Wednesday, May 1, 2024

चर्चा प्लस | स्वजागृति से परे हम जी रहे हैं ब्रांडिंग के दौर में | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस  
स्वजागृति से परे हम जी रहे हैं ब्रांडिंग के दौर में
    - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                                        
      हमारे चारो ओर बाज़ार का एक संजाल है और इस बाज़ारवाद ने हमें उस दौर में पहुंचा दिया है जहां राष्ट्रीय और मानवीय कर्तव्य भी ब्रांड बन गए हैं। बेटी बचाओ एक ब्रांड है, स्वच्छता मिशन एक ब्रांड है, शौचालय का उपयोग एक ब्रांड है, निर्मलजल एक ब्रांड है और अतुल्य भारत अभियान एक ब्रांड है, तो हम बाज़ारवाद से बाहर कैसे निकल सकते हैं? हर ब्रांड का एक एम्बेस्डर है। वह एम्बेस्डर क्या करता है? वह अपने ब्रांड का विज्ञापन करता है और पैसे कमाता है। क्या कभी सोचा है कि यह दौर हमें किस ओर ले जा रहा है?
      हम आज ब्रांडिग के दौर में जी रहे हैं। हमारे शौच की व्यवस्था से ले कर राज्य, कत्र्तव्य और संवेदनाओं की भी ब्रांंिडग होने लगी है। ब्रांड क्या है? अर्थशास्त्र के अनुसार ब्रांड उत्पाद वस्तु की बाजार में एक विशेष पहचान होती है जो उत्पाद की क्वालिटी को सुनिश्चित करती है, उसके प्रति उपभोक्ताओं में विश्वास पैदा करती है। क्यों कि उत्पाद की बिक्री की दशा ही उत्पादक कंपनी के नफे-नुकसान की निर्णायक बनती है। कंपनियां अपने ब्रांड को बेचने के लिए और अपने ब्रांड के प्रति ध्यान आकर्षित करने के लिए ‘ब्रांड एम्बेसडर’ अनुबंधित करती हैं। यह एक पूर्णरुपेण बाज़ारवादी आर्थिक प्रक्रिया है। यह उत्पाद की वस्तुओं की बिक्री के लिए होता है लेकिन आज हमारे नागरिक कर्तव्य और हमारी संवेदनाएं भी गोया बिक्री की वस्तु हो गई हैं। कमाल की बात यह है कि ब्रांडिग हमारे जीवन में गहराई तक जड़ें जमाता जा रहा है। इसीलिए नागरिक कर्तव्यों, संवेदनाओं एवं दायित्वों की भी ब्रांडिंग की जाने लगी है, गोया ये सब भी उत्पाद वस्तु हों।
    
     आजकल राज्यों के भी ब्रांड एम्बेसडर होते हैं। जबकि ‘‘राज्य एक ऐसा भू भाग होता है जहां भाषा एवं संस्कृति के आधार पर नागरिकों का समूह निवास करता है।’’ - यह एक अत्यंत सीधी-सादी  परिभाषा है। यूं तो राजनीति शास्त्रियों ने एवं समाजवेत्ताओं ने राज्य की अपने-अपने ढंग से अलग-अलग परिभाषाएं दी है। ये परिभाषाएं विभिन्न सिद्धांतों पर आधारित हैं। राज्य उस संगठित इकाई को कहते हैं जो एक शासन के अधीन हो। राज्य संप्रभुता सम्पन्न हो सकते हैं। जैसे भारत के प्रदेशों को ’राज्य’ कहते हैं। इस सिद्धांत के अनुसार राज्य की उत्पत्ति का एकमात्र कारण शक्ति है। इसके अलावा युद्ध को राज्य की उत्पत्ति का कारण यह सिद्धांत मानता है जैसा कि वाल्टेयर ने कहा है प्रथम राजा एक भाग्यशाली योद्धा था। इस सिद्धांत के अनुसार शक्ति राज्य की उत्पत्ति का एकमात्र आधार है शक्ति का आशय भौतिक और सैनिक शक्ति से है। प्रभुत्व की लालसा और आक्रमकता मानव स्वभाव का अनिवार्य घटक है। प्रत्येक राज्य में अल्पसंख्यक शक्तिशाली शासन करते हैं और बहुसंख्यक शक्तिहीन अनुकरण करते हैं। वर्तमान राज्यों का अस्तित्व शक्ति पर ही केंद्रित है।

    राज्य को परिभाषित करते सामाजिक समझौता सिद्धांत को मानने वालों में थाॅमस हाब्स, जॉन लॉक, जीन जैक, रूसो आदि का प्रमुख योगदान रहा। इन विचारकों के अनुसार आदिम अवस्था को छोड़कर नागरिकों ने विभिन्न समझौते किए और समझौतों के परिणाम स्वरुप राज्य की उत्पत्ति हुई। वहीं विकासवादी सिद्धांत मनोवैज्ञानिक, ऐतिहासिक और समाजशास्त्रीय प्रमाणों पर आधारित है। इसके अनुसार राज्य न तो कृत्रिम संस्था है, न ही दैवीय संस्था है। यह सामाजिक जीवन का धीरे-धीरे किया गया विकास है इसके अनुसार राज्य के विकास में कई तत्व जैसे कि रक्त संबंध धर्म शक्ति राजनीतिक चेतना आर्थिक आधार का योगदान है पर आज सबके हित साधन के रूप में विकसित हुआ। ऐसा राज्य क्या कोई उत्पाद वस्तु हो सकता है? जिसके विकास के लिए ब्रांडिंग की जाए?

