Wednesday, August 13, 2025

चर्चा प्लस | मैंने ‘‘राष्ट्रधर्म’’ के लिए उसे चुन लिया है जिसे राष्ट्रधर्म की समझ है | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस           
मैंने ‘‘राष्ट्रधर्म’’ के लिए उसे चुन लिया है जिसे राष्ट्रधर्म की समझ है
 - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                 
       15 अगस्त 1947 को देश को स्वतंत्रता प्राप्त हो गई किन्तु इसके साथ ही विभाजन का दंश भी मिला था जिसने हर भारतीय की आत्मा को झकझोर दिया था। ऐसे समय में देश के नागरिकों में राष्ट्र के प्रति उत्साह की नवीन ऊर्जा का संचार करना आवश्यक था। यह याद दिलाना जरूरी था कि स्वतंत्रता प्राप्ति की एक बड़ा लक्ष्य पा लिया है किन्तु अब नवीन राष्ट्र को नए सिरे से स्थापना देने के लिए सबको जुटना होगा। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए ‘‘राष्ट्रधर्म’’ का प्रकाशन आरम्भ हुआ। अब आवश्यकता थी राष्ट्रधर्म का सच्चा अर्थ समझने वाले संपादक की।
          अटल बिहारी वाजपेयी में राजनीतिक समझ, साहित्यिक प्रतिभा और लेखन की प्रभावी कला थी। उनकी ये विशेषताएं एक न एक दिन उन्हें सफलता के उच्चतम शिखर तक पहुंचाने वाली थीं। अटल बिहारी यदि चाहते तो वे तत्काल सफलता प्राप्त करने का कोई छोटा रास्ता भी चुन सकते थे किन्तु वे किसी भी ‘शाॅर्टकट’ में विश्वास नहीं रखते थे। उनका उस समय भी मानना था कि ‘‘जो श्रम करके प्राप्त किया जाए, वही सुफलदायी होता है और स्थायी रहता है।’’ कर्म के प्रति आस्था रखने वाले अटल बिहारी ने श्रम का मार्ग चुना। वे जनसेवक बनना चाहते थे। दिखावे के जनसेवक नहीं, वरन् सच्चे जनसेवक। वे जनता के सहभागी बन कर काम करना चाहते थे, जनता से दूर रह कर नहीं। उनकी यह अभिलाषा उनके भाषणों और लेखों में मुखर होती रहती। अतः जब पं. दीनदयाल उपाध्याय को एक पत्रिका प्रकाशित करने का विचार आया तो प्रश्न था कि उस पत्रिका का संपादक किसे बनाया जाए? क्योंकि पं. दीनदयाल स्वयं संपादन का भार ग्रहण नहीं करना चाहते थे। ऐसी स्थिति में उन्हें सबसे पहला नाम अटल बिहारी का ही सूझा।
सन् 1946 में स्वतंत्रता संग्राम अपनी चरम स्थिति पर जा पहुंचा था। सन् 1947 के आरम्भिक महीनों में अंग्रेज सरकार को भी समझ में आ गया था कि अब उनके भारत से जाने का समय आ गया है। 15 अगस्त, 1947 को देश स्वतंत्र हो गया किन्तु इससे पहले देश के बंटवारे का दंश देश की आत्मा को घायल कर चुका था।
बंटवारे से उपजा अविश्वास का वातावरण फन फैलाए था। ऐसे में सौहार्द स्थापित किया जाना आवश्यक था। इसी विकट समय सभी दुरूह प्रश्नों के उत्तर जन-जन तक पहुंचाने के लिए पं. दीनदयाल उपाध्याय ने समाचारपत्र को माध्यम बनाने का निश्चय किया और सन् 1947 में पं. दीनदयाल उपाध्याय ने ‘राष्ट्रधर्म प्रकाशन लिमिटेड’ की स्थापना की थी जिसके अंतर्गत क्रमशः स्वदेश, राष्ट्रधर्म एवं पांचजन्य नामक पत्र प्रकाशित हुए।
‘राष्ट्रधर्म’ का प्रकाशन आरम्भ करने से पूर्व आवश्यकता थी एक अत्यंत योग्य संपादक की, जो पं. दीनदयाल उपाध्याय के विचारों को भली-भांति समझते हुए पत्रिका को सही स्वरूप प्रदान कर सके। चूंकि दीनदयाल उपाध्याय स्वयं संपादक पद पर रह कर बंधन स्वीकार नहीं करना चाहते थे, अतः उन्होंने यह महत्त्वपूर्ण दायित्व अटल बिहारी वाजपेयी को सौंपने का निर्णय किया। उपाध्याय जी ने अटल बिहारी को लखनऊ बुला दिया। अटल बिहारी ने भी ‘राष्ट्रधर्म’ के संपादन का भार सहर्ष स्वीकार कर लिया।  

