Tuesday, July 18, 2023

पुस्तक समीक्षा | प्रकृति और चेतना के तादात्म्य को व्यक्त करती काव्यांजलि | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

प्रस्तुत है आज 18.07.2023 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई  डॉ अंजलि झा एवं डॉ गरिमा झा के काव्य संग्रह "सागर किनारे" की समीक्षा... 
-------------------
पुस्तक समीक्षा
प्रकृति और चेतना के तादात्म्य को व्यक्त करती काव्यांजलि
- समीक्षक डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
-------------------
काव्य संग्रह - सागर किनारे
रचनाकार - डाॅ अंजलि झा, डाॅ गरिमा झा
प्रकाशक   - स्वराज प्रकाशन, 4648/1, 21, अंसारी रोड दरियागंज, नई दिल्ली-2
मूल्य       - 160/-
-------------------
    कविता साहित्यिक अभिव्यक्ति की वह विधा है जिसमें भावना प्रथम आधारभूत तत्व होता है। किसी का मिलन, किसी का विछोह या फिर रोज़मर्रा की ज़िन्दगी व्यक्ति के मन को सबसे अधिक प्रभावित करती है। व्याकुल मन को उस समय चैन मिलता है जब वह प्रकृति में अपनी पीड़ा का निदान पाता है तथा काव्य को उपचार का माध्यम बना लेता है। ‘‘सागर किनारे’’ एक काव्यांजलि कृति है। इसमें दो कवयित्रियों डाॅ. अंजलि झा तथा डाॅ. गरिमा झा ने अपनी कविताओं को सहेजा है। इसे समर्पित किया गया है पुत्र विधु और पिता प्रोफेसर विवेकदत्त झा की स्मृतियों को। इस कृति में मां और बेटी की काव्यात्मक अभिव्यक्ति का उल्लेखनीय सामंजस्य है, जो इस काव्य संग्रह की सबसे बड़ी खूबी है। मां डाॅ. अंजलि झा जो प्रोे. विवेकदत्त झा की अद्र्धांगिनी हैं और डाॅ. गरिमा झा उनकी पुत्री हैं। डाॅ. विवेकदत्त झा ने सागर विश्वविद्यालय के प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति एवं पुरातत्व विभाग में अपनी सेवाएं दीं। वे उच्चकोटि के पुराविद, इतिहासकार, रंगकर्मी, कुशल प्रशासक एवं साहित्य की गहरी समझ रखने वाले व्यक्ति थे। जब काव्य संग्रह ‘‘सागर किनारे’’ मेरे हाथो में आया तो मुझे यह देख कर सुूखद लगा कि डाॅ. अंजलि झा तथा डाॅ. गरिमा झा ने काव्यांजलि के रूप में अपनी भावनाओं को व्यक्त किया है।

संग्रह की कविताओं में माता और पुत्री दोनों की कविताएं हैं जिन्हें अलग-अलग दो भागों में न बांटते हुए अक्रमित (रेंडम) रूप से रखा गया है। यह तथ्य स्मरण कराता है कि मां और पुत्री एक-सी होती हैं। पुत्री में मां का अंश और मां में पुत्री का व्यक्तित्व उपस्थित होता है। अतः दोनों कवयित्रियों की कविताओं को अक्रमित रूप में पढ़ते हुए भी कहीं बाधा या विचारों के स्तर का बदलाव अनुभव नहीं होता है। एक प्रवाह में पढ़ते हुए ऐसा प्रतीत होता है मानों ये सभी कविताएं किसी एक ही रचनाकार की लिखी हुई हैं। दोनों ही कवयित्रियों ने जीवन को गहराई से समझा है, प्रकृति के आनन्द को अनुभव किया है, वे आशा और निराशा की पगडंडियों से हो कर गुज़री हैं और दोनों के पास अभिव्यक्ति की उत्तम क्षमता है। वे इस बात को ले कर स्पष्ट हैं कि वे क्या कहना चाहती हैं। वे अपने अतीत में झांकती हैं, सुखद पलों का स्मरण करती हैं, दुखद पलों पर सिहरती हैं तथा वर्तमान स्थितियों एवं परिस्थितियों पर सटीक टिप्पणियां करती हैं।

