Tuesday, October 14, 2025

पुस्तक समीक्षा | बुंदेली मिठास का काव्यात्मक आग्रह है “ई कुदाऊँ हेरौ” | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

पुस्तक समीक्षा | बुंदेली मिठास का काव्यात्मक आग्रह है “ई कुदाऊँ हेरौ” | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण


पुस्तक समीक्षा
बुंदेली मिठास का काव्यात्मक आग्रह है “ई कुदाऊँ हेरौ”
- समीक्षक डॉ (सुश्री) शरद सिंह
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(बुन्देली काव्य संग्रह)  - ई कुदाऊँ हेरौ
कवयित्री   - डॉ. प्रेमलता नीलम
प्रकाशक  - भव्या पब्लिकेशन
एल. जी. 42, लोअर ग्राउण्ड, करतार आर्केड, रायसेन रोड भोपाल, मध्यप्रदेश- 462023
मूल्य    - 300/-
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खंचत हारी, घुँघटा खेंचत नयना
जे दोऊ हैं अनारी
इन नयनों से बचकें रइयो,
रामधई देखत चढ़त तिजारी ।
भाल पै बिंदिया चम-चमके कानन करनफूल दम-दमके,
ठुसी, तिदानें, हमेल लटकें
करधनी पैरें, झूलन झूलाबारी।
  “ई कुदाउँ हेरौ” बुंदेली कविता की यह पंक्तियां बुंदेलखंड की रससिक्कतता की परिचायक हैं।  “ई कुदाउँ हेरौ” का अर्थ है इस तरफ देखो। एक स्त्री जब पूरा साज श्रृंगार कर लेती है तो उसके बाद वह चाहती है कि उसका प्रिय उसे जी भर कर देखें, उसके सौंदर्य की, उसके साज- सज्जा की प्रशंसा करें । यही भाव इस कविता में है जिसकी कवयित्री हैं डॉ. प्रेमलता नीलम। बुंदेलखंड में बुंदेली में लिखने वालों में एक चिरपरिचित नाम है डॉ प्रेमलता नीलम का। उनका नाम मंचों पर सम्मान सहित जाना जाता है। बुंदेली भूमि में जन्मी डॉ नीलम बुंदेली संस्कृति में रची बसी हैं। उन्होंने बुंदेली संस्कृति पर काफी सृजन किया है। उनकी यह कृति “ई कुदाउँ हेरौ” तेरहवीं कृति है।
        “ई कुदाउँ हेरौ” में संग्रहीत सभी काव्य रचनाओं को उनकी भाव भूमि के अनुसार चार खंड में विभक्त किया गया है। प्रथम खण्ड है देववंदना। इसमें सभी देव वंदनाएं रखी गई हैं। जैसे- गणेश वंदना, सरस्वती वन्दना, मझ्या दुरगा वन्दना, शिव आराधना, दूल्हा देव हरदौल तथा मातु पारवती अराधना (तीजा)।
             दूसरे खण्ड में “हमाऔ बुन्देलखण्ड” शीर्षक से जो रचनाएं संग्रहीत हैं उनमें बुंदेलखंड की विशेषताएं सहेजी गई है जैसे बुंदेलखंड के वीर नर- नारी तथा ग्रामीण अंचल की विशेषताएं आदि। इस खंड की कविताओं के शीर्षक देखिए जिनसे इसका कलेवर स्पष्ट हो जाएगा- मोरौ प्यारौ बुन्देलखण्ड,
रानी दुर्गावती, देवी दुर्गा अवतार, सुभद्रा कुमारी चौहान, बुन्देलखण्ड की वीरांगना, लक्ष्मी बाई, राजा वीर छत्रसाल, आल्हा ऊदल, हमाओ पियारो, हमाये गाँव,, भारत-माता, तिरंगी चुनरिया, हिलमिल रइयो, गाँव की सुद आऊत तथा रसवंती बोली बुन्देली।
        सुभद्रा कुमारी चौहान का स्मरण करते हुए, उन्हें अपना अपनत्व पूर्ण जिज्जी का संबोधन देते हुए डॉ नीलम ने ये पंक्तियां लिखी हैं-
जिज्जी बुंदेलखंड की भौतऊ नौनी शान, कवयित्री सुभद्रा कुमारी जूं चौहान
बुंदेलखंड के भइया बिन्नू हरों कौ,
भौतऊ नौनौ बढ़ाऔ है उनने मान,
जिज्जी जूं खौं बारम्बार प्रनाम ।