       शौचालय, और स्वच्छता की ब्राडिंग किया जाना और इसके लिए ब्रांड एम्बेसडर्स को अनुबंधित किया जाना बाजारवाद का ही एक आधुनिक रूप है। बाज़ारवाद वह मत या विचारधारा जिसमें जीवन से संबंधित हर वस्तु का मूल्यांकन केवल व्यक्तिगत लाभ या मुनाफ़े की दृष्टि से ही किया किया जाता है। मुनाफ़ा केंद्रित तंत्र को स्थापित करने वाली यह विचारधारा; हर वस्तु या विचार को उत्पाद समझकर बिकाऊ बना देने की विचारधारा है। बाजारवाद में व्यक्ति उपभोक्ता बनकर रह जाता है, पैसे के लिए पागल बन बैठता है, बाजारवाद समाज को भी नियंत्रण में कर लेता है, सामाजिक मूल्य टूट जाते हैं। बाजारवाद में संस्कृति भी एक सांस्कृतिक पैकेज होती है। इस पैकेज में उपभोक्ता टॉयलेट पेपर इस्तेमाल करता है, वह एयर कंडीशनर में ही सोना पसन्द करता है, एसी कोच में यात्रा करता है, बोतलबंद पानी साथ लेकर चलता है घर में आरो लगवाता है, एयर प्यूरीफायर लगवाता है। इस संस्कृति के चलते लौह उत्खनन से लेकर बिजली, कांच और ट्रांसपोर्ट की जरूरत पड़ती है। यही सच है कि बाजारवाद परंपरागत सामाजिक मूल्यों को भी तोड़ता है।

    जीवनस्तर में परिवर्तन एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। प्रत्येक व्यक्ति भौतिक सुखों के पीछे भागता है। उसकी इसी प्रवृत्ति को बाज़ार अपना हथियार बनाता है। यदि बाजार का स्वच्छता से नुकसान हो रहा है तो वह स्वच्छता को क्यों बढ़ने देगा? पीने का पानी गंदा मिलेगा तो इंसान वाटर प्यूरी फायर लेगा, हवा प्रदूषित मिलेगी तो वह एयर प्यूरी फायर लेगा। इस तरह प्यूरी फायर्स का बाज़ार फलेगा-फूलेगा। इस बाजार में बेशक नौकरियां भी मिलेंगी लेकिन नौकरियों के अनुपात में प्रदूषित वातावरण अधिक रहेगा और सेहत पर निरंतर चोट करता रहेगा। तो इसका खामियाजा भी तो हमें ही भुगतना होगा। स्वच्छता बनाए रखना एक नागरिक कत्र्तव्य है और एक इंसानी पहचान है। यदि इसके लिए भी ब्रांडिंग की जरूरत पड़े तो वह कत्र्तव्य या पहचान कहां रह जाता है? वह तो एक उत्पाद वस्तु है और जिसके पास धन है वह उसे प्राप्त कर सकता है, जिसके पास धन की कमी है वह स्वच्छता मिशन के बड़े-बड़े होर्डिंग्स के नीचे भी सोने-बैठने की जगह हासिल नहीं कर पाता है।

