Friday, March 8, 2024

शून्यकाल | स्त्रियों के बहुमुखी विकास के प्रबल पक्षधर थे डाॅ अम्बेडकर | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर

दैनिक नयादौर में मेरा कॉलम.....        
शून्यकाल     
स्त्रियों के बहुमुखी विकास के प्रबल पक्षधर थे डाॅ. अम्बेडकर         
- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                                         
    डाॅ. अम्बेडकर स्त्री समानता और स्त्री के सामाजिक अधिकारों के प्रबल पक्षधर थे। डाॅ. अम्बेडकर ने हमेशा हर वर्ग की स्त्री की भलाई के बारे में सोचा। स्त्री का अस्तित्व उनके लिए जाति, धर्म के बंधन से परे था, क्योंकि वे जानते थे कि प्रत्येक वर्ग की स्त्री की दशा लगभग एक समान है। इसीलिए उनका विचार था कि भारतीय समाज में समस्त स्त्रियों की उन्नति, शिक्षा और संगठन के बिना, समाज का सांस्कृतिक तथा आर्थिक उत्थान अधूरा है।
    आज स्त्री स्वतंत्रता एवं अधिकारों की बड़ी-बड़ी बातें होती हैं किन्तु उतने ठोस कार्य नहीं होते हैं जितने कि डाॅ. भीमराव अम्बेडकर ने ‘‘हिन्दू बिल’’ ला कर स्त्रियों के हित में ठोस कदम उठाया। पहले स्वाधीनता आंदोलन और आजादी के बाद गणतंत्र की स्थापना में अहम योगदान देने वाले बाबा साहब डाॅ. भीमराव अम्बेडकर शोषितों, वंचितों के लिए संघर्ष के प्रतीक हैं। वे कहते थे कि डरो और दबो नहीं, बल्कि अन्याय का सामना करो। अपनी क्षमताओं को पहचानो, शिक्षित बनो और देश की प्रगति में सहभागी रहो। उन्होंने समाज के उपेक्षित वर्ग को जगाया और स्वयं उनकी आवाज़ बने। देश के राजनीतिक ढांचे को लोकतांत्रिक स्वरूप देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। कानून मंत्री के रूप में हिंदू कोड बिल पेश करके महिलाओं को अधिकार दिलाए। संविधान के इस महान शिल्पी के रोम-रोम में राष्ट्रीयता के भाव भरे हुए थे। वे स्वयं अस्पृश्यता, गैर बराबरी और आर्थिक विषमताओं की आग में तपकर निकले थे अतः उनकी आवाज़ समाज के तत्कालीन दलितों की हुंकार बनी जिनमें सभी वर्गों की स्त्रियां भी थीं जो दलित जीवन जीने को विवश थीं।
डाॅ. अम्बेडकर स्त्री समानता और स्त्री के सामाजिक अधिकारों के प्रबल पक्षधर थे। डाॅ. अम्बेडकर ने हमेशा हर वर्ग की स्त्री की भलाई के बारे में सोचा। स्त्री का अस्तित्व उनके लिए जाति, धर्म के बंधन से परे था, क्योंकि वे जानते थे कि प्रत्येक वर्ग की स्त्री की दशा लगभग एक समान है। इसीलिए उनका विचार था कि भारतीय समाज में समस्त स्त्रियों की उन्नति, शिक्षा और संगठन के बिना, समाज का सांस्कृतिक तथा आर्थिक उत्थान अधूरा है। सन् 1955 में डाॅ. अम्बेडकर ने हिन्दू कोड बिल के जरिए स्त्रियों को समान अधिकार और संरक्षण दिए जाने की पैरवी की। वस्तुतः यह स्त्रियों की दलित स्थिति को बदलने का घोषणापत्र था। उन्होंने इस बात पर बल दिया कि स्त्रियों को संपत्ति, विवाह-विच्छेद, उत्तराधिकार, गोद लेने, बालिग स्त्री की अनुमति के बिना