Thursday, March 20, 2014

बाबा नागार्जुन के उपन्यासाें में सात सवालों-सी सात नायिकाएं

लेख                                  
 
- डॉ. (सुश्री) शरद सिंह

नागार्जुन मानवीय संवेदना के चितेरे उपन्यासकार थे। उनके कथा साहित्य में जहां एक ओर बिहार के मिथिलांचल के ग्राम्य जीवन, सामाजिक समस्याओं, राजनीतिक आन्दोलनों एवं सांस्कृतिक जीवन की अभिव्यक्ति दिखार्इ पड़ती है वहीं उनके उपन्यासों में मानवीय दशाओं एवं चरित्रों का अदभुत खरापन उभर कर सामने आता है। जिस वातावरण से उनके कथा-पात्र आते हैं उसी वातावरण का निर्वहन समूची कथावस्तु-विस्तार में होता चलता है। नागार्जुन के कथा समाज में स्त्री-पुरुष, युवक-युवतियां, वर्ण और जातिगत भेद , सम्पन्न-विपन्न तथा पोषण एवं शोषण के ऐसे पारदर्शी चित्र चित्रित मिलते हैं कि जिनके आर-पार देखते हुए समाज की बुनियादी दशाओं को बखूबी टटोला तथा परखा जा सकता है। नागार्जुन ने अपनी कविताओं में जिस प्रकार सामाजिक विकृतियों पर प्रहार किया है वह समाज दर्शन की गहन दृष्टि के बिना संभव नहीं था। उन्होंने आमजन के जीवन को निकट से देखा और अनुभव किया था। उन्होंने ग्रामीण परिवेश में स्त्री के कष्टप्रद जीवन को मानवीय स्तर पर जांचा और परखा था। गांव में स्त्री के रहन-सहन का सूक्ष्म चित्रण नागार्जुन के गध साहित्य में भी देखने को मिलता है। जहां परिवार के पुरुष सदस्य इकटठे हों वहां स्त्री की उपसिथति स्वीकार नहीं की जाती है। पुरुषों के बीच स्त्रियों का क्या काम? जैसी मानसिकता के कारण ग्रामीण स्त्री पारिवारिक मसलों में भी शामिल नहीं हो पाती है। जहां पुरुष हों वहां पुरुष का ही कब्जा रहता है, चाहे घर का आंगन ही क्यों न हो। इस तथ्य को 'वरुण के बेटे में  नागार्जुन ने बड़े ही सहज ढंग से प्रस्तुत किया है-''प्रायमरी स्कूल का वह मितहा मकान गांव के पूर्वी छोर पर था, तीन तरफ से घिरा हुआ। अंगनर्इ का अगला हिस्सा तग्गर कनेर, बेला हरसिंगार के बाड़ों से घिरा था। बिरादरी के बालिग मेम्बरान जुटे थे, भोला, खुरखुन, बिलुनी, रंगलाल....नंदे वगैरह-सारे के सारे। पचास-साठ जने होंगे। औरत एक भी नहीं। रतिनाथ की चाची और जमुनिया का बाबा जैसे उपन्यासों में नागार्जुन भारतीय समाज में स्त्रियों के शोषण के विरुद्ध डट कर खड़े मिलते हैं।
मधुबनी वह क्षेत्र जहां नागार्जुन से स्त्रियों की सामाजिक दशा को जाना और परखा, दरभंगा का वह पूरा इलाका जहां नागार्जुन ने स्त्रियों को अपने असितत्व के लिए संघर्ष करते देखा, उनके उपन्यासों में रचा-बसा है। इसीलिए उनके उपन्यासों की स्त्री समस्त भारतीय सित्रयों का प्रतिनिधित्व करती हुर्इ कुछ सवाल समाज के सामने रखती दिखार्इ देती है और नागार्जुन की यह खूबी थी कि उन्होंने सवालों पर ही अपने विचारों को नहीं रोका, उन्होंने उन सवालों का उत्तर भी स्वयं ही दिया। प्रस्तुत लेख में नागार्जुन के उपन्यासों की सात नायिकाओं पर चर्चा की गर्इ है जो सात सवालों की भांति सामने आती हैं और उन सवालों के उत्तर भी वे स्वयं देती हैं। 

