दैनिक 'नयादौर' में मेरा कॉलम - शून्यकाल
शून्यकाल
अपेक्षाओं का पहाड़ ढोती स्त्रियां
- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह
जब से सोनम रघुवंशी कांड हुआ तब से पुरुष प्रधान समाज अचानक चिंतित हो उठा। मीडिया ने उन खबरों को छांट-छांट कर प्रकाशित करना शुरू कर दिया जिनमें कहीं न कहीं अपराधी एक स्त्री थी। कुछ पुराने, कुछ ताज़े आंकड़े दिए जाने लगे कि देखो स्त्रियां कितनी अपराधी हो गई हैं। जबकि पड़ताल करने की जरूरत इस बात की है कि अगर स्त्रियां अपराध की ओर कदम बढ़ा रही है तो इसका कारण क्या है? असुरक्षा, प्रतिशोध अथवा पुरुषों के समान अपनी इच्छानुसार जीवन जीने की अदम्य लालसा? इनमें से कोई एक अथवा यह तीनों कारण भी हो सकते हैं क्योंकि पुरुषों के समान स्त्री भी एक मनुष्य है । वह सदियों से अपेक्षाओं का पहाड़ ढोती आ रही है लेकिन कभी किसी ने नहीं सोचा कि गाहेबगाहे उसका धैर्य भी टूट सकता है जो कि समाज के समीकरण को प्रभावित करेगा।
जब स्त्री अपनी बाल्यावस्था में होती है तभी से उसे अनेक अपेक्षाओं में बांध दिया जाता है सिर्फ इसलिए कि वह एक लड़की है एक स्त्री है। जबकि लड़कों के साथ ऐसा नहीं होता उन्हें स्वतंत्र आकाश में उड़ने की अनुमति मिली रहती है। यह भेदभाव बाल्यावस्था से ही लड़की को संकुचित और लड़के को अधिकार भाव से भरकर उदंड अथवा पुरुषोचित घमंड से भर देता है। यह भेदभाव पूर्ण रवैया ही है जो स्त्री और पुरुष को परस्पर एक दूसरे के विरुद्ध अपराध के लिए उकसाता है। स्त्री और पुरुष दोनों ही मानवीय प्राणी हैं। दोनों में सहनशक्ति की, धैर्य की और निर्णय लेने की एक सीमा होती है, किसी में काम किसी में ज्यादा। संस्कृति के विकास के साथ समाज की जो संरचना विकसित हुई उसमें कार्यभार इस प्रकार बांटे गए कि जिससे जीवन सुचारु रूप से चल सके। यह सुचारिता भी पुरुषवादी थी। स्त्रियों पर पुरुषों की यौनिक कुदृष्टि की भावना को स्वयं पुरुषों ने भी समझा और यह तय किया कि स्त्रियां घर की चौखट के भीतर के सारे काम सम्हालें, वहीं पुरुष घर के बाहर के सारे काम सम्हालेंगे, जिससे उनके अपने परिवार की स्त्रियां पराए पुरुषों की कुत्सित भावनाओं से सुरक्षित रहें और समाज में यौन अपराधों पर नियंत्रण रहे। देखा जाए तो वहीं सबसे पहली चूक हुई। यदि उस समय स्त्रियों को इस तरह सक्षम बनाने पर ध्यान दिया जाता कि वे किसी भी यौन हिंसा का सामना कर सके तो वह आज भी वास्तविक सशक्त होतीं। वहीं दूसरी ओर उस समय से पुरुषों में इस भावना को स्थाई रूप से स्थापित किया जाता कि उन्हें हर स्त्री का सम्मान करना है तथा मात्र उस स्त्री से यौन संबंध बनाना है जिससे उसका विवाह हो। यदि यह भावना पुरुषों में उस आयु से ही स्थापित की जाती जब उनमें दैहिक परिवर्तन होते हैं तथा उनके विचारों में विचलन आना आरंभ होता है। क्योंकि कामेच्छा की भावना हर स्त्री-पुरुष में होती है किंतु स्त्रियों को बचपन से ही संस्कार के रूप