Dr (Miss) Sharad Singh |
- डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
धारा 370 एक ऐसा ज्वलंत मुद्दा रहा है जो कई दशकों से प्रतीक्षा कर रहा था सुलझाए जाने का। धारा 370 के हटते ही कश्मीर का देश में विधिवत् सम्मिलन हो सकता था। प्रसन्नता है कि एक बार फिर मोदी सरकार ने अपनी दृढ़ता का परिचय दिया। एक बड़ी राजनीतिक त्रुटि को सुधारते हुए कश्मीर में शांति स्थापना और वहां के विस्थापित एवं पीड़ित नागरिकों को एक खुशहाल ज़िन्दगी देने के लिए जरूरी था कि कश्मीर को धारा 370 से मुक्त कर के भारत के अन्य राज्यों की भांति आजादी से सांस लेने दिया जाए।
सदियों से कश्मीर में रह रहे कश्मीरी पंडितों को 1990 में आतंकवाद की वजह से घाटी छोड़नी पड़ी या उन्हें जबरन निकाल दिया गया। कश्मीरी पंडितों को कश्मीर में बेरहमी से सताया गया। उनकी बेरहमी से हत्याएं की गई। उनकी स्त्रियों, बहनों और बेटियों के साथ दुष्कर्म किया गया। उनकी लड़कियों का जबरन निकाह मुस्लिम युवकों से कराया गया।
कश्मीर के पंडितों को बिना किसी गलती के ही अपने घर से बेघर हो गया। उन्हें शायद अपनी शांतिप्रियता के कारण ही यह दिन देखने पड़ा कि सब कुछ होते हुए भी वे और उनके बच्चे सड़क पर आ गए। राजनेताओं की उपेक्षा ने भी हाशिए पर ला दिया। सदियों से कश्मीर में रह रहे कश्मीरी पंडितों को 1990 में आतंकवाद की वजह से घाटी छोड़नी पड़ी या उन्हें जबरन निकाल दिया गया। कश्मीरी पंडितों को कश्मीर में बेरहमी से सताया गया। उनकी बेरहमी से हत्याएं की गई। उनकी स्त्रियों, बहनों और बेटियों के साथ दुष्कर्म किया गया। उनकी लड़कियों का जबरन निकाह मुस्लिम युवकों से कराया गया। यह अत्याचार कई वर्षो तक चला, लेकिन केंद्र और राज्य सरकारों ने कभी भी उन्हें सुरक्षा प्रदान करने में रुचि नहीं दिखाई। आज भी ये जम्मू और दिल्ली के शरणार्थी शिविरों में बदहाल अवस्था में रह रहे हैं, लेकिन सरकारें इनकी समस्याओं के समाधान के नाम पर चुप्पी साधे बैठी रहीं हैं। 4 जनवरी 1990 को कश्मीर के प्रत्येक हिंदू घर पर एक नोट चिपकाया गया, जिस पर लिखा था- कश्मीर छोड़ के नहीं गए तो मारे जाओगे।
सबसे पहले हिंदू नेता एवं उच्च अधिकारी मारे गए। फिर हिंदुओं की स्त्रियों को उनके परिवार के सामने सामूहिक दुष्कर्म कर जिंदा जला दिया गया या निर्वस्त्र अवस्था में पेड़ से टांग दिया गया। बालकों को पीट-पीट कर मार डाला। कश्मीर से 3.5 लाख हिंदू पलायन कर गए। भारत के विभाजन के तुरंत बाद ही कश्मीर पर पाकिस्तान ने कबाइलियों के साथ मिलकर आक्रमण कर दिया और बेरहमी से कई दिनों तक कश्मीरी पंडितों पर अत्याचार किए गए, क्योंकि पंडित नेहरू ने सेना को आदेश देने में बहुत देर कर दी थी। इस देरी के कारण जहां पकिस्तान ने कश्मीर के एक तिहाई भू-भाग पर कब्जा कर लिया, वहीं उसने कश्मीरी पंडितों का कत्लेआम कर उसे पंडित विहीन कर दिया।
