'आचरण' में प्रकाशित पुस्तक समीक्षा -
पुस्तक समीक्षा
फागुनी रंगों की भावनात्मक छटा बिखेरता काव्य संग्रह
- समीक्षक डॉ (सुश्री) शरद सिंह
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काव्य संग्रह - होरी रे बरजोरी रे
संपादक - शोभा शर्मा
प्रकाशक - जेटीएस पब्लिकेशन्स, वी 508, गली नं.17, विजय पार्क, दिल्ली - 110053
मूल्य - 500/
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भारतीय संस्कृति में त्यौहारों का एक अपना अलग समाजशास्त्र है। समाज के लिए किस ऋतु में कौन-सा और कैसा त्यौहार उचित है, यह सामाजिक एवं ऋतुओं से जुड़ी चर्या के आधार पर तय किया गया है। वर्षाकाल में जब एक गांव से दूसरे गांव भी आना-जाना कठिन हुआ करता था तब चातुर्मास एवं तत्संबंधी त्यौहारों का निर्धारण हुआ। उसी तरह फसल के पकने और अच्छी फसल के साथ आय की सुनिश्चितता तय होने पर रंगों के द्वारा मन के उल्लास को प्रकट करने का त्यौहार बनाया गया है। होली पर प्रचुर साहित्य भी रचा गया है। बुंदेलखंड में ईसुरी, पद्माकर आदि ने एक से बढ़ कर एक होली के छंद लिखे हैं। जब त्यौहार है और वह भी ऋतु पर आधारित त्यौहार तो भावनाओं का प्रस्फुटन होगा ही। ऐसा ही फागुनी रंगो की भावनात्मक छटा बिखेरता सम्वेत काव्य संग्रह है- ‘‘होरी रे बरजोरी रे’’। इसका संपादन किया है छतरपुर मध्यप्रदेश की सुपरिचित साहित्यकार शोभा शर्मा ने। उनके कई मौलिक काव्य संग्रह, कथा संग्रह एवं उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं तथा उन्होंने इसके पूर्व भी साझा संकलनों का संपादन किया है।
‘‘होरी रे बरजोरी रे’’ काव्य संग्रह में कुल 44 कवयित्रियों एवं कवियों की रचनाएं संग्रहीत हैं। संग्रह के आरम्भ में जनकवि ईसुरी एवं पं. गंगाधर व्यास का स्मरण किया गया है। इसके बाद ‘‘दो शब्द’’ के रूप में बुंदेली संस्कृति के सुविज्ञ विद्वान प्रो. डॉ. बहादुर सिंह परमार के विचार हैं जिनमें उन्होंने पर्वों के संबंध में लिखा है कि- ‘‘प्रेम, करुणा, दया, क्षमा, उदारता त्याग तथा परोपकार जैसे कविता के केंद्रीय भाव रहे हैं। इन भागों का प्रभाव सकारात्मक और व्यापक होता है, इससे मानवता पुष्ट होती है। मानवीय मूल्यों का संरक्षण, संस्कृति का केंद्रीय आधार होता है, पर्व संस्कृति के अभिव्यक्ति स्वरूप होते हैं। भारतीय समाज में उत्सवधर्मिता का पक्ष बड़ा सशक्त है। हर पर्व उत्साह एवं उल्लास से मनाया जाता है।’’
वहीं, ‘‘मन की बात’’ में कथावाचक श्रीमती संध्या श्रीवास्तव ‘‘संध्या’’ ने संग्रह के मर्म को उद्घाटित किया है- ‘‘होरी रे बरजोरी रे’’, मात्र एक साझा काव्य संग्रह ही नहीं, बल्कि हमारे मन की बात है। इसमें प्रतिभागिता करने वाले सभी रचनाकारों की भावनाओं संवेदनाओं का अनूठा काव्य संग्रह है। यह प्रत्येक रचनाकार के आसपास के परिवेश, संस्कार और होली जैसे त्यौहार की उमंग का अनुपम दस्तावेज है।’’