नागार्जुन के साहित्य में ग्राम्य जीवन की प्रमुखता है। ग्रामीण परिवेश में जीवनयापन करने वाली सित्रयों की दशा को रेखांकित करने में नागार्जुन ने अपनी पैनी दृषिट का भरपूर उपयोग किया है। उनके उपन्यासों की नायिकाएं परम्परागत भारतीय स्त्री होते हुए भी अपने भीतर अनेक प्रश्न समेटे हुए दिखार्इ देती हैं। उनका बाहय कलेवर भले ही शोषित स्त्री का हो किन्तु उनके भीतर एक विद्रोहणी की झलक स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है। यही कारण है कि बाबा नागार्जुन के उपन्यासों की सात नायिकाएं व्यवस्था को ललकारती हुर्इं समाज के समक्ष सात सवालों की तरह आ खड़ी होती हैं। ये नायिकाएं हैं- गौरी, मधुरी, बिसेसरी, चम्पा, भुवन, इमरतिया और पारो।

गौरी

'रतिनाथ की चाची उपन्यास की नायिका है गौरी। गौरी के व्यकितत्व में विपरीतध्रुवीय दो पक्ष दिखायी देते हैं। एक पक्ष में गौरी एक परम्परागत गृहस्थ स्त्री के रूप में सामने आती है। जो अधेड़ रोगी पति की मृत्यु के कारण विधवा हो जाती है। अपने दुष्कर्मी देवर जयनाथ की कामवासना की शिकार होती है। अपने देवर की कुचेष्टा के संबंध में वह कहती है- 'मैं और कुछ नहीं जानती, वह भादों का महीना था। अमावस्या की रात थी। एक घनी और अंधेरी छाया मेरे बिस्तर की तरफ बढ़ आयी, उसके बाद क्या हुआ इस बात का होश अपने को नहीं रहा। 

यह उस स्त्री के उदगार थे जो संबंधों के नारकीय पक्ष का अनुभव करके  स्तब्ध रह जाती है। उसके जीवन में दुखों का अंत यहीं नहीं होता, गर्भवती गौरी को सामाजिक अपमान सहन करना पड़ता है। अन्य औरतें उसे व्यभिचारिणी और कुलटा कहती हैं। इतना ही नहीं उसका अपना बेटा उमानाथ अपने पिता की बरसी पर जब घर आता है तो वह मां को चरित्रहीन मान कर उसके बाल पकड़ कर खींचता है तथा पैरों से ठोकर मारता है। गौरी एक परम्परागत गृहणी की भांति हर तरह का अपमान एवं मार-पीट सहती रहती है। एक परम्परागत गृहणी की भांति उसका दान-धर्म में भी अगाध विश्वास है।
गौरी का दूसरा पक्ष ठीक विपरीत है। अपने दूसरे पक्ष में वह एक जागरूक स़्त्री के रूप में दिखायी पड़ती है। गांव में मलेरिया फैलने पर मलेरिया की मुफत दवा बांटती है, जमींदारों के विरुद्ध संघर्ष करने वाली क्रांतिकारी किसान सभा संगठन में अपना दो साल पुराना फटा कम्बल दे कर सहायता करती है तथा अखिल भारतीय सूत प्रतियोगिता में अव्वल आती है। यह जागरूक गौरी अपने सगे पुत्र से मिलने वाला अपमान पी कर अपने भतीजे रतिनाथ पर ममता उंढ़ेलती है। इस प्रकार नागार्जुन ने गौरी के रूप में स्त्री के व्यकितत्व को एक सामाजिक प्रश्न के रूप में सामने रखते हुए स्वयं उसका उत्तर दिया है कि एक भारतीय स्त्री अपने व्यकितत्व को अलग-अलग कर्इ खानों में बांट कर भी संघर्षरत रहती है। वस्तुत: यह संघर्ष ही उसके व्यकितत्व के तमाम हिस्सों को एक सूत्र में बांधे रहता है।