भ्रूण हत्या एवं बेटी बचाओ का सीधा संबंध हमारी मानवीय भावना और संवेदनशीलता से है। यह भावना हमारे भीतर स्वतः जाग्रत चाहिए अथवा सरकार जो इन अभियानों की दिशा में प्रोत्साहनकारी कार्य करती है उन्हें संचालित होते रहना चाहिए। जब बात आती है इन विषयों के ब्रांड एम्बेसडर्स की तो फिर प्रश्न उठता है कि क्या बेटियां उपभोक्ता उत्पाद वस्तु हैं या फिर भ्रूण की सुरक्षा के प्रति हमारी संवेदनाएं महज विज्ञापन हैं। आज जो देश में महिलाओं के विरुद्ध आए दिन आपराधिक घटनाएं बढ़ रही हैं तथा संवेदना का स्तर निरंतर गिरता जा रहा है, उसका सबसे बड़ा कारण यही है कि जाने-अनजाने हमारी तमाम कोमल संवेदनाएं बाजार के हाथों गिरवी होती जा रही हैं।
      बात उत्पादन की बिक्री की हो तो उचित है किन्तु बाजार से हो कर गुजरने वाले कत्र्तव्यों में दिखावा अधिक होगा और सच्चाई कम। ब्रांड एम्बेसडर अनुबंधित करने के पीछे यही धारणा काम करती है कि जितना बड़ा अभिनेता या लोकप्रिय ब्रांड एम्बेसडर होगा उतना ही कम्पनी को आय कमाने में मदद मिलती है क्योंकि लोग वह सामान खरीदेंगे। अमूमन जितना बड़ा ब्रांड होता है उतना ही महंगा या उतना ही लोकप्रिय व्यक्ति ब्रांड एम्बेसडर बनाया जाता है क्योंकि बड़ा ब्रांड अधिक पैसे दे सकता है जबकि छोटा ब्रांड कम। ऐसा इसलिए क्योंकि कोई भी व्यक्ति जो ब्रांड का प्रतिनिधित्व करता है, उसकी फीस करोड़ों में होती है। एक तो अगर जनता उस व्यक्ति को अगर रोल मॉडल मानती है तो ऐसे में ब्रांड का लोगो के दिलों में जगह बनाना आसान हो जाता है।
      ब्रांडिंग की छोटी इकाईयां भी हैं। राष्ट्र स्तर पर ब्रांड एम्बेस्डर होते हैं। फिर राज्य स्तर पर ब्रांड एम्बेस्डर होते हैं। इसके बाद शहरों के भी अलग-अलग ब्रांड एम्बेस्डर होते हैं। आगे चल कर गली-मोहल्ले के स्तर पर भी ब्रांड एम्बेस्डर होने लगें तो कोई आश्चर्य नहीं है। क्योंकि नागरिक हितों की सरकारी योजनाएं भी आज ब्रांड में ढल चुकी हैं। ऐसे ब्रांड में जिसका कोई खुला बाज़ार नहीं है और कोई प्रतिद्वंद्विता है। उदाहरण के लिए स्वच्छता मिशन को ही लें। अपने शहर को स्वच्छ रखना नागरिेक कर्तव्य है। इसके लिए नागरिकों को सफाई-मित्र उपलब्ध कराना, कचरा-कलेक्शन गाड़ियां चलाना, होर्डिंग्स लगवाना तथा दंड स्वरूप हर्जाना वसूलना पर्याप्त है। इसके लिए करोड़ों रुपये खर्च कर के किसी सेलीब्रटी को ब्रांड एम्बेस्डर बनाना क्यों जरूरी है? यदि देश का प्रधानमंत्री या राज्य का मुख्य मंत्री शहर में स्वच्छता बनाए रखने की अपील करता है तो क्या इतना पर्याप्त नहीं है? क्या स्वच्छता एक ब्रांड हो सकता है? क्या स्वच्छता को कोई ऐसा बाज़ार है जहां उसका कोई प्रतिद्वंद्वी ब्रांड मौजूद हो जिससे उसे टक्कर लेनी हो? बेशक, झाडू की ब्रांडिंग हो सकती है, डस्टपैन की ब्रांडिंग हो सकती है, फिनायल तथा अन्य स्वच्छता बनाने में उपयोगी वस्तुओं की ब्रांडिंग हो सकती है, मगर स्वच्छता मिशन की ब्रांडिंग? यही तो बाज़ारवाद है जिसके चलते हम निर्जीव वस्तुओं एवं भावनाओं में अंतर को भुलाते जा रहे हैं और इस पर आपत्ति नहीं करते हैं कि एक विख्यात अभिनेता या खिलाड़ी हमें सिखाता है कि हमें शौच के बाद हाथ धोना चाहिए। आखिर हम सभ्यता के किस चरण में विचरण कर रहे हैं कि जहां शौच के बाद हाथ धोने की प्रक्रिया भी एक ब्रांड है।      
 
     यदि राज्य एक ब्रांड है, बेटी बचाओ एक ब्रांड है, स्वच्छता मिशन एक ब्रांड है, शौचालय का उपयोग एक ब्रांड है, निर्मलजल एक ब्रांड है और अतुल्य भारत अभियान एक ब्रांड है तो हम अपने युवाओं से राष्ट्रप्रेम की आशा रखें अथवा बाज़ारवाद की? यदि राष्ट्र और मानवता के प्रति भावनाएं एवं कर्तव्य भी ब्रांड बन कर प्रचारित होने का समय हमने ओढ़ लिया है जो भारतीय विचार संस्कृति के मानक पर यह ब्रांडिंग कहां सही बैठती है, यह भी विचारणीय है। हमारी भारतीय संस्कृति स्वजागृति पर आधारित है लेकिन हम वहां पहुच गए हैं जहां जागते हुए भी जगाए जाने की प्रतीक्षा करने लगे हैं।    
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