Tuesday, August 27, 2019

जीवन प्रबंधन की प्रेरणा देते विघ्नहर्ता गणेश - डाॅ. शरद सिंह .. ‘‘दैनिक जागरण’’ के सभी संस्करणों में प्रकाशित

‘‘दैनिक जागरण’’ के सभी संस्करणों में प्रकाशित सप्तरंग परिशिष्टि में मेरा लेख ‘‘जीवन प्रबंधन की प्रेरणा देते विघ्नहर्ता गणेश’’ प्रकाशित हुआ है। इसे आप भी पढ़िए... - डाॅ. शरद सिंह
🙏हार्दिक धन्यवाद ‘‘दैनिेक जागरण’’ 🙏
https://epaper.jagran.com/epaper/27-aug-2019-4-delhi-city-edition-delhi-city-page-23.html
 
Dr Sharad Singh article on Lord Ganesh - Saptrang, Dainik Jagaran in all edition , 27 Augast 2019

'राजस्थान पत्रिका' समाचारपत्र के सागर संस्करण "पत्रिका" के सफलतापूर्वक 4 वर्ष पर मेरी शुभकामनाएं - डाॅ. शरद सिंह

'राजस्थान पत्रिका' समाचारपत्र के सागर संस्करण "पत्रिका" के सफलतापूर्वक 4 वर्ष पूरे होने पर प्रकाशित मेरी शुभकामनाएं...- डाॅ. शरद सिंह
27.08.2019 
'राजस्थान पत्रिका' समाचारपत्र के सागर संस्करण "पत्रिका" के सफलतापूर्वक 4 वर्ष पर मेरी शुभकामनाएं - डाॅ. शरद सिंह, 27.08.2019
 

Wednesday, August 21, 2019

चर्चा प्लस ... पद्मश्री कुर्रतुलऐन हैदर की पुण्यतिथि (21 अगस्त) पर विशेष : 'आग का दरिया पार’ करने वाली लेखिका - डाॅ. शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
चर्चा प्लस ... 
 
पद्मश्री कुर्रतुलऐन हैदर की पुण्यतिथि (21 अगस्त) पर विशेष:

 
'आग का दरिया पार’ करने वाली लेखिका

 
- डाॅ. शरद सिंह

 
भारतीय साहित्य का इतिहास साक्षी है कि महिलाओं में मुखर होने का साहस बहुत देर से आया। सामाजिक दबाव के कारण वे चाह कर भी अपनी दशा-दिशा को साहित्य में नहीं उतार पाती थीं। हिन्दी की प्रथम मौलिक कहानी मानी जाने वाली कहानी ‘दुलाईवाली’ की लेखिका को ‘बंग महिला’ के छद्म नाम से रचनाएं लिखनी पड़ी थीं। ऐेसे विपरीत वातावरण में ‘मेेरे सनमख़ाने’ और ‘आग का दरिया’ जैसी कृतियां लिखना आग के दरिया में उतरने के समान था। कुर्रतुलऐन हैदर आग के दरिया में न केवल उतरीं बल्कि उन्होंने इसे हिम्म्त के साथ पार भी किया।

 
Charcha Plus - पद्मश्री कुर्रतुलऐन हैदर की पुण्यतिथि (21 अगस्त) पर विशेष - आग का दरिया पार करने वाली लेखिका  -  Charcha Plus Column by Dr Sharad Singh