राजधानी लखनऊ के राजेंद्र नगर स्थित आरएसएस मुख्यालय के ठीक बगल में राष्ट्रधर्म का काम शुरू हुआ था। सन 1947 में अटल बिहारी वाजपेयी ‘‘राष्ट्रधर्म’’ के पहले संपादक बने। देश स्वतंत्र होने के बाद राष्ट्रवाद की अलख जगाने के उद्देश्य से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की योजना के अनुसार प्रकाशित राष्ट्रधर्म पत्रिका में लेखन और फिर उसकी छपाई का काम शुरू हुआ था। उस दौर में ट्रेडइल और विक्टोरिया फ्रंट जैसी छोटी मशीनों में पत्रिका और अखबारों की छपाई का काम होता था। धीरे-धीरे करके यह काम अटल जी के नेतृत्व में आगे बढ़ा और उनके नेतृत्व में लोगों को राष्ट्रवाद के विचार मिलने शुरू हो गए। राष्ट्रधर्म में लेखन और उसके वितरण का काम अटल बिहारी वाजपेयी खुद करते थे। अटल बिहारी वाजपेयी ने ‘‘राष्ट्रधर्म’’ को अपने धर्म की भांति सम्हाला। वे समाचार लिखते थे, लेख लिखते थे, संपादकीय लिखते थे और छपने के बाद उसे हर व्यक्ति तक पहुंचाने के लिए लखनऊ की गलियों में साइकिल से भी राष्ट्रधर्म बांटने का काम भी किया करते थे। उनकी इस विशेषता को पहचानते हुए ही दीनदयान उपाध्याय ने ‘‘राष्ट्रधर्म’’ के लिए जब संपादक के रूप में अटल बिहारी वाजपेयी को चुना उस दौरान मनोहर आठवले ने उनसे पूछा कि ‘‘आप राष्ट्रधर्म के लिए संपादक ढूंढ रहे थे, कोई मिला कि नहीं?’’
इस पर दीनदयाल उपाध्याय ने संतोष भरे स्वर में उत्तर दिया कि ‘‘मैंने ‘राष्ट्रधर्म’ के लिए उसे चुन लिया है जिसे राष्ट्रधर्म की समझ है।’’
फिर जैसे ही दीनदयाल उपाध्याय ने अटल बिहारी का नाम लिया तो मनोहर आठवले के मुख से निकला,‘‘उत्तम चयन!’’
15 अगस्त 1947 को देश आजाद हुआ और 31 अगस्त 1947 को राष्ट्रधर्म का पहला अंक निकला. स्वतंत्रता प्राप्ति के ठीक 16वें दिन राष्ट्रधर्म का पहला अंक निकला था अतः उसे विशिष्ट होना ही था। अटल जी ने अपनी कविता ‘‘हिंदू तन मन हिंदू जीवन, हिन्दू रग-रग, हिन्दू मेरा परिचय’’ को राजधर्म के प्रथम अंक में प्रथम पृष्ठ पर प्रकाशित किया। कविता के प्रथम दो बंद थे-
हिन्दू तनदृमन, हिन्दू जीवन, रगदृरग हिन्दू मेरा परिचय!
मैं शंकर का वह क्रोधानल कर सकता जगती क्षारदृक्षार।
डमरू की वह प्रलयदृध्वनि हूँ, जिसमे नचता भीषण संहार।
रणचंडी की अतृप्त प्यास, मै दुर्गा का उन्मत्त हास।
मै यम की प्रलयंकर पुकार, जलते मरघट का धुंआधार।
फिर अंतरतम की ज्वाला से जगती मे आग लगा दूं मैं।
यदि धधक उठे जल, थल, अंबर, जड चेतन तो कैसा विस्मय?
हिन्दू तन-मन, हिन्दू जीवन, रग-रग हिन्दू मेरा परिचय!