में संयम का महत्व समझा दिया जाता है इसीलिए वे स्वच्छंद यौनाचार की ओर नहीं बढ़ती है (यहां अपवाद की बात नहीं की जा रही है)। जबकि दूसरी ओर पुरुषों को उनके लड़कपन से ही छोटी-छोटी छेड़खानी वाली हरकतों के लिए माफ किया जाता है अथवा अनदेखा किया जाता है यही प्रवृत्ति उन्हें और अधिक स्वच्छंद यौनाचारी बना देती है। हर पुरुष इस तरह का नहीं होता क्योंकि सभी के पारिवारिक संस्कार एक से नहीं होते हैं। जिन परिवारों में लड़कों को भी संयम की शिक्षा दी जाती है तथा ऐसा वातावरण उपलब्ध कराया जाता है कि वह संयम का महत्व समझे और उसे अपनी प्रतिष्ठा माने तो ऐसे लड़के बड़े होकर एक स्वस्थ मानसिकता वाले पुरुष बनते हैं। वे संयम रखना जानते हैं तथा किसी भी यौन अपराध में प्रवृत्त नहीं होते हैं।
*वर्तमान सामाजिक स्थितियां बड़ी विकट है। यदि देखा जाए तो स्त्री जीवन एक संक्रमण काल से गुजर रहा है। जहां उस पर लादा गया अपेक्षाओं का पहाड़ आकार में बढ़ता जा रहा है।* स्त्री के लिए भी शिक्षा आवश्यक है इसलिए आवश्यक है ताकि वह जीवन के विविध विषयों का ज्ञान प्राप्त कर सके और एक अच्छा जीवन जी सके। आज हर पुरुष अपने लिए पढ़ी-लिखी सुशिक्षित जीवन संगिनी पाना चाहता है। कोई भी यह नहीं चाहता कि उसे अनपढ़ पत्नी मिले। लेकिन स्त्री की शिक्षा के साथ ही उस पर नौकरी करने की अपेक्षा का भार भी बढ़ा दिया गया। यह अपेक्षा परिस्थिति जन्य नहीं थी बल्कि इस अपेक्षा को पूरी करने के लिए परिस्थितियों को वैसा आकार दिया गया। जैसे, यदि पति पत्नी दोनों कमाएंगे तो घर में विलासिता के समान अधिक से अधिक लाए जा सकेंगे। यदि पति की अकेली कमाई से कार नहीं खरीदी जा सकती है तो पत्नी भी कमाने लगेगी तो कार खरीदने की गारंटी हो जाएगी। पति-पत्नी दोनों काम करेंगे तो बच्चों को महंगे स्कूल में पढ़ाकर, महंगे कोचिंग सेंटर में भी भेज सकेंगे। आकांक्षाओं की इस उड़ान ने घर में विलासिता की वस्तुएं तो भर दीं किंतु स्त्री को दोहरे दायित्वों से बांध दिया। वह अपने कार्य स्थल में खटे और वहां जाने से पहले तथा वहां से लौटकर अपनी गृहस्थी के दायित्वों और चूल्हे-चौके में भी खटे। साथ ही अपने “सुपर वुमन” होने के गुमान में डूबी रहे।
एक मनोवैज्ञानिक खेल जो सदियों तक स्त्रियों के साथ खेला गया और उससे यही कहा जाता रहा कि “तुम तो घर में रहती हो तुम्हें क्या पता कि बाहर की दुनिया में कितनी परेशानियां है, कितनी मेहनत करनी पड़ती है तब कर पैसे आते हैं, तुम्हें पैसे का मूल नहीं पता है।”