       हिन्दी हो या उर्दू दोनों में लेखिकाओं एवं कवयित्रियों की अभिव्यक्ति पर अनेक बंधन रहे। यह बंध आज इक्कीसवीं सदी में टूटने लगे हैं किन्तु बीसवीं सदी के मध्य तक स्थिति इतनी सुगम नहीं थी। भारतीय साहित्य का इतिहास साक्षी है कि महिलाओं में मुखर होने का साहस बहुत देर से आया। सामाजिक दबाव के कारण वे चाह कर भी अपनी दशा-दिशा को साहित्य में नहीं उतार पाती थीं। हिन्दी की प्रथम मौलिक कहानी मानी जाने वाली कहानी ‘दुलाईवाली’ की लेखिका राजेन्द्र बाला घोष को ‘बंग महिला’ के छद्म नाम से रचनाएं लिखनी पड़ी थीं। जब महिला साहित्यकार को अपना छद्मनाम से कहानियां लिखनी पड़ें, ऐेसे विपरीत वातावरण में ही आगे चल कर ‘मेेरे सनमख़ाने’ और ‘आग का दरिया’ जैसी कृतियां लिखना आग के दरिया में उतरने के समान था। कुर्रतुलऐन हैदर आग के दरिया में न केवल उतरीं बल्कि उन्होंने इसे हिम्म्त के साथ पार भी किया। कुर्रतुलऐन हैदर की मृत्यु 21 अगस्त 2007 को नोएडा, उत्तर प्रदेश में हुई। उस समय उनकी आयु 80 वर्ष थीं। वे भारतीय साहित्य जगत् में लेखिकाओं के लिए एक बेहतरीन मिसाल हैं।
कुर्रतुलऐन हैदर का जन्म 20 जनवरी 1926 ई. अलीगढ़, उत्तर प्रदेश में उर्दू के जाने-माने लेखक सज्जाद हैदर यलदरम के यहां हुआ था। उनकी मां बिन्ते बाक़र भी उर्दू की लेखक रही हैं। कुर्रतुलऐन हैदर के पिता सज्जाद हैदर यिल्दिरम अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में रजिस्ट्रार थे। कुर्रतुलऐन हैदर के परिवार में तीन पीढ़ियों से लिखने की परंपरा रही। कुर्रतुलऐन हैदर के पिता की गणना उर्दू के प्रतिष्ठित कथाकारों में होती थी। कुर्रतुलऐन हैदर की मां नजर सज्जाद हैदर ‘उर्दू’ की ‘जेन ऑस्टिन’ कहलाती थीं। कुर्रतुलऐन को बचपन से ही लिखने की रुचि रही।
वे बचपन से रईसी व पाश्चात्य संस्कृति में पली-बढ़ीं थीं। उन्होंने प्रारंभिक शिक्षा लालबाग, लखनऊ, उत्तर प्रदेश स्थित गांधी स्कूल में प्राप्त की और अलीगढ़ से हाईस्कूल पास किया। लखनऊ के आईटी कालेज से बी.ए. और लखनऊ विश्वविद्यालय से एम.ए. किया। फिर लन्दन के हीदरलेस आर्ट्स स्कूल में शिक्षा ग्रहण की। लखनऊ में अपने पिता की मौत के बाद कुर्रतुलऐन हैदर भी अपने बड़े भाई मुस्तफा हैदर के साथ पाकिस्तान चली गयीं लेकिन 1951 में वह लन्दन जाकर स्वतंत्र लेखक-पत्रकार के रूप में बीबीसी लन्दन से जुड़ गईं। बाद में ‘द टेलीग्राफ’ की रिपोर्टर और इम्प्रिंट पत्रिका की प्रबन्ध सम्पादक भी रहीं। वह इलेस्ट्रेड वीकली की सम्पादकीय टीम में भी रहीं। सन 1956 में जब वह भारत भ्रमण पर आईं तो उनके पिताजी के अभिन्न मित्र मौलाना अबुल कलाम आजाद ने उनसे पूछा कि क्या वे भारत में बसना चाहेंगी? और वे तुंरत राजी हो गईं तथा जीवनपर्यन्त भारत में ही रहीं। अपने एक साक्षात्कार में उन्होंने अपने भारत लौटने के बारे कहा था कि -‘‘मैं यहां लौट कर कैसे नहीं आती? मेरी जड़ें और मेरा दिल तो यहीं था।’’
उन्होंने अपना कैरियर भले ही एक पत्रकार की हैसियत से शुरू किया लेकिन इसी दौरान वे लिखती भी रहीं और उनकी कहानियां, उपन्यास, अनुवाद, रिपोर्ताज वगैरह सामने आते रहे। साहित्य अकादमी में उर्दू सलाहकार बोर्ड की वह दो बार सदस्य रहीं। विजिटिंग प्रोफेसर के रूप में वह जामिया इस्लामिया विश्वविद्यालय, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय और अतिथि प्रोफेसर के रूप में कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय से भी जुड़ी रहीं। वे अविवाहित रहीं।
सन् 1959 में जब उनका उपन्यास ‘आग का दरिया’ प्रकाशित हुआ, भारत और पाकिस्तान के साहित्य जगत में तहलका मच गया। भारत विभाजन पर तुरन्त प्रतिक्रिया के रूप में हिंसा, रक्तपात और बर्बरता की कहानियां तो बहुत छपीं लेकिन अनगिनत लोगों की निजी एवं एक सांस्कृतिक-ऐतिहासिक त्रासदी को एकदम बेबाकी से कुर्रतुलऐन हैदर ने ही प्रस्तुत किया। ‘ऐनी आपा’ के निकनेम से प्रसिद्ध कुर्रतुलऐन हैदर के उपन्यास ‘आग का दरिया’ में उन्होंने आहत मनुष्यता और मनोवैज्ञानिक अलगाव के मर्म को अंदर तक बड़ी बारीकी से छुआ। जो प्रसिद्धि और लोकप्रियता ‘आग का दरिया’ को मिली, वह किसी अन्य उर्दू साहित्यिक कृति को शायद ही नसीब हुई हो। इस उपन्यास में लगभग ढाई हजार वर्ष के लम्बे वक्त की पृष्ठभूमि को विस्तृत कैनवस पर फैलाकर उपमहाद्वीप की हजारों वर्ष की सभ्यता-संस्कृति, इतिहास, दर्शन और रीति-रिवाज के विभिन्न रंगों की एक ऐसी तस्वीर खींची गई, जिसने अपने पढ़ने वालों को कदम-कदम पर चौेकाया।
कुर्रतुलऐन हैदर ने लिखा था कि -‘‘दुनिया की तरफ से इस्लाम का ठेका इस वक़्त पाकिस्तान सरकार ने ले रखा है। इस्लाम कभी एक बढ़ती हुई नदी की तरह अनगिनत सहायक नदी-नालों को अपने धारे में समेट कर शान के साथ एक बड़े भारी जल-प्रपात के रूप में बहा था, पर अब वही सिमट-सिमटा कर एक मटियाले नाले में बदला जा रहा है। मजा यह है की इस्लाम का नारा लगाने वालों को धर्म, दर्शन से कोई मतलब नहीं। उनको सिर्फ इतना मालूम है कि मुसलमानों ने आठ सौ साल ईसाई स्पेन पर हुकूमत की, एक हजार साल हिन्दू भारत पर और चार सौ साल पूर्वी यूरोप पर।’’ इस तरह का बयान, वह भी किसी स्त्री द्वारा दिया जाना सामाजिक तबके में हंगामा पैदा करने के लिए काफी था। कुर्रतुलऐन को उनके बेबाक लेखन के लिए हतोत्साहित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी गई लेकिन वे डरी नहीं और कलम-कागज थामें डट कर खड़ी रहीं। उनके प्रमुख उपन्यास हैं-‘मेरे भी सनमख़ाने (1949), सफीना-ए-गमे-दिल (1952), आग का दरिया (1959), आखि़री शब के हमसफर (1979 गर्दिशे-रंगे-चमन (1987), चांदनी बेगम (1990), कारे-जहां-दराज है(1978-79), शीशे के घर (1952), पतझर की आवाज (1967) और रोशनी की रफ्तार (1982)। उनके लेखन के लिए उन्हें साहित्य अकादमी, सोवियत लैण्ड नेहरू सम्मान, गालिब सम्मान, ज्ञानपीठ, पद्मश्री से सम्मानित किया गया। अपने जिस साहसी लेखन के लिए कुर्रतुलऐन हैदर को विरोधों एवं अपमानों का समाना करना पड़ा, उसी लेखन ने उन्हें आग का दरिया पार करने वाली साहसी लेखिका की पहचान और सम्मान भी दिलाया।
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(दैनिक ‘सागर दिनकर’, 21.08.2019)

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Thursday, August 15, 2019

स्वतंत्रता संग्राम में बुंदेलखंड की महिलाओं का योगदान - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह - नवभारत में प्रकाशित