संग्रह की भूमिका भी दोनों कवयित्रियों ने संयुक्त रूप से लिखी है। वे लिखती हैं कि -‘‘प्रकृति और मानव का अन्योन्याश्रित संबंध है। हम कह सकते हैं दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं । एक के बिना दूसरे की गति नहीं है। जीवनदायिनी, पालनहारिणी प्रकृति हमारी माँ -स्वरूपा है, साथ ही वो हमारी प्रेरणास्रोत और मार्गदर्शक भी है। कवि, कविता, मानव-जीवन और प्रकृति का संबंध परस्पर वैसा ही है जैसा कि आत्मा का परमात्मा से, सुर का ताल से । कवि अपने मन में उपजे विभिन्न भावों को अभिव्यक्त करने के लिए प्रकृति की ओर निहारता है। कविता हमारे विचारों का प्रतिबिंब है। काव्य के माध्यम से कवि जीवन व विचारों के बीच एक सेतु बाँधता है। जीवन के कहे अनकहे पहलुओं को, खट्टे-मीठे अनुभवों को, बदलते सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश को काव्य में पिरोकर, समाज को जागरूक करने, उसकी चेतना जगाने का प्रयास करता है। हमने जिन पलों को जिया, समझा, महसूस किया, उन्हें काव्य का रूप देकर इस काव्यांजलि में पिरोया है।’’

भूमिका पढ़ने के बाद जब पाठक संग्रह की तिरसठ कविताओं से हो कर गुज़रेगा तो पाएगा कि ये कविताएं काव्यांजलि ही नहीं अपितु श्रद्धांजलि एवं भावांजलि भी हैं। यद्यपि इन कविताओं में श्रद्धांजलि एवं भावांजलि व्यक्तिपरक न हो कर प्रकृति एवं चेतनापरक हैं। संग्रह की पहली कविता डाॅ. गरिमा झा की है, जिसका शीर्षक है ‘‘प्रकृति तुम’’। इस कविता में प्रकृति की सम्पूर्ण शक्तियों के प्रति कवयित्री की श्रद्धा को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है-
प्रकृति तुम विशाल, विपुल, जलधर
मैं बारिश की नन्ही बूँद
विस्तृत, उर्वर वसुंधरा तुम
मैं मुट्ठी भर धूल
तुम सागर अथाह, अपरिमित
मैं नदिया की विरल धार
मैं नश्वर, तुम अचल, अमिट, अपार
तुम पृथ्वी, जल, आकाश
तुम रौद्ररूपा, विनाशकारी,
तुम आनंनदमयी, तुम्ही जीवनदायिनी
तुम प्रकृति, तुम प्राण
मैं मनुज अज्ञानी।

डाॅ. गरिमा प्रकृति के अहम तत्व ऋतुओं पर भी चिंतन करती हैं और जीवन पर उनके प्रभाव को सरलतापूर्वक व्यक्त करती हैं अपनी कविता ‘‘नन्ही बूँदें’’ में-
नन्ही बूँदों ने कर दी देखो
कैसी हँसी ठिठोली
खेल गईं आँगन में आज हमारे होली,
पुलकित पुष्पों ने खाए हिचकोले
लचीली लताएँ झूम रहीं हौले-हौले
नीली छतरी, पीली बरसाती
चहुं ओर इतराती, रंग-बिरंगी
किश्ती की कतार
हुल्लड़ी बालक को लुभाती।

