चर्चा प्लस
रामकथा में है पर्यावरण की अतुलनीय चेतना
- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह
रामकथा एक ऐसी कथा है जो अनेक काव्यों एवं महाकाव्यों में प्रस्तुत की गई है। वाल्मीकि कृत ‘‘रामायण’’ सबसे अधिक लोकप्रिय है और उत्तर भारत में तुलसीदास कृत ‘‘रामचरित मानस’’। विभिन्न भाषाओं एवं विभिन्न देशों में भी रामकथा लिखी गई है। क्योंकि यह कथा सभी के लिए श्रद्धा की पात्र है। लेकिन रामकथा के उन पहलुओं पर गौर नहीं किया जाता है, जिन्हें अगर हम समझ लें, तो हमारी आने वाली पीढ़ियों का भविष्य सुरक्षित हो सकता है। रामकथा सिर्फ एक धार्मिक कथा नहीं है वरन यह एक जीवनशैली है जिसमें हर कदम पर प्राकृतिक तत्वों का महत्व स्थापित किया गया है। एक बार इस दृष्टि से भी रामकथा पढ़ कर देखिए, पर्यावरण के प्रति चेतना जाग उठेगी।
रामकथा में प्रत्येक जड़-चेतन की पारस्परिक महत्ता और उसमें निहित संतुलन को पात्रों के रूप में सामने रखा गया है। तुलसीदास के ‘‘रामचरित मानस’’ की चैपाइयों और दोहों को याद करें तो मनुष्य का समस्त जड़-चेतन से अंतर्सम्बन्ध ज्ञात हो जाता है। पत्थर की बनी अहिल्या, वनवासी मानव, बंदर, जटायु जैसे पक्षी आदि प्रसंग यूं ही नहीं है, बल्कि इनके माध्यम से प्रकृति के महत्व को समझने का संदेश दिया गया है। आज जब हम ग्लोबल वार्मिंग से भयभीत हो कर पर्यावरण चेतना को बढ़ावा देने की बात करते हैं, तो उस समय याद रखना खहिए कि पर्यावरण संतुलन का संदेश हमारे वेदों, पुराणों, उपनिषदों और महाकाव्यों में समाहित है। जो हमारे पूर्वज सैंकड़ों, हजारों वर्ष पूर्व हमारे लिए लिख कर छोड़ गए हैं।
‘‘रामायण’’ और ‘‘रामचरित मानस’’ में वर्णित रामकथा पर्यावरण के प्रत्येक तत्व की महत्ता को प्रस्तुत करती है। वस्तुतः रामकथा केवल धर्म और आस्था से जुड़ी कथा ही नहीं है, बल्कि इसमें पर्यावरण चेतना का अद्भुत रूप देखने को मिलता है। जिसका प्रमाण है कि रामकथा में जीव, आर्जव अर्थात जड़ और चेतन सभी तत्वों को मानवीय दृष्टिकोण से देखा गया है। रामकथा में बंदर, हिरण, हाथी, घोड़े आदि पशुओं का उल्लेख मिलता है। इसी प्रकार मोर, चकोर, तोता, कबूतर, सारस, हंस, कौआ, गिद्ध, चील आदि पक्षियों का महत्वपूर्ण स्थान है। जहां मृग का पत्ते पर विचरण करने का वर्णन और स्वर्ण मृग का वर्णन जंगली पशुओं की उपस्थिति को दर्शाता है, वहीं स्वर्ण मृग की घटना मृग शिकार के दुष्परिणामों को सामने रखती है। जब रावण द्वारा सीता का हरण कर लिया जाता है, तब श्रीराम व्याकुल होकर प्रत्येक प्राकृतिक तत्वों से सीता का पता पूछते हैं। श्रीराम लताओं और वृक्षों से पूछते हैं कि-‘‘हे पक्षी! हे पशु-पक्षियों! हे भौंरों! क्या तुमने मृगनयनी सीता को कहीं देखा है? खंजन, तोता, कबूतर, मृग, मछली, भौंरों का समूह, प्रवीण कोयल तुम बताओ क्या तुमने सीता को देखा है?’’