Dr (Miss) Sharad Singh

स्वतंत्रता संग्राम में बुंदेलखंड की महिलाओं का योगदान 
  - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह 
       ( #नवभारत में प्रकाशित )
        स्वतंत्रता संग्राम में बुंदेलखंड की महिलाओं का योगदान याद आते ही सबसे पहला नाम मानस में कौंधता है झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का। जिन्होंने हाथ में तलवार लेकर घोड़े पर सवार होकर और अपने मातृत्व धर्म को निभाते हुए पीठ पर अपने नन्हें बालक को बांधकर युद्ध के मैदान में अपनी वीरता का परिचय दिया। महाराष्ट्र में जन्मी लक्ष्मी बाई जब बुंदेलखंड में झांसी की रानी बनकर आईं तो उसके बाद उन्होंने बुंदेलखंड को पूरी तरह से अपना लिया और उसके प्रति समर्पित हो गईं। झांसी की रक्षा के लिए उन्होंने न केवल अंग्रेजों से लोहा लिया वरन् अपनी जान की बाजी भी लगा दी। 
स्वतंत्रता संग्राम में बुंदेलखंड की महिलाओं का योगदान  - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह  - नवभारत में प्रकाशित
झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की भांति वीरांगना झलकारी बाई का नाम भी स्वतंत्रता संग्राम में स्वर्ण अक्षरों में लिखा हुआ है। वे एक बहुत छोटे से गांव जिसका नाम था लड़िया, में कोरी परिवार में पैदा हुई थीं। झलकारी का बचपन का नाम झलरिया था। उनके माता-पिता की आर्थिक दशा अत्यंत शोचनीय थी किंतु उन्होंने अपनी बेटी झलकारी का लालन-पालन पूरे ममत्व और लगन से किया। समय आने पर झलकारी बाई का विवाह झांसी में निवास करने वाले पूरन कोरी के साथ हुआ। झांसी में रहते हुए झलकारी बाई रानी लक्ष्मी बाई के संपर्क में आईं। वे लक्ष्मी बाई के व्यक्तित्व से बेहद प्रभावित हुईं। रानी ने भी एक सखी के समान झलकारी बाई को अपनाया। झलकारी बाई ने रानी की वफादारी का हलफ उठाया। ण्क बार उन्होंने अपने पति पूरन कोरी से कहा था कि ‘‘हम पर रानी को एहसान है। हमने उनको नमक खाओ है। हम दिखा देहें के झलकारी का है।’’ 
रानी लक्ष्मी बाई ने स्त्रियों के जो विशाल सेना बनाई थी उसमें झलकारी को मुख्य स्थान दिया गया था। झलकारी ने भी लक्ष्मी बाई के हर सैन्य अभियान में उनका साथ दिया। एक बार झलकारी ने सभी जाति की स्त्रियों को इकट्ठा करके इतना जोशीला भाषण दिया था कि महिलाएं इतनी उत्तेजित हो उठी थीं कि उन्होंने स्वयं अपने हाथों में बंदूक उठाकर अंग्रेजों पर निशाना साधना शुरू कर दिया था। झलकारी ने इस बुंदेली कहावत को चरितार्थ कर दिया था कि ‘‘गर्दन कट जाए पर शीश नहीं झुकेगा’’।
जैतपुर बुंदेलखंड की एक छोटी-सी रियासत थी 27 नवंबर 1842 को लार्ड एलेन रोने जैतपुर पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया था। उस समय जैतपुर के राजा परीक्षित थे जो आजादी के दीवाने थे। उन्होंने अंग्रेजों संे युद्ध किया किन्तु सैन्यबल की कमी होने से उन्हें पराजय का मुंह देखना पड़ा। अंग्रेज सरकार ने जैतपुर का शासन अपने चाटुकार सामंत को दे दिया। जैतपुर के राजा इस दुख को सहन न कर सके और उनका प्राणांत हो गया। राजा परीक्षित की रानी को अपने पति के राज्य को पुनः प्राप्त करने के लिए अंग्रेज सरकार के विरुद्ध क्रांति का रास्ता अपनाना पड़ा। जैतपुर, सिमरिया को रानी ने अंग्रेजों से छीन लिया। तब स्थानीय मजिस्ट्रेट के आदेश के विरुद्ध रानी ने जैतपुर में एक हथियारबंद सेना रख्ना शुरू कर दिया। जैतपुर की रानी को मजिस्ट्रेट ने दोबारा चेतावनी दी कि वे जैतपुर से अपने हथियारबंद सेना हटा दें। लेकिन रानी मजिस्ट्रेट के दबाव को मानने को तैयार नहीं हुई। अंततः रानी को चेतावनी दी गई। फिर भी वे नहीं झुंकीं।
जालौन उत्तर प्रदेश का एक छोटा सा हिस्सा है। इसी जालौन में वीरांगना ताई बाई ने सन् 1857 की क्रांति में हिस्सा लेकर लगभग 7 माह जालौन जनपद में स्वतंत्र क्रांतिकारी सरकार स्थापित करके उसके प्रमुख के रूप में कार्य किया और अन्य प्रमुख क्रांतिकारियों जैसे राव साहब तात्या टोपे आदि की धन तथा सैन्य बल से सहायता की। अंग्रेज तो उनसे अधिक नाराज थे कि जनपद के जनमानस से उनकी स्मृति को मिटाने के लिए उनके किले को तुड़वा कर जमीन में मिला दिया गया। 
 बांदा नवाब की बेटी राबिया बेगम का नाम भी बुंदेलखंड की स्वतंत्रता संग्राम सेनानी महिलाओं में एक अग्रणी नाम है। अल्पायु में ही उन्हें इस बात का एहसास हो गया था कि जब तक अंग्रेजों को बुंदेलखंड से दूर नहीं किया जाएगा तब तक बुंदेलखंड का विकास नहीं हो सकेगा। बुंदेलखंड के विभिन्न राज्य सुरक्षित नहीं रह सकेंग। इसी बात को ध्यान में रखते हुए उन्होंने अपने हाथों में तलवार ले कर अंग्रेजों का सामना किया और अपने प्राणों की आहुति दे दी।
 सन् 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के बाद देश में स्वतंत्रता आंदोलन क्रमशः चलता रहा। महात्मा गांधी के नेतृत्व में असहयोग आंदोलन चलाया गया। इस असहयोग आंदोलन में भी बुंदेलखंड की महिलाओं ने बढ़-चढ़कर भाग लिया। झांसी की पिस्ता देवी तथा चंद्रमुखी देवी की प्रमुख भूमिका रही। इन दोनों महिलाओं ने नगर के मोतीलाल पुस्तकालय के सामने विदेशी वस्त्रों की होली जलाई थी। झांसी की ही लक्ष्मण कुमारी शर्मा, रानी राजेंद्र कुमारी, काशीबाई आदि महिलाएं भी स्वतंत्रता संग्राम में अपना योगदान देकर अमर हो गई।
हमीरपुर जिले में असहयोग आंदोलन में सहयोग दिया राजेंद्र कुमारी ने। रानी राजेंद्र कुमारी ने खादी को अपनाया तथा स्वतंत्रता संग्राम के पक्ष में पर्चे भी बांटे, जेल गईं। राठ की गंगा देवी, वीरा गांव की गुलाब देवी, बांदा की अनुसूया देवी ने अपने नेतृत्व में महिलाओं को संगठित किया तथा घर-घर जाकर स्वतंत्रता आंदोलन के महत्व को समझाने का बीड़ा उठाया जिसके कारण उन्हें अंग्रेजों का विरोध झेलना पड़ा। सुप्रसिद्ध साहित्यकार एवं स्वतंत्रता संग्राम सेनानी वृंदावन लाल वर्मा की पत्नी कांति देवी भी स्वाधीनता आंदोलन की अग्रणी महिलाओं में से एक रहीं। छतरपुर रियासत की सरयू देवी पटेरिया गांधीजी के सविनय अवज्ञा आंदोलन को बुंदेलखंड में प्रसारित करने में अग्रणी रहीं जिसके कारण उन्हें गर्भवती स्थिति में भी जेल में रखा। पन्ना, दमोह और सागर की महिलाएं भी स्वतंत्रता आंदोलन में पीछे नहीं रहीं। सभी ने अपने पारिवारिक कर्तव्यों को निभाते हुए स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया और देश को आजाद कराने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
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(नवभारत, 15.08.2019)
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Wednesday, August 14, 2019

