Tuesday, June 18, 2024

पुस्तक समीक्षा | शायर हरेराम समीप के दमदार शेरों का लुभावना संग्रह | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

प्रस्तुत है आज 18.06.2024 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई हरेराम समीप जी के काव्य संग्रह "चुने हुए शेर" की समीक्षा।
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पुस्तक समीक्षा    
शायर हरेराम समीप के दमदार शेरों का लुभावना संग्रह                           
- समीक्षक डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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पुस्तक  - चुने हुए शेर
कवि   - हरेराम समीप
प्रकाशक  - लिटिल बर्ड पब्लिकेशन, 4687/20, शाॅप नं. एफ-5,प्रथम तल, हरि सदन, अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली - 110002 
मूल्य     - 160/- 
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शायरी काव्य की वह विधा है जो अमूमन हर पाठक के दिल को छू जाती है। वर्तमान साशल मीडिया के जमाने में लम्बी शायरी से कहीं अधिक पढ़े और लिखे जाने लगे हैं दो लाईन की शायरी अर्थात् शेर। लम्बी शायरी में से भी कुछ शेर ऐसे  होते हैं जो लम्बे समय तक याद रह जाते हैं और लोगों की जुबान पर चढ़ जाते हैं। ऐसे शेरों में वह दम रहता है कि वे आमजन के बीच से संसद के गलियारों तक दोहराए जाते हैं क्यों कि इनमें सचबयानी होती है। चूंकि सच हमेशा दिल को छूता है इसलिए ऐसे शेर भी दिल और दिमाग में अपनी जगह बना लेते हैं। मीर तकी मीर का यह एक शेर हर किसी को याद रहता है जबकि पूरी ग़ज़ल कम ही लोगों को याद रह पाती है-‘‘राह-ए-दूर-ए-इश्क़ में रोता है क्या/आगे आगे देखिए होता है क्या।’’ इसी तरह मिर्जा गालिब का शेर -‘‘ये न थी हमारी किस्मत कि विसाल-ए-यार होता/ अगर और जीते रहते यही इंतिजार होता।’’ और फिर यदि दुष्यंत कुमार की बात की जाए तो हौसलाअफ़ज़ाई के हर मौके पर उनका यह शेर याद आ जाता है कि -‘‘कैसे आकाश में सूराख़ नहीं हो सकता /एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो।’’

तात्पर्य यह है कि किसी ग़ज़ल के हर शेर के बजाए कोई एक या दो शेर पूरी ग़ज़ल और शायर के प्रतिनिधि बन कर छा जाते हैं और उनकी धमक दशकों तक सुनाई पड़ती है। इसीलिए एक ही कवि या शायर के चुने हुए शेरों का संग्रह भी उतना ही पसंद किया जाता है जितना की एक ग़ज़ल संग्रह।

‘‘चुने हुए शेर’’ यह काव्य संग्रह है चर्चित ग़ज़लकार हरेराम समीप के चुने हुए शेरों का। इसकी भूमिका लिखी है कुसुमलता सिंह ने। इस संग्रह में हरेराम समीप के वे चुनिंदा शेर हैं जो बेहद चर्चित हुए और जिन्होंने पाठकों के मानस में अपनी जगह बना ली। हरेराम समीप की ग़ज़लगोई की यह विशेषता है कि वे ऐसी उपमाएं चुनते हैं जो जनजीवन के सबसे निकट होती है जिससे शेर पढ़ते समय पाठक उसके शब्दों में स्वयं को पाता है और उसे वह शेर अपना-सा लगता है। जैसे उन्होंने अपने एक शेर में समय को शार्पनर और ज़िन्दगी केा पेंसिल कहा है। शेर देखिए- 
वक्त के इस शार्पनर में जिन्दगी छिलती रही 
मैं बनाता ही रहा  इस पेंसिल को नोंकदार।

ऐसा शेर भला याद क्यों नहीं रह जाएगा? इस एक शेर में किसी भी आमआदमी के जीवन संघर्ष की पूरी कथा को महसूस किया जा सकता है। एक आम इंसान अपना जीवन बेहतर बनाने के लिए पूरे जीवन भर जूझता रहता है। यदि वह बेहतर ज़िन्दगी मिल भी जाए तो इसकी कोई गारंटी नहीं होती है कि वह कब छिन जाएगी? बिलकुल एक पेंसिल की नोंक की तरह। कई बार पेंसिल को और नुकीला बनाने के प्रयास में उसकी नोंक ही टूट जाती है। आम आदमी की ज़िदगी की उपलब्धियां भी इसी तरह अनिश्चत रहती हैं। दरअसल, शार्पनर की उपमा सब कुछ कह जाती है।
यह माना जाता है कि काव्य पीड़ा से उपजता है। मिथुनरत निरीह क्रौंच पक्षी के. वध होने से क्षुब्ध वाल्मीकि ऋषि के मुख से निकले श्लोक को संस्कृत काव्य का प्रथम श्लोक माना जाता है - ‘‘मा निषाद प्रतिष्ठां त्वगमःशास्वतीः समाः।’’ शायरी भी भी पीड़ा से उपजी हुई मानी जाती है। इसी प्रचलित मान्यता को आत्मसात करते हुए कवि हरेराम समीप ने अपने इस शायरी में अपने शेर को दुख से उत्पन्न माना है। वे कहते हैं-    
ग़ज़ल का शेर हूँ बेशक दुखों का जाया हूं
मैं अपने वक़्त  की  उम्मीद का सरमाया हूं