मधुरी

दूसरी नायिका है मधुरी जो 'वरुण के बेटे उपन्यास की प्रमुख नायिका है। वह खुरखुन की बड़ी बेटी है। वह देखने में सामान्य युवती है। उसका कद मझोला है। उसका मंगल नामके युवक से प्रेम संबंध था, किन्तु विवाह के बाद वह इस संबंध को स्थगित कर देना ही उचित समझती है। वह मंगल से कहती है 'देखेा मंगल! अब हम छोकरा-छोकरी नहीं रहे । धूल-मिटटी के बचकाने खेल काफी खेल चुके। सयान समझदार मां- बाप और सास -ससुर ने तुम पर जो जिम्मेदारी सौंपी है, उनसे जी चुराना कायरता होगी। तुम्हें अपनी घरवाली के प्रति वफादार होना, मुझे अपने घरवाले के प्रति।......मैं तुम्हारा घर बरबाद नहीं करना चाहती मंगल, मैं नहीं चाहती कि एक औरत की सिंदूरी मांग पर कालिख पोतती रहूं।

यही मधुरी मछुआरों के साथ जमींदारी का विरोध करती है, तो उसमें एक ऐसी स्त्री की छवि दिखार्इ पड़ती है जो समाज के आदर्श रूप की पक्षधर है, जो अन्याय का विरोध करने का साहस रखती है और जिसे निम्न वर्ग की भलार्इ की चिन्ता है।

मधुरी के रूप में 'वरुण के बेटे में भी नायिका का व्यकितत्व और चरित्र स्पष्ट दो भागों में बंटा दिखायी देता है। पहला भाग मधुरी के विवाह के पहले का है जिसमें वह एक प्रेयसी, अल्हड़ युवती है। जिसके क्रियाकलाप यह सवाल खड़ा करते हैं कि क्या वह कभी किसी संकट का सामना कर सकेगी अथवा किसी संघर्ष को आकार दे सकेगी ? इस प्रश्न के उत्तर के रूप में मधुरी के जीवन का दूसरा पक्ष सामने आता हैं। जिसमें वह जन चेतना की अलख जगाती दिखायी पड़ती है। वह स्वयं पुलिसियान के पिछले छोर पर खड़ी हो कर, दाहिना हाथ घुमा-घुमा कर नारे लगाती है और मछुआरा संघ के लोगों का उत्साहवर्द्धन करती है। इस प्रकार नागार्जुन इस तथ्य को स्पष्ट करते हैं कि एक स़्त्री समय और परिसिथति की आवश्यकता के अनुरूप स्वयं को किस प्रकार ढाल लेती है। यह नागार्जुन के सूक्ष्म आकलन-दृषिट का कमाल है।

बिसेसरी

बिसेसरी 'नर्इ पौध उपन्यास की प्रमुख नारी पात्र है। यूं तो इस उपन्यास में कोर्इ भी नारी पात्र नायिका के रूप में नहीं है, किन्तु बिसेसरी रूपी पात्र कथानक में नायिका के समान उभरता है। बिसेसरी पिताविहीन गरीब घर की कन्या है। उसका नाना नौ सौ रुपए के बदले उसका बेमेल विवाह कराना चाहता है, जिससे वह व्याकुल हो उठती है। इसी के साथ बिसेसरी में वह स़्त्री प्रकट होती है जो सामंती परम्पराओं, रूढि़यों और थोथी नैतिकता की बलिवेदी पर स्त्रियों को चढ़ाए जाने की कटटर विरोधी है। यह चेतनासम्पन्न बिसेसरी गांव के प्रगतिशील युवकों की सहायता से बेमेल विवाह का विरोध करती है। 

वस्तुत: हमेशा यह प्रश्न उठता है कि स्त्रियों को सामाजिक दमन से कौन बचा सकता है? बाबा नागार्जुन इस प्रश्न का उत्तर 'नर्इ पौध की नायिका बिसेसरी के रूप में देते हैं। उनका विचार था कि स्त्री की जागरूकता ही उसे सामाजिक दमन से बचा सकती हैं। यदि स्त्री को अपना असितत्व बचाना है तो उसे स्वयं की क्षमताओं को पहचानना होगा।
 
