दैनिक नयादौर में मेरा कॉलम
"शून्यकाल"
जीवन से पलायन करना कोई हल नहीं
- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह
इन दिनों जीवन से पलायन अर्थात् आत्महत्या की घटनाएं बढ़ती जा रही हैं। युवाओं द्वारा इस तरह के कदम उठाना और अधिक चिंता की बात है तथा दुर्भाग्यपूर्ण भी है। हर व्यक्ति के जीवन में विपरीत परिस्थितियां आती हैं किन्तु जो हार नहीं मानता, वही जीतता है। जब कभी आत्मघाती विचार मन में उठे तो एक सिम्पल-सा फार्मूला है जिसे याद कर लेना चाहिए कि जब हमने अपने जीवन का आरम्भ नहीं चुना तो उसका अंत चुनने का भी हमें अधिकार नहीं है।
22 वर्षीया युुवती एक सात मंज़िला बिल्डिंग की छत पर पहुंची और उसने वहां से छलांग लगा कर अपने जीवन का अंत कर लिया। मरने से पहले उसने अपने सोशल मीडिया एकाउंट पर एक पोस्ट डाली जिसमें उसने अपने प्रेमी को संबोधित किया था कि -‘‘तुमने मेरे साथ धोखा किया। तुमने मेरी भावनाओं से खेला। तुमने मुझे कभी प्यार किया ही नहीं। अब मैं तुम्हारा असली चेहरा देख चुकी हूं। इसलिए तुमसे हमेशा के लिए दूर जा रही हूं। अपने जीवन का अंत कर रही हूं।’’
उस युवती ने आत्महत्या का निर्णय लेते समय प्रेम में धोखा पाने और अपने धोखेबाज प्रेमी के बारे में तो सोचा, लेकिन अपने उन परिजन के बारे में नहीं सोचा जो उसके मरने के बाद असीम पीड़ा से गुज़रेंगे। क्या उस युवती की मां कभी एक भी रात चैन से सो सकेगी? क्या उसका पिता कभी सुकून से रह सकेगा? क्या उसके भाई-बहन नहीं रोएंगे? वह जीवित रहती तो न जाने कितने लोगों का सहारा बनती। वह जीवित रहती तो अपने जीवन में बहुत कुछ कर पाती। लेकिन उसके एक भावुक निर्णय ने उसकी हर संभावना पर पूर्णविराम लगा दिया। जबकि वह जीवित रहती तो संभावना इस बात की भी रहती कि कभी उसके जीवन में वास्तविक प्रेम करने वाला प्रवेश करेगा। एक ऐसे तथाकथित प्रेमी के लिए अपनी जान दे देना कहां की बु़िद्धमानी है, जिसने कभी प्रेम किया ही नहीं। जो सिर्फ उससे छल करता रहा, उसका फायदा उठाता रहा। वह युवती आत्मघाती कदम उठाने के बजाए यदि अपनी कमजोर भावनाओं का डट कर सामना करती और दिखा देती कि उसे उस धोखेबाज की परवाह नहीं है। वह उसके बिना भी जी सकती है, तो यह बहादुरी की बात होती।
