आज 22.10.2024 को #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई श्री मुकेश तिवारी द्वारा संपादित स्मारिका की समीक्षा।
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पुस्तक समीक्षा
स्मरण उस अतीत से जोड़ता है जो हमें बहुत कुछ सिखाता है
- समीक्षक डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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पुस्तक - स्मारिका: परसाई जन्म शताब्दी वर्ष एवं महेन्द्र फुसकेले स्मरण अंक
संपादक - मुकेश तिवारी
प्रकाशक - प्रगतिशील लेखक संघ, सागर ईकाई, सागर
मूल्य - 100/-
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‘‘जहां श्रमिक निवास करते हैं वहां उनके हित की बात करने वाले भी रहते हैं।’’- मक्सिम गोर्की ने कहा था। गोर्की का यह कथन सागर के उस परिवेश पर एकदम सटीक बैठता है जहां बड़ी संख्या में बीड़ी श्रमिक रहते हैं और उन अशिक्षित एवं शोषित होते रहे श्रमिकों के पक्षधर भी समय-समय पर आगे आते रहे हैं। ऐसे ही एक पक्षधर हुए महेन्द्र फुसकेले। जिन्हें लोग ‘काॅमरेड फुसकेले’ के नाम से भी पुकारते थे। वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। वे प्रतिष्ठित अधिवक्ता थे और उच्चकोटि के साहित्यकार थे। उन्होंने हमेशा दलित शोषित श्रमिकों एवं स्त्रियों का पक्ष लिया। वे जानते थे कि समाज में स्त्रियों की स्थिति दलितों से बेहतर नहीं है। 02 फरवरी 1934 को जन्मे महेन्द्र फुसकेले का 12 अक्टूबर 2021 में निधन हो गया। इसके बाद से उनके पुत्र पेट्रिस फुसकेले और पुत्रवधू डाॅ नमृता फुसकेले प्रगतिशील लेखक संघ, सागर इकाई के तत्वावधान में प्रतिवर्ष 12 अक्टूबर को उनका स्मरण दिवस मनाते हैं। इस अवसर पर एक स्मारिका का भी प्रकाशन किया जाता है। इस वर्ष यह स्मारिका महेन्द्र फुसकेले जी पर केन्द्रित है किन्तु इस वर्ष स्व. हरिशंकर परसाईं जन्म शताब्दी वर्ष होने के कारण इसमें परसाईं के व्यक्तित्व एवं कृतित्व का भी स्मरण किया गया है। स्मारिका का सबसे बड़ा महत्व यही होता है कि उसके माध्यम से अतीत के महत्वपूर्ण व्यक्ति, पलों एवं कार्यों का स्मरण किया जाता है और स्मरण उस अतीत से जोड़ता है जो हमें बहुत कुछ सिखाता है।
स्मारिका में महेन्द्र फुसकेले जी से संबंधित संस्मरण लेख हैं जो उनके व्यक्तित्व पर समुचित प्रकाश डालते हैं- ‘‘महेन्द्र फुसकेले: जो सत्य के कट्टर पक्षधर थे’’ (डाॅ. सुश्री शरद सिंह), ‘‘महेन्द्र फुसकेले: जैसा मैं जान सका’’ (सेवाराम त्रिपाठी), ‘‘अविस्मरणीय व्यक्तित्व: श्रीमान महेन्द्र कुमार फुसकेले’’ (निरंजना जैन), प्रतिबद्धता के साथ एक एक्टिविस्ट लेखक थे कामरेड फुसकेले’’ (सत्यम सत्येन्द्र पाण्डेय), ‘‘मानवतावादी दृष्टिकोण के सजग प्रहरी’’ (डाॅ. वंदना मिश्र), ‘‘वटवृक्ष की छांव अब न रही’’ (आविंद मिश्र) तथा ‘‘मजदूरों, शोषितों और निचले तबकों की समस्याओं को उजागर करनेवाले अग्रणी नेता और साहित्यकार श्री महेन्द्र फुसकेले’’ (डाॅ. गजाधर सागर)।