मैने दिखलाया मुक्तिमार्ग, मैने सिखलाया ब्रह्मज्ञान।
मेरे वेदों का ज्ञान अमर, मेरे वेदों की ज्योति प्रखर।
मानव के मन का अंधकार, क्या कभी सामने सका ठहर?
मेरा स्वर्णभ मे घहर-घहर, सागर के जल मे छहर-छहर।
इस कोने से उस कोने तक, कर सकता जगती सोराभ्मय।
हिन्दू तन-मन, हिन्दू जीवन, रग-रग हिन्दू मेरा परिचय!

तथा, कविता के अंतिम दो बंद थे -
होकर स्वतन्त्र मैने कब चाहा है कर लूँ सब को गुलाम?
मैने तो सदा सिखाया है करना अपने मन को गुलाम।
गोपाल-राम के नामों पर कब मैने अत्याचार किया?
कब दुनिया को हिन्दू करने घर-घर मे नरसंहार किया?
कोई बतलाए काबुल मे जाकर कितनी मस्जिद तोडी?
भूभाग नहीं, शत-शत मानव के हृदय जीतने का निश्चय।
हिन्दू तन-मन, हिन्दू जीवन, रग-रग हिन्दू मेरा परिचय!

मै एक बिन्दु परिपूर्ण सिन्धु है यह मेरा हिन्दु समाज।
मेरा इसका संबन्ध अमर, मैं व्यक्ति और यह है समाज।
इससे मैने पाया तनदृमन, इससे मैने पाया जीवन।
मेरा तो बस कर्तव्य यही, कर दू सब कुछ इसके अर्पण।
मै तो समाज की थाति हूँ, मै तो समाज का हूं सेवक।
मै तो समष्टि के लिए व्यष्टि का कर सकता बलिदान अभय।
हिन्दू तन-मन, हिन्दू जीवन, रग-रग हिन्दू मेरा परिचय!

यद्यपि यह प्रथम अंक निकालना भी कोई आसान काम नहीं था। पहले अंक की 3500, दूसरे अंक की आठ हजार और तीसरे अंक की 12000 प्रतियां निकली थीं। पत्रिका लोकप्रिय हुई, प्रसार बढ़ा, पाठक बढ़े किन्तु इसी के साथ काम भी बढ़ गया। अटल जी को अपने ही हाथ से कंपोजिंग करना रहता था और राष्ट्रधर्म के बंडल साइकिल पर लेकर उनको बांटने के लिए जाना पड़ता था। इतनी विषम परिस्थिति में अटल जी काम करते थे। किन्तु उनकी इसी जीवटता के कारण इस युवा संपादक की पहचान पूरे देश में स्थापित हो गई थी।
अटल बिहारी के संपादन में ‘राष्ट्रधर्म’ ने शीघ्र ही लोकप्रियता प्राप्त कर ली। उनके संपादकीय लेख लोग रुचि से पढ़ते। समाचारपत्र की प्रसार संख्या और प्रशंसकों की संख्या लगातार बढ़ने लगी। पं. श्रीनारायण चतुर्वेदी, अमृतलाल नागर, महादेवी वर्मा एवं डाॅ. रामकुमार वर्मा भी अटल बिहारी के संपादकीय लेखों के प्रशंसक थे। ‘राष्ट्रधर्म’ का पहला अंक 31 अगस्त, 1947 को प्रकाशित हुआ। पाठकों द्वारा इसका भरपूर स्वागत हुआ। राष्ट्रधर्म प्रकाशन लिमिटेड ने आगे चल कर न केवल अटल बिहारी वाजपेयी वरन् वचनेश त्रिपाठी, महेन्द्र कुलश्रेष्ठ, गिरीश चन्द्र मिश्र तथा राजीवलोचन अग्निहोत्री जैसे महानुभावों को पत्रकारिता के क्षेत्र में स्थापित किया। इसी के साथ ‘राष्ट्रधर्म’ का वह उद्देश्य भी पूरा हुआ जिसके लिए इसका प्रकाशन आरम्भ किया गया था। उद्देश्य था राष्ट्रवासियों के मन में उत्साह संचार करना एवं नवीन लक्ष्यों की ओर ध्यानआकर्षित करना ताकि एक सृदुढ़ स्वतंत्र भारत आकार ले सके।
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(दैनिक, सागर दिनकर में 13.08.2025 को प्रकाशित)  
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1 comment:

  1. एक सृदुढ़ स्वतंत्र भारत के निर्माण में अटल जी के योगदान को कौन भूल सकता है, उन्हें शत शत नमन

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