पाकिस्तान समर्थित आतंकियों द्वारा कश्मीर घाटी में बड़े पैमाने पर आतंकी वारदातें की गई। आतंकियों के निशाने पर कश्मीरी पंडित रहे, जिससे उन्हें अपनी पवित्र भूमि से बेदखल होना पड़ा और अब वे अपने ही देश में शरणार्थियों का जीवन जी रहे हैं। पिछले 23 वर्षो से जारी आतंकवाद ने घाटी के मूल निवासी कहे जाने वाले लाखों कश्मीरी पंडितों को निर्वासित जीवन व्यतीत करने पर मजबूर कर दिया है। 24 अक्टूबर, 1947 की बात है, पठान जातियों के कश्मीर पर आक्रमण को पाकिस्तान ने उकसाया, भड़काया और समर्थन दिया। तब तत्कालीन महाराजा हरि सिंह ने भारत से मदद का आग्रह किया। नेशनल कांफ्रेंस (नेकां), जो कश्मीर सबसे बड़ा लोकप्रिय संगठन था व उसके अध्यक्ष शेख अब्दुल्ला थे, ने भी भारत से रक्षा की अपील की। पहले अलगाववादी संगठन ने कश्मीरी पंडितों से केंद्र सरकार के खिलाफ विद्रोह करने के लिए कहा था, लेकिन जब पंडितों ने ऐसा करने से इनकार दिया तो उनका संहार किया जाने लगा। ’जेहाद’ और ’निजामे-मुस्तफा’ के नाम पर बेघर किए गए लाखों कश्मीरी पंडितों के वापस लौटने के सारे रास्ते बंद कर दिए। ऐसे में जातिसंहार और निष्कासन के शिकार कश्मीरी पंडित घाटी में अपने लिए ’होम लैंड’ की निरंतर मांग करते रहे हैं।
मेरा जन्म बुंदेलखंड के एक छोटे से जिला मुख्यालय पन्ना में हुआ था। छः सरकारी मकानों की एक कॉलोनी थी जिसका नाम था हिरणबाग। दरअसल, वह एक बाग था जिसमें राजाशाही के समय हिरण पाले जाते थे। अधिग्रहण के बाद पीडब्ल्यूडी ने वहां छः मकान बनवाए जो मात्र सरकारी शिक्षिकाओं को एलॉट किए जाते थे। मेरी मां डॉ विद्यावती भी शिक्षिका रहीं अतः रीवा से स्थानांतरित होने पर उन्हें भी हिरणबाग में एक मकान एलॉट किया गया। वहीं मेरा जन्म हुआ। हमारे पड़ोस में शिक्षिका राजकुमारी दर रहा करती थीं। गोरी-चिट्टी और कुछ अलग बोली-लहजे वालीं। वे कश्मीरी थीं। जब तक वे हिरणबाग में रहीं तब तक मेरा उनके घर आना-जाना बना रहा। बड़े होने पर किसी चर्चा के दौरान मुझे पता चला था कि वे कश्मीरी विस्थापित पंडित थीं। जिन्हें अपने माता-पिता के साथ सन् 1947 के बाद कश्मीर छोड़ कर भागना पड़ा था और आजीविका उन्हें पन्ना जैसे सुदूर क्षेत्र में ले आई थी।
इसके बाद संयोगवश एक और आत्मीय कश्मीरी पंडित भुवनपति शर्मा से मेरा परिचय हुआ जो सदा के लिए मेरे बड़े भाई बन गए। वे दूरदर्शन में डिप्टी कंट्रोलर (प्रोग्राम) के पद से सेवानिवृत्त हुए और अब अमेरिका के वर्जीनिया राज्य में रह रहे हैं। जब भी उनसे मुलाक़ात होती तो यह सोच कर दुख होता कि यह सहज, शालीन, मिलनसार व्यक्ति भी एक विस्थापित कश्मीरी है। राजनीतिक एवं धार्मिक अंधत्व कितना दुखदाई होता है, इस पीड़ा को मैंने बुंदेलखंड में रहते हुए इन दो व्यक्तियों के जीवन से महसूस किया। कश्मीर का जिक्र आते ही मैंने इन दोनों शख़्सियतों की आंखों में आंसू देखे थे। मात्र मैंने ही नहीं वरन् समूचे बुंदेलखंड ने विस्थापित कश्मीरियों की पीड़ा की आंच को महसूस किया है। आज यह सोच कर ही खुशी हो रही है कि इन दोनों को ही नहीं वरन् प्रत्येक उस कश्मीरी को राहत मिली होगी जो कभी अपनी मातृभूमि कश्मीर लौटने के बारे में सोच भी नहीं पाता रहा होगा।
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