हे खग मृग हे मधुकर श्रेनी। तुम्ह देखी सीता मृगनैनी।।
खंजन सुक कपोत मृग मीना। मधुप निकर कोकिला प्रबीन।।
रामकथा में कौए और गरुड़ को विशेष स्थान दिया गया है। ये दोनों जंगली और शहरी पक्षियों के प्रतिनिधि समान हैं। कागभुशुंडि, जटायु, सम्पाती और गरुड़ के रूप में पक्षियों का महत्व दर्शाया गया है। कागभुशुंडि वह पात्र हैं, जिन्होंने पक्षीराज गरुड़ को उनकी शंका दूर करने के लिए रामकथा सुनाई थी। जयंत की कथा में जयंत को जीवनदान इसीलिए मिला क्यों कि वह कौए का रूप धर कर पहुंचा था। ‘‘रामचरित मानस’’ में तुलसीदास ने इस कथा का विस्तार से वर्णन किया है। कथा के अनुसार एक बार देवराज इंद्र के पुत्र जयंत ने श्रीराम की परीक्षा लेने की ठानी। उसने कौए का रूप धारण किया और सीता के पास पहुंच गया। उसने सीता के पांव को अपनी चोंच से घायल कर दिया।
सीता चरन चोंच हति भागा। मूढ़ मंदमति कारन कागा।।
चला रुधिर रघुनायक जाना। सींक धनुष सायक संधाना।।
यह देख कर श्रीराम क्रोधित हो उठे। उन्होंने अपने कोदंड नाम के धनुष पर सरकंडे को चढ़ाकर उस कौए पर निशाना साधा। यह देख कर कौए के रूप में आया जयंत भयभीत हो उठा। वह भाग कर अपने पिता देवराज इन्द्र के पास पहुंचा। इन्द्र सहित सभी देवताओं ने उसकी रक्षा करने से मना कर दिया। तब नारद ने उसे सलाह दी कि ‘‘श्रीराम के बाण से कोई तुम्हें नहीं बचा सकता है। उनके बाण से तुम्हारी रक्षा सिर्फ स्वयं श्रीराम ही कर सकते हैं। तुम उन्हीं के शरण में जाओ।’’
पठवा तुरत राम पहिं ताही। कहेसि पुकारि प्रनत हित पाही।।
नारद की सलाह मान कर जयंत श्रीराम के पास पहुंच कर उनके चरणों में गिर पड़ा। तब श्रीराम ने कहा कि वे अपने बाण को वापस तो नहीं ले सकते हैं, लेकिन फिर भी जीवनदान दे सकते हैं। तब श्रीराम ने अपने उस बाण से कौए के रूप में मौजूद जयंत की एक आंख फोड़ दी। उसी दिन से कौए को एक आंख वाला माना जाने लगा। यदि यह कुकर्म जयंत ने अपने वास्तविक रूप में किया होता तो संभवतः श्रीराम उसे जीवनदान नहीं देते, किन्तु कौए के रूप में होने के कारण उन्होंने उसे एक उद्दंड पक्षी मानते हुए मात्र दंड दिया, उसके प्राण नहीं लिए।
पक्षीराज जटायु ने सीता को रावण से छुड़ाने के लिए अपने प्राण तक दांव पर लगा दिए थे। यह भी मानव जीवन में पक्षियों के महत्व को सिद्ध करने वाला प्रसंग है। जब रावण सीता का हरण कर लंका ले जा रहा था, तब जटायु ने सीता को रावण से छुड़ाने का प्रयास किया था। इससे क्रोधित होकर रावण ने उसके पंख काट दिए जिससे वह जमीन पर गिर पड़ा। जब राम और लक्ष्मण सीता को खोजते हुए वहां पहुंचे, तो उन्हें सीता हरण का पूरा विवरण जटायु से ही पता चला।
तब कह गीध बचन धरि धीरा। सुनहु राम भंजन भव भीरा।।
नाथ दसानन यह गति कीन्ही। तेहिं खल जनकसुता हरि लीन्ही।।
स्मरण रहे कि जटायु गिद्ध प्रजाति का था। अर्थात रामकथा हमें बताती है कि जिस पक्षी को हम मरे हुए जानवरों का मांस खाने वाला पक्षी कहकर नीची नजर से देखते हैं, वह भी मानव जीवन के लिए लाभकारी है। वैज्ञानिक दृष्टि से देखा जाए तो गिद्ध उच्च कोटि का सफाईकर्मी है।
रामकथा में अहिल्या की कथा जड़ तत्व के रूप में पत्थर की महत्ता को उजागर करती है। ‘‘रामचरित मानस’’ में अहिल्या को शिला कहा गया है जबकि वाल्मीकि कृत रामायण के बालकाण्ड, सर्ग 48, श्लोक 30 में उसे भस्म अर्थात राख में पड़ी हुई कहा गया है-
वातभक्षा निराहारा तप्यन्ती भस्मशायिनी।
अदृश्या सर्वभूतानामाश्रमेऽस्मिन् वसिष्यसि।।
अर्थात ऋषि गौतम ने अहिल्या को शाप देते हुए कहा कि- ‘‘दुराचारिणी! तू भी यहां कई हजार वर्षों तक केवल हवा पीकर या उपवास करके कष्ट उठाती हुई राख में पड़ी रहेगी। समस्त प्राणियों से अदृश्य रहकर इस आश्रम में निवास करेगी।’’