महेन्द्र फुसकेले जी के कृतित्व को रेखांकित करने वाले लेख हैं-‘‘साहित्य में झांकता हुआ बुंदेलखंड’’(कैलाश तिवारी विकल), ‘‘श्री फुसकेले का उदात्त औपन्यासिक कौशल’’ (टीकाराम त्रिपाठी)।
जन्म शताब्दी वर्ष को ध्यान में रखते हुए हिन्दी के सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई पर कई लेख हैं। जैसे -‘‘अव्यवस्था के छत्ते पर परसाई का पत्थर’’ (मनीष दुबे), ‘‘एक ही थैली के चट्टे-बट्टे’’ (कैलाश तिवारी विकल), ‘‘व्यंग्य विधा को प्रतिष्ठित कराने वाले अग्रणी साहित्यकार, श्री हरिशंकर परसाई’’ (डाॅ. गजाधर सागर), प्रेमचंद की परंपरा में हरिशंकर परसाई’’ (कैलाश तिवारी विकल), ‘‘प्रेमचंद के फटे जूते और परसाई’’ (डाॅ. महेन्द्र खरे), ‘‘परसाई की व्यंग्योक्तियां’’ (डाॅ. एम.के. खरे)। इनमें ‘‘एक ही थैली के चट्टे-बट्टे’’ लेख में कैलाश तिवारी विकल ने महेन्द्र फुसकेले एवं हरिशंकर परसाई के व्यक्त्वि तथा कृतित्व में समानता के त्तवों का उल्लेख किया है जिससे यह लेख लघु होते हुए भी महत्वपूर्ण है।
स्मारिका में महेन्द्र फुसकेले तथा हरिशंकर परसाई के साथ ही प्रेमचंद पर भी प्रचुर सामग्री है। ‘‘प्रेमचंद का समय और वर्तमान परिदृश्य’’ (डाॅ. नलिन निर्मल), ‘‘कहानी ईदगाह के बारे में मेरे विचार (वृंदावन राय सरल), ‘‘प्रेमचंद को याद करते हुए (वीरेन्द्र प्रधान), ‘‘मुंशी प्रेमचंद और सागर जिला-सागर’’(लक्ष्मी नारायण चैरसिया), ‘‘प्रेमचंद और हम’’ (डाॅ. दिनेश कुमार साहू), तथा ‘‘मुंशीजी की राजनैतिक प्रखर दृष्टि और दूरदर्शिता’’(पी.आर. मलैया)।
काव्य खण्ड में अरुण दुबे, डाॅ. अनिल कुमार जैन ‘अनिल’, मुकेश सोनी रहबर, प्रभात कटारे तथा महेश सोनी ‘दर्पण’ की ग़ज़लें, ममता भूरिया, देवी सिंह राजपूत, श्रीमती ज्योति झुड़ेले, पुष्पेंद्र दुबे कुमार सागर, आनंद मिश्र ‘अकेला’, सतीश पाण्डे के गीत हैं। डाॅ. नमृता फुसकेले, सी.एल. कंवल, देवकी भट्ट ‘दीपा’, सुमन झुड़ेले ‘केशर’ पेट्रिस फुसकेले, परमानंद आनंद, के.एल. तिवारी ‘अलबेला’ की कविताएं हैं। अशोक तिवारी ‘अलख’ तथा वृंदावनराय ‘सरल’ के दोहे हैं।
स्मारिका में पेट्रिस फुसकेले की कविता ‘‘मेरे पापा मेरे पापा...’’ मार्मिक एवं हृदयस्पर्शी है। क्योंकि यह कविता इस बात को जताती है कि जैसे कहा जाता है कि ‘बड़ों की दृष्टि में बच्चे हमेशा बच्चे रहते हैं,’ ठीक उसी तरह बच्चे उम्र में चाहे कितने भी बड़े क्यों न हो जाएं, उनकी दृष्टि में बड़े तो बड़े ही रहते हैं। फिर पिता का स्थान तो यूं भी अद्वितीय होता है। पेट्रिस फुसकेले की यह कविता देखिए-
स्मृति पटल पर याद आते
मेरे पापा मेरे पापा।
जिस टेबल कुर्सी पर बैठकर
अर्द्ध रात्रि तक लिखते रहते
उस टेबल कुर्सी पर बैठकर
होता है पापाजी का अहसास
उपन्यास वह कैसे लिख लेते
सोचकर मैं हूं हैरान
एक नहीं अनेक उपन्यास
कहानियों का है उनका भंडार
रामायण, महाभारत से लेकर