दरअसल, किसी भी विपरीत परिस्थिति से घबरा कर आत्महत्या कर लेना कोई हल नहीं है। यदि किसी व्यक्ति के पीछे उसके लिए रोने वाला कोई भी नहीं है तो भी कम से कम वह विपरीत परिस्थितियों का सामना कर के दूसरों के लिए एक अच्छा उदाहरण तो रख ही सकता है। अकसर यह कहा जाता है कि ‘‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे’’। लेकिन मैं स्वयं भी इस परिस्थिति से गुज़री हूं। कोरोनाकाल में मैंने अपनी मां और मां समान बड़ी बहन को खोया। उस समय एक पल ऐसा भी आया जब लगा कि अब किसके लिए जिऊं? सबकुछ अंधकारमय लगने लगा। शायद मैं भी कोई आत्मघाती कदम उठा लेती लेकिन मुझे मेरी दीदी की वह बात याद आई जो उन्होंने एक दिन अचानक मुझसे कही थी कि ‘‘जीवन में कितनी भी विपरीत परिस्थिति क्यों न आए, कभी कोई गलत कदम मत उठाना।’’ मैंने पल भर को ठहर कर सोचा कि क्या उन्हें कोई पूर्वाभास था, जो उन्होंने मुझसे यह कहा था? क्या उनका संकेत आत्महत्या की ओर था? बस, उसी पल मैंने निर्णय लिया कि चाहे कुछ भी हो जाए लेकिन मैं परिस्थिति से हार नहीं मानूंगी। जियूंगी और जितना संभव होगा दूसरों की सहायता करूंगी। उसी पल मेरे मन में यह भी विचार आया कि यदि निःस्वार्थ भाव से सभी को अपना मानो तो सभी अपने हैं, अन्यथा रक्तसंबंधी भी दग़ा दे जाते हैं। इन विचारों से मुझे संबल मिला। मुझे डट कर जीते हुए देख कर मेरे सभी परिचितों ने भी आगे बढ़ कर मुझे और मानसिक संबल दिया।
विचारणीय है कि मैं घबरा कर आत्मघात कर लेती तो क्या होता? मेरे कुछ घनिष्ठ परिचित चंद आंसू बहाते और यही कहते कि मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए था। वे सच कहते। जीवन का अंत कर लेना कोई हल नहीं है। जब हमने अपनी इच्छा से अपना जीवन नहीं चुना है तो हमें अपनी इच्छा से उसका अंत करने का भी कोई अधिकार नहीं है। जीवन है तो वह किसी न किसी काम तो आएगा, उसे समाप्त कर देना तो जीवन के साथ धोखा करने के समान है। इसीलिए धर्मशास्त्रों में आत्महत्या को ‘‘पाप’’ कहा गया है। भारतीयदंड संहिता में भी आत्महत्या अपराध की श्रेणी में रखा गया है। तो जब अपराधी की भांति जिया नहीं तो अपराधी की भांति मरना क्यों? यद्यपि ये तर्क युवा मन आसानी से नहीं समझ सकता है। युवा मन कोमल होता है। भावनाओं से भरा हुआ होता है। उसे जब छोटी-छोटी बातें भी बड़ी लगती हैं तो बड़ी बातें तो दुष्कर लगेंगी ही।
कोटा में कोचिंग ले रहे एक युवा छात्र ने आत्महत्या कर लिया। मरने से पहले उसने अपने पिता को पत्र लिखा कि ‘‘साॅरी पापा, मैं आपकी आशाओं पर खरा नहीं उतर सकता हूं। मैं प्रतियोगी परीक्षा पास नहीं कर सकूंगा। मैं आपको निराश नहीं करना चाहता हूं इसलिए अपने जीवन का अंत कर रहा हूं।’’ यह कैसा मानसिक दबाव था उस छात्र पर कि उसने सोच लिया कि उसके पिता उसके परीक्षा में असफल होने पर निराश हो जाएंगे और उसके मरने पर निराश नहीं होंगे?
