-डॉ.(सुश्री) शरद सिंह
आकाश में काले-काले बादलों के छाते ही मन में उमंग जाग उठती है। मन करता है कि उड़ कर बादलों को छू लिया जाए। इसी इच्छा को पूरी करने के लिए वृक्षों की शाखाओं पर झूले डाल दिए जाते हैं और उन झूलों पर बैठ कर ऊंची-ऊंची पींगें लेने की होड़ लग जाती है। झूला झूलने वाला हर व्यक्ति बादलों को सबसे पहले अपनी मुट्ठी में भर लेना चाहता है। विशेष रूप से युवतियां और किशोरियां झूला झूलना चाहती हैं क्यों कि झूलों का आनन्द उनके किशोरवय के सपनों जैसा होता है। सावन मास आते ही झूले डाले जाने की परम्परा द्वापर युग से चली आ रही है। जब श्रीकृष्ण ब्रज की गोपियों के साथ जी भर कर झूला झूलते थे और सावन की ठंडी फुहारों का आनन्द लेते थे। बुन्देलखण्ड में भी यह परम्परा यहंा की प्राचीनतम परम्पराओं में से एक है। बुन्देलखण्ड यूं भी सांस्कृतिक परम्पराओं का धनी है। बुन्देली साहित्य और संस्कृति में एक अनूठापन और कच्ची मिट्टी-सा सोंधापन है। जगनिक, ईसुरी और पद्माकर जैसे कवियों ने जहंा इसके साहित्य को समृद्ध किया है वहीं लोकगीतों और लोककथाओं ने इसकी लोकपरम्पराओं को जीवित रखा है।
सैरे की धूम - सावन मास आते ही गांव-गांव में सैरे गाए जाने लगते हैं। इसे मूलतः सावनगीत कहा जा सकता है। जिस प्रकार श्रीकृष्ण और गोपियों के प्रेमरस से भीगे गीत सावन की ऋतु को ऊर्जा प्रदान करते हैं, ठीक उसी तरह सैरे भी प्रेमरस से भीगे हुए गीत होते हैं। इसे युवक और युवतियां उल्लासपूर्वक गाते हैं। कुछ गीत सिर्फ युवक ही गाते हैं। इन गीतों में प्रेम के साथ ही हास-परिहास और व्यंग-विनोद भी होता है। परस्पर बातचीत भी होती है और छेड़खानी भी होती है।
एक युवती अपनी सहेली की बांह में कसे हुए बाजूबंद को देखकर उसे छेड़ती हुई प्रश्न करती है-
भुजों में चुभ लागे
कै मासे के जे बाजूबन्दा,
कै मासे के कुन्दा?
सहेली उत्तर देती है-
नौमाशे के जे बाजूबंदा
दस माशे के कुन्दा।
छेड़ने वाली युवती कहां चुप बैठने वाली? वह चुटकी काअती हुई पूछती है?
कौने गढ़ा दए जे बाजूबन्दा?
कौने जड़ा दए कुन्दा?
उत्तर मिलता है-
राजा गढ़ा दए जे बाजूबंदा
छैला जड़ा दए कुन्दा।
युवती देखती है कि उसकी सहेली इतने पर भी शरमाकर मुंह नहीं छिपा रही है तो उसका साहस बढ़ जाता है। वह इससे भी आगे बढ़ कर पूछती है-
काहे में टूटे जे बाजूबन्दा?
काहे में उड़ गए कुन्दा?