चर्चा प्लस ...स्वतंत्रता आंदोलन में बुंदेलखंड की महिलाओं का योगदान - डाॅ. शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
चर्चा प्लस ... 

स्वतंत्रता आंदोलन में बुंदेलखंड की महिलाओं का योगदान    
- डाॅ. शरद सिंह                                                               
           आज समाज को हम जाति, धर्म, लिंग के भेदभाव में बंटा हुआ पाते हैं किन्तु स्वतंत्रता आंदोलन के समय ये सारे भेद मानो मिट गए थे। जहां बुंदेलखंड के पुरुषों ने देश को आजाद कराने के लिए अपनी जान की बाज़ी लगाई वैसे ही बुंदेलखंड की महिलाओं ने अपने प्राण दांव पर लगा दिए थे। उन्होंने तलवार उठाई, वे जेल गईं और अंग्रेजों की बंदूकों की गोलियां भी खाईं। उन्होंने साबित कर दिया कि महिलाएं यदि ठान लें तों दुनिया की कोई ताकत उन्हे झुका नहीं सकती है, कोई डर उन्हें डरा नहीं सकता है। दरअसल, जिन्होंने गुलामी की पीड़ा नहीं झेली उनके लिए आजादी के महत्व को महसूस करना जरा कठिन हो सकता है। वह समय था जब देश भक्ति के तराने गाना भी अपराध था। आज अभिव्यक्ति की आजादी है जो उस समय नहीं थी। इस अभिव्यक्ति आजादी का सम्मान करना भी तो हमारा कर्तव्य है। स्वतंत्रता एक नेमत है और इसे सम्हाल कर रखना हमारा दायित्व है।
चर्चा प्लस ...स्वतंत्रता आंदोलन में बुंदेलखंड की महिलाओं का योगदान - डाॅ. शरद सिंह
      स्वतंत्रता संग्राम में बुंदेलखंड की महिलाओं का योगदान याद आते ही सबसे पहला नाम मानस में कौंधता है झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का। जिन्होंने हाथ में तलवार लेकर घोड़े पर सवार होकर और अपने मातृत्व धर्म को निभाते हुए पीठ पर अपने नन्हें बालक को बांधकर युद्ध के मैदान में अपनी वीरता का परिचय दिया। महाराष्ट्र में जन्मी लक्ष्मी बाई जब बुंदेलखंड में झांसी की रानी बनकर आईं तो उसके बाद उन्होंने बुंदेलखंड को पूरी तरह से अपना लिया और उसके प्रति समर्पित हो गईं। झांसी की रक्षा के लिए उन्होंने न केवल अंग्रेजों से लोहा लिया वरन् अपनी जान की बाजी भी लगा दी। 
झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की भांति वीरांगना झलकारी बाई का नाम भी स्वतंत्रता संग्राम में स्वर्ण अक्षरों में लिखा हुआ है। वे एक बहुत छोटे से गांव जिसका नाम था लड़िया, में कोरी परिवार में पैदा हुई थीं। झलकारी का बचपन का नाम झलरिया था। उनके माता-पिता की आर्थिक दशा अत्यंत शोचनीय थी किंतु उन्होंने अपनी बेटी झलकारी का लालन-पालन पूरे ममत्व और लगन से किया। समय आने पर झलकारी बाई का विवाह झांसी में निवास करने वाले पूरन कोरी के साथ हुआ। झांसी में रहते हुए झलकारी बाई रानी लक्ष्मी बाई के संपर्क में आईं। वे लक्ष्मी बाई के व्यक्तित्व से बेहद प्रभावित हुईं। रानी ने भी एक सखी के समान झलकारी बाई को अपनाया। झलकारी बाई ने रानी की वफादारी का हलफ उठाया। ण्क बार उन्होंने अपने पति पूरन कोरी से कहा था कि ‘‘हम पर रानी को एहसान है। हमने उनको नमक खाओ है। हम दिखा देहें के झलकारी का है।’’ 
रानी लक्ष्मी बाई ने स्त्रियों के जो विशाल सेना बनाई थी उसमें झलकारी को मुख्य स्थान दिया गया था। झलकारी ने भी लक्ष्मी बाई के हर सैन्य अभियान में उनका साथ दिया। एक बार झलकारी ने सभी जाति की स्त्रियों को इकट्ठा करके इतना जोशीला भाषण दिया था कि महिलाएं इतनी उत्तेजित हो उठी थीं कि उन्होंने स्वयं अपने हाथों में बंदूक उठाकर अंग्रेजों पर निशाना साधना शुरू कर दिया था। झलकारी ने इस बुंदेली कहावत को चरितार्थ कर दिया था कि ‘‘गर्दन कट जाए पर शीश नहीं झुकेगा’’।