चम्पा

चम्पा 'कुम्भीपाक उपन्यास की वह प्रमुख नायिका है, जिसका स्थान इसी उपन्यास की दूसरी नायिका भुवन के बराबर है। 'कुम्भीपाक में नागार्जुन ने वेश्यावृत्ति के दलदल में झोंक दी जाने वाली सित्रयों की लाचारी को बड़ी ही बारीकी से प्रस्तुत किया है। ''कुम्भीपाक में स्त्रियों को बेचने वालों के विरुद्ध स्त्रियों के संघर्ष की गाथा है। नागाजर्ुन ने ''कुम्भीपाक के स्त्रीपात्रों के माध्यम से जता दिया कि जो सित्रयां समाज द्वारा प्रताडि़त हैं वे समाज के ठेकेदारों के विरुद्ध विद्रोह का बिगुल भी बजा सकती हैं।
चम्पा एक सुन्दर स्त्री है। वह अपने जीजा की कामवासना का शिकार होती है जो एक हर प्रकार से भ्रष्ट इंसान है। चम्पा अपने जीवन की त्रासदी के बारे में बताती हुर्इ कहती है कि 'जीजा ने मुझे कुलसुम, सरदार जी ने सतवंत कौर और शर्मा जी ने चम्पा  बनाया। इस प्रकार वह अपने जीवन के कुम्भीपाक होने के तथ्य को एक वाक्य में उजागर कर देती है। लेकिन समय और परिसिथति के साथ उसके चरित्र में आमलचूल परिवर्तन होता है। अनैतिक कायोर्ं से जीवनयापन करने वाली चम्पा के जीवन का उददेश्य उन सित्रयों की मदद करना हो जाता है जो वेश्यावृत्ति के दलदल में फंसी हुर्इ हैं। चम्पा के जीवन में आने वाले परिवर्तन के द्वारा नागार्जुन ने यह सिद्ध किया है कि यदि घोर अनैतिक कार्यों में लिप्त स्त्री को उचित अवसर मिले तो वह स्वयं को सच्चरित्रता की प्रतिमूर्ति के रूप में स्थापित कर सकती है। क्या ऐसा सचमुच सम्भव है ? इसी प्रश्न का उत्तर नागार्जुन चम्पा के रूप में देते हैं।


भुवन

भुवन चम्पा के समकक्ष 'कुम्भीपाक की नायिका है। उसका असली नाम इंदिरा था। वह जिला मुगेर में पैदा हुर्इ थी। सम्पन्न परिवार की थी। उसका पति पायलेट था, जो विवाह के कुछ माह बाद ही हवार्इ दुर्घटना में मारा गया। भुवन पति की मृत्यु के समय  चार माह की गर्भवती थी। एक रिश्तेदार चिकित्सा कराने बहाने उसे आसनसोल ले गया और वहीं एक धर्मशाला में अकेली छेाड़ कर भाग गया। इसके बाद भुवन का जीवन उसी कुम्भीपाक में जा समाया, जहां चम्पा रहती थी। जल्दी ही भुवन को इस बात का अनुभव होता है कि जिस दलदल में वह रह रही है उसमें भविष्य नाम की कोर्इ चीज नहीं है। वह कुम्भीपाक से मुक्त होने के लिए संघर्ष करती है। भुवन को नीरू नाम की युवती से सहायता मिलती है और वह कुम्भीपाक से मुक्ति पा कर काशी चली जाती है, जहां से उसके सामाजिक सम्मान का मार्ग प्रश्स्त होने लगता है।
जब भी वेश्यावृत्ति में संलग्न सित्रयों की समाज की मुख्यधारा में जुड़ने की बात आती है तो प्रश्न उठता है कि क्या यह सचमुच सम्भव है ? नागार्जुन भुवन को समाज में पुन: स्थान दिला कर घोषणा करते दिखायी देते हैं कि यह सम्भव है।

