Thursday, November 21, 2019

‘हरे सोने’ की कला में माहिर है बुंदेलखंड - डॉ. शरद सिंह, नवभारत, 21.11.2019 में प्रकाशित

Dr (Miss) Sharad Singh
‘हरे सोने’ की कला में माहिर है बुंदेलखंड
- डॉ. शरद सिंह


( नवभारत, 21.11.2019 में प्रकाशित)

 
बचपन में जब मैं पवन-चकरी यानी पिन-व्हील ले कर दौड़ा करती थी तब मुझे लम्बी डंडी पर लगे रंग-बिरंगे काग़ज़ की सुंदरता लुभाती थी। उस समय इस पर ध्यान नहीं जाता था कि उस पवन-चकरी की वह डंडी हरे सोने की बनी होती थी। बचपन में ढेरों कुल्फियां खाईं। यदि कुल्फी के बीच लगी डंडी मोटी होती थी तो यह सोच कर गुस्सा आता था कि कुल्फीवाले ने इतनी मोटी डंडी का इस्तेमाल क्यों किया? मोटी डंडी होने से कुल्फी की मात्रा कम हो जाती थी, बेशक़ उतनी भी कम नहीं होती थी जितनी कि उन दिनों महसूस होती थी। उस कुल्फी की डंडी भी तो हरे सोने की होती थी। ‘हरा सोना’ अर्थात् बांस।