जैतपुर बुंदेलखंड की एक छोटी-सी रियासत थी 27 नवंबर 1842 को लार्ड एलेन रोने जैतपुर पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया था। उस समय जैतपुर के राजा परीक्षित थे जो आजादी के दीवाने थे। उन्होंने अंग्रेजों संे युद्ध किया किन्तु सैन्यबल की कमी होने से उन्हें पराजय का मुंह देखना पड़ा। अंग्रेज सरकार ने जैतपुर का शासन अपने चाटुकार सामंत को दे दिया। जैतपुर के राजा इस दुख को सहन न कर सके और उनका प्राणांत हो गया। राजा परीक्षित की रानी को अपने पति के राज्य को पुनः प्राप्त करने के लिए अंग्रेज सरकार के विरुद्ध क्रांति का रास्ता अपनाना पड़ा। जैतपुर, सिमरिया को रानी ने अंग्रेजों से छीन लिया। तब स्थानीय मजिस्ट्रेट के आदेश के विरुद्ध रानी ने जैतपुर में एक हथियारबंद सेना रख्ना शुरू कर दिया। जैतपुर की रानी को मजिस्ट्रेट ने दोबारा चेतावनी दी कि वे जैतपुर से अपने हथियारबंद सेना हटा दें। लेकिन रानी मजिस्ट्रेट के दबाव को मानने को तैयार नहीं हुई। अंततः रानी को चेतावनी दी गई। फिर भी वे नहीं झुंकीं।
जालौन उत्तर प्रदेश का एक छोटा सा हिस्सा है। इसी जालौन में वीरांगना ताई बाई ने सन् 1857 की क्रांति में हिस्सा लेकर लगभग 7 माह जालौन जनपद में स्वतंत्र क्रांतिकारी सरकार स्थापित करके उसके प्रमुख के रूप में कार्य किया और अन्य प्रमुख क्रांतिकारियों जैसे राव साहब तात्या टोपे आदि की धन तथा सैन्य बल से सहायता की। अंग्रेज तो उनसे अधिक नाराज थे कि जनपद के जनमानस से उनकी स्मृति को मिटाने के लिए उनके किले को तुड़वा कर जमीन में मिला दिया गया। 
 बांदा नवाब की बेटी राबिया बेगम का नाम भी बुंदेलखंड की स्वतंत्रता संग्राम सेनानी महिलाओं में एक अग्रणी नाम है। अल्पायु में ही उन्हें इस बात का एहसास हो गया था कि जब तक अंग्रेजों को बुंदेलखंड से दूर नहीं किया जाएगा तब तक बुंदेलखंड का विकास नहीं हो सकेगा। बुंदेलखंड के विभिन्न राज्य सुरक्षित नहीं रह सकेंग। इसी बात को ध्यान में रखते हुए उन्होंने अपने हाथों में तलवार ले कर अंग्रेजों का सामना किया और अपने प्राणों की आहुति दे दी।
 सन् 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के बाद देश में स्वतंत्रता आंदोलन क्रमशः चलता रहा। महात्मा गांधी के नेतृत्व में असहयोग आंदोलन चलाया गया। इस असहयोग आंदोलन में भी बुंदेलखंड की महिलाओं ने बढ़-चढ़कर भाग लिया। झांसी की पिस्ता देवी तथा चंद्रमुखी देवी की प्रमुख भूमिका रही। इन दोनों महिलाओं ने नगर के मोतीलाल पुस्तकालय के सामने विदेशी वस्त्रों की होली जलाई थी। झांसी की ही लक्ष्मण कुमारी शर्मा, रानी राजेंद्र कुमारी, काशीबाई आदि महिलाएं भी स्वतंत्रता संग्राम में अपना योगदान देकर अमर हो गई।
हमीरपुर जिले में असहयोग आंदोलन में सहयोग दिया राजेंद्र कुमारी ने। रानी राजेंद्र कुमारी ने खादी को अपनाया तथा स्वतंत्रता संग्राम के पक्ष में पर्चे भी बांटे, जेल गईं। राठ की गंगा देवी, वीरा गांव की गुलाब देवी, बांदा की अनुसूया देवी ने अपने नेतृत्व में महिलाओं को संगठित किया तथा घर-घर जाकर स्वतंत्रता आंदोलन के महत्व को समझाने का बीड़ा उठाया जिसके कारण उन्हें अंग्रेजों का विरोध झेलना पड़ा। सुप्रसिद्ध साहित्यकार एवं स्वतंत्रता संग्राम सेनानी वृंदावन लाल वर्मा की पत्नी कांति देवी भी स्वाधीनता आंदोलन की अग्रणी महिलाओं में से एक रहीं। छतरपुर रियासत की सरयू देवी पटेरिया गांधीजी के सविनय अवज्ञा आंदोलन को बुंदेलखंड में प्रसारित करने में अग्रणी रहीं जिसके कारण उन्हें गर्भवती स्थिति में भी जेल में रखा। पन्ना, दमोह और सागर की महिलाएं भी स्वतंत्रता आंदोलन में पीछे नहीं रहीं। सभी ने अपने पारिवारिक कत्र्तव्यों को निभाते हुए स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया और देश को आजाद कराने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
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(दैनिक ‘सागर दिनकर’, 14.08.2019)
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Thursday, August 8, 2019

कश्मीर की आंच को महसूस किया था बुंदेलखंड ने भी - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह …. नवभारत में प्रकाशित