इमरतिया

इमरतिया इसी नाम के उपन्यास की प्रमुख नायिका है। वह सन्यासनी है और जमनिया के मठ में रहती है। सन्यासनी होने के बावजूद उसके भीतर की स्त्री एक सामान्य स्त्री के समान है। उसकी कामभावना मरी नहीं है। वह नाटक देखने में रुचि रखती है, किन्तु मठ में बाबा के द्वारा किए जाने वाले घिनौने कृत्यों का विरोध करती है। मठ के जिस बाबा के प्रति उसके मन में श्रद्धा भावना थी वह धीरे-धीरे समाप्त हो जाती है। 
लोग इमरतिया को देवदासी और योगिनी की उपाधि देते हैं। किन्तु वह मठ में होने वाले अनाचार के विरुद्ध चेतना लाने का प्रयास करती है। इमरतिया के रूप में नागार्जुन यह प्रश्न सामने रखते हैं कि क्या मठों के  अनाचार में फंसी हुर्इ स्त्रियां कभी मुक्त हो सकती हैं ? इमरतिया का चरित्र एक नायिका के रूप में इस प्रश्न का उत्तर देता है और आश्वस्त कराता है कि यदि नारी चाहे तो वह अनाचार से मुक्त हो सकती है।


पारो

यह 'पारो नामक उपन्यास की नायिका है। उपन्यास का नाम नायिका के नाम पर ही है। पारो एक ऐसी स्त्री की छवि है जो गरीब परिवार में जन्म लेती है। विभिन्न प्रकार के संघर्षों का सामना करती है फिर भी साहस नहीं छोड़ती है। 'वह लम्बी छरहरी थी। चेहरा भी लम्बा था। हाथ सींक जैसे। देह लक-लक पतली। टांगें संटी जैसी। कैसी गजब की उसकी अांखें थीं। बुद्धि चातुर्य में वह बढ़-चढ़ कर थी। छोटी उम्र में ही संस्कृत, व्याकरण, अमरकोश, हितोपदेश कण्ठस्थ कर चुकी थी।
 रामायण और गीता भी पढ़ चुकी थी। ऐसी बुद्धिमती युवती को बेमेल विवाह के कष्ट झेलने पड़ते हैं। फिर भी वह जूझती रहती है। क्या स्त्री के सहनशकित की कोर्इ सीमा होती है ? नागार्जुन पारो का दृष्टांत प्रस्तुत करते हुए उत्तर देते हैं- 'नहीं!

आज हिन्दी साहित्य में स्त्री विमर्श का दौर है। स्त्री विमर्श के रूप में स्त्री की बहुमुखी प्रगति और जागरूकता के चित्र प्रस्तुत किए जाते हैं। नागार्जुन ने अपने उपन्यासों की सात नायिकाओं के द्वारा उन सात सवालों का हल ढ़ूंढ़ा और सामने रखा जो स्त्री विमर्श की बुनियाद के सवाल हैं। इन सवालों का निचोड़ यही है कि एक निर्बल स्त्री सबल स्त्री के रूप में कैसे ढल सकती है। इस सवाल का समीकरणीय उत्तर नागार्जुन के पास था, जिसे उन्होने इस रूप में सामनं रखा कि स्त्री द्वारा स्त्री की मदद और स्त्री के स्वयं का साहस परस्पर जुड़ जाए तो एक पूर्ण जागरूक स्त्री आकार ले सकती है। बाबा नागार्जुन ने अपने उपन्यासों की नायिकाओं के रूप में न केवल कालजयी चरित्र गढ़े अपितु समाज में स्त्री के स्थान को ले कर उठने वाले प्रश्नों के विश्लेष्णात्मक उत्तर भी दिए हैं।

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Saturday, March 8, 2014

विधवाओं की दुर्दशा कब तक?




Dr Sharad Singh
महिला दिवस पर विशेष ......
मित्रो, ‘इंडिया इन साइड’ के March 2014 अंक में ‘वामा’ स्तम्भ में प्रकाशित मेरा लेख आप सभी के लिए ....
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आपका स्नेह मेरा उत्साहवर्द्धन करता है.......

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 (प्रकाशित लेख...Article Text....)......
                                                                                                    
                                                            - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह


हे र्इश्वर!
तू मुझे अगले जन्म में भी औरत ही बनाना
पर नहीं होने देना विधवा
नहीं भेजना मथुरा, वृन्दावन
नहीं देना अपनों का परायापन
मुझे हर जन्म में औरत होना ही क़बूल है
बस, तू मुझे रखना मनुष्यों के नहीं
मनुष्यता के बीच.....
मुझे हर जन्म में औरत होना ही क़बूल है....

