बतकाव बिन्ना की
अब तो शहर सोई छूटत जा रए
- डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
‘‘कां हो आईं बिन्ना?’’ भैयाजी ने मोसे पूंछी।
‘छतरपुर गई रई। आपके लाने बताओ तो रओ के जाने है।’’ मैंने भैयाजी से कई।
‘अरे हऔ, तुमने बताई तो रई। उते कछू सेमिनार-वेमिनार हतो।’’ भैयाजी बोले।
‘‘हऔ, उते राष्ट्रीय सेमिनार रओ। बड़ो अच्छो टापिक रखो गओ रओ।’’ मैंने बताई।
‘‘का टापिक हतो?’’ भैयाजी ने पूछी।
‘‘बुंदेली कविताओं में पर्यावरण को टापिक रओ।’’ मैंने बताई।
‘‘भौतई अच्छो! ई टाईप के टापिकन पे बतकाव होने बी चाइए। तुमने उते का करो?’’ भैयाजी ने पूछी।
‘‘मैंने उते ‘बुंदेली कविताओं में जल और नदियां’ वारे सत्र की अध्यक्षता करी। सो शोध करबे वारन को शोधपत्र बी सुनबे खों मिलो। अच्छो रओ सब कछू। ऊंसई जां भैया बहादुर सिंह परमार जू को इंतजाम होए, उते सब अच्छोई रैत आए। बे सबको बरोबरी से खयाल रखत आएं। बाकी उनको जी अच्छो नईं रओ फेर भी उन्ने अपनी पीरा की कोनऊं खों भनक नई लगने दई औ सब काम करत रए।’’ मैंने बताई।
‘‘काए का हो गओ रओ उनको?’’ भैयाजी ने पूछी।
‘‘उनको ऊ टेम तक पता पर चुकी रई के उनकी माताराम के बचबे की कोनऊं उमींद नइयां। बे अपने जी दाबे फेर भी सब काम करत रए। औ उधनई रात की दस बजे माताराम शांत हो गईं। तनक सोचो आप के उनपे का गुजरी हुइए।’’ मैंने कई।
‘‘अरे, राम-राम! जेई तो एक बात आए जी पे कोनऊं को बस नईं चलत। बाकी सई में बड़ी हिम्मत दिखाई उन्ने। बे नाटक वारे का कैत आएं के ‘शो मस्ट गो आॅन’ मने चाए कछू हो जाए मंच पे सब कछू चलत रैन चाइए। जिम्मेवारी इंसान को सब कछू सहना सिखा देत आए। बाकी, बड़ो दुख भओ जा खबर जान के। जो उनसे बात होए तो हमाई तरफी से बी उने ढाढस बंधाइयो। ने तो हमें नंबर दइयो, हम खुदई बात कर लेबी।’’ भैयाजी दुखी होत भए बोले।
‘‘हऔ, अभई व्हाट्सएप्प कर देबी। बात कर लइयो।’’ मैंने कई।
मताई-बाप चाए कित्ते बी उम्मर के हो जाएं, चाए कित्ते बी बुढ़ा जाएं मनो उनको साया सिर पे बनो रए सो अपनो बालपन बचो रैत आए। फेर मताई सो मताई होत आए।
‘‘औ, छतरपुर को रस्ता कैसो आए? रोडे बन गईं उते की?’’ भैयाजी ने पूछी। काए से के बे समझ गए के मोए अपनी मताई की याद आन लगी हुइए औ अभईं मोरो जी फटन लगहे। सो उन्ने बात पलटी।
‘‘सागर से छतरपुर की रोडें? सई बताएं तो आधी फर्राटा आएं औ आधी घर्राटा आएं।’’ मैंने कई।
‘‘का मतलब? फर्राटा सो समझ में आई, बाकी घर्राटा समझ में नई आई।’’ भैयाजी ने पूछी।
‘‘मतलब जे के जां तक रोड बन गई है, उते तक तो गाड़ी फर्राटा सी भग रई हती। फेर जां-जां अबे बी काम चल रओ आए उते सम्हर-सम्हर के चलबे की रई। औ ऊपे उते काम करबे वारे डम्पर अंधरन घांई दौड़ रए हते। उनसे सोई बच-बुचा के चलने हतो। बाकी जे आए के जित्ती रोड बन गई, उत्ती तो चकाचक आए। मनो मक्खन घांई।’’ मैंने बताई।
‘‘खैर बाकी बी बनई जैहे।’’ भैयाजी बोले।
‘‘हऔ, काम तो मनो बड़ो आए पर उते रात औ दिन काम हो रओ सो सालों ने लगहें।’’ मैंने कई।
‘‘फेर, ई दफे फेर बंडा रुकी रईं? बे शायर साब से मिलबे के लाने?’’ भैयाजी ने पूछी।
‘‘मायूस सागरी जू से? नईं ई दफे तो बंडा ई नई मिलो तो बे कां से मिलते?’’ मैंने कई।
‘‘बंडा नईं मिलो? का मतलब? जे आज तुम कोन टाईप से गोलमोल बोल रईं?’’ भैयाजी झुंझलात भए बोले।