Dr (Miss) Sharad Singh
- डॉ. (सुश्री) शरद सिंह 
 
 
    धारा 370 एक ऐसा ज्वलंत मुद्दा रहा है जो कई दशकों से प्रतीक्षा कर रहा था सुलझाए जाने का। धारा 370 के हटते ही कश्मीर का देश में विधिवत् सम्मिलन हो सकता था। प्रसन्नता है कि एक बार फिर मोदी सरकार ने अपनी दृढ़ता का परिचय दिया। एक बड़ी राजनीतिक त्रुटि को सुधारते हुए कश्मीर में शांति स्थापना और वहां के विस्थापित एवं पीड़ित नागरिकों को एक खुशहाल ज़िन्दगी देने के लिए जरूरी था कि कश्मीर को धारा 370 से मुक्त कर के भारत के अन्य राज्यों की भांति आजादी से सांस लेने दिया जाए। 
      सदियों से कश्मीर में रह रहे कश्मीरी पंडितों को 1990 में आतंकवाद की वजह से घाटी छोड़नी पड़ी या उन्हें जबरन निकाल दिया गया। कश्मीरी पंडितों को कश्मीर में बेरहमी से सताया गया। उनकी बेरहमी से हत्याएं की गई। उनकी स्त्रियों, बहनों और बेटियों के साथ दुष्कर्म किया गया। उनकी लड़कियों का जबरन निकाह मुस्लिम युवकों से कराया गया। कश्मीर के पंडितों को बिना किसी गलती के ही अपने घर से बेघर हो गया। उन्हें शायद अपनी शांतिप्रियता के कारण ही यह दिन देखने पड़ा कि सब कुछ होते हुए भी वे और उनके बच्चे सड़क पर आ गए। राजनेताओं की उपेक्षा ने भी हाशिए पर ला दिया। सदियों से कश्मीर में रह रहे कश्मीरी पंडितों को 1990 में आतंकवाद की वजह से घाटी छोड़नी पड़ी या उन्हें जबरन निकाल दिया गया। कश्मीरी पंडितों को कश्मीर में बेरहमी से सताया गया। उनकी बेरहमी से हत्याएं की गई। उनकी स्त्रियों, बहनों और बेटियों के साथ दुष्कर्म किया गया। उनकी लड़कियों का जबरन निकाह मुस्लिम युवकों से कराया गया। यह अत्याचार कई वर्षो तक चला, लेकिन केंद्र और राज्य सरकारों ने कभी भी उन्हें सुरक्षा प्रदान करने में रुचि नहीं दिखाई। आज भी ये जम्मू और दिल्ली के शरणार्थी शिविरों में बदहाल अवस्था में रह रहे हैं, लेकिन सरकारें इनकी समस्याओं के समाधान के नाम पर चुप्पी साधे बैठी रहीं हैं। 4 जनवरी 1990 को कश्मीर के प्रत्येक हिंदू घर पर एक नोट चिपकाया गया, जिस पर लिखा था- कश्मीर छोड़ के नहीं गए तो मारे जाओगे। सबसे पहले हिंदू नेता एवं उच्च अधिकारी मारे गए। फिर हिंदुओं की स्त्रियों को उनके परिवार के सामने सामूहिक दुष्कर्म कर जिंदा जला दिया गया या निर्वस्त्र अवस्था में पेड़ से टांग दिया गया। बालकों को पीट-पीट कर मार डाला। कश्मीर से 3.5 लाख हिंदू पलायन कर गए। भारत के विभाजन के तुरंत बाद ही कश्मीर पर पाकिस्तान ने कबाइलियों के साथ मिलकर आक्रमण कर दिया और बेरहमी से कई दिनों तक कश्मीरी पंडितों पर अत्याचार किए गए, क्योंकि पंडित नेहरू ने सेना को आदेश देने में बहुत देर कर दी थी। इस देरी के कारण जहां पकिस्तान ने कश्मीर के एक तिहाई भू-भाग पर कब्जा कर लिया, वहीं उसने कश्मीरी पंडितों का कत्लेआम कर उसे पंडित विहीन कर दिया। 
    पाकिस्तान समर्थित आतंकियों द्वारा कश्मीर घाटी में बड़े पैमाने पर आतंकी वारदातें की गई। आतंकियों के निशाने पर कश्मीरी पंडित रहे, जिससे उन्हें अपनी पवित्र भूमि से बेदखल होना पड़ा और अब वे अपने ही देश में शरणार्थियों का जीवन जी रहे हैं। पिछले 23 वर्षो से जारी आतंकवाद ने घाटी के मूल निवासी कहे जाने वाले लाखों कश्मीरी पंडितों को निर्वासित जीवन व्यतीत करने पर मजबूर कर दिया है। 24 अक्टूबर, 1947 की बात है, पठान जातियों के कश्मीर पर आक्रमण को पाकिस्तान ने उकसाया, भड़काया और समर्थन दिया। तब तत्कालीन महाराजा हरि सिंह ने भारत से मदद का आग्रह किया। नेशनल कांफ्रेंस (नेकां), जो कश्मीर सबसे बड़ा लोकप्रिय संगठन था व उसके अध्यक्ष शेख अब्दुल्ला थे, ने भी भारत से रक्षा की अपील की। पहले अलगाववादी संगठन ने कश्मीरी पंडितों से केंद्र सरकार के खिलाफ विद्रोह करने के लिए कहा था, लेकिन जब पंडितों ने ऐसा करने से इनकार दिया तो उनका संहार किया जाने लगा। ’जेहाद’ और ’निजामे-मुस्तफा’ के नाम पर बेघर किए गए लाखों कश्मीरी पंडितों के वापस लौटने के सारे रास्ते बंद कर दिए। ऐसे में जातिसंहार और निष्कासन के शिकार कश्मीरी पंडित घाटी में अपने लिए ’होम लैंड’ की निरंतर मांग करते रहे हैं। 
 
