पुस्तक समीक्षा | आकलन की समग्रता रखती है एक विशेष अर्थवत्ता संदर्भ ‘चांद गवाह’ | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण
पुस्तक समीक्षा
आकलन की समग्रता रखती है एक विशेष अर्थवत्ता संदर्भ ‘चांद गवाह’
- समीक्षक डॉ (सुश्री) शरद सिंह
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पुस्तक - चांद गवाह-उर्मिला शिरीष : स्त्री, प्रेम और प्रकृति का पर्याय
संपादक - डाॅ. बिभा कुमारी
प्रकाशक - अमन प्रकाशन, 104-ए/80 सी, रामबाग, कानपुर-208012 (उप्र)
मूल्य - 525/-
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हाल ही में लेखिका डाॅ बिभा कुमारी के संपादन में एक पुस्तक आई है -‘‘ चांद गवाह-उर्मिला शिरीष : स्त्री, प्रेम और प्रकृति का पर्याय’’। यह हिन्दी साहित्य की सुपरिचित कथाकार उर्मिला शिरीष के उपन्यास ‘‘चांद गवाह’’ पर केन्द्रित है। किसी पुस्तक का लिखा जाना, उसका प्रकाशित हो कर पाठकों तथा समालोचकों तक पहुंचना एवं उस पर लोगों के विचार तय करते हैं कि वह पुस्तक कालजयी तत्वों से युक्त है या नहीं। यह प्रक्रिया किसी त्वरित टिप्पणी की अपेक्षा अधिक समय की मांग करती है तथा उसका महत्व भी त्वरित टिप्पणी से कहीं अधिक एवं विश्वसनीय होता है। मिथिला विश्वविद्यालय के विश्वेश्वर सिंह जनता महाविद्यालय, राजनगर में हिन्दी की विभागाध्यक्ष डाॅ बिभा कुमारी द्वारा संपादित यह पुस्तक उन सभी लेखों एवं समीक्षाओं का संकलन है जो उर्मिला शिरीष के उपन्यास ‘‘चांद गवाह’’ पर हैं। इस उपन्यास पर मैंने भी अपनी समीक्षात्मक कलम चलाई थी और ‘‘आचरण’’ के इसी काॅलम में वह समीक्षा प्रकाशित हुई थी। मेरी वह समीक्षा भी इस पुस्तक में शामिल की गई है। उर्मिला शिरीष के उपन्यास ‘‘चांद गवाह’’ का आकलन करते हुए मैंने लिखा था कि ‘‘फ्रांसीसी दार्शनिक रूसो ने कहा था कि ‘‘मनुष्य स्वतंत्र जन्म लेता है किन्तु जीवन भर सर्वत्र जंजीरों से जकड़ा रहता है।’’ यह प्रसिद्ध कथन उनकी पुस्तक ‘‘सोशल कांट्रेक्ट’’ में मौजूद है। सोशल कांट्रेक्ट अर्थात् सामाजिक अनुबंध या और सरल शब्दों में कहा जाए तो सामाजिक बंधन। यह सामाजिक बंधन प्रत्येक व्यक्ति को समाज के नियमों के अनुरूप जीने को बाध्य करता है। सामाजिक व्यवस्था की बात की जाए तो इसके अंतर्गत सबसे बड़ी व्यवस्था है वैवाहिक संबंध। समाजशास्त्रियों के अनुसार विवाह विषमलिंगी व्यक्तियों के परस्पर मिलन से कहीं अधिक गंभीर अर्थ रखता है। विवाह वह संस्था है जो बच्चों को जन्म देकर सामाजिक ढांचे का निर्माण करती है। विवाह पुरुषों और स्त्रियों को परिवार में प्रवेश देने की संस्था है। विवाह के द्वारा स्त्री और पुरुष को यौन सम्बन्ध बनाने की सामाजिक स्वीकृति और कानूनी मान्यता प्राप्त हो जाती है। विवाह परिवार का प्रमुख आधार है, जिसमें संतान के जन्म और उसके पालन-पोषण के अधिकार एवं दायित्व निश्चित किये जाते हैं। समाजशास्त्री जाॅनसन का मानना है कि ‘‘विवाह के सम्बन्ध में अनिवार्य बात यह है कि यह एक स्थाई सम्बन्ध है जिसमें एक पुरुष और एक स्त्री समुदाय में अपनी प्रतिष्ठा को खोए बिना सन्तान उत्पन्न करने की सामाजिक स्वीकृति प्राप्त करते हैं।’’ वहीं बोगार्ड्स मानते हैं कि ‘‘विवाह स्त्री और पुरुष के पारिवारिक जीवन में प्रवेश करने की संस्था है।’’ भारतीय सामाजिक व्यवस्था में पश्चिमी समाजों की अपेक्षा विवाह का सर्वाधिक महत्व है। इसीलिए भारतीय समाजशास्त्रियों मजूमदार और मदान का कहना है कि ‘‘विवाह एक सामाजिक बंधन या धार्मिक संस्कार के रूप मे स्पष्ट होने वाली वह संस्था है, जो दो विषम लिंग के व्यक्तियों को यौन संबंध स्थापित करने एवं उन्हें एक दूसरे से सामाजिक, आर्थिक संबंध स्थापित करने का अधिकार प्रदान करती है।’’ लेकिन क्या हमेशा वैसा ही होता है जैसा कि समाजशास्त्र की संकल्पनाओं, धारणाओं, व्यवस्थाओं और परिभाषाओं में लिखा हुआ है? नहीं, हमेशा इस प्रकार की नियमबद्धता नहीं रह पाती है क्योंकि विवाह मात्र एक कानूनी अनुबंध नहीं होता है अपितु इससे बढ़ कर मानसिक अनुबंध होता है जिसमें पति-पत्नी के बीच परस्पर प्रेम और भावनाओं का सम्मान करने की बुनियादी शर्त होती है। इसीलिए बेमेल अथवा इच्छाविरुद्ध विवाह की स्थिति में वैवाहिक संबंध बिखरते चले जाते हैं। जब टूटन सारी सीमाएं लांघ जाती हैं तो विवाह-विच्छेद ही विकल्प बचता है। किन्तु भारतीय समाज में विवाह-विच्छेद आसान नहीं है। कानून एक निश्चित अवधि के ‘‘सेपरेशन पीरियड’ के बाद विच्छेद पर मुहर लगा देता है किन्तु समाज का रुख हमेशा कठोर रहता है। विशेषरूप से स्त्री के पक्ष में। भारतीय समाज एवं परिवार स्त्री को विवाह-विच्छेद की अनुमति सहजता से नहीं देता है। स्त्री को ही हर तरह से विवश किया जाता है कि वह अपने वैवाहिक संबंध को हरहाल में निभाए। इस संबंध में बड़ा दकियानूसी-सा डाॅयलाॅग हुआ करता था जिसका भारतीय सामाजिक सिनेमा में बहुतायत प्रयोग किया जाता था, जब पिता अपनी बेटी को ससुराल विदा करते हुए कहता था कि ‘‘अब तू पराई हो गई। जिस घर में तेरी डोली जा रही है वहां से तेरी अर्थी ही उठना चाहिए।’’ यानी वह हर विषम परिस्थिति को झेलती हुई अपनी ससुराल में जीवन पर्यन्त टिकी रहे। इसी धारणा के चलते दहेज हत्याओं के प्रकरण बहुसंख्यक रहे हैं।
ये सभी समाजशास्त्रीय विवरण तब अपने आप जागृत हो उठे जब हिन्दी साहित्य की प्रतिष्ठित कथाकार उर्मिला शिरीष का ताजा उपन्यास ‘‘चांद गवाह’’ पढ़ा। स्त्रीपक्ष के उन संदर्भों को इस उपन्यास में उठाया गया है जो मानसिक प्रताड़ना का एक कोलाज़ सामने रखते हैं। उस कोलाज़ को देखते हुए यही प्रश्न मन में कौंधता है कि क्या एक स्त्री अपनी इच्छानुसार अपना जीवन जी सकती है? बड़ा पेंचीदा प्रश्न है। समाज की पहली पंक्ति में मौजूद अपनी सफलता की कहानियां अपनी अंजुरी में उठाई हुई स्त्रियों को देख कर यह भ्रम होता है कि वे अपनी इच्छानुसार अपना जीवन जी पा रही हैं। जबकि सच्चाई इससे ठीक उलट होती है। विवाह के ‘‘सोशल कांट्रेक्ट’’ में सबसे अधिक समझौते स्त्री को ही करने पड़ते हैं। उस पर यदि यह संबंध दबाव डाल कर थोप दिया गया हो तो एक घुटन भरी ज़िन्दगी उनके नाम दर्ज़ हो जाती है। अधिकांश स्त्रियां हालात से समझौता कर लेती हैं किन्तु कुछ विद्रोह का साहस जुटा लेती हैं। उपन्यास ‘‘चांद गवाह’’ को पढ़ते हुए विद्रोही नायिका दिशा का विद्रोह अनेक बार असमंजस में डाल देता है। क्योंकि हम परंपरावादी समाज में रहते हैं और जब वैवाहिक परंपराएं टूटती हैं तो संबंध कांच की तरह टूट कर बिखर जाते हैं और उसकी किरचें देह एवं आत्मा को लहूलुहान करती रहती है।’’