मुझे याद आ रही है 'एक प्रार्थना शीर्षक की अपनी एक कविता। मार्च का महीना है न, और इस मार्च के महीने में 08 मार्च को 'महिला दिवस मनाया जाता है। हम मानने और मनाने में अग्रणी हैं। हम स्त्री को देवी मानते हैं और देवी तो काल्पनिक होती है। किसी भी देवी को किसी ने देखा नहीं है। फिर स्त्री का देवी रूप काल्पनिक ही तो हुआ न!
'एक प्रार्थना कविता में मथुरा या वृन्दावन में रहने वाली विधवा स्त्री की वेदना है। एक विधवा जिसे अपनों ने त्याग दिया और छोड़ दिया कहीं भी जा कर मरने को। ऐसी ही विधवाओं को सहारा मिलता है मथुरा, वृन्दावन के विधवाश्रमों में। चाहे सरकारी संस्थान हों या गैरसरकारी, वहां के सुव्यवस्थाओं और कुव्यवस्थाओं के ब्यौरे में जाने की आवश्यकता नहीं है। क्यों कि यह किसी से छिपा नहीं है। यदि करोड़ों की राशि खर्च कर के हम 40 साल पुरानी सैन्य-पनडुब्बी को 'अपडेट करते रहने का दम भर सकते हैं तो किसी विधवा-आश्रम में आर्थिक अनियमितता या कुव्यवस्थाएं तो बहुत छोटी बात हैं। ग़रीब आटोरिक्शा चालकों को हर दस साल में विवश किया जाता है कि वे अपने आटोरिक्शा बदल दें ताकि दुर्घटना को न्योता देने वाले पुराने वाहन सड़क से हट जाएं। वहीं चालीस साल पुरानी, छब्बीस साल पुरानी टेक्नालाजी वाली पनडुबिबयों को कैसे 'अपडेट किया जाता रहा? इतने पुराने स्कूटर्स तक के पाटर्स बाज़ार में नहीं मिल पाते हैं। लिहाजा जब देश की सुरक्षा पर भ्रष्टाचार के दांव खेले जा सकते हैं तो बेसहारा विधवाओं के लिए सुव्यवस्था की उम्मीद कैसे की जा सकती है। 
क्या हम कठोर हो गए हैं या हमारे आंसू सूख गए हैं? जबकि बी.बी.सी. के संवाददाता एंथोनी डेंसलोव का दिल रो पड़ा वृन्दावन की विधवाओं की दशा देख कर और उसने एक रिपोर्ट लिखी -'' कृष्ण के वृंदावन में अब गोपियाँ नहीं विधवाएं मिलती हैं। यह रिपोर्ट 25 मार्च 2013 को सामने आर्इ  थी। अपनी रिपोर्ट में एंथोनी डेंसलोव ने लिखा था कि -'' भारत में हर साल हजारों विधवाएं उत्तर प्रदेश के वृंदावन का रुख़ करती हैं. परिवारवालों ने उन्हें छोड़ दिया है और अब इस दुनिया में वे अकेली हैं। इनमें से कुछ तो सैकड़ों मील का सफ़र तय करने के बाद वृंदावन पहुंचती हैं लेकिन कोई नहीं जानता कि वो ऐसा क्यों करती हैं। भारत में मंदिरों और र्धामिक स्थलों की भरमार है। लेकिन यमुना के तट पर सिथत वृंदावन का खास महत्व है क्योंकि ये कृष्ण की नगरी है। वृंदावन में सैकड़ों मंदिर हैं और यहां हर किसी की जुबान पर कृष्ण और उनकी प्रेमिका राधा का ही नाम है। हर साल दुनियाभर से लाखों की संख्या में कृष्ण भक्त यहां पहुंचते हैं। लेकिन इस सबसे दूर वृंदावन का एक स्याह पहलू भी है। इसे विधवाओं के शहर के नाम से भी जाना जाता है। मंदिरों के बाहर आपको सादी सफेद साड़ियां पहने ये विधवाएं भीख मांगते मिल जाएंगी। इनमें से अधिकांश उम्रदराज होती हैं। भारत में विधवाएं अब सती नहीं होती हैं लेकिन जिंदगी अब भी उनके लिए बदतर है। विधवाओं को अशुभ माना जाता