यह बात स्त्रियों के मन में घर करती गई और उन्होंने यह ठान लिया कि “अब हम घर से बाहर निकल कर, काम करके दिखाएंगी और स्वयं को साबित करेंगी।” इस भावना से प्रेरित होकर वे कामकाजी महिलाओं में बदलती चली गईं। उन्होंने स्वयं को साबित किया। उन्होंने उन सब क्षेत्रो में अपनी क्षमताओं को दिखाया जो पुरुषों के वर्चस्व के माने जाते थे। स्त्रियों के दुर्भाग्यवश स्थिति यह आई की पुरुषों में बेरोजगारी बढ़ी और पुरुषों में भी तीन भाग हो गए- एक पुरुषों का वह भाग जो स्त्रियों के उत्थान से खुश था, गर्वित था। दूसरा वह भाग जो स्त्रियों को अपने से आगे बढ़ता नहीं देख पा रहा था। और तीसरा वह भाग जो स्त्रियों को सफल और सक्षम होते देख स्वयं में इतनी अधिक कुंठा में भर गया कि वह स्त्री विरोधी हो गया। जबकि वहीं स्त्रियों को अवसर मिला अपने आप को पहचानने का अपनी क्षमताओं को जानने का और खुली हवा में सांस लेने का। कुछ स्त्रियों ने अपनी स्वतंत्रता और पुरुषवादी समाज की परंपराओं में संतुलन बनाए रखा, किंतु हर स्त्री संतुलन बनाए रखें यह संभव नहीं है क्योंकि स्त्री भी मनुष्य है। उसमें भी दुख, सुख, क्रोध, प्रतिशोध आदि हर तरह की भावना का संचार होता है। जब ये भावनाएं बहुत अधिक बढ़ जाती हैं तो स्त्री को वह प्रतिशोधात्मक अपराध की ओर धकेल देती हैं। यही वह बिंदु है जब स्त्रियों से रखी जाने वाली अनंत अपेक्षाओं पर एक दृष्टि डाली जाए।
शुरुआत हो जाती है, जब एक अबोध बालिका को घर-गृहस्थी वाले खिलौने खेलने को दिए जाते हैं। वह अपने खिलौनों से झूठ मूठ खाना पकाएं, चाय बनाए, मम्मी-पापा का खेल खेलते हुए मम्मी का रोल अदा करें - तो यह सब देखकर परिवार खुश हो जाता है। वहीं, एक बालक के यदि गाड़ी, मोटर, बंदूक, तमंचे आदि खिलौने की मांग करें तो परिवार की खुशी दूनी हो जाती है। यदि कोई बालक खाना पकाने के खिलौने में रुचि दिखाएं तो परिवार चिंतित हो जाता है कि इस बालक में कोई गड़बड़ी तो नहीं है? जबकि अबोध बच्चों के लिए हर प्रकार का खिलौना मात्र खिलौना ही होता है जो उसकी मनोरंजन की वस्तु साबित होता है। यदि घर में एक बालक खाना पकाते देखेगा तो वह भी खाना बनाने की कोशिश करेगा क्योंकि बच्चे बड़ों का अनुकरण करने लगते हैं इसमें यह मान लेना कि उस बालक में स्त्रियोचित गुण हैं किसी भी तरह से उचित नहीं है। इसी प्रकार यदि कोई बालिका बचपन में मारपीट में संलग्न रहती है, यानी उसे जल्दी गुस्सा आता है तो इसका अर्थ यह नहीं है कि उसमें पुरुषोचित गुण हैं। गुस्सा आना और उसे प्रकट करना मनुष्य की ही नहीं हर प्राणी की प्रवृत्ति है। संयमी प्राणी सीमित मात्रा में अपना क्रोध व्यक्त करता है वहीं असंयमशील प्राणी तीव्र प्रतिक्रिया के रूप में अपना क्रोध व्यक्त करता है जो कभी-कभी अपराध का रूप भी ले लेता है। भावनाओं के आधार पर स्त्री और पुरुष को पूर्वाग्रहपूर्वक अलग-अलग खाचों में रखना सटीक नहीं है।
यदि भारतीय समाज की बात की जाए तो एक बालिका का जन्म होते ही उसके माता-पिता और परिजन को उसके दहेज की विशाल रकम दिखाई देने लगती है जो उन्हें चुकानी पड़ेगी। गोया बालिका लड़के वालों से कर्ज लेकर पैदा हुई हो। उस कर्ज को पहले लड़की के परिवार वालों को दहेज के रूप में चुकाना होता है और बाद में जीवन भर वह लड़की चुकाती रहती है चाहे अपनी मेहनत से अथवा कमाई करके। न जाने कितनी स्त्रियां दहेज के कारण मौत के