Wednesday, April 4, 2018

चर्चा प्लस ... ग़लत है अराजकता का रास्ता - डॉ. शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
चर्चा प्लस 

ग़लत है अराजकता का रास्ता
- डॉ. शरद सिंह

 
अपने अधिकारों की मांग करना ग़लत नहीं है, लेकिन यदि अबोध, अवयस्क बच्चों के हाथों में पत्थर थमा कर और अपने हाथों में हथियार ले कर सड़कों पर अराजकता फैलाई जाए तो इस तरीके को किसी भी दृष्टि से सही नहीं कहा जा सकता है। क्योंकि जब इस तरह पत्थर चलते हैं तो ये अपनों और परायों दोनों को घायल करते हैं। चाहे सिनेमा को ले कर हो या जातीय अधिकारों को ले कर प्रदर्शन हो, उसे संयमित और अहिंसक ही होना चाहिए। अराजकता के उन्माद का बार-बार प्रदर्शन लोकतंत्र के मूल्यों को भी तार-तार कर रहा है।

Article for Column - Charcha Plus by Dr Sharad Singh in Sagar Dinkar Dainik
 
आज हम ग्लोबलाजेशन की बातें करते हैं और समूची दुनिया को ग्लोबल गांव के रूप में देख्ने का स्वप्न संजोते हैं, जिसमें दुनिया का हर इंसान परस्पर एक-दूसरे का हितैषी और पड़ोसी बन कर रहे, हर देश परस्पर मोहल्लों के रूप में हिलमिल कर रहें। लेकिन सपने और सच्चाई के बीच ज़मीन-आसमान का फ़र्क़ उस समय दिखाई दे जाता है जब हम संकुचित मानसिकता को अपनाते हुए अराजक हो उठते हैं। नारे लगाते हुए सड़कों पर निकल आना तो फिर भी उतना गलत नहीं है जितना कि सड़कों पर निकल कर हिंसक हो उठना। प्रदर्शनकारियों का एक भी हिंसक क़दम अवसरवादियों एवं दंगाइयों को भरपूर अवसर देते है। वे प्रदर्शनकारियों के बीच घुस जाते हैं और उनकी ओर से बंदूकें चलाने लगते हैं। वे प्रदर्शनकारियों का भला नहीं चाहते बल्कि वे तो अपनी दुश्मनियां निकालना चाहते हैं। वे समाज में भेद-भाव और वैमनस्य बढ़ाना चाहते हैं। फिर भी विचारणीय है कि चंद ऐसे लोगों के बहाव में आ कर पूरी भीड़ कैसे हिंसक हो उठती है? इसके लिए जिम्मेदार कौन हैं? कहीं वे नेतृत्वकर्त्ता तो नहीं जो बिना आगे आए अपने समर्थकों के विचारों में ज़हर घोलते रहते हैं, या कहीं वह साशल मीडिया तो नहीं जो ईज़ाद किया गया था इंसान को इंसान के करीब लाने के लिए लेकिन उसका दुरुपयोग किया जाने लगा है इंसान को इंसान का दुश्मन बनाने के लिए?
विगत कुछ समय से सड़कों पर उतर कर हिंसक होने की प्रवृत्ति जिस प्रकार बार-बार सामने आ रही है, वह चिन्तित करने वाली है। अभी भी समय है कि ठहर कर सारे परिदृश्य पर पुनः दृष्टि डाली जाए और चूक कहां-कहां हो रही है, इसे समझने का प्रयास किया जाए। अभी कुछ समय पहले जब तथाकथित संत रामरहीम को बंदी बना कर कारावास में डाला गया तो उस दौरान डेरा सच्चासौदा के आस-पास जो महौल बना उसने मानवता को लज्जित कर दिया। रामरहीम के समर्थक सड़कों पर निकल आए और तोड़-फोड़, मारपीट करने लगे। बदले में पुलिस की लाठियां और गोलियां चलीं। परिणाम तो वही रहा न कि वे लोग मारे गए जो जीवित कर बहुत कुछ अच्छा काम कर सकते थे। फिल्म ‘पद्मावती’ के कथानक को ले कर जिस तरह की बयानबाजियां हुईं उसने राजपूत समाज की गरिमा पर ही प्रश्नचिन्ह लगा दिया। राजपूतों में यह परम्परा रही ही नहीं कि किसी महिला का गला काट देने