जहां ‘हुल्लड़ी बालकों’ के रूप में जीवन के उल्लास को सामने रखा गया है वहीं, अवसाद के रंग को भी उसके पूरे शेड्स के साथ ‘‘निशान’’ कविता में डाॅ. गरिमा ने बखूबी शब्दांकित किया है-
शाख से पत्ते झड़ जाते हैं
खिलकर गुल मुस्काते हैं
दिन उगकर ढल जाते हैं
मौसम आते-जाते हैं ।
फिर क्यों कुछ पल कुछ लम्हे रुक जाते हैं?
वो गम जो सह नहीं पाते
वो दर्द जो दिल की सतह पर जम जाते हैं
कुछ बातें, कुछ यादें
भीगी पलकों पर ओस-से ठहर जाते हैं।

जो भावप्रवणता डाॅ. गरिमा की कविताओं में परिलक्षित होती हैं, ठीक वही संवेदनात्मक गहराई डाॅ. अंजलि की कविताओं में भी उपस्थित है। उनकी कविताओं में जीवन की नमी और शुष्कता दोनों मुखर हैं। ‘‘चाहती थी लिखना’’ कविता में डाॅ. अंजलि ने जीवन और मन की उलझन को बड़े सुंदर शब्दों में व्यक्त किया है-
चाहती थी लिखना/लिख न पाई कभी
विचार आते रहे-जाते रहे/भाव उमड़ते-घुमड़ते रहे
द्वंद्व-प्रतिद्वंद्व चलता रहा/इसी उलझन में
मन उलझा रहा/विचार आये तो/शब्द नहीं मिले,
शब्द मिले तो/भाव गुम/इसी कश्मकश में
दिन गुजरते गए/मेज पर रखी लेखनी
राह तकती रही/काश कि मैं हाथों में
कागज-कलम/थाम लेती।

डाॅ अंजलि वेदना के उस आयाम की याद दिलाती हैं जिसका सामना हर व्यक्ति को कभी न कभी, किसी न किसी रूप में करना पड़ता है, एक शाश्वत सत्य की तरह। ‘‘मुंडेर’’ कविता की पंक्तियां देखिए-
साल दर साल बीते
कहाँ से कहाँ /आ गये हम,
और यादें हैं कि
आज भी उसी मुंडेर /पर बैठी
न जाने किस ऊर्जा से
सिंचित, पोषित, किस झूठी
आस की डोर से बँधी,
अविचल, अनवरत, अथक,
अविराम, अपलक, उस पथ को
निहारती, जिसका पथिक
लौटकर कभी आता नहीं।
संग्रह में डाॅ. अंजलि की कविताओं में एक कविता है ‘‘माॅर्निंग वाॅक’’ जिसमें उन्होंने प्रातः के सुरम्य वातावरण को भी मोबाईल फोन की भेंट चढ़ते देख कर कटाक्ष किया है तथा एक अन्य कविता है ‘‘आपाधापी’’ जो नैराश्य गढ़ती हुई प्रतीत होती हुई भी सत्य का अवगाहन करती है और मन को गहरे तक छूती है। पंक्तियां देखिए-
चाहतें अब बुढ़ाने
लगीं हैं, जिंदगी की आपाधापी में,
दायित्वों के निर्वहन में
चुनौतियों से
जूझती, संघर्ष करती
थक के चूर आ पहुँची हैं
उस मकाम पर,
जहाँ अर्थहीन है,
उनका पूरा होना न होना।

‘‘सागर किनारे’’ स्मृतियों एवं अनुभवों के सागर तट पर खड़े हो कर अंतर्मन को टटोलते हुए, प्रकृति में भावनाओं को अनुभव करते हुए लिखी गई कविताएं हैं। वस्तुतः यह कृति प्रकृति एवं चेतना के तादात्म्य को व्यक्ति करती काव्यांजलि है। इन कविताओं की भाषा सरज, सहज है तथा इनमें भरपूर सम्प्रेषणीयता है। इस संग्रह की कविताओं को पढ़ना निश्चित रूप से एक विशिष्ट अनुभूति देगा।
  ----------------------------               
#पुस्तकसमीक्षा #डॉसुश्रीशरदसिंह  #bookreview  #bookreviewer  #DrMissSharadSingh

No comments:

Post a Comment