     मेरा जन्म बुंदेलखंड के एक छोटे से जिला मुख्यालय पन्ना में हुआ था। छः सरकारी मकानों की एक कॉलोनी थी जिसका नाम था हिरणबाग। दरअसल, वह एक बाग था जिसमें राजाशाही के समय हिरण पाले जाते थे। अधिग्रहण के बाद पीडब्ल्यूडी ने वहां छः मकान बनवाए जो मात्र सरकारी शिक्षिकाओं को एलॉट किए जाते थे। मेरी मां डॉ विद्यावती भी शिक्षिका रहीं अतः रीवा से स्थानांतरित होने पर उन्हें भी हिरणबाग में एक मकान एलॉट किया गया। वहीं मेरा जन्म हुआ। हमारे पड़ोस में शिक्षिका राजकुमारी दर रहा करती थीं। गोरी-चिट्टी और कुछ अलग बोली-लहजे वालीं। वे कश्मीरी थीं। जब तक वे हिरणबाग में रहीं तब तक मेरा उनके घर आना-जाना बना रहा। बड़े होने पर किसी चर्चा के दौरान मुझे पता चला था कि वे कश्मीरी विस्थापित पंडित थीं। जिन्हें अपने माता-पिता के साथ सन् 1947 के बाद कश्मीर छोड़ कर भागना पड़ा था और आजीविका उन्हें पन्ना जैसे सुदूर क्षेत्र में ले आई थी। इसके बाद संयोगवश एक और आत्मीय कश्मीरी पंडित भुवनपति शर्मा से मेरा परिचय हुआ जो सदा के लिए मेरे बड़े भाई बन गए। वे दूरदर्शन में डिप्टी कंट्रोलर (प्रोग्राम) के पद से सेवानिवृत्त हुए और अब अमेरिका के वर्जीनिया राज्य में रह रहे हैं। जब भी उनसे मुलाक़ात होती तो यह सोच कर दुख होता कि यह सहज, शालीन, मिलनसार व्यक्ति भी एक विस्थापित कश्मीरी है। राजनीतिक एवं धार्मिक अंधत्व कितना दुखदाई होता है, इस पीड़ा को मैंने बुंदेलखंड में रहते हुए इन दो व्यक्तियों के जीवन से महसूस किया। कश्मीर का जिक्र आते ही मैंने इन दोनों शख़्सियतों की आंखों में आंसू देखे थे। मात्र मैंने ही नहीं वरन् समूचे बुंदेलखंड ने विस्थापित कश्मीरियों की पीड़ा की आंच को महसूस किया है। आज यह सोच कर ही खुशी हो रही है कि इन दोनों को ही नहीं वरन् प्रत्येक उस कश्मीरी को राहत मिली होगी जो कभी अपनी मातृभूमि कश्मीर लौटने के बारे में सोच भी नहीं पाता रहा होगा। 
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Wednesday, August 7, 2019

चर्चा प्लस ... 70 साल बाद कश्मीर से अलविदा धारा 370 - डॉ. शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
चर्चा प्लस ... 

70 साल बाद कश्मीर से अलविदा धारा 370
- डॉ. शरद सिंह


महान विचारक सुकरात ने कहा था कि ‘‘ज़िन्दगी नहीं बल्कि एक अच्छी ज़िन्दगी मायने रखती है।‘‘ कश्मीर अभी तक ज़िन्दगी जी रहा था किन्तु अब अच्छी ज़िन्दगी जिएगा। लगभग 70 साल पहले हुई राजनीतिक त्रुटि को इस प्रकार दृढ़तापूर्वक सुधारे जाने के लिए निश्चित रूप से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह प्रशंसा के पात्र हैं। दैनिक सागर दिनकर के अपने इसी कॉलम ‘‘चर्चा प्लस’’ में मैंने 17.01.2018 को जो लेख मैंने धारा 370 पर लिखा था उसका शीर्षक ही था कि ‘‘धारा 370 की ऐतिहासिक भूल अब सुधरनी ही चाहिए’’। मैं यह नहीं कहती हूं कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अथवा गृहमंत्री अमित शाह ने मेरा लेख पढ़ा, वरन् उन्होंने उस चाहत को पढ़ा जो हर भारतीय के दिल पर लिखी हुई थी।

Charcha Plus - 70 साल बाद कश्मीर से अलविदा धारा 370  -  Goodbye Article 370 ... Charcha Plus Column by Dr Sharad Singh
       70 साल बाद आखिर वह हो ही गया जिसे 70 साल पहले हो जाना चाहिए था। प्रत्येक भारतीय आज यही कह रहा है कि-‘‘धन्यवाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह जी!’’
धारा 370 एक ऐसा ज्वलंत मुद्दा रहा है जो कई दशकों से प्रतीक्षा कर रहा था सुलझाए जाने का। मोदी सरकार ने अडिग रहते हुए जिस प्रकार ट्रिपल तलाक और नोटबंदी जटिल मामलों को सुलझाया एवं लागू किया, उसी प्रकार की दृढ़ता की अपेक्षा थी धारा 370 के संदर्भ में। क्योंकि इस धारा के हटते ही कश्मीर का देश में विधिवत् सम्मिलन हो सकेगा। प्रसन्नता है कि एक बार फिर मोदी सरकार ने अपनी दृढ़ता का परिचय दिया। देश की आजादी के बाद कश्मीर को मिले विशेष दर्जे पर मैं यहां चर्चा कर रही हूं कुछ ऐसे तथ्यों और बिन्दुओं की जिन्हें मैंने अपनी पुस्तकों ‘‘राष्ट्रवादी व्यक्तित्व श्यामाप्रसाद मुखर्जी’’ तथा ‘‘राष्ट्रवादी व्यक्तित्व सरदार वल्लभभाई पटेल’’ में लेखबद्ध किया है। अपनी पुस्तक ‘‘राष्ट्रवादी व्यक्तित्व श्यामाप्रसाद मुखर्जी’’ में मैंने तथ्यों के आधार पर उल्लेख किया है कि 8 मई 1953 को डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने कश्मीरयात्रा के लिए विदा देने आए जनसमूह सहित पत्रकारों से कहा था-‘‘जवाहरलाल नेहरू ने बार-बार यह घोषणा की है कि भारत में जम्मू और कश्मीर का विलय शत-प्रतिशत पूरा हो चुका है, फिर भी यह अद्भुत बात है कि कोई भारतीय नागरिक भारत सरकार से अनुमति लिए बिना भारत के राज्य में प्रवेश नहीं कर सकता। यह अनुमति कम्युनिस्टों को भी मिली है जो राज्य में अपना वही विघटनकारी खेल खेल रहे हैं। किन्तु उन लोगों को जाने की अनुमति नहीं है जो भारतीय हैं और राष्ट्रीयता की दृष्टि से सोचते और करते हैं। .... मैं नहीं सोचता कि भारत सरकार को मुझे भारतीय यूनियन के किसी भी हिस्से में जिसमें स्वयं पं. नेहरू के अनुसार जम्मू और कश्मीर भी शामिल है, जाने से रोकने का कोई अधिकार है। वैसे अगर कोई कानून के प्रतिकूल आचरण करता है तो उसे इसके परिणाम अवश्य भुगतने होंगे।’’ उस दिन पं. श्यामा प्रसाद मुखर्जी दिल्ली से अम्बाला जाने के लिए रेलवे स्टेशन पहुंचे। दिल्ली रेलवे स्टेशन पर उन्हें विदाई देने के लिए भारतीय जनसंघ, हिन्दू महासभा, आर्य समाज तथा अन्य संगठनों के हजारों कार्यकर्ता उपस्थित थे। डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के साथ अटल बिहारी वाजपेयी, वैद्य गुरूदत्त, प्रो. बलराज मधोक भी उनके साथ रवाना होने के लिए आ पहुंचे। इस अवसर पर अनेक प्रमुख समाचार पत्रें के प्रतिनिधि वहां उपस्थित थे। उन्होंने यह भी कहा था कि -‘‘ शेख अब्दुल्ला ने पं. नेहरू पर दबाव बना कर राज्य में अलग प्रधान, अलग विधा और अलग निशान का प्रावधान करा लिया है।’’