सत्यप्रकाश, गीता, कुरान
बाईबिल हो या कबीर दर्शन
करते रहे सबका अध्ययन
निबंधों का क्या कहना
हर विषय पर था अधिकार ।
पात्र उनके जीवंत होते
मैनें देखा उनके लेखन में
नारी उत्पीड़न हो या
बच्चों को वैज्ञानिक शिक्षा।
कलम उनकी हमेशा चलती
मजदूरों का नेतृत्व करते
देखा उन्हें सड़कों पर
कर्मचारियों को
न्यायालय में न्याय दिलाते
प्रगतिशील की मशाल थामें
साहित्य को दिशा देते
याद आते मेरे पापा मेरे पापा.....।
- एक स्मारिका में अपने पिता के प्रति पुत्र के ये काव्यात्मक शब्द समाज में प्रवेश कर चुकी उस दुरावस्था पर भी प्रहार करते हैं जिसमें ‘‘जैनरेशन गैप’’ का वास्ता देकर परिवार के वृद्धों का अनादर किया जाता है। पेट्रिस फुसकेले की यह रचना एक विशिष्ट व्यक्तिव के धनी पिता के प्रति पुत्र के दृष्टिकोण की भी अनुभूति कराती है।
स्मारिका के अंतिम पृष्ठ पर महेन्द्र फुसकेले जी की प्रकाशित कृतियों के छायाचित्र रखे गए हैं। आवरण के अंतःभाग में प्रगतिशील लेखक संघ की सागर इकाई की गतिविधियों के छायाचित्रों को प्रस्तुत किया गया है जिससे इकाई की सक्रियता प्रमाणित होती है।
इस स्मारिका का संपादन किया है मुकेश तिवारी ने। विगत वर्ष की स्मारिका का संपादन भी उन्होंने ही किया था। वे कवि, लेखक होने के साथ ही प्रकाशन क्षेत्र से जुड़े हैं अतः उन्हें प्रकाशन का अनुभव है। कागज एवं छपाई की दृष्टि से स्मारिका उत्तम है। मुद्रण की त्रुटियों के संबंध में स्वयं संपादक ने ‘‘आत्मविचार’’ के अंतर्गत लिखा है कि -‘‘आज कम्प्यूटर के युग में प्रतिदिन अपडेट होती नई-नई टेक्नोलॉजी से जहाँ हमें सुविधाएँ उपलब्ध हो रही हैं वहीं हमें कुछ असुविधाओं का सामना भी करना पड़ा। आप सभी के आलेख, संस्मरण, रचनाएँ हमें ऑनलाइन प्राप्त हुईं और हमने यूनिकोड कन्वर्टर से फॉन्ट बहुत सतर्कता के साथ बदलने का प्रयास किया है, टंकण (टाइपिंग) का समय तो बच गया, परन्तु यूनिकोड कन्वर्टर के कारण कुछ अशुद्धियाँ रह गई हैं। इन अशुद्धियों के लिए मैं सभी लेखकों से एवं सभी पाठकों से क्षमा प्रार्थी हूँ।’’ यूं भी स्मारिका के कलेवर के समक्ष मुद्रण की त्रुटियां नगण्य हैं।
फिर भी एक कमी अवश्य खटकती है इस स्मारिका में और वह है अनुक्रमणिका का अभाव। अनुक्रमणिका होने से पाठक को पुनःपाठ हेतु अपनी रुचि के संस्मरण, लेख, कविता आदि पढ़ने सुगमता होती है। बिना किसी बुकमार्क के वह सीधे उसी पृष्ठ पर पहुंच सकता है। साथ ही आरम्भ में ही सामग्री की संक्षिप्त जानकारी भी प्राप्त हो जाती है। अतः अनुक्रमणिका का अभाव इसी एक बड़ी कमी है अन्यथा शेष संपादन उत्तम है। देखा जाए तो यह स्मारिका महेन्द्र फुसकेले जी पर केन्द्रित होते हुए भी ‘‘प्रेमचंद, परसाई और फुसकेले’’ की त्रयी से मिलाती है। इससे इसकी अर्थवत्ता और अधिक हो गई है।
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nice
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