चाहे राख में दबा पाषाण हो या उजागर शिला, बात एक ही है। वस्तुतः अहिल्या की कथा को वैज्ञानिक दृष्टि से देखा जाए तो पृथ्वी के अकार्बनिक घटकों के निर्माण में कार्बनिक घटकों के मिलने की प्रक्रिया पाई जाती है। विशालकाय वृक्ष जब गिरकर जमीन में दब जाते हैं तो लाखों-करोड़ों वर्षों में पत्थर में बदल जाते हैं। अहिल्या भी पहली जीवित स्त्री थीं, जिसे श्राप देकर चट्टान बना दिया गया था। श्रीराम के चरणों का स्पर्श पाकर वह पुनः जीवित हो उठी। ठीक वैसे ही जैसे वातावरण की अनुकूलता पाकर चट्टानों से अंकुर फूट पड़ते हैं।
रामकथा में जिन जलाशयों जैसे कुएं, नदी, झील और समुद्र आदि का उल्लेख किया गया है, वे सभी जल से भरे हुए हैं, इनमें से किसी में भी जल की कमी का कोई चिन्ह नहीं है। इन जलाशयों का वातावरण स्वच्छ और जलीय जंतुओं से भरा हुआ है। अर्थात त्रेतायुग में जल संरक्षण जीवनशैली का अभिन्न अंग था। किसी को भी जल की कमी का दंश नहीं झेलना पड़ता था। राम कथा में एक मनोरम प्रसंग है जिसमें सीता पहली बार श्री राम को देखती हैं। ऐसा बगीचा जहां सरोवर भी है, कमल भी है, पक्षी कल-कल कह रहे हैं और भौंरे गुनगुना रहे हैं।
मध्य बाग सरु साह सुहावा। मनि सोपान विचित्र बनावा।।
बिमल सलिलु सरसिज बहुरंगा। जलखग कुजत गुंजत भृंगा।।
आज वनों का उत्पादन तेजी से घट रहा है। जब वन ही कम होते जा रहे हैं तो वनों का उत्पादन कहां से अधिक होगा? शहरों के विस्तार ने भी पर्यावरण को भारी क्षति पहुंचाई है। लेकिन रामकथा में शहरों के साथ-साथ गांवों और वनवासियों का भी समान रूप से वर्णन किया गया है। आज हम समुद्र के किनारों को सुखाकर अपनी बस्तियां फैला रहे हैं। यह समुद्र के जल और भूमि पर अतिक्रमण है। इस संदर्भ में उस घटना को याद करना आवश्यक है जब श्रीराम तीन दिनों तक समुद्र की स्तुति करते हैं लेकिन समुद्र पार जाने का रास्ता नहीं देता। तब श्रीराम मानव अवतार के वश में होकर समुद्र पर क्रोधित होते हैं और उसे सुखाने के लिए धनुष पर बाण चढ़ाते हैं। तब समुद्र प्रकट होकर श्रीराम से कहता है कि आप सर्वशक्तिमान हैं, आप चाहें तो मुझे क्षण भर में सुखा सकते हैं लेकिन सूखना मेरा स्वभाव नहीं है। इसलिए आप इसमें सफल नहीं होंगे।
तत्स्वभावो ममाप्येष यदगाधोहमप्लवहः
विकारस्तु भवेद् गाध एतत ते प्रवदाम्यहम।
तब श्रीराम समुद्र से कहते हैं कि आप कोई उपाय बताएं। इस पर समुद्र रामनाम की चट्टानों को जल में तैराने का उपाय बताता है। जिस पर अमल करते हुए वानरों और भालुओं की सेना चट्टानों पर श्रीराम का नाम लिखकर ‘‘रामसेतु’’ बना देती है। अर्थात रामकथा कहती है कि समुद्र हो या नदी, प्रकृति को नुकसान पहुंचाए बिना विकास का रास्ता खोजना चाहिए। लकिन आज हम मनुष्य समुद्र अथवा नदियों के मूल स्वभाव की परवाह किए बिना उस पर अतिक्रमण करते जा रहे हैं, उन्हें गंदा कर रहे हैं।
रामकथा में कहीं भी पर्यावरण असंतुलन या पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने का जिक्र नहीं है। जब लक्ष्मण क्रोध में आकर अपने बाण से जल में आग लगाने को तैयार हो जाते हैं, तो वहां भी जल देवता हमें जल जीवों की रक्षा करने की याद दिलाते हैं और जल जीवों को नुकसान नहीं पहुंचाया जाता। रामकथा में पर्यावरण के हर तत्व को महत्व दिया गया है। इसलिए यदि रामकथा के पर्यावरणीय सार को आत्मसात कर लिया जाए, तो पर्यावरण संरक्षण के मार्ग में आने वाली बाधाओं को आसानी से दूर किया जा सकता है और पर्यावरण चेतना को आम जनमानस तक बहुत आसानी से पहुंचाया जा सकता है।
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