आजकल काम्पिटीशन का दौर सिर चढ़ कर बोल रहा है। काम्पिटीशन कब नहीं था? हर दौर में काम्पिटीशन था। लेकिन इतना मानसिक दबाव नहीं था। छात्र यदि प्रथम नहीं तो द्वितीय स्थान भी अच्छे अंकों से पास कर लेता था तो उसका पिता उसकी पीठ थपथपा कर कहते थे कि ‘‘शाबाश! अब अगली बार इससे अच्छे अंक लाना।’’ लेकिन वही छात्र जिसकी बचपन में उसके पिता ने पीठ थपथपायी थी, वह अपने बच्चों पर दबाव डालता रहता है कि 99 प्रतिशत से कम नहीं आने चाहिए। पढ़ाई के लिए दबाव बनाना गलत नहीं है लेकिन इतना दबाव भी नहीं बनाना चाहिए कि बच्चे उसे अपने जीवन-मरण का प्रश्न मान बैठें। बच्चों और युवाओं को यही सिखाया जाना चाहिए कि वे हर असफलता को एक चुनौती मानें। मान लीजिए कि किसी प्रतियोगी परीक्षा में मात्र तीन बार ही शामिल हुआ जा सकता है और तीनों बार असफलता ही हाथ लगती है तो इसका अर्थ यह नहीं है कि वह छात्र अयोग्य है, नकारा है। वस्तुतः वह जिस क्षेत्र में प्रयास कर रहा है, वह क्षेत्र उसके लिए नहीं है। शायद वह किसी और क्षेत्र में भरपूर सफल हो सकता है। इसे लक्ष्य परिवर्तन का संकेत मानना चाहिए।
जीवन में हार न मानने का हुनर राजनेताओं से भी सीखा जा सकता है। हर चुनाव में एक सीट के लिए कोई एक व्यक्ति ही जीतता है, शेष सभी उम्मींदवारों को असफलता मिलती है। कई बार तो चंद वोट से हार झेलनी पड़ती है। लेकिन राजनीति में चुनाव हारने वाला व्यक्ति कभी इतना कमजोर नहीं पड़ता है कि वह टूट जाए। अगले चुनाव में वह और दमखम से खड़ा होता है और अपने विरोधियों को चुनौती देता है। कुछ लोग दल बदलने से भी गुरेज़ नहीं करते हैं और कुछ राजनीति से सन्यास भी ले लेते हैं, लेकिन कम से कम वे आत्महत्या करने जैसा कायराना कदम नहीं उठाते हैं। साहस मरने में नहीं जीवन जीने में होता है। राजनीति ऐसे ही साहसी लोगों की दुनिया होती है। क्या आपातकाल के दौरान जेलों में बंदी बना दिए जाने वाले नेताओं जयप्रकाश नारायण, अटलबिहारी वाजपेयी आदि ने घबरा कर आत्महत्या की? या फिर आपातकाल के बाद इंदिरा गांधी को जब जेल जाना पड़ा तो उन्होंने आत्मघात के बारे में सोचा? नहीं। ये सभी नेता हर बार दूने जोश के साथ दोबारा उभरे। क्योंकि ये जानते थे कि जीवन रहेगा तभी तो दूसरा मौका मिलेगा। जब जीवन हमें अनेक मौके देता है तो हमें भी जीवन को कम से कम एक मौका जरूर देना चाहिए।
इंदौर के एक व्यवसायी ने अपने परिवार सहित आत्महत्या कर ली। क्योंकि उसने कर्ज लिया था जो वह चुका नहीं पा रहा था। लेनदार उस पर दबाव बना रहा था। स्वाभाविक है कि जिसने कर्ज में पैसा दिया, वह अपना पैसा वापस पाना चाहेगा। अब कर्ज लेने वाला व्यक्ति यदि सपरिवार आत्महत्या कर लेता है तो वह कर्जदाता भी आर्थिक संकट से घिर जाएगा। उससे भी अधिक बुरी बात है कि व्यवसायी ने अपने उन बीवी-बच्चों के जीवन को भी छीन लिया जिन्हें जीवन जीने का अधिकार था। वैसे इस सीमा तक कर्जदार बनना भी नहीं चाहिए कि वह उतारा न जा सके। फिर भी यदि ऐसी स्थिति बन जाती है तो उसका हल ढूंढना चाहिए। हर समस्या का कोई न कोई हल होता है और वह हल कम से कम आत्महत्या तो नहीं है।
वैसे अपनी असफलताओं एवं विपरीत परिस्थितियों से जब घबराहट होने लगे तो उससे उबरने का सबसे अच्छा तरीका है कि अपने से अधिक खराब परिस्थिति वालों के बारे में विचार किया जाए। न जाने कितने लोग हैं जो दो रोटी के लिए जूझते रहते हैं। उनके पास सोने का ठिकाना भी नहीं होता है। कल रोटी मिलेगी या नहीं, उन्हें पता नहीं होता है। फिर भी वे साहस के साथ जीते हैं। तो बस, एक और सीधा-सा फार्मूला कि जब आत्महत्या का विचार आए तो उनके बारे में सोचना चाहिए जो आपके पीछे छूट जाएंगे और आपके बिना उनका जीवन दुख से भर जाएगा। उम्र और असफलता चाहे जैसी भी हो, हमेशा याद रहे कि जीवन से पलायन कोई हल नहीं।
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