‘‘मैं कछू गोलमाल नई बोल रई। सूदी बात आए के ई बेर बंडा नईं मिलो। मोरे संगे जो भैयाजू गए रए उनसे मैंने कई के कर्रापुर के बाद बंडा परहे। मनो काए खों? कर्रापुर से चलत-चलत शाहगढ़ आ गओ मनो बंडा ने मिलो।’’ मैंने बताई।
‘‘ऐं? ऐसो कैसे हो सकत आए?’’ भैयाजी खों भारी अचरज भओ।
‘‘बो का आए के अब जे जो रोडें बन रईं बे फोर लेन, सिक्स लेन वारी बन रईं, सो बे शहर से बायरे बाईपास से कढ़ जात आएं। जेई में शहर छूटत जा रए। ई दफा बंडा छूटो, अगली बेरा जाबे में कओ शाहगढ़ ने मिले। बा रोड सोई बायरे से कढ़ रई।’’ मैंने भैयाजी खों बताई।
‘‘सो जे बात आए। सई कई तुमने। देखो पैले अपने ओरे लखनऊ जात्ते तो रस्ते में कानपुर के भीतरे से जाने परत्तो। भौतई तो जाम लगत्तो औ परदूषन से जी मचलान लगत्तो। बाकी उते शहर औ चैराए की गदर देख के मजो बी आउत्तो। पर अब बायरे-बायरे से कढ़ जाओ, सो पतई नईं परत के कबे कानपुर कढ़ गओ।’’ भैयाजी बोले।
‘‘मनो ईसे टेम सोई बचत आए।’’ मैंने कई।
‘‘हऔ टेम सो बचत आए, मनो असल शहर छूटत जा रए। काए से के फोर लेन होए चाए सिक्स लेन होए, उनके लिंगे सगरे खेत मिटा के नई बस्तियां बसन लगीं। धंदा-रुजगार सो चलत रोड पे ई चलहे। मनो जे नईं बस्तियां बजार वारी ठैरीं। चमक-दमक वारीं। जे अपनी सी कोन लगत आएं।’’ भैयाजी बोले। बात उन्ने पते की कई।
‘‘हऔ भैयाजी! बात सो आप सई कै रए मनो जां बिकास हुइए उते कछू खोने बी परहे। जे तो हमेसई से चलत आ रओ।’’ मैंने भैयाजी से कई।
‘‘खोने तो परत आए मनो अब कछू ज्यादई तेजी से अपन खोत जा रए। चैड़ी रोडन के लाने खेत बिकत आएं, जंगल कटत आएं औ पहाड़ मिटत आएं। ई सब को कित्तो हर्जा होत आए। तनक सोचो।’’ भैयाजी बोले।
‘‘जा तो सई कै रए आप। मैंने सोई उते रोड के कनारे-कनारे बूढ़े पुराने पेड़न के कटे ठूंठ डरे देखे। उने देख के लग रओ तो के उते कोनऊं कत्लेआम भओ रओ होए। बे पेड़ सौ-दो सौ साल पुराने रए हुइएं। औ बदले में नए पेड़ बी नई लगाए जा रए। बाकी होटलें औ सरकारी आउटलेट मुतकींे खुल गईं। बाकी इन ओरन को दिल्ली की दसा से कछू सबक लेओ चाइए। जेई-जेई में सो दिल्ली नरक बनी जा रई। औ जेई ढंग को बिकास होत रओ तो इते बी हवा साफ करबे वारी मशीन ले के रैने परहे।’’ मैंने कई।
‘‘जेई तो बाजार को फंडा आए बिन्ना! पैले पब्लिक वारो पानी सुकाओ औ फेर बोतलन में भर-भर के पानी बेचों। ऐसई हवा खों बिषैली बनाओ और फेर ऊको साफ करबे वारी मशीन बेचों। जैसे गंदे पानी को साफ करबे वारी मशीने बिकत आएं। पैले तो ऊंसई पियत्ते, ने तो कपड़ा से छान लेओ तो काम चल जात्तो अब तो आरो पे बी बीमार परत रैत आएं।’’ भैयाजी बोले।
‘‘हऔ, काए से के डाक्दरन और दवा वारों को बी तो खयाल राखने।’’ मैंने हंस के कई।
‘‘चलो तुम ओरें कां की ले के बैठे! इते आओ इते गुरसी तप गई। चलो तापो तुम ओरें।’’ भौजी हम ओरन के लिंगे गुरसी धरत भईं बोलीं।
रामधई! जड़कारे में गुरसी से साजो कछू नईं।
बाकी बतकाव हती सो बढ़ा गई, हंड़िया हती सो चढ़ा गई। अब अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लों जुगाली करो जेई की। मनो सोचियो जरूर के जो मेन रोडन से शहर कटत जा रए उनपे का असर हुइए?
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बुंदेली कॉलम | बतकाव बिन्ना की | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | प्रवीण प्रभात
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