सहेली भी कम नहीं है। वह उन्मुक्त भाव से उत्तर देती है-
तानत में टूटे जे बाजूबंदा
दचकन उड़ गए कुन्दा।
प्रश्न पूछने वाली युवती को अपनी सहेली की निर्भीकता पर गर्व होता है। उसकी सहेली प्रेम को अपराध नहीं बल्कि सहज प्रवृति के रूप में स्वीकार कर रही है और स्पष्ट शब्दों में बता रही है कि प्रेमालाप के दौरान बाजूबन्द टूट गया और कुन्दा खुल गया। यह स्पष्टता जहंा एक ओर बुन्देली युवतियों की निर्भीकता और स्पष्टता को उजागर करती है वहीं तन-मन पर पड़ने वाली सावन की छाप को भी वर्णित करती है।
सावन के आने पर सैरा गीतों के माध्यम से अपनी उन सहेलियों को भी याद किया जाता है जो ससुराल में रह रही हैं। इन गीतों की विशेषता यह है कि इसमें अपनी सहेली का नाम जोड़ कर इन्हें गाया जाता है। जैसे-
कौन-सी गुंइयां सासरे,
माई सावन आए।
‘सीता’ सी गुंइया सासरे
माई सावन आए।
इसमें ‘सीता’ के स्थान में लता, मीना, शोभा आदि उस सहेली का नाम लिया जाता है जिसे सावन में याद किया जा रहा हो। आखिर सावन प्रियजन की स्मृतियों को जगा जो देता है।
सावन मास का महत्व भी सैरा गीत में याद दिलाया जाता है-
सदा न तुरैयां, अरे फूले
ने सदा रे सावन होय।
सदा ने राजा अरे रन जूझें
सदा ने जीवे कोय।
अर्थात् तुरैया की बेलें सदा नहीं फूलती हैं और न सावन सदा रहता है। जैसे युद्ध में राजा को सदा विजय नहीं मिलती और कोई भी सदा जीवित नहीं रहता है।
राछरे और कजरिया गीत - सावन मास में ही राछरे गीत गाए जाते हैं। राछरे गीत मुख्य रूप से स्त्रियां गाती हैं किन्तु कभी-कभी पुरुष भी इसे गाते हैं। इन गीतों में विवाहिताओं की उन स्मृतियों का विवरण होता है जो उनके मायके से जुड़ी होती हैं। इन गीतों में वे अपने माता-पिता, भाई-बहन, सखी-सहेली आदि को याद करती हैं। ये गीत चक्की चलाते हुए, झूला झूलते हुए और अन्य घरेलू काम करते हुए गाए जाते हैं। जबकि कजरियां गीत श्रावण शुक्ल नवमीं को कजरियां बोने से शुरू होते हैं। सावन की नौवमी तिथि को स्त्रियां झुण्ड के रूप में मिट्टी लेने जाती हैं। पहले उस स्थान की पूजा की जाती है जहंा से मिट्टी खोली जानी होती है फिर गेंहू ओर जौ के दाने मिट्अी में दबा कर मिट्टी खोदी जाती है। उस मिट्टी को घर ला कर मिट्टी के बरतनों में रख कर उसमें गेंहू या जौ बो दिया जाता है। इन दानों को रोज सींच कर बड़ा किया जाता है। कजरिया के रूप में बढ़ने वाली गेंहू की पौध अच्छी पैदावार के लिए शगुन की भांति होती है।
कजरिया बोने के समय कजरिया गीत गाए जाते हैं। कभी-कभी राछरे गीत भी कजरियों के साथ गाए जाते हैं। कजरियों की राछरों में आल्हा-ऊदल के युद्धों का वातावरण भी मिलता है। जैसे एक गीत में मंा अपनी बहन और बेटी को कजरिया सिराने के लिए बुला रही है किन्तु साथ में यह भी चेतावनी दे रही है कि वह किसी दुश्मन के हाथ न पड़ जाए अन्यथा कुल की प्रतिष्ठा धूल में मिल जाएगी।
धरी कजरियां तरा के पारैं, बिटिया आन सिराव