है. तमाम कानूनों के बाद आज भी उन्हें पति की संपतित से बेदखल कर दिया जाता है और वे दर-दर भटकने के लिए मजबूर हो जाती हैं। धार्मिक ज्ञान से भरे लोग हो या समाजशास्त्री इस सवाल का ठोस जवाब किसी के पास नहीं है कि वृंदावन में ऐसा क्या है कि पूरे भारत से खासकर बंगाल से विधवाएं यहां का रुख़ करती हैं। केवल वृंदावन में ही छह हजार विधवाएं हैं और आसपास के इलाक़ों में भी बड़ी संख्या में विधवाओं ने अपना ठिकाना बना रखा है। दूर दूर से विधवाएं वृंदावन में आकर रहती हैं। इनमें से कई तो अपनी बची खुची जिंदगी को राधा कृष्ण की सेवा में लगाने के इरादे से यहां पहुंचती है जबकि बाकी अपने परिजनों की बेरुखी और ज्यादतियों से बचने के लिए वृंदावन का रुख करती हैं। ये भारतीय समाज का ऐसा पहलू है जिसे सरकार दुनिया की नज़रों से छिपाना चाहेगी क्योंकि लाख कोशिशों के बावजूद ये समस्या सुलझाई नहीं जा सकी। 
एंथोनी डेंसलोव आगे लिखते हैं कि ''इनमें से कुछ पश्चिम बंगाल से 100 मील से भी अधिक दूरी तय करके यहां पहुंची हैं. कई बार वे खुद यहां पहुंचती हैं और कई बार उनके परिजन उन्हें यहां छोड़ जाते हैं। सैफ अली दास 60 साल की हैं लेकिन जमाने की मार ने उन्हें वक्त से पहले ही बूढ़ा बना दिया है. उन्होंने कहा कि उनके पति पियक्कड़ थे और 12 साल पहले उनका देहांत हो गया था। उनकी एक बेटी थी जो अस्पताल में चल बसी और बेटे का संपत्ति विवाद में खून हो गया। बेटे की मौत के बाद उनकी दुनिया वीरान हो गई और उन्होंने बाकी का जीवन वृंदावन में बिताने का फैसला किया। वहीं सोंदी 80 साल की हैं. उनके पति का जवानी में ही निधन हो गया था. उनके बच्चे हैं लेकिन जीवन की सांध्य बेला में बहू ने उन्हें बेघर कर दिया। बहुत सी विधवाएं मंदिरों में भजन गाती हैं या फिर भीख मांग कर गुजारा करती हैं। विधवाओं के लिए चार आश्रम संचालित किए जा रहे हैं लेकिन अधिकांश किराए के मकान में रहती हैं और किराया चुकाने के लिए भीख मांगती हैं।’’

संस्कृति के धनी इस भारत देश में लोग अभी भी इतने निर्मम हैं कि जो स्त्री एक परिवार को संवारने के लिए अपने माता-पिता, घर, गांव को छोड़ कर विवाहिता के रूप में आती है। उसे विधवा होते ही लांछन और प्रताड़ना कर शिकार बना देते हैं। उसे घर से धक्के मार कर निकाल देते हैं। भले ही उसके पास जीने, रहने का कोर्इ आसरा न हो। इस 21वीं सदी में भारतीय स्त्री की प्रगति का दंभ करने से पहले एक बार गंभीरतापूर्वक खंगालना खहिए उन कारणों को जो विधवाओं को आश्रमों में शोषित होने के लिए विवश कर रहे हैं। आवश्यकता है इस विषय पर समाज के हर वर्ग को आत्मावलोकन की।
जिस दिन विधवाएं सामाजिक एवं पारिवारिक प्रताड़ना के कारण आश्रमों में तिल-तिल कर मरने को विवश नहीं होंगी और उन्हें अपने समाज तथा परिवार में भरपूर आत्मीयता मिलेगी, सम्मान मिलेगा तभी कोर्इ अर्थ रहेगा 'महिला दिवस उत्सव के रूप में मनाने में। है न! 
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