शायरी में जब भावनाएं मुखर हो कर सामने आती हैं तो उनमें सच्चाई की आंच भी होती है। एक निडर कवि इस आंच को अपनी पंक्तियों में पिरोने में माहिर होता है। ऐसा करते हुए वह किसी भी जोखिम से घबराता नहीं है क्यों कि वह सच बोलना चाहता है, बुराई को मिटा कर अच्छाई को स्थापित करना चाहता है। जैसे समीप जी का यह शेर देखिए-
सुलगते शब्द हाथों में उठाए चल रहा हूं मैं
मुझे मालूम है इस राह में दरिया नहीं आता।

एक कवि के लिए उसकी कविता किसी शस्त्र से कम नहीं होती है। आखिर शब्द तलवार से कहीं अधिक धारदार साबित होते हैं। यदि फ्रांस का इतिहास उठा कर देख लिया जाए तो लेखकों, कवियों और विचारकों के शब्दों ने एक ऐसी क्रांति को जन्म दिया जिसने राजशाही को उखाड़ फेंका और जनतंत्र की स्थापना कर दी। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में भी कवियों और लेखकों के शब्दों के जोश ने आमजन में स्वतंत्रता पाने की चाह बलवती की। अब यदि कोई मित्र कवि को यह सलाह दे तो उसे शायरी करना छोड़ देनी चाहिए, तो क्या यह एक शायर के लिए संभव है? इस प्रश्न का उत्तर मौजूद है हरेराम समीप के इस शेर में-
दोस्तों की राय है मैं शायरी अब छोड़ दूँ 
जंग में ये आखिरी हथियार कैसे डाल दूँ
एक कवि अपने विचारों की धार को कभी मंद नहीं होने दे सकता है। वह जानता है कि उसका दायित्व है सुप्तप्राय लोगों में अपनी लेखनी से चंतना का संचार करना, लेकिन इसके लिए आवश्यक हो जाता है कि पहले कवि स्वयं हर हाल में जाग्रत कना रहे। इस बात को कहने के लिए शायर हरेराम समीप ने एक बेहद मासम-सी उपमा का प्रयोग किया है जो इस शेर को अलग ही ऊंचाइयों पर ले जाता है-
बच्चे की तरह अपना जगाता हूं मैं जमीर
कहता हूँ सुबह उठ कि तेरा इम्तिहान है।

कवि समीप से छोटे बहर के कई शेर हैं जो अत्यंत चर्चित हुए क्योंकि इनमें गहरा कटाक्ष है। इनमें वे सारे प्रश्न मौजूद हैं जो आमजन अपने आकाओं से करना चाहता है किन्तु कर नहीं पाता है। ऐसे में ये शेर उसे अपनी आवाज़ लगते हैं। कुछ उदाहरण देखिए- 
ये न पूछो है गोल-माल कहां
ये  बताओ है कोतवाल  कहां।

जो गरीबों का है मसीहा आज 
घर उसी का विशाल है यारो।

मुक़दमे में खपा दी उम्र सारी 
बता अब क्या करूँ इस फैसले का

आज इक बेगुनाह कत्ल हुआ 
देखना कल तुम्हारी बारी है

जो तेरा घर जलाकर आ रहा है 
वो मातम में तुम्हारे सम्मिलित है्

सच कहेगा तो जान जाएगी 
बोल क्या चीज तुझको प्यारी

छोटे बहर की शायरी में हरेराम समीप ने गागर में सागर भरने का काम किया है। उनकी तीक्ष्ण दृष्टि राजनीति के हर पैंतरे पर है। वे अपने शेर में कहते हैं - 
ये सियासत हमारे दौरां की
इक नया इंद्रजाल है यारो।

‘‘डुएल पर्सनालिटी’’ मनोविज्ञान में एक डिसआॅर्डर माना जाता है किन्तु आज यह डिसआॅर्डर इंसान के चरित्र में इस तरह घुलमिल गया है कि वह बुरे इंसानों को छांटना या बुरे इंसान को पहचान पाना कठिन हो गया है। इसीलिए कवि समीप कहते हैं कि जहां सब भ्रष्टाचार में लिप्त हों,वहां भष्टाचारियों की गिनती करना कठिन है-
किसे  वाजिब,  किसे  खारिज करेंगे
फसल का जब हर इक दाना घुना है।

आज इंसान की सच्चाई को जानना भी कठिन हो गया है। हर चेहरे पर एक नहीं अनेक मुखौटे रहते हैं-
बना जो मसीहा, सदाक़त का पैकर 
मिला रात मुझको मुखौटा उतारे

इसी बात को अपने एक और शेर में कवि समीप ने कुछ इस तरह कहा है-
दोस्ती किससे निभाऊँ और किससे दुश्मनी 
लोग चारों ओर मिलते हैं मुखौटों में सभी

इस संग्रह में एक बहुत ही उम्दा शेर है जिसे यहां रखना जरूरी लग रहा है क्योंकि यह हरेराम समीप के बिम्बविधान को बड़ी बारीकी से रेखांकित करता है-
वो शाख-शाख मेरी काट कर जलाता है
मुझे समझता है सूखे हुए शजर की तरह।
‘‘चुने हुए शेर’’ काव्य संग्रह में हरेराम समीप के जिन शेरों को रखा गया है वे सभी एक से बढ़ कर एक हैं। वस्तुतः यह उनके छंटे हुए, बहुचर्चित दमदार शेरों का लुभावना संग्रह है जिसे पाठक बार-बार पढ़ना चाहेगा और इस संग्रह को अपने पास सहेज कर रखना चाहेगा। यह संग्रह शायर हरेराम समीप की शायरी के अंदाज़ को समझने में भी भरपूर सहायक है।               
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