डॉ. मुखर्जी जम्मू कश्मीर को भारत का पूर्ण अभिन्न अंग बनाना चाहते थे। उस समय जम्मू कश्मीर का अलग झण्डा और अलग संविधान था। वहां का मुख्यमन्त्री (वजीर-ए-आजम) अर्थात् प्रधानमन्त्री कहलाता था। श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने देश की अखण्डता को अक्षुण्ण बनाए रखने का संकल्प लेते हुए घोषणा की - ‘‘स्वतंत्र भारत में सदा एक देश, एक निशान, एक प्रधान ही होगा और हमें अलगाववादी तत्वों को जड़ से उखाड़ फेंकने के लिए कटिबद्ध रहना होगा।’’
धारा 370 के अंतर्गत जम्मू-कश्मीर को विशेषाधिकार दिया गया। अनुच्छेद 35 ए, धारा 370 का ही हिस्सा है। इस धारा के कारण से कोई भी दूसरे राज्य का नागरिक जम्मू-कश्मीर में न तो संपत्ति खरीद सकता है और न ही वहां का स्थायी नागरिक बनकर रह सकता था। इसके अलावा जम्मू-कश्मीर की कोई लड़की किसी बाहर के लड़के से शादी कर ले तो उसके सारे अधिकार खत्म हो जाते थे। साथ ही उसके बच्चों के अधिकार भी खत्म हो जाते हैं। भारत के दूसरे राज्यों के लोग जम्मू-कश्मीर में जमीन नहीं खरीद सकते हैं। यहां के नागरिकों के पास दोहरी नागरिकता होती है। एक नागरिकता जम्मू-कश्मीर की और दूसरी भारत की होती थे। यहां दूसरे राज्य के नागरिक सरकारी नौकरी नहीं कर सकते थे। यहां तक कि सुप्रीमकोर्ट के आदेश भी सीधे वहां प्रभावी नहीं हो सकते थे।
जिस प्रकार नोटबंदी और ट्रिपल तलाक जैसे मामलों में केन्द्र सरकार ने तत्परता दिखाई और कड़ाई से कदम उठाए उसके बाद यह सोच बनना स्वाभाविक था कि उस ऐतिहासिक भूल को भी यह सरकार सुधारने की दिशा में कोई न कोई कठोर कदम उठाएगी जिसे ‘धारा 370’ के रूप में जाना जाता है। स्वयं भाजपा और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की ओर से इस तरह की मांगे समय-समय पर उठती रही हैं। विगत वर्ष यानी 2017 के दिसम्बर माह में शिवसेना के अरविंद सावंत ने कहा कि ‘‘तीन तलाक के खिलाफ विधेयक से समान नागरिक संहिता की दिशा में आगे बढ़ने की उम्मीद पैदा होती है। अगर समान नागरिक संहिता लागू हो गई और कश्मीर से धारा 370 हट गई तो बहुत सारी चीजें ठीक हो जाएंगी।’’
इससे पूर्व दिसम्बर 2013 में राजनाथ सिंह ने कहा था -‘‘संसद में इस बात पर बहस हो कि क्या धारा 370 जम्मू कश्मीर के लिए किसी तरह से फायदेमंद है या वहां के लोगों को राजनीतिक रूप से सशक्त करने का काम करती है? अगर ऐसा नहीं है, तो इसे तुरंत निरस्त कर देना चाहिए।’’

डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी आदि राष्ट्रवादी नेता चाहते थे कि जम्मू-कश्मीर के भारत में विलय के प्रश्न को हल करने का दायित्व सरदार वल्लभ भाई पटेल को सौंपा जाना चाहिए किन्तु जवाहरलाल नेहरू इस पक्ष में नहीं थे। जवाहरलाल नेहरू ने जम्मू-कश्मीर का मामला अपने हाथ में ही रखा। यदि जवाहरलाल नेहरू ने कश्मीर की रियासत को भी वल्लभ भाई के हवाले दिया होता तो कश्मीर की समस्या 21 वीं सदी का मुंह कभी नहीं देख पाती।
एक बड़ी राजनीतिक त्रुटि को सुधारते हुए कश्मीर में शांति स्थापना और वहां के विस्थापित एवं पीड़ित नागरिकों को एक खुशहाल ज़िन्दगी देने के लिए जरूरी था कि कश्मीर को धारा 370 से मुक्त कर के भारत के अन्य राज्यों की भांति आजादी से सांस लेने दिया जाए। कश्मीर के साथ ही लद्दाख को भी ध्यान में रखा जाना एक और महत्वपूर्ण निर्णय है।
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(दैनिक ‘सागर दिनकर’, 07.08.2019)
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Monday, August 5, 2019

कश्मीर... एक सपना आज सच हुआ - डॉ शरद सिंह

 प्रिय मित्रो, दैनिक सागर दिनकर, 17.01.2018 में अपने कॉलम "चर्चा प्लस" में लिखा था...आज उसे पूरा होते देख खुशी हो रही है....
Dr (Miss) Sharad Singh on Article 370 in Column Charcha Plus, Sagar Dinkar, 17.01.2018