घाट उतार दी गई और वह भी नृशंस तरीके से। अब जब स्त्रियां अपने पैरों पर खड़ी होकर खुद को साबित करने का प्रयास कर रही हैं तथा घर से बाहर निकल रही है तो उन पर जघन्य यौन हिंसा का नया संकट गहराता जा रहा है। आए दिन ऐसी वारदातें हो रही हैं जिनमें नृशंसता की सारी हदें तोड़ी जा रही हैं। तो क्या इन वारदातों से घबरा कर लड़कियों को, स्त्रियों को अपने घर की चार दिवारों में फिर से कैद हो जाना चाहिए? लेकिन इसकी भी क्या गारंटी की वह चार दीवारों के भीतर भी सुरक्षित रहेंगी? कम से कम बाहर निकाल कर वे अपने विरुद्ध हो रहे अत्याचारों के बारे में बता तो सकती हैं, अपने पक्ष में आवाज तो उठा सकती हैं। यदि वे फिर से कैद हो गईं तो उनका अब तक का संघर्ष धूल में मिल जाएगा। *जबकि पूरे समाज की प्रगति तभी संभव है जब स्त्री और पुरुष समान रूप से कार्य करें और समाज के ढांचे को दोनों मिलकर थामें रहें।*
सदियों से यही होता आया कि स्त्री को समाज में दूसरे दर्जे का प्राणी माना गया। यदि स्त्री पर यौन हिंसा हुई तो इसके लिए भी स्त्री को ही दोषी ठहराया गया। जिसके कारण न जाने कितनी स्त्रियों ने घबरा कर आत्महत्या के रास्ते को चुना या फिर अपने ऊपर होने वाले अत्याचार को वे चुपचाप सहती चली गईं। आज भी स्थिति बहुत अधिक भिन्न नहीं है। स्त्रियों से अपेक्षा की जाती है कि वह भले ही नौकरी करती हो किंतु अपने को परिवार में पुरुष के समकक्ष न समझे, वह अपनी नौकरी के साथ घर-गृहस्थी को भी ठीक उसी तरह संभाले जैसे एक घरेलू औरत संभालती है। वह पुरुषों को न तो सलाह दे और न उनकी सलाह का उल्लंघन करें। वह उसी तरह से उठे, बैठे, चले-फिरे कपड़े पहने जैसा की पुरुष वर्ग चाहता है। पुरुष विवाहेत्तर संबंध रखे तो स्त्रियों को उदारमना होकर उन्हें क्षमा कर देना चाहिए, जबकि स्त्री यदि ऐसा कोई कृत्य कर बैठे तो वह अक्षम्य अपराध है। यदि स्त्री की देह के साथ कोई अपराध होता है तो उसे मालिन, अशुद्ध और कलंकित मान लिया जाता है, यह भी सबसे बड़ी विडंबना है। यही विडंबना स्त्री के हौसलों को कदम-कदम पर आहत करती है तथा यौन अपराधियों को बढ़ावा देती है।
*दरअसल सारी स्थितियां सुधर सकती हैं यदि समाज इस बात को हमेशा ध्यान रखें कि स्त्री भी एक इंसान है उसका भी अपना एक व्यक्तित्व, अपनी आकांक्षाएं और अपने स्वप्न हैं।* विवाह में सौदेबाजी न की जाए तो परिवार में हमेशा संतुलन बना रहता है और खुशियां बनी रहती हैं। इसी तरह यदि यौन प्रताड़ित स्त्री के साथ अलग तरह का बरताव न किया जाए तो उसे जीवन में आगे बढ़ाने के लिए साहस मिलेगा और यौन अपराध करने वाले व्यक्तियों का मनोबल टूटेगा। स्त्रियों पर लादा गया अपेक्षाओं के पहाड़ का भार कम करके उसका उचित बंटवारा पुरुष और स्त्रियों के बीच किया जाना भी जरूरी है। जिस दिन यह होगा उस दिन से स्त्री और पुरुषों के बीच अपराधिक आंकड़े कम से कम होते जाएंगे।
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