उसका विवाह न किए जाने का अधिकार दिया जाए। डाॅ. अम्बेडकर ने भारतीय वैवाहिक परंपराओं को परिष्कृत और परिमार्जित करने का आह्वान किया। उनका यह भी आग्रह था कि स्त्रियों को इस बात की स्वतंत्रता होनी चाहिए कि वह अपनी पसंद के अनुरूप किसी भी जाति या किसी भी धर्म के पुरुष से विवाह कर सकें और ऐसा विवाह वैध माना जाए। डाॅ. अम्बेडकर ने पुरुषों के लिए भी कानून निर्धारित किया कि एक पुरुष एक ही पत्नी रख सकेगा और उसको तलाक दिए बिना दूसरा विवाह नहीं कर सकेगा। डाॅ. अम्बेडकर जनसामान्य द्वारा परिवार नियोजन को अपनाए जाने की अपेक्षा रखते थे। वे इसे स्त्री के स्वास्थ्य और परिवार के आर्थिक पक्ष की दृष्टि से महत्वपूर्ण मानते थे।
डाॅ. अम्बेडकर स्त्रियों को बच्चे पैदा करने की मशीन की भांति जीवन व्यतीत करते हुए देख कर दुखी होते थे। वे इस तथ्य को भली-भांति समझते थे कि अधिक संतानों को जन्म देने के कारण आम भारतीय स्त्री का स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता है और वह विभिन्न प्रकार की बीमारियों से जूझती हुई, संतानों का सही ढंग से पालन-पोषण भी नहीं कर पाती है।  डाॅ. अम्बेडकर ने इस बात की आवश्यकता का अनुभव किया कि स्वस्थ परिवार के लिए, परिवार में स्त्री का स्वस्थ होना सबसे पहले आवश्यक है। अतः उन्होंने परिवार-नियोजन की धारणा को प्रोत्साहित किया। सन् 1938 के 10 नवम्बर को विधान परिषद के सदस्य के रूप में मुंबई विधान सभा में बहस के दौरान उन्होंने परिवार नियोजन के उपायों की पैरवी की। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा कि अधिक बच्चों को जन्म देने के कारण ही भारत में स्त्रियों को अनेक स्वास्थ्य समस्याओं से जूझना पड़ता है और इस प्रकार समाज की आधी आबादी रुग्णावस्था से ग्रस्त रहती है। 19 जुलाई 1942  को नागपुर में संपन्न हुई ‘दलित वर्ग परिषद्’ की सभा में डॉ. अम्बेडकर ने कहा था-‘‘नारी जगत की प्रगति के अनुपात से मैं उस समाज की प्रगति को आंकता हूं।’’ इसी सभा में डॉ. अम्बेडकर ने गरीबीरेखा से नीचे जीवनयापन करने वाली स्त्रियों से आग्रह किया था कि- ‘आप सभी सफाई से रहना सीखो, सभी अनैतिक बुराइयों से बचो, हीन भावना को त्याग दो, शादी-विवाह की जल्दी मत करो और अधिक संतानें पैदा नहीं करो। पत्नी को चाहिए कि वह अपने पति के कार्य में एक मित्र, एक सहयोगी के रूप में दायित्व निभाए। लेकिन यदि पति गुलाम के रूप में बर्ताव करे तो उसका खुल कर विरोध करो, उसकी बुरी आदतों का खुल कर विरोध करना चाहिए और समानता का आग्रह करना चाहिए।’
सन् 1942 में तत्कालीन कार्यकारी परिषद् में श्रम मंत्री के रूप में अपने कार्यकाल के दौरान डाॅ. अम्बेडकर ने मातृत्व लाभ विधेयक प्रस्तुत किया। भारतीय संविधान का मसौदा तैयार करने के समय डाॅ. अम्बेडकर ने स्त्रियों के अधिकारों का विशेष रूप से ध्यान रखा। वे चाहते थे कि सदियों से दासी के रूप में जीवनयापन करने वाली भारतीय स्त्रियों को अपने अधिकार मिलें, साथ ही उन्हें विकास की मुख्यधारा से जुड़ने का भरपूर अवसर मिले। 