या जबान काट देने की धमकी दी जाए, फिर भी ऐसी धमकियां सार्वजनिक रूप से दी गईं और इसके बाद सड़कों पर उतर कर जन, धन की हानि की गई। लोग घायल हुए, मारे भी गए। जो मसला चर्चाओं और उच्चस्तरीय जिममेदार व्यक्तियों के दृढ़ हस्तक्षेप से हल हो सकता था उसे सड़कों तक जाने दिया गया। प्रदर्शन के इसी क्रम में पुणे में किए गए प्रदर्शनों ने भी जिस तरह हिंसक रूप लिया था वह भी चौंकाने वाला था। उस समय यह तय करना कठिन था कि दोषी किसे ठहराया जाए, प्रदर्शन के हिंसक उन्माद में बदलने को या उन पुलिसकर्मियों को जिन्होंने प्रदर्शनकारियों पर गोलियां चलाईं। किन्तु प्रदर्शन का ताज़ा उदाहरण चौंकाने वाला है। इसने प्रदर्शन की योजना को अराजक उन्माद में बदलने के बीच मौजूद कई तथ्य बेनकाब कर दिए हैं।
सुप्रिमकोर्ट के निर्णय के विरुद्ध सरकार याचिका लगाने जा ही रही थी कि इसके पहले ही प्रदर्शन की योजना तैयार हो गई। यदि यह प्रदर्शन शांतिपूर्ण रहता तो इससे याचिकाकर्त्ता सरकार को बल मिलता लेकिन कुछ असामाजिक तत्वों ने अपनी अवसरवादिता को गुल खिला दिया और सोशल मीडिया को हथियार बनाते हुए मन में उग्रता भर दी। दूसरी जो ध्यान देने योग्य तथ्य है वह यह कि इस देशव्यापी इस प्रदर्शन में बच्चों को सड़कों पर उतारा गया। ऐसे बच्चों को जो सुप्रीमकोर्ट या उसके आदेश या उस आदेश की लाभ-हानि को समझते ही नहीं हैं। उन बच्चों के नन्हें हाथों में पत्थर और डंडे थमा दिए गए। शायद उन बच्चों के माता-पिता को भी इसकी जानकारी नहीं रही होगी। बस, उनसे चूक यही हुई होगी कि वे ध्यान नहीं दे पाए कि उनके बच्चे उनकी आंखों से ओझल हो कर किस तरफ निकल गए हैं। तीसरा जो सबसे गंभीर तथ्य है, वह है प्रदर्शनकारियों के बीच पिस्तौल और बंदूकधारियों की मौजूदगी जिन्होंने अवसर पा कर अपने शस्त्रों का खुल कर प्रयोग किया। इस तरह के तत्व किसी भी प्रदर्शन कार्यक्रम को पल भर में दाग़दार बना सकते हैं। ऐसा होने पर प्रदर्शन का मूल उद्देश्य हाथों से फिसल जाता है और बची रह जाती हैं लाशें और घायल-कराहते हुए लोग।
2 अप्रैल 2018 का वह दिन बहुत संवेदनशील था। मध्यप्रदेश की शासकीय शालाओं में बच्चों के नवप्रवेश का दिन था। अभिभावकों के मन में अपने बच्चों के नवप्रवेश का उत्साह था। किसी ने भी सोचा नहीं था कि उन्हें नौनिहाल किसी हिंसक प्रदर्शन के बीच फंस सकते हैं। वह तो भला हो प्रदर्शनस्थलों पर डटी पुलिस की तत्परता का कि सभी नौनिहाल सुरक्षित रहे। यहां तक कि स्कूल से लौटते समय प्रदर्शनकारियों की भीड़ में फंसी बच्ची को एक पुलिसकर्मी ने अपनी गोद में उठा कर सुरक्षित स्थान तक पहुंचाया। अन्य प्रदेशों में भी स्कूली बच्चे सुरक्षित अपने-अपने घरों में पहुंच गऐ। मारे गए तो वे लोग जो उन्माद के पहिए तले दब गए। प्रदर्शनकारियों को उग्रता को अपनाने के पहले सोचना चाहिए कि यदि उनके हाथों में हथियार रहेंगे तो वे चल भी सकते हैं, चाहे वह हथियार लाठियां ही क्यों न हों। उन्हें यह भी सोचना चाहिए कि इस तरह सड़कों पर अराजकता फैलने से न जाने कितने बीमार इंसान अस्पतालों तक नहीं पहुंच सकेंगे, न जाने कितनी गर्भवतियों को समय पर चिकित्सा सहायता