        तीसरे खण्ड में ऋतु संबंधी कविताएं हैं। जैसे- मन-बसंत, दुपरिया, सदसौ, उरेती की बूँदन, रिमझिम फुहार, वन - बसंत, बासंती - बयार, होरी के रंग, बीत हैं फिर दिन तपन के, स्यामा सांवरे घन साँवरे, घामौ, बैरन बदरिया, मनमीत, होरी के ढंग, परि पात, नजरिया, बाबरे, बदरा, मौसम आओ, आसा, फिर आई , होरी, सरद-रात, शीत लहर, कछु पतों नई, श्याम रंग, ठिठोली, कलुआ, गाँव में उमरिया, बदरिया - थम जा घनश्याम।
      तपते हुए जेठ मास की स्थिति का वर्णन करते हुए कवयित्री ने लिखा है- कछु पतों नई
कबे निकरो जेठ मास,
कबे आओ अषाढ़ मास
कछु पतौ नई चलौ ।
पहार सो दिन कड़ गओ,
कबे ऊं सूरज डूब गओ 
गइयन की ने डारी घांस
कछु पतौ नई चलौ ।
         चतुर्थ खण्ड में प्रेमानुरागी कविताएं हैं जैसे-  हिरदय बसिया, ई कुदाउँ हेरौ, खुनखुना, हँसन तुमाई, बिरथा उछाह, दुलार, जगो भोर भई, गुगुदी सी, गुइंयाँ, मनुआँ, सखी री, वीरन वेगिं अइयो, बैठ सकूटर पै, गुइयाँ पढ़बे चलो,-सुधियाँ, छिया-छियौऊअल, पिया अंगना, जीवन को उजियारो, मामुलिया, प्रेम, चलती बिरियाँ, पीरा, लोरी, उठो धना, भरत नैन मतारी, लौ लइयों, प्रीत अपुन की,  हिय के जियरा, सुद्ध बैहर, हरे मोरे राम जू, पुरखों की बगिया, कुंजन वन सी, नोने बुन्देली व्यंजन,  जीवन नइया, मन के तार, सुद्ध पानूँ,  नइयाँ पिया घरै, आऊँने पर है, कोयलिया कारी, बातन को धांसू तथा मन की पीर।
     इस खंड में एक बहुत छोटी सी किंतु बहुत महत्वपूर्ण रचना है “बैठ सकूटर पै” जिसमें दिखावा पसंद युवा पीढ़ी पर कटाक्ष किया गया है-
इन लरकन ने सबरी पूँजी
फैसन में गवांई
कै सुनो मोरे भाई..........
जुल्फे पारें छल्लादार कुरती ओछी चुन्नटदार समझ नै आवें नर कै नार
रंगी भौहें, मूंछो की कर दई सफाई..

डॉ प्रेमलता नीलम की रचनात्मकता के संबंध में भूमिका लिखते हुए डॉ श्यामसुंदर दुबे जी ने उचित लिखा है कि “बुन्देली की परंपरागत लोक कविता और आधुनिक कवियों द्वारा रचित कविताओं में वह राग-विराग-निष्ठा विधमान है। 'ई कुदाउँ हेरौ' बुंदेली काव्य रचनाओं का संकलन है। यह सुप्रसिद्ध कवयित्री डॉ. प्रेमलता नीलम द्वारा रचित है। बुन्देली भावों का इंद्रधनुषी उजास इस संकलन को मनोरम्य बनाती है।”
       इसी प्रकार संग्रह की रचनाओं के प्रति अपने मनोभाव व्यक्त करते हुए महेश सक्सेना ने लिखा है- "ई कुदाउँ हेरौ- बुन्देली काव्य संग्रह में गीत प्रस्तुत है जिनमें रागात्मकता और लालित्य है। गीतों की सरंचना में लोकजीवन बिम्व और प्रतीकों का चयन किया गया है। डॉ. नीलम के बुन्देली गीतों में गेय तत्व की प्रधानता है। बुन्देलखण्ड की अनोखी छटा इस पुस्तक में समाहित है। यह रचनायें लोक जीवन में प्रचलित धुनों पर गायकों द्वारा गायी जाएंगीं। "ई कुदाउँ हेरौ" पुस्तक में वीर पुरुष छत्रसाल, रानी दुर्गावती, रानी लक्ष्मीबाई, आल्हा ऊदल, लोक देवता हरदौल तथा प्रकृति से जुड़े मौसमी भावविचार श्रृंगार की छटा दृष्टिगोचर होती है। इन रचनाओं में पाठकों के मन में हर्षोल्लास जागृत होता है।”
     किसी भी बोली का विकास एवं संरक्षण तभी संभव है जब उस बोली में अधिक से अधिक साहित्य सृजन किया जाए ताकि वह बोली कविता, कहानी, कहावतों आदि के रूप में जन-जन तक पहुंचे। “ई कुदाउँ हेरौ” डॉ प्रेमलता नीलम की एक ऐसी काव्य कृति है जो बुंदेली काव्यात्मकता से तो जोड़ती ही है साथ ही बुंदेली संस्कृति एवं जीवन से भी जोड़ने का कार्य करती है। इस संग्रह की कविताएं बुंदेली जीवन से भली-भांति परिचित कराने में सक्षम है तथा इनका माधुर्य लोक जीवन को हृदय में सहज ही उतार देता है। चूंकि डॉ प्रेमलता नीलम बुंदेलखंड के दमोह शहर की निवासी हैं उनकी बुंदेली में दमोह अंचल की छाप है। हर बोली कि यह विशेषता होती है कि वह हर 100 कोस में कुछ न कुछ भाषाई परिवर्तन सहेज लेती है, देखा जाए तो यही बोली का लालित्य होता है। डॉ नीलम की लालित्यपूर्ण काव्य रचनाओं का यह बुंदेली काव्य संग्रह पठनीय एवं रोचक है। दरअसल, बुंदेली मिठास का काव्यात्मक आग्रह है “ई कुदाऊँ हेरौ” अर्थात जरा बुंदेली संस्कृति की ओर देखो।
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