टूटी फौजें दुस्मन की बहिना, भगने हो भग जाओ।
हांत न परियो तुम काऊ के, लग जैहे कुल में दाग।।
आल्हा गायन - आल्हा जोश और मस्ती का काव्य है। सावन के बादलों के घिरते ही आल्हा काव्य की अनेक पंक्तियां वातावरण में सरसता घोलने लगती हैं। यह मूलतः वीररस का काव्य है किन्तु इसमें श्रंृगार रस के विभन्न रूपों का भी रसास्वादन होता है। आल्हा काव्य में जगनिक ने बड़े ही सुन्दर ढंग से सावन के बादलों से बरसने का आग्रह किया है। नवविवाहिता रानी कुसुमा बादलों से प्रार्थना करती है कि वे उसके महलों पर इतना बरसें कि उसका प्रिय उसे छोड़ कर न जा सके और उसकी आंखों के सामने बना रहे।
कारी बदरिया तुमको सुमरों, कौंधा बीरन की बलि जाऊं
झमकि बरसियो मोरे महलन पै, कंता आज नैनि रह जाएं।।
मेंहदी के रंग और चपेटा का संग- बुन्देलखण्ड पर प्रकृति की विशेष कृपा सदा रही हैं यहां के सघन वन वर्षा की बूंदों को आकर्षित करते रहे हैं। सावन आते ही मेंहदी की झाड़ियों के पत्ते चटख, गहरे हरे रंग में अपनी छटा बिखेरने लगते हैं। यही पत्ते जब पिसने के बाद हथेलियों पर लगाए जाते हें तो सुन्दर लाल रंग की छाप छोड़ जाते हैं। सावन का महीना हथेलियों पर मेंहदी रचाने का आमन्त्रण देने लगता है। आजकल बनी-बनाई मेंहदी भी बाजार में उपलब्ध हो जाती है जिससे मेंहदी लगाने का चाव परम्परागत रूप से प्रवाहमान है।
सावन आते ही चपेटा का खेल भी खेला जाने लगता है। सुदूर ग्रामीण अंचलों में आज भी किशोंरियां चपेटा खेलती हुई दिखाई दे जाती हैं। सावन की झड़ी में बाहर निकल कर खेल पाना कठिन होता है अतः घर के भीतर बैठ कर खेला जाने वाले खेल का लोकप्रिय होना स्वाभाविक है। ये पत्थर के छोटे-छोटे टुकड़ों अथवा लाख के टुकड़ों से खेला जाने वाली खेल है। इन टुकड़ों को ‘चपेटा’ या ‘गुट्टा’ कहा जाता है। जो युवतियां लाख के सजावटी लाख के चपेटे नहीं खरीद पाती हैं, वे कंकडों को चपेटों के रूप में काम में लाती हैं। यह बहुत रोचक खेल है। इसमें बाकायदा दाम दिए और लिए जाते हैं। हार-जीत होती है।
लपटा और पकौड़े - सावन का महीना हो और लपटा या भजिए-पकौड़े न खाए जाएं तो सावन का मजा अधूरा लगता है। ये दोनों व्यंजन गरमा-गरम खाए जाते हैं। चूंकि ये दोनों व्यंजन बेसन से बनते हैं इसलिए इसमें अजवाइन का होना बहुत जरूरी होता है। अजवाइन स्वाद भी बढ़ाता है और पाचक तत्व का काम भी करता है।
बुन्देलखण्ड में सावन का जो आनन्द है वह कहीं और नहीं है। इसी संदर्भ में अंत में मेरा यह गीत-
सावन की बूंद जो झरे,
बरसाती दिन, अब जा के हुए हरे।
यादों ने कूक फिर लगाई
झूलों में झूले अंगनाई
अंाखों के कूप दो भरे
बरसाती दिन, अब जा के हुए हरे।
हरियाये बेल और बूटे
मन तोड़े बंधन के खूंटे
तन कब तक धीर को धरे
बरसाती दिन, अब जा के हुए हरे।
चूनर ने पत्र लिख दिया
धानी रंग, रंगा है जिया
काग़ज़ की नाव भी तरे
बरसाती दिन, अब जा के हुए हरे।
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