संग्रह की संपादक शोभा शर्मा ने लिखा है कि ‘‘होरी रे बरजोरी रे - काव्य संग्रह हम सबकी संस्कृतिक चेतना, उमंगों का प्रतिबिंब है। इसमें हमने बुन्देली साहित्य रचयिता कवियों/कवियत्रियों की उत्कृष्ट रचनाएँ, जिनमें चैकड़िया / कवित्त/रसिया/ कुण्डलियां/गीत/ फागें/होरी/ सवैया/ छंद/किस्से/ पद/ मुक्तक /दोह / कह मुकरी/ हिन्दी की पूर्णिका/तुकांत/अतुकांत भाव पूर्ण कविताएं, जो सभी होली विषय पर ही आधारित हैं, संकलित किए हैं।’’
इसमें कोई संदेह नहीं है कि शोभा शर्मा अपने प्रयास में पूर्णतया सफल रही हैं। उन्होंने होली की फागुनी रचनाओं का सुंदर चयन कर के यह संग्रह तैयार किया है। इसकी विशेषता यह भी है कि इसमें चयनित सभी कवि एवं कवयित्रियां छतरपुर की हैं। अतः कहा जा सकता है कि यह संग्रह छतरपुर के कवि एवं कवयित्रियों की रचनाओं का संग्रह है। माना कि किसी भी शहर अथवा जिले में कवियों की पर्याप्त संख्या रहती है किन्तु उनमें से उचित का चयन करना एवं उनसे समय पर रचनाएं प्राप्त करना एक श्रमसाध्य एवं धैर्य वाला काम है। फिर इसमें स्थानीय बुराई-भलाई की भी भरपूर संभावना बनी रहती है। जिस रचनाकार को शामिल न किया जाए, वह अपनी रचना की शिथिलता को नहीं देखेगा, बल्कि बुरा मान जाएगा कि उसे पूछा नहीं गया, जबकि फलां-फलां को शामिल किया गया। वहीं संपादक के समक्ष चुनौती होती है कि पाठकों के सम्मुख रखे जाने वाला संग्रह इतना सुगठित, परिपक्व एवं रोचक हो कि पाठक उसे पसंद करें। इसमें उसकी संपादकीय प्रतिष्ठा दांव पर लगी होती है। इस संदर्भ में संपादक शोभा शर्मा ने अपनी पूरी कुशलता का परिचय दिया है। उनके द्वारा चयनित रचनाएं न केवल संग्रह के फागुनी विषय का प्रतिनिधित्व करती हैं, वरन बुंदेलखंड की फागुनी परंपराओं का स्मरण कराती हुईं उस बाल्यावस्था तक अतीत में ले जाती हैं जहां होली का अर्थ रंग भरा हुल्लड़ होता था।
इस सम्वेत संग्रह के सभी रचनाकार चूंकि बुंदेलखंड के हैं अतः उनकी हिन्दी रचनाओं में यत्र-तत्र बुंदेली शब्दों का आस्वाद मिलता है। वहीं कुछ रचनाएं पूर्णतया बुंदेली में भी हैं। किन्तु इतनी सरल, सहज बुंदेली कि सभी के समझ में आने योग्य। उदाहरण के लिए शोभा शर्मा का ही यह एक पद्यांश देखें-
जे होरी के हुरियारे फिर रए, हाथन लएं गुलाल।
बैर भाव सब भूल कैं, रखियो ना मन में मलाल।
आम बौरा रए बगियन में, गुंजत भ्रमर सब ओर।
मौसम होरी खेल रओ है, दिगदिगन्त चहुं ओर।
जैसे हुरियारों के बिना होली अधूरी रहती है वैसे ही सखियों के बिना होली खेलने की कल्पना ही नहीं की जा सकती है। डॉ रेखा ने सखियों के संग की होली का बहुत सुंदर वर्णन किया है-
होली खेलें वामा सखियाँ, करती सतरंगी बौछार,
हंसी ठिठोली प्रेमिल होली, पग-पायल झन्कार।