नहीं मिल सकेगी, न जाने कितने लोग दवाओं से वंचित रह जाएंगे। किसी भी ट्रेन को रोकने यात्रियों को कितनी परेशानी होती है, इसे भी समझना जरूरी है। उन यात्रियों में ईलाज़ के लिए जाने वाला कोई बीमार भी हो सकता है उनमें कोई किसी अपने के अंतिम दर्शन के लिए पहुंचने की व्याकुलता रखने वाला भी हो सकता है। उनमें स्त्रियां और बच्चे तो होते ही हैं जो दहशत से भरा वह समय कैसे गुज़ार पाते हैं, यह बयान कर पाना भी कठिन है।
यह भी याद रखने की बात है कि आज ई-बैंकिंग, ई-मार्केटिंग दैनिकचर्या में शामिल हो गई है। सोशल मीडिया का दुरुपयोग करने के कारण सरकार को बारह घंटे से भी अधिक समय के लिए इंटरनेट सेवाएं बंद करनी पड़ीं। इस दौरान ई-बैंकिंग, ई-मार्केटिंग और ई-लर्निंग वालों को कितनी मानसिक और आर्थिक क्षति उठानी पड़ी होगी इसका अंदाज़ा भी नहीं लगाया जा सकता है। सोशल मीडिया का दुरुपयोग करने वालों को इस बारे में एक बार जरूर सोचना चाहिए। जो लोग राजनीतिक बहाव में बह कर अपनी शक्ति का प्रदर्शन करते हैं, उन्हें संवेदनाओं को बचाने के लिए भी आगे आना होगा। सिर्फ चंद लोगों को ही नहीं बल्कि प्रत्येक व्यक्ति को इस तथ्य को समझना ही होगा कि अपने नैतिक दायित्व से विमुख होते हुए केवल तमाशबीन बनने से अवसरवादियों के हौसले बढ़ते रहेंगे और प्रदर्शन इसी तरह उन्माद की भेंट चढ़ते रहेंगे। इसी तरह बयानबाजों को भी अपने-अपने राजनीतिक स्वार्थ भुला कर मानवता के हित में सोचना होगा। उन्हें टटोलना होगा अपनी अंतरात्मा को कि वे कब तक राजनीतिक स्वार्थ के लिए जनता को गुमराह करते रहेंगे और उन्हें हिंसा में झोंकते रहेंगे। यह तो लोकतंत्र की राजनीति नहीं है। लोकतंत्र जनता को एक ओर जहां अपना अधिकार मांगने की आजादी देता है वहीं उनकी सुरक्षा का भी वादा करता है। लोकतंत्र में लोक यानी जनता का भी दायित्व बनता है कि वह शांति बनाए रखे और अपने जान-माल को क्षति न पहुंचाए। यदि उसे किसी राजनीतिक दल को सबक सिखाना है या उससे अपनी मांगे मनवाना है तो मताधिकार के रूप में सबसे बड़ा हथियार उसके हाथों में रहता है। फिर जहां मताधिकार का हथियार हाथ में हो, वहां उग्रता या हिंसा के लिए तो कोई जगह होनी ही नहीं चाहिए।
देश के व्यवस्थापकों, नेतृत्वकर्त्ताओं और अपनी मांगों को ले कर आवाज़ उठाने वालों को - यानी सभी को यह बात याद रखनी ही होगी कि अराजकता समाज के लिए सबसे बड़ा अभिशाप है। इससे किसी का भला नहीं होता बल्कि बुरा ही बुरा होता है। प्रश्न प्रशासनिक लापरवाहियों एवं असंवेदनशीलता का ही नहीं है बल्कि उस असंवेदनशीलता का है जो पूरे समाज को अपने शिकंजे में कसती जा रही है। यह हर प्रदर्शनकारी को याद रखना ही होगा कि हिंसा एक संक्रामक रोग की तरह होता है जिसे वायरल होते देर नहीं लगती। चाहे सिनेमा को ले कर हो या जातीय अधिकारों को ले कर प्रदर्शन हो, उसे संयमित और अहिंसक ही होना चाहिए। अराजकता के उन्माद का बार-बार प्रदर्शन लोकतंत्र के मूल्यों को भी तार-तार कर रहा है।
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(दैनिक सागर दिनकर, 04.04.2018 )
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