बुंदेलखंड में बांस एक महत्वपूर्ण वनोपज है। आसानी से उपलब्ध बांस की वजह से बुंदेलखंड में बांस कला फलती-फूलती रही है। आज जब प्लास्टिक से बनी घरेलू वस्तुओं का बोलबाला है, ऐसे समय में भी प्रत्येक मांगलिक कार्यों में बांस से बनी वस्तुओं को ही शुभ माना जाता है। दैनिक जीवन में बांस से बनी टोकरी और सूपा तो बहुप्रचलित है ही। बुंदेलखंड के हाट-बाज़ार में टोकरियां, सूपा और हाथ-पंखों की दूकानें लगती हैं। बांस से कुर्सी, मेज, लैंप आदि आदि अनेक वस्तुएं बनाई और बेंची जाती हैं। बांस से बनी कलात्मक वस्तुओं को घर में सजावटी सामान के रूप में उपयोग में लाया जाता है। घर में बांस से बनी वस्तुओं का इस्तेमाल होते बचपन से देखा है। पहले कोई घर ऐसा नहीं होता था जिसमें बांस की टोकनी, सूपा, पंखा और महिलाओं का बटुआ न हो। बटुए का उपयोग घर से बाहर तो कम होता था लेकिन घर में मेले से खरीद कर लाई गई वस्तु के रूप में महिलाएं बड़े चाव से सहेज कर रखती थीं। पन्ना के ग्रामीण क्षेत्र में चूना, तंबाखू और पान रखने के लिए बनाए जाने वाला बांस से बना बटुआ भी उपयोग में लाते देखा है जो ग्रामीण मजदूर और किसान काम में लाते हैं। 
 Navbharat -  Hare Sone Ki Kala Me Mahir Hai Bundelkhand  - Dr Sharad Singh
      पन्ना और छतरपुर क्षेत्र में वन परिक्षेत्र की बहुलता ने बांस की उपलब्धता को सुनिश्चित कर रखा है। बांस की उपलब्धता के कारण ही बांस से जुड़ा हस्तशिल्प लोकप्रिय रहा है। बांस-कला एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में स्थानांतरित होती रहती है। अपने बड़े-बूढों को देख-देख कर सीखते रहते हैं। चित्रकूट जिले के राजापुर कस्बे के रामनगर ब्लाक बांस की कलात्मक वस्तुएं बनाई जाती हैं। राजापुर के बांस-कला के कलाकार मेवालाल का कहना है कि वे साल भर में बांस के सूप और पंखे ही नहीं बल्कि झोले और टोकरी भी बना लेते हैं। वे बांस का झोला बनाने में पारंगत हैं। वे अपना संस्मरण सुनाते हुए बताते हैं कि ‘‘मैं बस में सफर कर रहा था तो कुछ लोगों के हाथ में मंैने बांस का झोला देखा। तभी से मेरे मन में उस झोले को बनाने के लिए उमंग उठी और मैं भी बांस के झोले बनाने लगा।’’ बांस का एक झोला बनाने में उन्हें लगभग तीन दिन लगते हैं जिसके उन्हें डेढ़-दो सौ रुपए तक मिल जाते हैं।
बांस से अनेक प्रकार के उपयोगी सामान बनाए जाते हैं जिनमें बुंदेलखंड के कलाकार माहिर हैं। यह उनके लिए मात्र कला नहीं वरन् आजीविका भी है। उनके लिए यह ‘हरा सोना’ रोजी-रोटी का जरिया है। लेकिन वनक्षेत्र तेजी से सिकुड़ते जाने के कारण वनोपज के रूप में बांस का उत्पादन भी संकटग्रस्त हो चला है। इसीलिए बांस उत्पादन के लिए नवीनतम उपाय अपनाए जाने पर ध्यान दिया जाने लगा है। बुंदेलखंड में खेतों को खाली छोड़ने के बजाए ‘हरा सोना’ यानी बांस की खेती करके किसान अधिक मुनाफा कमा सकते हैं, यह मानना है कृषि एवं वनोपज वैज्ञानिकों का। एक हेक्टेयर में सिर्फ पांच हजार रुपये निवेश करके बांस को लगाया जा सकता है। यह लगभग 5-6 साल में तैयार हो जाता है। इसके बाद 30 साल तक बांस बढ़ता रहता है। इसीलिए इसे ‘दीर्घकालिक निवेश’ भी माना जाता है। बुंदेलखंड की भूमि के लिए बांस की ‘कटीला’ किस्म उत्तम मानी जाती है। बांस काफी तेजी से बढ़ते है, इसलिए इसको ‘हरा सोना’ भी कहा जाता है। बरसात के सीजन में जुलाई से अगस्त तक इसको लगाया जाता है। पांच से छह साल में बांस तैयार हो जाता है। अक्तूबर से दिसंबर के बीच बांस की कटाई होती है।
बांस की सामग्रियों को दो प्रकार में बांटा सकता है। पहली वे वस्तुएं जिनका दैनिक जीवन में उपयोग होता है और दूसरी वे वस्तुएं जो सजावट के सामान के रूप में जिनकी बिक्री होती है। बुंदेलखंड में बनाए जाने वाले सूपे और टोकरी की मांग दूर-दूर तक रहती है। हाथ के पंखे भी देश के अन्य क्षेत्रों मे बिक्री के लिए भेजे जाते हैं। बांस की वस्तुएं बनाने की लम्बी प्रविधि होती है। पहले सूखे बांस को पानी में डुबो कर रखते हैं। फिर ‘कर्री’ नामक विशेष प्रकार की छुरी से उसे छीला जाता है। उसके बाद इन पट्टियों को पुनः छीलकर और पतला किया जाता है। बांस की पट्टियों से सूपा, झांपी और हाथ-पंखे बनाये जाते हैं। जो मोटी पट्टियां निकालती हैं, उनसे ‘टुकना’, ‘टुकनी’, ‘दौरी’, ‘चोंगरी’, ‘छितका’, ‘पर्रा’ आदि बनाया जाता है। इनका उपयोग अनाज रखने, वनोपज संग्रहण में, बाजार से विभिन्न वस्तुएं लाने-ले जाने के लिए किया जाता है। गोबर या मिटटी से लीपकर बर्तन जैसी बनाई गयी ‘दौरी’, जो प्रायः अनाज रखने के काम आती है। वस्तुएं ऊपर टांगकर रखने के लिए ‘छितका’ बनाया जाता है। झांपी का उपयोग मुर्गे रखने के लिए होता है। वस्तुओं को सुन्दर बनाने के लिए इनकी कुछ पट्टियों और काड़ियों को लाल, पीले और हरे रंग में रंगा जाता है। रंग चढाने के लिए रंग मिले उबले पानी में इन पट्टियों को 2-3 घंटे डुबोकर रखा जाता है। रंगीन और सादी पट्टियों को विशेष ढंग से बुन कर डिज़ाइन बनाई जाती है।
बांस के दरवाजे भी और पार्टीशन भी बनाए जाते हैं। आधुनिक ‘होम डेकोर’ और ‘होटेल डेकोर’ में इनकी बड़ी मांग रहती है। वन विभाग और हस्तशिल्प निगम बांस-शिल्प के अंतर्गत सजावटी वस्तुएं बनाने का प्रशिक्षण भी देते हैं, जिसमें लेटर बॉक्स, टेबल लेम्प, फूलदान, आईने की चैखट, सोफे, टेबल, कुर्सी, झूले आदि बनाना सिखाया जाता है। यहां तक कि बांस से बने हुए महिलाओं के जेवर भी चलन में हैं। यह अच्छी बात है कि केंद्र सरकार ने राष्ट्रीय बांस मिशन शुरू करने के लिए इस बार बजट में 1200 करोड़ रुपये देने का ऐलान किया है। जिससे बांस की खेती करने वालों को बेहतर तकनीकी मदद और बाजार मिल सकेगा और इस ‘हरे सोने’ से जुड़ी हस्तकला को भी बाज़ार मिलता रहेगा।
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