डाॅ. अम्बेडकर भारतीय स्त्रियों को जो कानूनी अधिकार दिलाना चाहते थे उसका मार्ग बहुत कठिन था। डाॅ. अम्बेडकर को प्रत्येक कदम पर सामाजिक, राजनैतिक और वैचारिक विरोधों से जूझना पड़ा। शताब्दियों से चली आ रही रूढ़ियों को तोड़ना सरल नहीं था। डाॅ. अम्बेडकर जैसे दृढ़निश्चयी ही ऐसे दुरूह कार्य को परिणाम तक पहुंचा सकते थे। डाॅ. अम्बेडकर ने शिक्षा पर जोर दिया। उन्होंने कहा कि हमें अपना रास्ता स्वयं बनाना होगा और शिक्षित होना होगा। 
15 अगस्त, 1947 में भारत की स्वतंत्रता के बाद, कांग्रेस के नेतृत्व वाली नई सरकार अस्तित्व मे आई तो उसने डाॅ. अम्बेडकर को देश का पहले कानून मंत्री के रूप में सेवा करने के लिए आमंत्रित किया, जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया। 29 अगस्त 1947 को डाॅ. अम्बेडकर को स्वतंत्र भारत के नए संविधान की रचना के लिए संविधान मसौदा समिति के अध्यक्ष पद पर नियुक्त किया। डाॅ. अम्बेडकर ने मसौदा तैयार करने के इस काम मे अपने सहयोगियों और समकालीन प्रेक्षकों की प्रशंसा अर्जित की। इस दौरान भी डाॅ. अम्बेडकर ने महिलाओं के लिए व्यापक आर्थिक और सामाजिक अधिकारों की वकालत की। 26 नवंबर, 1949 को संविधान सभा ने संविधान को अपना लिया। अपने काम को पूरा करने के बाद अपने उद्बोधन में डाॅ. अम्बेडकर ने कहा था कि - ‘‘मैं महसूस करता हूं कि संविधान, साध्य है, यह लचीला है पर साथ ही यह इतना मज़बूत भी है कि देश को शांति और युद्ध दोनों के समय जोड़ कर रख सके। वास्तव में, मैं कह सकता हूँ कि अगर कभी कुछ ग़लत हुआ तो इसका कारण यह नहीं होगा कि हमारा संविधान खराब था बल्कि इसका उपयोग करने वाला मनुष्य अधम था।’’
सन् 1951 मे संसद में अपने हिन्दू कोड बिल के मसौदे को रोके जाने के बाद डाॅ. अम्बेडकर ने मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया। इस मसौदे मंे उत्तराधिकार, विवाह और अर्थव्यवस्था के कानूनों में लैंगिक समानता की मांग की गयी थी। यद्यपि प्रधानमंत्री नेहरू, कैबिनेट और कई अन्य कांग्रेसी नेताओं ने इसका समर्थन किया पर संसद सदस्यों की एक बड़ी संख्या इसके विरुद्ध थी। डाॅ. अम्बेडकर ने सन् 1952 में लोकसभा का चुनाव एक निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में लड़ा, जिसमें भले ही उन्हें विजय नहीं मिली लेकिन उनके विचारों को सभी ने स्वीकार किया। मार्च 1952 में उन्हें संसद के ऊपरी सदन यानि राज्य सभा के लिए नियुक्त किया गया और वे जीवनपर्यंत इस सदन के सदस्य रहे तथा दलित शोषितजन एवं स्त्रियों के सामाजिक अधिकारों के पक्ष में कार्य करते रहे। आज़ादी का अमृत महोत्सव मनाते हुए उन्हें याद करना अपनी सामाजिक, राजनीतिक एवं बौद्धिक प्रगति को याद करने के समान है। डाॅ. अम्बेडकर का स्त्रीविमर्श प्रासंगिक था, प्रासंगिक है और प्रासंगिक रहेगा।
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