उर्मिला जी का यह उपन्यास अपने आप में अनेक विशेषताओं से परिपूर्ण है। इसमें स्त्रीविमर्श के साथ गाढ़ा समाज विमर्श भी है। बिभा कुमारी ने पुस्तक की भूमिका ‘‘स्त्री अस्तित्व का दायरा पर्यावरण, पृथ्वी, पानी, आकाश से चाँद की गवाही तक’’ में ‘‘चाँद गवाह’’ के संदर्भ में लिखा है कि ‘‘समाज तो सदियों से ऐसा ही है। उपन्यास में भी तो वहीं प्रतिक्रियाएं, टिप्पणियाँ व्यक्त हुई हैं जो समाज में होती हैं। दिशा का भाई ही कह देता है कि तुम संदीप से शादी कर लो तो पति कह देता है कि असली खसम तो संदीप ही है। लेखिका ने कुछ भी अपनी तरफ से कहाँ जोड़ा है, उन्होंने तो समाज की कटु सच्चाई को उपन्यास में ज्यों का त्यों पिरो दिया है। दिशा का चरित्र उपन्यासकार ने जिस दृढ़ता से गढ़ा है, वह अत्यंत प्रेरणादायी है। इतने प्रश्नचिन्हों में घेर दिए जाने पर भी वह अपने लक्ष्य से हटती नहीं है। चरित्र निर्माण भी उत्तम शिल्प की पहचान है। उपन्यास का विषय जितना सामयिक और सशक्त है, शिल्प भी उतना ही सुगढ़ है। सरल सहज, संक्षिप्त संवादों के माध्यम से उपन्यासकार ने जो प्रभाव उत्पन्न किया है, वह पाठकों को जैसे नींद से जगाने का कार्य करता है। दिशा एक असाधारण स्त्री के रूप में पाठकों के सामने आ उपस्थित होती है। संवादों में सम्प्रेषण की क्षमता भरपूर है। शैली अपनी नवीनता से भी पाठकों की रुचि को संतुष्ट करता है, उपन्यास अपने कलेवर के भीतर नाटक, कविता, कहानी इत्यादि विधाओं को इतनी भली-भाँति सजाकर पाठकों के सामने परत दर परत खुलकर अपना प्रदर्शन करता है जैसे वह कोई पहुँचा हुआ कलाकार हो, जिसकी कलाकारी से प्रभावित हुए बिना कोई रह न सके। उपन्यास में कविता की भाँति बिम्ब की उपस्थिति है। चाक्षुष, श्रव्य, घ्राण, स्पर्श लगभग सभी बिंबों का प्रयोग सफलतापूर्वक हुआ है। बेशक उपन्यास की पृष्ठभूमि में भारतीय समाज है पर उपन्यास के भीतर से संपूर्ण विश्व की कटु सच्चाई समझ में आती है कि संपूर्ण विश्व का समाज पुरुष प्रधान है, ये बात अलग है कि भारतीय स्त्री के सामने सामाजिक विसंगतियां विकसित देशों की स्त्रियों की तुलना में अधिक हैं। परिवार और समाज में अपने सभी दायित्वों का निर्वहन करती स्त्री के भीतर के व्यक्ति को जीवित रख पाने की कोशिश को दिशा बखूबी साकार करती है। मित्रता के विशुद्ध मायने ढूँढने का विकल्प एक स्त्री रख सकती है, यह किसी को सहजता से स्वीकार कहाँ हो पा रहा है। दिशा को झुकाने और तोड़ने के प्रयास जब विफल हो जाते हैं तब पाठक भी जैसे सुकून की गहरी साँस लेते हैं, क्योंकि दिशा सचमुच जीवन को सकरात्मकमक दिशा प्रदान करने में सफल हुई है।’’
डाॅ बिभा कुमारी अपनी भूमिका में ही अंत में लिखती हैं कि ‘‘उपन्यास अपने कथ्य और शिल्प में जब इतना उम्दा हो तो उस पर प्रतिक्रियाएं भी उतनी ही सशक्त आएंगी। इस उपन्यास को पढ़कर पाठकों, समीक्षकों, आलोचकों ने अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करना जरूरी समझा। यह जरूरी भी है कि पुस्तक को पढ़ने के बाद उस पर विस्तार से चर्चा भी की जाए। इस उपन्यास पर भी मुझे लोगों की भरपूर प्रतिक्रियाएं टिप्पणी और समीक्षा के रूप में दिखाई पड़ती रहीं। मुझे ये प्रतिक्रियाएं इतनी महत्वपूर्ण लगीं कि मैंने इन्हें संकलित करना आरंभ कर दिया, और जब ये प्रतिक्रियाएं पर्याप्त संख्या में संकलित हो पाईं तो इन्हें एक पुस्तक के रूप में संपादित करने की तैयारी में जुट गई।’’
