: एक मूल्यांकन- डॉ. बारेलाल जैन द्वारा लिखित।
तृतीय खण्ड उत्तर मध्यकाल अथवा रीतिकाल में अध्याय 13 के रूप में मात्र एक लेख है जो डॉ. नेहा राठी द्वारा लिखा गया है। इसका शीर्षक है-‘‘रीतिकाल: नामकरण, प्रवृत्तियाँ, काव्यधाराएँ एवं प्रमुख कवि’’। 
चतुर्थ खण्ड आधुनिक काल में अध्याय 14 से 33 तक है। यह सबसे समृद्ध खण्ड कहा जा सकता है। अध्याय 14 में भारतेन्दु युग का स्वरूप और प्रवृत्तियाँ - पूजा शर्मा, अध्याय 15 में द्विवेदी युग का स्वरूप और प्रवृत्तियाँ- पूजा शर्मा, अध्याय 16 में छायावाद: कवि, कृतियाँ एवं प्रवृत्तियाँ - श्रीमती सीमा तोमर, अध्याय 17 में हिन्दी साहित्य में रहस्यवाद की अवधारणा रू सिद्धांत और व्यवहार- आचार्य पण्डित पृथ्वीनाथ पाण्डेय, अध्याय 18 में प्रगतिवाद का स्वरूप एवं प्रवृत्तियाँ, डॉ. शिवकुमार व्यास, अध्याय 19 में हिन्दी-साहित्य में राष्ट्रीय चेतना- डॉ. चारु सिंघई, अध्याय 20 में नयी कवित्ता का स्वरूप और प्रवृत्तियाँ प्रियांशी गुप्ता, पंचम खण्ड गद्य-साहित्य, अध्याय 21 में हिन्दी-नाटक का उद्भव एवं विकास डॉ. रश्मि जैन, अध्याय 22 में हिन्दी एकांकी का उद्भव एवं विकास डॉ. सुनीता कुमारी, अध्याय 23 में हिन्दी उपन्यास की विकास-यात्रा डॉ. सुनील कुमार, अध्याय 24 में हिन्दी कहानी का उद्भव एवं विकास डॉ. सुरेश आचार्य, अध्याय 25 में हिन्दी कहानी के भेद एवं शैलियाँ डॉ. घनश्याम भारती, अध्याय 26 में कहानी के तत्त्व डॉ. लक्ष्मी पाण्डेय, अध्याय 27 में हिन्दी निबंध का स्वरूप और विकास डॉ. घनश्याम भारती, अध्याय 28 में ललित निबंध का स्वरूप डॉ. आरती जैन, अध्याय 29 में हिन्दी आलोचना का उद्भव एवं विकास आशा राठौर, अध्याय 30 में हिन्दी- आत्मकथा का उद्भव एवं विकास डॉ. नीलम जैन, अध्याय 31 में हिन्दी-संस्मरण का उद्भव एवं विकास डॉ. प्रतिमा उपाध्याय, अध्याय 32 में पत्रकारिता का उद्भव एवं विकास- डॉ. ममता जैन, अध्याय 33 में व्यंग्य का उद्भव और विकास - डॉ. विजय पाटिल लेख हैं। 
        कुल चार लेख प्रथम खंड में, कुल आठ लेख द्वितीय खंड में तथा तृतीय खंड में कुल एक लेख है जबकि बीस लेख चतुर्थ खंड में होना कालखंड के विषयांतर्गत तनिक असंतुलन युक्त है। प्रथम खण्ड - पूर्व-पीठिका एवं आदिकाल, द्वितीय खण्ड पूर्व-मध्यकाल अथवा भक्तिकाल तथा तृतीय खण्ड उत्तर मध्यकाल अथवा रीतिकाल हिन्दी साहित्य के इतिहास में कम महत्वपूर्ण नहीं हैं। तृतीय खण्ड उत्तर मध्यकाल अथवा रीतिकाल में मात्र एक लेख है - ‘‘रीतिकाल: नामकरण, प्रवृत्तियाँ, काव्यधाराएँ एवं प्रमुख कवि’’ जिसे डॉ. नेहा राठी ने लिखा है तथा उन्होंने सम्पूर्ण रीतिकालीन साहित्य पर एक संक्षिप्त दृष्टि डाली है तथा रीतिकाल को समग्रता से व्याख्यायित करने का प्रयास किया है किन्तु इस खण्ड में कुछ लेख और होने चाहिए थे। इससे रीतिकाल पर दृष्टिकोण की विवधता का समावेश हो पाता। 
        वैसे एक तथ्य यहां उल्लेखनीय है कि बहुधा संपादकों को आलेख संग्रहण में विकट बाधाओं का सामना करना पड़ता है। जब वे लेख मंगाते हैं तो कुछ लेखक तत्परता से लेख भेज देते हैं, कुछ विलम्ब से और कुछ मना भी नहीं करते हैं और प्रेषित भी नहीं करते हैं। संभवतः ऐसा ही कुछ कारण उत्पन्न हुआ होगा दो विशेष कालखंडों में लेख की कमी होने का। किन्तु सम्पूर्णता से देखा जाए तो यह पुस्तक अध्ययनरत छात्रों, शोधकर्ताओं एवं हिन्दी साहित्य के इतिहास में रुचि रखने वालों के लिए बहुत उपयोगी है। डाॅ. घनश्याम भारती ने इस पुस्तक का संपादन कर के हिन्दी साहित्य के इतिहास के प्रति अद्यतन वैचारिक दृष्टिकोण को संकलित कर एक महत्वपूर्ण कार्य किया है। विशेष रूप से उस समय जब इस तरह के लेखन एवं संपादन में हिन्दी के विद्वानों की रुचि कम होती जा रही है।                   
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