बात जब होली खेलने की हो तो राधा और कृष्ण की होली की याद आना स्वाभाविक है। श्रीमती विमल बुंदेला ने अपनी काव्य रचना में राधा-मोहन की होली का प्रसंग प्रस्तुत किया है जिसकी दृश्यात्मकता मनमोहक है। वे लिखती हैं-
प्रेम के रंग ने मोह लिया मोहिनी को,
मन ही मन राधा मनमोहन की होली,
बरसा है रास रंग गोप ग्वालिनो संग,
कान्हा के ऊपर रंग डाले राधा भोली।।
होली खेलने के दौरान जब कोई एक व्यक्ति दूसरे पर पिचकारी से रंगों की धार डालता है तो उसमें मात्र रंग नहीं होता है बल्कि उसमें उसका प्रेम भी घुला रहता है। देखा जाए तो होली आत्मीयता एवं प्रेम को प्रकट करने का भरपूर अवसर देती है। कवयित्री संध्या श्रीवास्तव ‘‘संध्या’’ ने रंगों की धार के प्रभाव को अपनी कविता में पिरोया है-
होली आई रंग बिरंगी लेकर आज नेह फुहार,
हर दिल में उल्लास जगा झूम रहा ये संसार।
शिव जी का वंदन हुआ आज हिमाचल द्वार,
गौरा जी संग गौरीपति हर्षित छाई अब बहार।।
वहीं, कवयित्री आभा श्रीवास्तव के होली गीत में प्रकृति पर फागुनी सौंदर्य एवं लक्षणों का वर्णन है-
टेसू हर्षाया, गुलाल लहराया,
उड़ी चुनरिया गोरी की।
आम्र मंजरी बौराई है।
किया धारण स्वर्णिम परिधान,
उल्लास भरी कूककोयल की।
कवि अमर सिंह राय ने अपनी कविता में विरह पक्ष को उठाया है। फागुन का रंग भरा त्यौहार हो और ऐसे में उसका प्रिय रोजी-रोटी के चक्कर में परदेस गया हो तो मन तो उदास होगा ही-
स्वामी मेरे कमाने गए थे शहर।
बाद होली के आएँगे आई खबर।
पूछने पर उन्होंने कहा प्यार से,
क्या करें यार ऐसा है पेशा मेरा।।
पर्व होली का बिन रंग सूखा रहा।
प्यार की चाह में मन ये भूखा रहा।
तो ये थीं संग्रह के 44 कवि-कवयित्रियों में से कुछ बानगी। समूचा संग्रह फागुनी भावरंगों से सराबोर है। मुद्रण बेहतर है तथा संग्रह का आमुख आकर्षक है। इस तरह के सम्वेत संग्रहों की अपनी विशिष्ट उपादेयता होती है। ये क्षेत्रीय प्रतिभाओं को सामने लाने एवं उनमें उत्साह का संचार करने में सहायता करते हैं। साहित्यकार रामस्वरूप दीक्षित ने होली विशेषांकों का स्मरण करते हुए इस संग्रह के कलेवर पर बतौर भूमिका सटीक टिप्पणी की है कि ‘‘साहित्य में शायद सबसे ज्यादा रचनाएं होली पर ही होंगी। बड़ी-बड़ी पत्रिकाएं होली विशेषांक निकालती रही हैं, जिनकी बिक्री सबसे ज्यादा रही। इस संग्रह में शोभा जी ने जिस तरह से रचनाओं का चयन किया है, उसे देखते हुए लगता है कि यह संग्रह हिंदी के साझा संकलनों के बीच अपनी अलग तरह की पहचान बनाने में सफल होगा।’’
कुलमिला कर ‘‘होरी रे बरजोरी रे’’ होली की फागुनी रचनाओं पर केन्द्रित एक रोचक संग्रह है, जिसमें वरिष्ठ एवं नवोदित सभी रचनाकार एक साथ उपस्थित हैं। निःसंदेह यह सम्वेत संग्रह पठनीय है।
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(19.08.2025 )
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सुंदर समीक्षा
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