जिन आलेखों एवं समीक्षाओं को पुस्तक में शामिल किया गया है वे हैं- उर्मिला शिरीष के उपन्यास की अवधारणा- अरविंद त्रिपाठी, स्त्री के जीवन में प्रेम- आनंद प्रकाश त्रिपाठी, प्रेम के आयतन को व्यापकता प्रदान करने वाला उपन्यास- अरुण होता, प्रेम और ग्राहस्थ जीवन के सवालों का गवाह चाँद अरुणाभ सौरभ, स्त्री स्वाधीनता और प्रेम की अभिव्यक्ति अर्चना त्रिपाठी, बयान दर्ज हुआ है चाँद की गवाही में बिभा कुमारी, स्त्री के लिए चाँद की गवाही का अर्थात है प्रेम चन्द्रकला त्रिपाठी, स्त्री के वजूद और सपनों को दर्ज करता चाँद गवाह हरियश राय, नारीवादी चेतना का अभिनव विस्तार- हीरालाल नागर, चाँद गवाह की हरित आभा के. वनजा, गिद्धों की पहरेदारी से मुक्त होती स्त्री की कहानी चाँद गवाह कांता राय, सामाजिक परिवर्तन की उत्कट अभिलाषा- महेश दर्पण, चाँद पाने का संघर्ष है चाँद गवाह मनीष वैद्य, चाँद ने कही स्त्री के दिल की बातें ममता तिवारी, पारम्परिक माइंडसेट को तोड़कर नये मूल्य स्थापित करता उपन्यास - नीतू मुकुल, मुक्ति के लिए छटपटाती एक स्त्री की कथा- नेहल शाह, चाँद की गवाही में कुकून से निकली नई स्त्री- नीलम कुलश्रेष्ठ, स्त्री संघर्ष की यात्रा चाँद गवाह प्रज्ञा, अनसुलझे सवालों के घेरे में रजनी गुप्त, हरी पृथ्वी का समरस गान- रूपा सिंह, नारी इयत्ता का खुलता आसमान चाँद गवाह - शशिकला त्रिपाठी, स्त्री विमर्श ही नहीं समाज विमर्श भी शरद सिंह, स्त्री स्वाधीनता का वैकल्पिक संसार शशिभूषण मिश्र, समय से आगे की बात करता चाँद गवाह - सुषमा मुनीन्द्र, स्त्री का गीत गाती पृथ्वी और उसका गवाह चाँद - स्मृति शुक्ल, स्त्री मुक्ति का संघर्ष चाँद गवाह सुनीता अवस्थी, सवालों के रू-ब-रू - सूर्यनाथ, चाँद गवाह में स्त्री मुक्ति चेतना सुनील कुमार, प्रेम को जीने की कोशिश चैद गवाह उर्मिला शुक्ल, मदन भारद्वाज सम्मान समारोह के अवसर पर निर्णायक मण्डल की अध्यक्ष के रूप में उपन्यास पर मेरी प्रशस्ति- रोहिणी अग्रवाल।
पुस्तक में ‘‘चांद गवाह ’’ पर चार टिप्पणियां भी हैं-चाँद गवाह रू एक पठनीय और दिलचस्प उपन्यास-धीरेन्द्र अस्थाना, चाँद गवाह : संघर्ष और सौन्दर्य का संगम- गंगाशरण सिंह, पुरुष सत्ता को चुनौती देती दिशा निर्मला भुराड़िया, मुक्ति का निर्णय स्त्री कभी भी ले सकती है- सुधांशु गुप्त। अंत में ‘‘चांद गवाह’’ पर उसकी लेखिका उर्मिला शिरीष से बिभा कुमारी की बातचीत भी है जो ‘‘चांद गवाह’’ की प्रकृति और दृष्टिकोण के बारे में उर्मिला जी के विचारों को और भी अधिक स्पष्टता से समझने में मदद करती है।
डाॅ. बिभा कुमारी ने जितने श्रम के साथ सामग्री को एकत्र कर जितनी कुशलता से संपादन किया है वह प्रशंसनीय है। यह पुस्तक उर्मिला शिरीष के उपन्यास की बारीकियों से परिचित करती हुई एक कृति के आकलन की समग्रता को प्रस्तुत करती है। इस दृष्टि से यह पुस्तक शोधार्थियों के लिए विशेष लाभप्रद है। साहित्यिक पुस्तकों का इस तरह आकलन एवं उनका प्रकाशन सतत रूप से किया जाना चाहिए क्योंकि ऐसी पुस्तकें पुस्तकों, रचनाकारों, पाठकों एवं शोधार्थियों के बीच एक गहरा अंतर्संबंध स्थापित करती है। इसीलिए डाॅ. बिभा कुमारी की यह पुस्तक विशेष अर्थवत्ता रखती है।
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